राजस्थान: अपनी ही बिछाई बिसात पर वजूद की मुकम्मल जंग में फंसे दो सियासी महारथी

राजस्थान के दो सबसे बड़े सियासी चेहरे इस चुनाव में दांव पर लगे हुए हैं या फिर इन दोनों ने अपने राजनीतिक करिअर के लिए आपस में मिल कर चुनाव को ही दांव पर लगा दिया है, यह अनसुलझा सवाल हल होने में अब केवल तीन दिन बाकी हैं। पूरे चुनाव के दौरान राजस्थान की सघन यात्रा पर रहे मनदीप पुनिया ने इस सवाल का जवाब खोजने के लिए हर तरह की तीसरी ताकत और उसके प्रतिनिधियों से बात की। चुनाव परिणाम से पहले राजस्थान की भावी चुनावी तस्वीर का जमीन से सीटवार और क्षेत्रवार आकलन

राजस्थान विधानसभा का 3 दिसम्बर को आ रहा चुनाव परिणाम इस सूबे के दो दिग्गज नेताओं का राजनीतिक भविष्य तय करने जा रहा है। दिलचस्प है कि ये दोनों नेता दोनों प्रमुख लेकिन विरोधी दलों के सबसे बड़े चेहरे हैं- अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे! राज्य में 25 नवंबर को हुए मतदान से पहले 3000 किलोमीटर की सड़क यात्रा के दौरान विभिन्न सीटों पर चुनावी समीकरण और सीटों पर मतदान की दर इस बात की ओर इशारा कर रही है कि गहलोत और वसुंधरा यह चुनाव एक साथ मिलकर लड़ रहे हैं- अपने वजूद को बचाने के लिए! सुनने में यह बात चाहे कितनी ही असंभव लगे, लेकिन मतदान के आँकड़े और टिकट बंटवारे की कहानी इसी की तसदीक करते नजर आते हैं।   

वसुंधरा और गहलोत के इस संयुक्त अफ़साने को रचने वाले केन्द्रीय किरदार वे निर्दलीय प्रत्याशी हैं जो ऐतिहासिक रूप से राजस्थान की राजनीति में अहमियत रखते आए हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में ‘अन्य’ कहे जाने वाले निर्दलीय और बाकी राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों को 22 प्रतिशत से अधिक वोट मिले थे। इनमें करीब 10 प्रतिशत निर्दलीय प्रत्याशियों के वोट थे, तो बाकी के 10 प्रतिशत बसपा, सीपीएम, आरएलपी, बीटीपी जैसे राजनीतिक दलों के थे। इससे पांच साल पहले 2013 में निर्दलीय और छोटे दलों की झोली में 21 प्रतिशत से अधिक वोट आए थे और इन्हें 16 सीटें मिली थीं। 2018 में ये सीटें बढ़कर 27 हो गई थीं।

इस संदर्भ में इस बार हुई वोटिंग पर अगर ध्यान दें, तो हम देखते हैं कि जिन सीटों पर मजबूत निर्दलीय उम्मीदवार हैं या मुकाबले छोटे दलों के कारण त्रिकोणीय बन गए थे उन ज्यादातर विधानसभा सीटों पर वोटिंग का प्रतिशत अधिक रहा है। मसलन, कुशलगढ़ में 88.13, पोकरण में 87.79, घाटोल में 85.35, नोहर में 84.27, संगरिया में 83.53, भादरा में 82.47, सादुलशहर में 81.72, सूरतगढ़ में 80.66, शाहपुरा में 83.83, चौमूं में 83.61 , शिव में 83.28, बाड़मेर में 80.88 और बायतू में 83.37 मतदान हुआ है। भीलवाड़ा की मांडल और भरतपुर की नगर (80.08) सीट पर इस बार रिकॉर्ड मतदान हुआ है। इन सभी सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबले हैं। आरएलपी, सीपीएम, बीएसपी, जेजेपी, एएसपी व कई निर्दलीय यहां पर समीकरण बना और बिगाड़ रहे हैं। इन सीटों पर पहली बार इतनी अधिक वोटिंग हुई है।



भाजपा के लिए सवाई माधोपुर, रामगढ़, डीडवाना, शाहपुरा, किशनगढ़, बाड़मेर, खंडेला, लाडपुरा, सूरतगढ़, सुजानगढ़, सीकर, कोटपुतली, जालौर, बस्सी, पुष्कर आदि ऐसी सीटें हैं जिन पर बागी उम्मीदवार भाजपा का खेल बिगाड़ रहे हैं। कांग्रेस में भाजपा के मुकाबले कम बगावत है, लेकिन गहलोत गुट के जिन भी नेताओं को टिकट नहीं मिला है वे सब निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं। शिव/शियो, राजगढ़-लक्ष्मणगढ़, लूणकरनसर, बसेड़ी, अलवर ग्रामीण, पुष्कर, नागौर, धौद, निवाई वे सीटें हैं जहां गहलोत के बागी कांग्रेस का खेल बिगाड़ रहे हैं।  

निर्दलीयों और बागियों के इस खेल के बीच 2021 में सचिन पायलट द्वारा की गई बगावत ध्यान आ रही है जिसमें अन्य कहे जाने वाले इन विधायकों के समर्थन से ही गहलोत अपनी नैया पार ले गए थे। अपनी उस डूबती किश्ती में सहारे के लिए उन्होंने उस समय वसुंधरा का भी धन्यवाद किया था। इस चुनाव में ऐसा लग रहा है कि गहलोत-वसुंधरा इस तरह चुनाव लड़ रहे हैं कि दोनों दलों का केन्द्रीय नेतृत्व मुख्यमंत्री का चुनाव करते वक्त मजबूत स्थिति में न आ जाए और यह चुनाव दोनों का आखिरी चुनाव न बनने पाए।

कहा जा रहा है कि इस चुनाव में अशोक गहलोत और वसुंधरा दोनों ने अपने-अपने प्रत्याशियों को पहले अपनी खुद की पार्टियों से टिकट दिलवाने की कोशिश की है और अगर बात नहीं बनी तो दूसरे दल से टिकट दिलवाने की कोशिश की है। इसकी तसदीक दोनों पार्टियों के वरिष्ठ कार्यकर्ता करते हैं।

राजस्थान की राजनीति को नापने वाले वरिष्ठ पत्रकारों के घेरे में जाकर जब यह शावक रिपोर्टर कहता है कि यह चुनाव अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे का आखिरी चुनाव हो सकता है तो वे सहज ही इस भोलेपन पर हंसने लगते हैं और एक गणित उछालते हुए कहते हैं कि इस चुनाव में भाजपा के बागी करीब 45 और कांग्रेस के बागी करीब 30 सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं। इसके अलावा भारत आदिवासी पार्टी, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) अपने अपने हलकों में मुकाबलों को त्रिकोणीय बना रही हैं। इस तरह राजस्थान में करीब 100 सीटें ऐसी हैं जहां बिल्कुल फंसे हुए त्रिकोणीय मुकाबले हैं। कुल 200 में से आधी सीटों पर फंसे इन त्रिकोणीय मुकाबलों के सूत्रधार अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे हैं।

कांग्रेस की राज्य कमेटी के एक वरिष्ठ नेता ने बताया, “भारत आदिवासी पार्टी, सीपीएम, हनुमान बेनीवाल और भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद, ये चारों ही कांग्रेस से गठबंधन करना चाहते थे। बातचीत फाइनल होने के ऐन मौके पर अशोक गहलोत ऐसा नुक्ता निकालते कि गठबंधन हो ही न सके।

इसी बात की पुष्टि भारत आदिवासी पार्टी के नेता कांति रोत ने की। उन्होंने बताया, “इस समय हम प्रदेश की करीब 25 सीटों को प्रभावित करते हैं और 17 सीटों पर चुनावी मुकाबले में हैं। कांग्रेस से गठबंधन के लिए कई दौर की बातचीत चली, लेकिन आखिर में गहलोत ने गठबंधन के लिए मना कर दिया और हमारे एक प्रतिनिधि को कहा कि सीपी जोशी इस गठबंधन के खिलाफ हैं।



भारत आदिवासी पार्टी का ज्यादा उभार दक्षिणी राजस्थान तक ही सीमित है। भारत आदिवासी पार्टी ने बांसवाड़ा संभाग की 13 विधानसभा सीटों सहित उदयपुर संभाग की तकरीबन 14 यानी कुल 27 आदिवासी मतदाता बहुल सीटों पर प्रत्याशी उतारे हैं। 2018 में उदयपुर संभाग (बांसवाड़ा समेत) में 6 जिलों की 28 सीटें में से 14 सीटें भाजपा, 11 कांग्रेस और 3 अन्य के पास थीं, लेकिन अबकी बार बांसवाड़ा संभाग की सभी सीटों पर मामला त्रिकोणीय है और 5 सीटें आदिवासी पार्टी के खाते में जाती दिख रही हैं, तो उदयपुर जिले में भाजपा बहुत मजबूत स्थिति में है। आदिवासी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन न होने का सीधा नुकसान कांग्रेस को हुआ है और उदयपुर और बांसवाड़ा में न के बराबर सीटें कांग्रेस को मिलेंगी।

उदयपुर, भीलवाड़ा, राजसमंद, प्रतापगढ़ और चितौड़गढ़ जिले मिलकर एक बड़ा सांस्कृतिक क्षेत्र मेवाड़ बनाते हैं, जो कि भाजपा का गढ़ माना जाता है। 2018 में मेवाड़ की 60 सीटों पर 21 कांग्रेस ने जीत हासिल की थी तो भाजपा ने 35 सीटें जीती थीं और अन्य के खाते में चार सीटें गई थीं। इस बार भी इस इलाके में भाजपा मजबूत है, लेकिन कई सीटों पर वसुंधरा गुट के निर्दलीय भी जीतकर आ रहे हैं।

चुनावी कवरेज के दौरान गठबंधन से जुड़ा यही सवाल जब सीपीएम के राज्य सचिव अमराराम से मैंने पूछा, तो उन्होंने सीधा जवाब देने से बचते हुए कहा कि “हम गठबंधन करना चाहते थे, लेकिन किसी ने जब हमसे बात ही नहीं की तो किससे गठबंधन करें।

अमराराम के इस जवाब से मिलता-जुलता और थोड़ा लंबा जवाब राजस्थान की यूथ कांग्रेस के एक कार्यकर्ता ने भी दिया, “सीपीएम ने सीताराम येचुरी और खड़गे जी के मार्फत अशोक गहलोत पर गठबंधन का दबाव डलवाया था। इस दबाव में गहलोत ने अमराराम को जयपुर बुलवा लिया। अमराराम मिलने की जगह पर पहुंचकर बैठे रहे, लेकिन गहलोत नहीं आए। गहलोत सीपीएम से सिर्फ तीन सीटें लड़ाना चाहते थे जिनमें धोद, डूंगरगढ़ और भादरा सीटें थीं, लेकिन अमराराम पांच सीटें मांग रहे थे। वे अपने लिए दांतारामगढ़ और रायसिंह नगर से श्योपत सिंह मेघवाल के लिए टिकट चाह रहे थे। गहलोत ने बिना बातचीत किए ही इस गठबंधन को सिरे नहीं चढ़ने दिया।

शेखावटी क्षेत्र में कांग्रेस की मजबूत स्थिति मानी जाती है। पिछले साल शेखावटी की 21 सीटों में से 15 सीटें कांग्रेस के पास थीं जिसका एक कारण जाट और मुस्लिम वोटर के गठजोड़ को माना जाता है। अगर कांग्रेस इस बार सीपीएम से गठबंधन कर लेती तो क्लीन स्वीप की स्थिति में आ सकती थी, लेकिन यहां पर भी गठबंधन नहीं हो सका।

इसी तरह बीकानेर संभाग के चारों जिलों की 23 सीटों (1 सीट पर चुनाव नहीं हो रहा) में से 11 सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबले हैं। 2018 में 24 सीटों में से 11 सीटें कांग्रेस, 10 सीटें भाजपा, 2 सीपीएम और 1 निर्दलीय के पास थीं। इस बार अगर सीपीएम के साथ गठबंधन होता तो करीब 15-16 सीटें कांग्रेस जीत सकती थी, लेकिन अबकी बार दोबारा 10-11 सीटों पर ही कांग्रेस की सुई अटक जाएगी।

सरदारशहर में निर्दलीय राजकरण चौधरी, बीकानेर के लूणकरणसर में निर्दलीय वीरेन्द्र बेनीवाल, श्रीडूंगरगढ़ में सीपीएम के गिरधारीलाल महिया, कोलायत में रालोपा के रेवतराम पंवार, हनुमानगढ़ जिले की भादरा में सीपीएम के बलवान पूनिया, हनुमानगढ़ में निर्दलीय गणेशराज बंसल, संगरिया में निर्दलीय गुलाब सींवर एवं डॉ. परम नवदीप, गंगागनर में निर्दलीय करुणा चांडक, सादुलशहर में निर्दलीय ओम बिश्नोई, रायसिंहनगर में सीपीएम के श्योपतराम के कारण कांग्रेस की स्थिति कमजोर है। ये वे सीटें हैं जिन्हें कांग्रेस थोड़ी सी सतर्कता और गठबंधन कर जीत सकती थी।



सीपीएम और आदिवासी पार्टी की तरह आरएलपी भी अपने गढ़ मारवाड़ में काफी मजबूती से लड़ती हुई नजर आ रही है। 2018 में मारवाड़ की 61 सीटों में से 29 पर कांग्रेस, 24 पर भाजपा और 8 सीटों पर तीसरे धड़े ने जीत दर्ज की थी। यह वह क्षेत्र है जहां से अशोक गहलोत खुद आते हैं। डॉ. ज्योति मिर्धा के भाजपा में जाने के बाद लगभग यह तय हो गया था कि हनुमान बेनीवाल का कांग्रेस से गठबंधन हो जाएगा। कई लोग इसके प्रयास में लगे हुए थे।

राजस्थान के वरिष्ठ पत्रकार एके चौधरी ने बताया, “हनुमान बेनीवाल सिर्फ उन सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं जिन पर गजेन्द्र शेखावत, गोविंद डोटासरा और राजेंद्र राठौड़ गुट के टिकटधारियों को नुकसान हो। वह अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे दोनों से मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। मारवाड़ में गहलोत के दो विरोधी बायतु से हरीश चौधरी और ओशियां से दिव्या मदेरना को हराने के लिए भी हनुमान जबरदस्त मेहनत कर रहे हैं।

अबकी बार पूर्वी राजस्थान में भी कांग्रेस के लिए 2018 वाली स्थिति नहीं है। चौधरी ने बताया, “कम से कम 12 से 13 सीटें भाजपा के खाते में जा रही हैं, पिछली बार सिर्फ एक मिली थी। इसका कारण कहीं न कहीं गहलोत द्वारा इस इलाके की अनदेखी करना भी है।



गहलोत के उलट सचिन पायलट ने पिछली बार अपने क्षेत्र पूर्वी राजस्थान में 39 सीटों में 36 सीटें जिताकर अपनी दावेदारी मजबूत की थी। पत्रकार महेश चौधरी कहते हैं, “2018 में गुर्जर समाज ने सचिन पायलट में सीएम के रूप में देखा था इसलिए एकमुश्त वोट किए थे, लेकिन इस बार स्थिति वैसी नहीं है। भाजपा सबसे अधिक चोट भी पूर्वी राजस्थान में ही कांग्रेस को देना चाहती है। पूर्वी राजस्थान के दौसा, करौली, धौलपुर, सवाई माधोपुर, अलवर और भरतपुर गुर्जर बहुल क्षेत्र हैं और यहां हार जीत में गुर्जर निर्णायक भूमिका निभाते हैं।

कहा जा रहा है कि इस चुनाव में अशोक गहलोत और वसुंधरा दोनों ने अपने-अपने प्रत्याशियों को पहले अपनी खुद की पार्टियों से टिकट दिलवाने की कोशिश की है और अगर बात नहीं बनी तो दूसरे दल से टिकट दिलवाने की कोशिश की है। भाजपा की राष्ट्रीय कमेटी के एक नेता ने बताया, “खेतड़ी सीट से वसुंधरा राजे मनीषा गुर्जर के लिए टिकट मांग रही थीं। जब भाजपा ने मनीषा को टिकट नहीं दिया तो वसुंधरा ने उन्हें गहलोत के पास भेज दिया और गहलोत ने कांग्रेस से उनका टिकट करवा दिया। इसी तरह खंडेला में वसुंधरा के समर्थक बंशीधर बाजिया का टिकट कटने पर वह निर्दलीय के बतौर मैदान में हैं क्योंकि गजेन्द्र शेखावत के कहने पर इस सीट पर भाजपा ने पायलट गुट के नेता सुभाष मील को टिकट दिया है।

हम कांग्रेस के जिन भी बड़े नेताओं की विधानसभाओं में गए उन सभी के मुख्य कार्यकर्ताओं ने यह कहा कि अशोक गहलोत उनको हरवाने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे ही भाजपा के राजेन्द्र राठौड़ की टीम भी वसुंधरा पर लगातार यह आरोप लगा रही है कि तारानगर में वसुंधरा गुट कांग्रेस को समर्थन कर रहा है।

भाजपा द्वारा जारी की गई उम्मीदवारों की शुरुआती सूचियों में जब वसुंधरा राजे के समर्थकों को टिकट नहीं मिले, उसी समय उनकी बगावत देखने को मिल गई थी।

जब मैं भाजपा के आखिरी मुस्लिम उम्मीदवार रहे युनूस खान से मिला तो उन्होंने भी खुद को वसुंधरा गुट का होने के कारण टिकट न मिलने की बात कही और उनकी टीम के कई लोगों ने कहा कि मैडम का पूरा इशारा है और वे चुनाव जीत रहे हैं। बाड़मेर से वसुंधरा के खेमे की रही प्रियंका चौधरी का यह कहकर टिकट काट दिया गया कि वह सत्यपाल मलिक की करीबी हैं, तो शिव से रवीन्द्र भाटी का टिकट कटवाने में गजेन्द्र शेखावत का नाम सामने आता है।

वसुंधरा के नजदीकी सात बार के विधायक और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष कैलाश मेघवाल,  झुंझुनूं से पिछला चुनाव भाजपा के टिकट पर लड़े राजेन्द्र भाम्बू, चित्तौड़गढ़ विधायक चंद्रभान सिंह आक्या, बाड़मेर से प्रियंका चौधरी, डीडवाना से यूनुस खान, खंडेला से राजे सरकार में मंत्री रहे बंशीधर बाजिया, लाडपुरा से भवानी सिंह राजावत, सांचौर से जीवाराम चौधरी और बस्सी से जितेंद्र मीणा निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं और इन सभी की अपनी-अपनी विधानसभा में अच्छी स्थिति है। इसी तरह वसुंधरा गुट के बांसुर से रोहितास शर्मा आजाद समाज पार्टी से लड़ रहे हैं, वह भी अच्छी स्थिति में हैं।

इनके साथ आशु सिंह सुरपुरा, राजेन्द्र भादू, मुकेश गोयल, राजेन्द्र नायक, ताराचंद धायल, आशा मीणा, गुलाब सिंवर, विजय कुमार मीणा, जसवीर सिंह खरवा, इन्द्र सिंह, अशोक कोठारी, ज्ञानचंद सारस्वत, हिम्मत सिंह राजपुरोहित, प्रभुदयाल सारस्वत, पवनी मेघवाल, रामचन्द्र सुनेरीवाल, रितु बनावत, रुपेश शर्मा, मधुसूदन भिंडा, योगी लक्ष्मण नाथ भी वसुंधरा गुट के नेता माने जाते हैं और बागी होकर चुनाव लड़ अपनी-अपनी विधानसभाओं में मुकाबले को त्रिकोणीय बनाकर भाजपा प्रत्याशियों को मुश्किल में डाल रहे हैं।



खुद वसुंधरा राजे अपने गृह क्षेत्र झालावाड़-बारां में मजबूत स्थिति में हैं। उनके बेटे दुष्यंत सिंह वहां से सांसद हैं और वहीं पर रहकर उनके लिए काम कर रहे हैं।

पिछले दिनों फॉलोअप स्टोरीज पर छपी एक रपट इस बात की तसदीक करती है कि वसुंधरा राजे को संघ परिवार और भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व अलग-थलग करना चाहता है, लेकिन आंकड़ों की माने तो तकरीबन 70 से 75 उम्मीदवार ऐसे हैं जिनको वसुंधरा का करीबी माना जाता है। पत्रकार एके चौधरी कहते हैं, “वसुंधरा ने राज्य में पिछले कुछ महीनों में भाजपा के हर उस नेता से संपर्क करने की कोशिश की है जो गजेन्द्र शेखावत और राजेन्द्र राठौर से नाखुश हैं। उन्होंने राजस्थान भाजपा के पूर्व अध्यक्ष सतीश पूनिया को भी अपने खेमे में कर लिया है और वे इन दिनों उनकी तारीफ भी कर रहे हैं।

सब कुछ हालांकि इतना सीधा और सरल भी नहीं है। एके चौधरी ने बताया कि करीब 10 से 15 सीटें ऐसी भी हैं जहां भाजपा और कांग्रेस दोनों के बागी चुनाव मैदान में हैं, जैसे सवाई माधोपुर, शिव, लूणकरणसर, संगरिया, किशनगढ़, जालोर, राजगढ़-लक्ष्मणगढ़।

मेवात और पूर्वी राजस्थान के इलाकों में भाजपा और कांग्रेस से टिकट कटने पर बसपा से टिकट लाने का रिवाज रहा है, तो अब मारवाड़ में ऐसे उम्मीदवारों की आरएलपी से उम्मीद बंधने लगी है। कहीं न कहीं बसपा से टिकट की आस देखने वाले उम्मीदवारों के लिए अब आजाद समाज पार्टी भी एक नए विकल्प के तौर पर उभर रही है।

इस चुनाव में हरियाणा की पार्टी जननायक जनता पार्टी (जजपा) भी चुनाव लड़ रही है और करीब 25 सीटों पर उसने अपने उम्मीदवार उतारे हैं। जीत-हार से परे, जजपा की राजस्थान में एंट्री ही अपने आप में जात वोटों को प्रभावित करने के लिहाज से बहुत अहमियत रखती है।

राजस्थान की जाट राजनीति को समझने वाले गुरप्रीत संघा ने बताया, “जेजेपी को राजस्थान में जाटों के वोट कांग्रेस में जाने से रोकने के लिए लाया गया है और जेजेपी ने भी उन्हीं जगहों पर टिकटें बांटी हैं जो पंजाब और हरियाणा के बॉर्डर से लगने के कारण किसान आंदोलन के असर में थे और इसी असर के कारण जाट एंटी-भाजपा वोट डालने वाले थे। यह इसलिए किया गया है ताकि उन सीटों पर जाटों के वोट बंट जाएं और भाजपा को इसका फायदा हो। हालांकि कोई एकाध सीट ऐसी होगी जहां यह पार्टी दस हजार का आंकड़ा भी पार कर पाए।

कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि 3 दिसम्बर को आने वाले नतीजे अप्रत्याशित होंगे। लंबे समय से सियासी गलियारों में अटकलें लगाई जा रही हैं कि वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत साथ आ सकते हैं। चुनावी राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता। जैसी चुनावी बिसात सूबे के इन दोनों वरिष्ठतम नेताओं ने मिल कर बिछाई है, नतीजे अगर उसके अनुरूप रहे तो अटकलों के साकार होने में वक्त नहीं लगेगा।


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