राजस्थान के विधानसभा चुनाव की सबसे बड़ी पहेली मतदान से तीन दिन पहले और उलझ गई है। बारां की एक चुनावी जनसभा में पहली बार पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मंच पर देखा गया। इस बार भारतीय जनता पार्टी घोषित रूप से मुख्यमंत्री के चेहरे के बगैर चुनाव लड़ रही है। इसके बावजूद वसुंधरा के साथ आखिरी पल में मोदी का दिखना और दोनों के बीच सकारात्मक रिश्ता राजस्थान की सियासत के जानकारों को चौंका गया है। इसके तत्काल दो अर्थ निकाले जा रहे हैं।
पहला, कि टिकट वितरण की प्रक्रिया में दूसरी और तीसरी सूची के बाद वसुंधरा राजे मजबूत होकर उभरी हैं जबकि भाजपा ने उन्हें अघोषित रूप से प्रोजेक्ट करने में देरी कर दी है। दूसरा अर्थ यह निकाला जा रहा है कि भाजपा आखिरी चरण में वसुंधरा के चेहरे का केवल इस्तेमाल कर रही है और सत्ता में आने पर उन्हें अंतत: दरकिनार कर दिया जाएगा। इन दो अर्थों में से किसी पर भी बात तब संभव है जब यह मानकर चला जाय कि भाजपा के राजस्थान में चुनाव जीतने के आसार हैं। फिलहाल जैसा चौतरफा प्रचार और माहौल है, इसकी संभावना कम बताई जा रही है। बावजूद इसके, भाजपा के राजस्थान में जीतने की गुंजाइश यदि कुछ भी है, तो वह एक ओर मोदी तो दूसरी ओर वसुंधरा के बीच अदृश्य है। इस अदृश्य स्पेस में जो ताकत काम कर रही है- आरएसएस- राहुल गांधी उसका नाम अपने हर एक भाषण में ले रहे हैं लेकिन मीडिया में उसकी कहीं कोई चर्चा नहीं है। यह भाजपा पोषित मीडिया की चतुराई है या नादानी, कह पाना मुश्किल है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ- नरेंद्र मोदी जिसके नंबर एक प्रचारक हैं और वसुंधरा जिसकी राह में बीस साल से कांटा बनी हुई हैं- राजस्थान में फिलहाल पीढ़ी परिवर्तन और संक्रमण के गंभीर दौर से गुजर रहा है। सूबे के नए-पुराने संघ प्रचारकों से बातचीत में हर ओर इस बात की टीस महसूस होती है कि आरएसएस को सत्ता के लिए अपने वैचारिक मूल्यों से समझौता करने की नौबत आ चुकी है और हकीकत यही है कि सत्ता के बगैर लक्ष्य को प्राप्त करना मुश्किल है। इस हकीकत को पचाने में संघ के लोगों को यहां बहुत वक्त लग गया है, लेकिन इस बार वे ‘साम, दाम, दंड, भेद’, किसी भी तरीके से भाजपा को सत्ता में वापस लाने में जुटे हुए हैं- लेकिन वसुंधरा का नाम लिए बगैर!
संघ की बिसात
राजस्थान के चुनाव में संघ इस बार जितना सक्रिय है, पिछले बीस साल में उतना सक्रिय नहीं दिखा। संघ के भीतर शीर्ष स्तर पर चुनाव की तैयारी सितंबर में बाकायदा शुरू हो चुकी थी, जब इस सिलसिले में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का जयपुर का एक दौरा प्रस्तावित था लेकिन संसद के विशेष सत्र के कारण वे वहां नहीं जा पाए थे। इस चक्कर में उनसे मिलने प्रकाश चंद्र को दिल्ली आना पड़ा।
प्रकाश चंद्र आरएसएस से संबद्ध संगठन लघु उद्योग भारती के सचिव हैं। उससे पहले वे राजस्थान में भाजपा के संगठन महामंत्री रह चुके थे और 2008 में जब वसुंधरा राजे से असंतुष्ट होकर संघ के पदाधिकारियों ने सरकार की इकाइयों से इस्तीफा दे डाला था, तो उसमें प्रकाश चंद्र का नाम सबसे ऊपर था। प्रकाश चंद्र दो-तीन दिल्ली में टिके रहे थे।
इस प्रवास के दौरान क्या फैसले लिए गए और उन्हें क्या अहम जिम्मेदारी दी गई यह तो स्पष्ट नहीं है, लेकिन उनकी वापसी के बाद 25 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली चुनावी सभा जयपुर में हुई थी। इसके बाद 2 अक्टूबर को चित्तौड़गढ़ और 5 अक्टूबर को जोधपुर में प्रधानमंत्री की सभाएं हुईं। चित्तौड़गढ़ भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी का संसदीय क्षेत्र है जबकि मारवाड़ का केंद्र जोधपुर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का गृहक्षेत्र है। इस लिहाज से तीनों सभाएं राजनीतिक और चुनावी रूप से अहम क्षेत्रों में रखी गई थीं। माना जाता है कि प्रधानमंत्री की इन सभाओं की योजना दिल्ली में ही बनी थी और इस समूची प्रक्रिया से वसुंधरा राजे को अलग रखा गया था।
दरअसल, 2003 से लेकर अब तक पार्टी में प्रदेश स्तर पर वसुंधरा राजे के वर्चस्व के चलते संघ स्वतंत्र ढंग से काम नहीं कर पा रहा था। इस बार यह जकड़न संघ ने तोड़ी है। इसका सबसे पहला संकेत इस तथ्य में मिलता है कि राजस्थान से भाजपा ने किसी भी मुसलमान प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया है। नागौर के एक पुराने प्रचारक इस बात से हालांकि बहुत संतुष्ट नहीं दिखते, फिर भी उनका पूरा परिवार जी जान से प्रचार में जुटा हुआ है। वे कहते हैं कि चुनाव जीतने के लिए सबको साथ लेकर चलना पड़ता है, लेकिन इस बार मुसलमानों को साइडलाइन कर के पार्टी ने जोखिम मोल लिया है।
इस जोखिम को जयपुर में रहने वाले नागौर के एक वरिष्ठ पत्रकार बाकायदा संघ की वैचारिकी के अनुकूल मानते हैं। वे वसुंधरा राजे (और इसके बहाने कुछ वरिष्ठ मुस्लिम चेहरों को) को साइडलाइन करने की बात को संघ की नस्ली राजनीति तक ले जाते हैं। उनके मुताबिक महाराष्ट्र का ‘शिंदे’ और ‘सिंधिया’ चूंकि एक ही हैं, तो संघ कभी नहीं चाहेगा कि हिंदू राष्ट्र की भावी परियोजना में इनका वर्चस्व हो। यह बात एकबारगी चौंकाती है, हालांकि जोधपुर में संघ के एक युवा प्रचारक इतिहास की याद दिलाते हैं कि बाजीराव पेशवा की ‘चप्पल उठाने वाले’ शिंदे हुआ करते थे।
शिंदे, सिंधिया और संघ
दिलचस्प बात है कि आजादी के बाद से तीन ऐसे मौके रहे हैं जब महाराष्ट्र के शिंदे या (उसका अंग्रेजी संस्करण) सिंधिया ने आरएसएस के हित में अपने-अपने दलों से विश्वासघात किया।
सबसे पुराना उदाहरण विजया राजे सिंधिया का है, जब 1967 में कांग्रेसी विधायक रहते हुए उन्होंने कांग्रेस छोड़ की स्वतंत्र पार्टी का दामन थाम लिया था और उसके टिकट पर गुना से चुनाव जीती थीं। बाद में वे जनसंघ के साथ चली गई थीं। वही जनसंघ आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी बनी। इसके बाद दो हालिया उदाहरण मध्यप्रदेश से ज्योतिरादित्य सिंधिया और महाराष्ट्र से एकनाथ शिंदे के हैं।
इन तीनों उदाहरणों में एक बात समान है कि शिंदे हों या सिंधिया, इन्होंने संघ की सत्ता में वापसी के लिए कांग्रेस के साथ विश्वासघात किया। सिंधिया खानदान में वसुंधरा राजे इकलौती हैं जो लगातार भाजपा के साथ हैं, मुख्यमंत्री भी रह चुकी हैं लेकिन संघ के साथ उनका टकराव चलता रहा है। पुराने पैटर्न को देखें तो कह सकते हैं कि संघ ने लगातार शिंदे या सिंधिया का राजनीतिक रूप से इस्तेमाल किया है। इसलिए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वसुंधरा के साथ भी यह खतरा लगा हुआ है।
वसुंधरा को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर प्रचार क्यों नहीं किया गया, नागौर के एक वरिष्ठ प्रचारक नृत्यगोपाल मित्तल बड़ी सफाई से इस राजनीति को समझाते हैं। वे कहते हैं कि पिछली बार कांग्रेस ने मुख्यमंत्री के चेहरे पर सोशल इंजीनियरिंग की थी- ‘’उसके कई उम्मीदवार मुख्यमंत्री की दौड़ में थे- सीपी जोशी, सचिन पायलट, अशोक गहलोत, प्रतापसिंह खाचरियावास। कांग्रेस ने सबको कहा कि आप तोड़ो, जो तोडेगा उसको मुख्यमंत्री बना सकते हैं। सब जातियों ने उसके लिए मेहनत की। इस बार क्या है? कुर्सी मुझे छोड़ने नहीं देती! सबको पता है कि सचिन ने मेहनत की थी, अशोक ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर के कुर्सी हासिल कर ली। सबको पता है।‘’
इसके बाद वे भाजपा की रणनीति पर आते हैं- ‘’इस बार बीजेपी ने जो गेम खेला है वो है सीएम फेस पर सारे जातियों के बड़े-बड़े नेता लगा दिए। आप देखिए, राजपूत समुदाय- ऊपर से चलेंगे तो दीया कुमारी, गजेंद्र सिंह शेखावत, राजेंद्र राठौड़, बाकी राजघराने सारे, वसुंधरा राजे इंक्लूडेड। ये सारे चेहरे राजपूत समाज के कद्दावर नेता हैं और सीएम के चेहरे हैं। पिछली बार राजपूत समुदाय आनंदपाल प्रकरण के चक्कर में आपस में लड़ गई। आनंदपाल को जो वसुंधरा राजे की सरकार ने मरवाया था उसके चक्कर में पूरा राजपूत समाज बीजेपी के खिलाफ हो गया था। उसका खमियाजा ये रहा कि आपस में लड़ने से बीजेपी हार गई। इस बार आप देखना कि जितने भी राजपूत इंडिपेंडेंट लड़ रहे हैं सारे के सारे बीजेपी को सपोर्ट करेंगे।‘’
आगे वे और जातियों के सीएम चेहरे गिनवाते हैं, ‘’जाटों पर आ जाइए, सारे के सारे कद्दावर नेता, सतीश पूनिया को ले लो, ज्योति मिर्धा है, सीआर चौधरी, सारे बड़े जाट नेता आज बीजेपी में हैं। बिश्नोई समाज को ले लो। कुलदीप बिश्नोई यहां लीड कर रहा है। जोशी समाज से सीपी जोशी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया। घनश्याम तिवाड़ी को ले लो। मेघवाल से अर्जुन मेघवाल जी हैं। वणिक समुदाय के सारे चेहरे अपने साथ हैं। मीणा में किरोणीलाल हैं। गुर्जरों में से साध रखा है। इस बार 80 परसेंट गुर्जर बीजेपी के साथ हैं। सचिन ने गुर्जरों से साफ इशारा कर दिया है कि आप मेरे भरोसे मत रहना, मेरा कोई भरोसा नहीं है, अशोक गहलोत को निपटाना है। समाज ने भी तो देख लिया कि उसके साथ क्या हुआ है। उसकी भी मजबूरी है, क्या करेगा!”
मित्तल कहते हैं कि ये जो समीकरण बन रहे हैं, वही संघ की नई सोशल इंजीनियरिंग है जिसमें मुख्यमंत्री का पद चाहने वाला हर नेता अपनी जाति को भाजपा के साथ जोड़ने की मेहनत कर रहा है। इस ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के भीतर वसुंधरा राजे ‘इंक्लूडेड’ हैं, विशिष्ट नहीं।
‘कम्प्रोमाइज’ की रणनीति
राजस्थान में संघ के कार्यकर्ताओं के बीच चुनावी रणनीति को लेकर तो कोई संदेह नहीं है, लेकिन सैद्धांतिक सवालों पर बातचीत में वे थोड़ा संकोच में आ जाते हैं। आज चालीस-पचास की उम्र पर खड़े संघ के प्रचारक कहते हैं कि नए प्रयोगों को स्वीकार करने में उन्हें थोड़ी हिचक होती है। मसलन, दूसरी पार्टी के लोगों को अपने यहां स्वीकार कर लेना या उसे चुनाव लड़ाना एक मुद्दा है जिस पर असहमति रहती है।
एक वरिष्ठ प्रचारक नाम न छापने की शर्त पर समझाते हैं, ‘’आप देखेंगे कि बहुत बड़ा मुस्लिम और दलित वोटबैंक भाजपा के साथ नहीं है। पूरे देश में भाजपा का 23-24 परसेंट वोटबैंक है। आने वाले समय में जो आबादी बढ़ेगी, विरोधी लोगों के षडयंत्र बढ़ेंगे, उसमें यदि 23-24 से चालीस परसेंट पर हम आने की सोचें तो पचास साल लग जाएंगे। तब तक इस देश का पता नहीं क्या हो चुका होगा। संघ ने जो एजेंडा सोच रखा है, उसे लागू करने के लिए उसे कम समय में परसेंटेज बढ़ाना पड़ेगा, तभी सत्ता में रह सकेंगे। वरना प्रिंसिपल पर अड़े रहे तो टारगेट से चूक जाएंगे। आप सोचो, आज कांग्रेस हिंदुत्व के मुद्दे पर क्यों आई है? इसलिए आज बीजेपी जो कर रही है उसके पीछे सबसे बड़ा कारण 23-24 परसेंट को 40 परसेंट पर लाना है।‘’
वे बंगाल का उदाहरण देते हैं जहां कितनी ही सीटें दो से चार हजार के मार्जिन से भाजपा हारी है। इसी तरह पिछली बार राजस्थान में करीब डेढ़ लाख वोट से भाजपा हारी थी। वे कहते हैं, ‘’शिवाजी ने भी तो यही किया था। चाणक्य ने क्या कहा था? सामने वाले खेमे में से लोगों को उठा के लाना, जो खेल आज अमित शाह कर रहा है, यहां जनता को ये समझना पड़ेगा कि अगर आपको बड़ा लक्ष्य अर्जित करना है तो कई जगह कम्प्रोमाइज करना पड़ेगा। भाई, बीजेपी वाले जब तक पीडीपी से गठबंधन नहीं करते कश्मीर का स्ट्रेटेजिक प्लान आता कहां से?’’
सिद्धांत के बरअक्स रणनीति का यह सवाल पुराने संघ प्रचारकों को न केवल लगातार समझाने की कोशिश हो रही है, बल्कि इसे समानांतर लागू करने के लिए भाजपा के संसाधनों का भी इस्तेमाल हो रहा है। मित्तल कहते हैं कि ‘’पार्टी के शीर्ष नेतृत्व पर भरोसा है कि रणनीति बदलने के बावजूद वैचारिक रूप से वे समझौता नहीं करेंगे।‘’
मित्तल ‘’नागौर की प्रयोगशाला’’ से संघ की राजनीति को समझाते हैं, ‘’हम हबीब से लड़े चुनाव, फिर हबीब के साथ रहे, अब वापस हबीब के विरोध में खड़े हैं। हनुमान (बेनीवाल) से लड़े चुनाव, उसे साथ रखा, उसकी प्रतिष्ठा में वृद्धि की, अब हनुमान के खिलाफ खड़े हैं। ज्योति (मिर्धा) के खिलाफ चुनाव लड़े, अब ज्योति को साथ लाए, ज्योति की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई, अब भगवान चाहेगा तो चुनाव जीतेंगे या कौन जाने आगे क्या होगा। हां, व्यक्तिगत अहंकार किसी में आ गया तो उसका पतन होना तय है। आज हनुमान बेनीवाल जो फर्श से अर्श पर गया है, वो ये समझ नहीं पाया। वरना आज ये राजस्थान का हीरो होता, कोई बड़ी बात नहीं है सीएम या डिप्टी सीएम भी होता। आप उठाकर देख लीजिए कि मोदी को जिसने भी सहयोग किया है मोदी ने उसको ईनाम दिया है।‘’
अमानत में खयानत
सवाल उठता है कि मोदी का ईनाम राजस्थान में किसे मिलेगा? यह सवाल इतना आसान नहीं है क्योंकि इस बार किसी एक चेहरे को केंद्र में रखकर भाजपा ने चुनाव नहीं लड़ा है।
इसके अलावा, चुनाव के बाद सर्वसम्मति से एक नेता के चयन का बहुत सारा दारोमदार निर्दलीयों की जीत के ऊपर है जिनका भाव सट्टा बाजार में ऊंचा चल रहा है। माना जा रहा है कि बीस से ज्यादा निर्दलीय इस बार चुनाव जीतकर आ सकते हैं और अमानत में खयानत का काम कर सकते हैं। दिलचस्प यह भी है कि फलौदी के सट्टा बाजार की हलचलों और संघ के गलियारों में चल रही अटकलबाजी के बीच एक स्तर की समानता देखने को मिलती है।
बहरहाल, राजस्थान में भाजपा और कांग्रेस को मिलाकर कम से कम 30 सीटों पर बड़े चेहरों ने नामांकन भरा था। नामांकन वापस लेने की तिथि 8 नवंबर को पूरी होने के बाद अंतिम नतीजों को देखने से समझ आता है कि दोनों दलों के शीर्ष नेतृत्व द्वारा मरान मनउवल के बावजूद स्थिति बहुत नहीं बदली है। हालत यह थी कि भाजपा से खुद अमित शाह को जाकर राजस्थान के पूर्व मंत्री राजपाल सिंह शेखावत को नामांकन वापसी के लिए मनाना पड़ा था।
इसके बावजूद राजस्थान में सांचौर, चित्तौड़गढ़, शिव, सूरतगढ़, डीडवाना, बयाना, लाडपुरा, खंडेला, झुंझनू, पिलानी, फतेहपुर, कोटपुतली, बस्सी, शाहपुरा, और अनूपगढ़ में भाजपा का आधिकारिक प्रत्याशी उसके बागी से कड़ी चुनौती से झेल रहा है। ऐसे ही राजस्थान की सरदारशहर, मसूदा, हिंडौन सिटी, मनोहर थाना, बड़ी सादड़ी, नागौर, अजमेर दक्षिण, पुष्कर, नगर, शाहपुरा, सूरसागर, सिवाना, राजगढ़-लक्ष्मणगढ़ की सीटों पर कांग्रेस के आधिकारिक प्रत्याशी के सामने उसके बागी का कड़ा दांव लगा हुआ है।
दो फैक्टर और हैं। जहां-जहां कांग्रेस के बागी निर्दलीय खड़े हैं, वे भाजपा के प्रत्याशी को लाभ पहुंचा रहे हैं लेकिन भाजपा के सूत्रों की मानें तो जहां कहीं भाजपा के बागी निर्दलीय के तौर पर खड़े हैं उनके साथ भाजपा की डील पहले ही हो चुकी है। इस लिहाज से देखें, तो चाहे जितने भी निर्दलीय चुनकर सदन में आएं, धनबल के हिसाब से भी भाजपा का पलड़ा ही भारी दिखता है।
इस मायने में मौजूदा विधानसभा चुनावों को अब तक हुए चुनावों से गुणात्मक तौर पर अलग कहा जा सकता है। राजस्थान में निर्दलीय और बागी प्रत्याशियों की इतनी ज्यादा संख्या कम से कम दो बातों का संकेत देती है। पहली, कि अब पार्टी के साथ वफादारी या अपनी पीठ के पीछे पार्टी की संगठनात्मक ताकत बहुत मायने नहीं रखती है। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि चुनाव लड़ने के तरीके और तकनीकें अब बहुत निजी और आभासी हो चले हैं। पार्टी अगर अपने स्थापित नेता को टिकट नहीं देगी, तो नेता के पास खुद इतने संसाधन हैं कि वह निर्दलीय चुनाव लड़ के जीत ले।
इसे चुनाव में खड़े प्रत्याशियों की प्रोफाइल पर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट में आए आंकड़ों से समझा जा सकता है जिसके अनुसार 13.5 फीसदी प्रत्याशी पांच करोड़ रुपए से ज्यादा संपत्ति के मालिक हैं, करीब 11 फीसदी प्रत्याशियों की संपत्ति दो से पांच करोड़ रुपए के बीच है जबकि पचास लाख से दो करोड़ के बीच के संपत्तिधारक उम्मीदवार 22 फीसदी हैं। इस तरह मोटे तौर से माना जा सकता है कि एक-तिहाई से ज्यादा (35 फीसदी) उम्मीदवार करोड़पति हैं। यह आंकड़ा 2018 में 27 फीसदी था।
दूसरे, जहां तक मतदाता का सवाल है, अगर उसकी वफादारी अपने नेता के प्रति कायम है तो यह नेता के लिए सोने पर सुहागा का काम करती है। राजस्थान के डीडवाना से लोकप्रिय पूर्व मंत्री यूनुस खान, सिवाना से सुनील परिहार (अशोक गहलोत के करीबी जिन्होंने सिवाना में कांग्रेस को अकेले खड़ा किया था) और राजगढ़-लक्ष्मणगढ़ से मौजूदा विधायक जौहरीलाल मीणा का अबकी निर्दलीय खड़ा होना इसकी तसदीक करता है। इसके बावजूद अकेले नेता की लोकप्रियता उसके जीत की गारंटी नहीं देती।
वसुंधरा नहीं तो कौन?
राजस्थान के समाज की एक सच्चाई ये है कि यहां राजपूत को मुख्यमंत्री बनाएं तो जाट नाराज हो जाते हैं और जाट को मुख्यमंत्री बनाया जाए तो सारी जातियां नाराज हो जाती हैं।
इस लिहाज से यहां ब्राह्मण इकलौती जाति है जिसका मुख्यमंत्री सभी बिरादरियों को मोटे तौर पर स्वीकार हो सकता है (यह समीकरण प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सीपी जोशी के हक में जाता है), हालांकि कांग्रेस पार्टी ने ओबीसी के मुद्दे को चुनाव प्रचार के केंद्र में लाकर इसकी संभावनाओं को कम कर दिया है। इसके अलावा, तेलंगाना में अमित शाह का यह ऐलान कि भाजपा किसी ओबीसी को मुख्यमंत्री बनाएगी, हो सकता है राजस्थान में भी परिणाम के बाद कुछ असर दिखाए।
आरएसएस के एक कार्यकर्ता मुख्यमंत्री के सवाल पर कहते हैं, ‘’ये तो मोदी जी ही जानते हैं कि उनके खजाने में क्या है! किसने सोचा था कि यूपी में योगी बाबा आएंगे? आप झारखंड देख लीजिए, हरियाणा देख लीजिए। रघुबर दास या खट्टर को भी कौन जानता था। हो सकता है कि कहीं से कोई ऐसा चेहरा निकल कर आ जाए जिसकी किसी ने कल्पना ही नहीं की हो।‘’
नृत्य गोपाल मित्तल कहते हैं, ‘’जितने भी चेहरे दौड़ में दिख रहे हैं, हो सकता है उनमें से कोई भी न हो। कोई और ही निकल के आए।‘’ संघ के कुछ लोग दबी जुबान में बाबा बालकनाथ का नाम लेते हैं जो तिजारा से चुनाव लड़ रहे हैं और जिनका नामांकन करवाने खुद यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पहुंचे थे। एक राय हालांकि यह भी है कि यादव होने के कारण जाति के समीकरण में बाबा बालकनाथ फिट नहीं बैठते।
उद्योगों की नगरी जोधपुर में कुछ कांग्रेसियों का मानना है कि भाजपा अगर सत्ता में आई तो उसका मुख्यमंत्री कोई ओबीसी ही होगा। कांग्रेस के जिला उप-सचिव और कारोबारी संदीप मेहता संघ के एक बड़े प्रचारक (जो ओबीसी भी हैं) का नाम लेकर उनकी संभावना को प्रबल बताते हैं।
यह तमाम अटकलबाजी इस उम्मीद पर टिकी है कि राजस्थान में भाजपा की सरकार बन सकती है। पिछली बार 2018 के चुनाव में जब भाजपा की स्थिति बहुत खराब बताई जा रही थी तब भी पार्टी 75 सीटें लाने में कामयाब रही थी। इस बार अगर बीसेक निर्दलीय चुनाव जीतकर आ गए और भाजपा ने पिछला प्रदर्शन बरकरार रखा या उससे आगे निकल गई, तो खेल फंस सकता है।
मित्तल कहते हैं, ‘’केवल पांच परसेंट अपने वोट बढ़ाने पर खेल टिका है। पांच अपने बढ़े और पांच उनके कम हुए तो दस परसेंट में भाजपा की सरकार पूर्ण बहुमत से बन जाएगी।‘’
मेहता थोड़ा सावधानी बरतते और हंसते हुए कहते हैं, ‘’कांग्रेस या तो एक सौ साठ या साठ।‘’ इतना लंबा फर्क क्यों? इसके जवाब में मेहता कहते हैं कि ट्रेंड के हिसाब से लोग अब स्प्ष्ट बहुमत की ही सरकार बनाते हैं, फंसाते नहीं- ‘’अगर हमारी योजनाएं मतदाताओं के भेजे में घुसी होंगी तो पूर्ण बहुमत आएगा। अगर नहीं, तो हम चुनाव बुरी तरह हारेंगे।‘’
राजस्थान में पिछले चुनावों की नजीर है कि भाजपा ने जब कभी सरकार बनाई है, उसके और कांग्रेस की सीटों में भारी अंतर रहा है जबकि कांग्रेस ने जब-जब सरकार बनाई है दोनों की सीटों का अंतर कम रहा है। राजस्थान का चुनावी दौरा कर के लौटे पत्रकार मनदीप पूनिया का मानना है कि यह ट्रेंड अबकी टूटेगा और सीटों के कम मार्जिन से सरकार बनेगी, लेकिन जरूरी नहीं कि कांग्रेस की ही बने। उनका कहना है कि कम अंतर की बड़ी वजह इस बार निर्दलीय रहेंगे।
शानिवार 25 नवंबर को मतदान के बाद 3 दिसंबर को मतगणना होनी है और परिणाम आना है। इसके बावजूद राजस्थान का चुनाव अब तक खड़ा नहीं हो सका है। न तो गहलोत सरकार के खिलाफ कोई असंतोष जाहिर है, न ही किसी किस्म का सामाजिक ध्रुवीकरण हो सका है। ऊपर से वसुंधरा राजे और नरेंद्र मोदी एक मंच पर आ चुके हैं। ऐसी शाकाहारी स्थिति में आकलन, अटकलबाजी और सदिच्छा के अलावा इंतजार ही अंतिम रास्ता है।