नाकाम भूमि सुधार के जिम्मेदार जमींदारों की आपसी लड़ाई का नया चेहरा

मौजूदा टकराव पाकिस्तानी शासक वर्ग के धड़ों का आपसी टकराव है जिसमें जनहित के किसी सवाल का जिक्र तक नहीं है। इस स्थिति को पाकिस्तानी सत्ता के ढांचे और उसमें फौज की भूमिका के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझा रहे हैं मुकेश असीम

बीती 9 मई को अल कादिर ट्रस्ट में भ्रष्टाचार के इल्जाम में पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान को नेशनल एकाउंटेबिलिटी ब्यूरो (नैब) के आदेश पर इस्लामाबाद हाइकोर्ट से गिरफ्तार कर लिया गया जब वे वहां एक अन्य मामले में जमानत के लिए पहुंचे थे। एक दिन पहले इमरान खान ने उच्च फौजी अफसर फैसल नसीर के खिलाफ अपनी हत्या की साजिश के गंभीर आरोप लगाए थे। गिरफ्तारी के बाद हुए विरोध प्रदर्शनों में लाहौर के कोर कमांडर निवास सहित फौज को निशाना बनना पड़ा है, किंतु न्‍यायपालिका व सिविल अफसरशाही ही नहीं, फौजी अफसरों का एक हिस्सा भी इमरान के प्रति नरम रुख दिखा रहा है। यह एक नई स्थिति है।

इमरान खान आरंभ में फौज की मदद से ही हुकूमत में आए थे, मगर फौज से रिश्ते खराब होने के बाद उन्होंने लगातार खुद को पीड़ित के रूप में प्रस्तुत कर संपन्न पाकिस्तानी मध्यवर्ग  व पेशेवर बुद्धिजीवी तबके को ही नहीं, बेरोजगारी व महंगाई से त्रस्त गरीब जनता खास तौर पर निराश नौजवानों को भी अपने पक्ष में कर के उग्र भीड़ जुटाने में कामयाबी पाई है। जवाब में शासक पीडीएम गठबंधन, खासकर मौलाना फजलुर्रहमान की जेयूआइ ने सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। दोनों ओर से उत्तेजक भाषणों का सिलसिला जारी है। ऐसा प्रतीत होता है कि पाकिस्तानी शासक तबके व उसके सामाजिक आधार में दोफाड़ हो गया है। दोनों के ही लिए पाकिस्तान का मौजूदा गहन आर्थिक संकट व इससे जनता को होने वाली तकलीफ कोई मुद्दा नहीं है। दोनों ने ही सत्ता में एक दूसरे के साथ क्या-क्या जुल्म किए इसका ही बखान जारी है।

याद रहे कि इमरान खान के सत्ता में आने के बाद नवाज शरीफ के परिवार को भी इसी एकाउंटेबिलिटी ब्यूरो की ओर से गिरफ्तारियों का सामना करना पड़ा था। दोनों ही पक्ष लोकतंत्र व जनवादी अधिकारों की दुहाई दे रहे हैं जबकि सत्ता में रहते हुए दोनों ने ही फौजी व सिविल अफसरशाही तथा न्‍यायपालिका के साथ मिलकर इसी प्रकार अपने विरोधियों का दमन किया है।

पाकिस्तान: क्या सेना ने इस बार इमरान की ताकत भांपने में गलती कर दी है?

अल कादिर ट्रस्ट पर भ्रष्टाचार के आरोप मलिक रियाज नामक पाकिस्तान के जिस सबसे बड़े रियल स्टेट व्यवसायी से संबंधित हैं, अकेले इमरान खान ही नहीं पूरा पाकिस्तानी शासक तबका- इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक इंसाफ (पीटीआइ), नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग व भुट्टो परिवार की पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी), फौजी व सिविल अफसरशाही, तथा न्‍यायपालिका- सभी उसके व्यवसाय से जुड़े भ्रष्टाचार के आरोपों के घेरे में रहे हैं। ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त जिस 19 करोड़ पाउंड को उसे वापस दिलाने के बदले इमरान खान व उनकी पत्नी के ट्रस्ट ने रियाज से सैंकड़ों एकड़ जमीन व उपहार प्राप्त किए, उसमें से 5 करोड़ पाउंड तो नवाज शरीफ के बेटे हसन नवाज को ही वापस करने पड़े थे जो कुछ सौदों के बदले उन्हें रियाज से मिले थे। यह 19 करोड़ पाउंड वापस लाने के बदले रियाज की कंपनी बहरिया टाउन पर पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट का 460 अरब रुपये (3 अरब डॉलर) जुर्माना इमरान सरकार ने माफ करवाया। कराची में उस प्रोजेक्ट के लिए 20 हजार एकड़ जमीन कब्जाने में सिंध की पीपीपी सरकार ने मदद की थी। जमीन खाली करने हेतु कराची पुलिस ने भारी दमन और फर्जी मुठभेड़ें तक की थीं। उसकी मदद करने में कई फौजी अफसर भी शामिल थे, जिन्हें खुद या उनके करीबियों को रियाज ने नौकरियां भी दीं। इस प्रोजेक्ट में होने वाले 2500 प्रतिशत मुनाफे में पाकिस्तानी शासक तबके का हर धड़ा, पार्टी व संस्थाएं शामिल थे।

साफ है कि मौजूदा टकराव पाकिस्तानी शासक वर्ग के धड़ों का आपसी टकराव है जिसमें जनहित के किसी सवाल का जिक्र तक नहीं है। इसके बावजूद इमरान खान अपने पक्ष में इतना जनसमर्थन जुटाने में कामयाब हो गए हैं कि सेना व शरीफ-भुट्टो गठबंधन को उनसे निपटने में मुश्किल आ रही है। इस स्थिति को समझने के लिए हमें पाकिस्तानी सत्ता के ढांचे और उसमें फौज की भूमिका की ऐतिहासिक समझ की जरूरत है। 

पाकिस्तान की मौजूदा स्थिति, सत्ता के ढांचे व फौजी प्रभुत्व को समझने के लिए इसे पाकिस्तान निर्माण में जमींदारो की भूमिका व भूमि सुधार के इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। भारत के साथ तुलना करें तो 1947 में भारत में राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग सत्ता में आया। उसने सामंती भूस्वामियों के शोषण से मुक्ति चाहने वाली जनता के साथ किए गए वादों को धता बताकर सामंती भूस्वामियों-जमींदारों को अपनी जमीनों को हरमुमकिन हद तक बचाने का मौका देते हुए बहुत सीमित औपचारिक भूमि सुधार किए। बाद में हरित क्रांति के जरिये इन भूस्वामियों ने अधिकांशतः खुद को पूंजीवादी फार्मरों में तब्दील कर लिया। यहां औपनिवेशिक दौर का भूस्वामी वर्ग बस अपने हितों की सुरक्षा व रियायत हासिल कर रहा था। वह पूंजीपति वर्ग की सत्ता को चुनौती पेश नहीं कर रहा था। पूंजीपति वर्ग की कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में ही भारत में मौजूदा संवैधानिक जनतंत्र कायम हुआ और राजनीति में फौज की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं रही।

इसके उलट पाकिस्तान के निर्माण की वास्तविक बुनियाद ही ब्रिटिश पंजाब में औपनिवेशिक सत्ता का आधार रही। जागीरदारों-जमींदारों की यूनियनिस्ट पार्टी में फूट पड़ने के बाद 1937 में मुस्लिम जागीरदारों के नेता सिकंदर हयात खान और मोहम्मद अली जिन्ना के बीच हुआ मशहूर लाहौर समझौता था। कांग्रेस नेतृत्व के साथ जिन्ना के नेतृत्व वाले मुस्लिम मध्यवर्ग का सांप्रदायिक द्वंद्व पहले हो चुका था, लेकिन मुस्लिम लीग वास्तविक ताकत तभी बनी जब पंजाब, उत्तर भारत व बंगाल के मुस्लिम सामंती भूस्वामी भूमि सुधारों को कांग्रेस के वाम धडे द्वारा समर्थन के भय से अलग देश की मांग पर मुस्लिम लीग के साथ आ गए। लाहौर समझौते के बाद पंजाब के सबसे बड़े जमींदार शाहनवाज ममडोट पंजाब मुस्लिम लीग के प्रधान बने। हिंदू-सिक्ख व मुस्लिम जमींदारों में इस विभाजन ने ही पंजाब में सांप्रदायिक राजनीति की नींव डाली।

पूर्वी पंजाब में कुछ हद तक जोतों को बंटवारा होकर छोटी होने से मालिक किसानों का एक वर्ग बन चुका था, मगर ब्रिटिश सरकार द्वारा नहरी सिंचाई और उपजाऊ भूमि वाले पश्चिम पंजाब में जमींदारों को पूंजीपति फार्मर बनाने की योजना के अंतर्गत उन्हें और भी अधिक जमीनें आवंटित की गई थीं। इन जमींदारों का पश्चिमी पंजाब के सामाजिक जीवन पर पूर्ण प्रभुत्व था और इनमें धार्मिक जमींदार (पीर व सज्जादानशीन) भी शामिल थे।

नवनिर्मित पाकिस्तान में सत्ता के औपचारिक प्रधान के तौर पर कमजोर बुर्जुआ व मध्यवर्ग के प्रतिनिधि मोहम्मद अली जिन्ना थे मगर सत्ता की वास्तविक शक्ति लियाकत अली खां, साहिबजादा इस्कंदर मिर्जा, आदि के नेतृत्व में बडे भूस्वामी जागीरदारों के हाथ में थी। उभरता पूंजीपति व मध्यवर्ग एक संवैधानिक जनतंत्र की आकांक्षा रखते थे और किसान भूमि सुधार चाहते थे, पर यह भूस्वामी तबके से सत्ता दखल करने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली नहीं थे। भूस्वामी तबका पाकिस्तानी शासन तंत्र के जनवादीकरण और भूमि सुधारों को कतई स्वीकार नहीं करता था। बंगाल व पंजाब के भूस्वामियों में सत्ता पर प्रभुत्व के लिए परस्पर विरोध भी था। यही बाद में बांग्‍लादेश की अलग राष्ट्र की आकांक्षा में प्रकट हुआ। अतः पाकिस्तान की संविधान सभा सात साल में भी संविधान नहीं बना पाने पर भंग करनी पड़ी।

1951 के चुनावों में पंजाब में 80 प्रतिशत जमींदार ही चुन कर आए थे। इसके बाद के वर्षों में वहां फिरोजशाह नून, खिजर हयात तिवाना व दौलताना जैसे बड़े जमींदारों ने मुस्लिम लीग की सरकार चलाई। इन्होंने भूमि सुधार के बजाय हिंदू-सिक्ख पलायन से खाली हुई 70 लाख एकड़ व सिंचाई के विस्तार से बनी नई सिंचित कृषि भूमि को भारत से गए मुस्लिम शरणार्थियों के बजाय अपने करीबी जमींदारों को ही अधिक आवंटित किया।  

दूसरी संविधान सभा ने 1958 में जो संविधान बनाया वह बंगाल तथा हिंदू अल्पसंख्यक दलों को स्वीकार्य नहीं था। इन स्थितियों के चलते पाकिस्तानी समाज में गहरे अंतर्विरोध खड़े हो गए थे। अतः इन राजनेताओं द्वारा पैदा की गई अस्थिरता का बहाना लेकर फौज ने सत्ता संभाली और संविधान भंग कर दिया। ध्यान देने की बात है कि फौजी अफसरशाही हमेशा से भूस्वामी तबके से ही आती है। 1947 तक सामंती भूस्वामी ही फौज में अफसर हो सकते थे। अभी भी अधिकांश उसी पारिवारिक पृष्ठभूमि से हैं। जनरल अयूब खान के फौजी शासन ने जनतांत्रिक स्वीकार्यता हासिल करने के लिए जो ‘बेसिक डेमोक्रेसी’ स्थापित की उसमें इलेक्टरल कॉलेज आधारित पार्टीविहीन चुनाव कराए गए। इसमें मजबूत आर्थिक-सामाजिक हैसियत वाले प्रभुत्वशाली भूस्वामी ही चुने जाने की स्थिति में थे। यह तबका ही लगभग डेढ़ दशक के फौजी शासन का आधार था।

भूस्वामी तबके से ही आने वाली फौजी व सिविल अफसरशाही भी अपनी जमीनों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थी, पर किसानों के असंतोष को शांत करने के लिए अयूब खान शासन में (1958) दिखावटी (500 एकड़ सिंचित भूमि और 1,000 एकड़ असिंचित भूमि लैंड सीलिंग) भूमि सुधार किए गए। इसमें भी बगीचों, शामिलात, आदि की छूट दी गई। अर्थात भूस्वामियों को अपनी जमीनें बचाने की पूरी छूट मिली। फौजी शासन में जमींदारों, फौज व सिविल अफसरों तथा राजनेताओं का गठबंधन और मजबूत हुआ। इन सभी को सैकड़ों एकड़ जमीन आवंटित की गई। जनरलों को भी 20-60 रुपये एकड़ की रियायती दर पर ढाई-ढाई सौ एकड़ जमीनें दी गईं। 1968 में पंजाब असेंबली में सरकार ने बताया कि एक लाख पांच हजार एकड़ जमीन फौजी-सिविल अफसरों व मंत्रियों-विधायकों (सभी पहले ही भूस्वामी तबके से थे) को आवंटित की गईं। गैरकानूनी कब्जे, जालसाजी, वगैरह की भी कमी नहीं थी। ऐसे उदाहरण भी सामने आए कि बाढ़ में उजड़ने वाले शरणार्थी किसान वापस आए तो बहुत सी जमीनों पर जमींदारों-अफसरों को कब्जा दिया जा चुका था। बाद में भूमि सुधार के चैम्पियन के तौर पर खुद को पेश करने वाले जेड.ए. भुट्टो पर ही पटवारी के जरिये 500 एकड़ जमीन हड़पने का आरोप लगा।

संक्षेप में कहें तो पहले ढाई दशक में ही पाकिस्तान में जमींदारों, नेताओं, सिविल व फौजी अफसरों के परस्पर गठजोड़ वाला एक शासक तबका तैयार हो चुका था। अयूब खान शासन में इन्हें हरित क्रांति के भी सारे लाभ मिले जिससे इन्हीं में से एक अमीर फार्मर व उद्योगपति-कारोबारी तबका भी उभरा। यह छोटा शीर्ष तबका परस्पर अहसानों, पुराने नातों व वैवाहिक बंधनों आदि से भी जुड़ा हुआ था। पंजाब (व सिंध) के ये कुछ अमीर परिवार ही आज तक भी पीढ़ी दर पीढ़ी पाकिस्तानी राजनीति, व्यवसाय, फ़ौज व सिविल अफसरशाही में प्रभावशाली बने हुए हैं। पाकिस्तान की तीनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों व धार्मिक जमातों के नेता भी इसी छोटे तबके से आते हैं। पाकिस्तानी समाज के शीर्ष पर बैठा फौजी-नागरिक अफसरशाही, पूंजीपति, नेता, भूस्वामी गठजोड़ अपने इस भ्रष्ट तंत्र को बचाने हेतु वहां जनतंत्र की सभी आकांक्षाओं को कुचलता आया है, हालांकि जन-असंतोष को कुचलने के लिए निर्वाचित सरकारें भी आती रहीं पर नेशनल असेंबली में इसी गठजोड़ का नियंत्रण रहा है। अगर निर्वाचित सरकारों के समय में वास्तविक जनतंत्र की मांग ने जोर पकड़ा तो फौज मार्शल लॉ लगाकर सत्ता अपने हाथ में लेती रही है।      

1971 के युद्ध बाद फौज को सत्ता छोड़नी पड़ी। पहले फौजी हुकूमत में मंत्री रहे, मगर बाद में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी बनाकर फौजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन को नेतृत्व देने वाले बडे भूस्वामी जुल्फिकार अली भुट्टो सत्ता में आए।  भुट्टो ने खुद को भूमिहीन-बँटाईदार किसानों, मजदूरों, मध्य वर्ग के बुद्धिजीवी पेशेवरों आदि के सुधारक के तौर पर प्रस्तुत किया। भुट्टो सरकार ने कुछ उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया और भूमि सुधारों का कार्यक्रम भी लिया। उसने अपने सामाजिक आधार गरीब भूमिहीन किसान मजदूरों को संतुष्ट करने हेतु औपचारिक भूमि सुधार किए। 1972 में लैंड सीलिंग को 150 व 300 एकड़ किया गया और 1977 में इसे 100 व 200 एकड़ कर दिया गया, लेकिन कानून के बावजूद भूस्वामियों व अफसरशाही के दबाव तथा राजस्व विभाग के पटवारियों के संगठित असहयोग से भूमि सुधार आंशिक ही लागू हुए। फिर भी यह भूस्वामी वर्ग व फौजी-सिविल अफसरशाही पीपुल्स पार्टी से बेहद रुष्ट थी और भुट्टो को इस नाराजगी की सजा अपनी सत्ता और जान दोनों देकर चुकानी पड़ी।

जिया उल हक के नेतृत्व में फौजी अफसरों और इस्लामिक कट्टरपंथियों ने भुट्टो का तख्ता पलट दिया। इस फौजी शासन का सामाजिक आधार भी पंजाबी भूस्वामी तबका ही था। जिया शासन ने सीलिंग से अधिक जब्त की गई जमीनों को लीज पर उनके पुराने मालिक जमींदारों को ही वापस कर दिया। बाद में फौजी शासन द्वारा स्थापित शरई अपीली अदालत की पांच सदस्यीय बेंच ने भूमि सुधार को गैर-इस्लामी घोषित कर भूमि सुधार कानून रद्द कर दिए। शरई अदालत के मुताबिक सारी संपत्ति अल्लाह की है और अल्लाह ने जिसे दी है उसका इस पर पूर्ण अधिकार है। राज्य इसमें दखल नहीं दे सकता। इस प्रकार पाकिस्तान में भूमि सुधार पूरी तरह खत्म कर दिए गए और सामंती भूस्वामी जमीनों के मालिक बने रहे। यही भूस्वामी अभिजात वर्ग और इससे जुड़ी अफसरशाही व पूंजीपति ही आज तक पाकिस्तानी सत्ता तंत्र के हर हिस्से पर अपना दखल कायम किए हुए है। जनरल जिया उल हक के बाद जनरल परवेज मुशर्रफ के फौजी शासन ने भी इसी पंजाबी भूस्वामी तबके को अपने शासन का आधार बनाया।

इक्‍कीसवीं सदी में इस यथास्थिति को तोड़ा है पूरे विश्व के पैमाने पर लगातार जारी आर्थिक संकट ने। इसने पाकिस्तान ही नहीं एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के बहुत से देशों में वित्तीय संकट पैदा कर दिया है। निर्यात मुश्किल हो गए हैं। भारत की तरह श्रमिकों का निर्यात व उनके द्वारा भेजी गई विदेशी मुद्रा पाकिस्तान के भुगतान संतुलन के लिए भी अहम थी, पर श्रीलंका की तरह पाकिस्तान में भी विदेशी मुद्रा का आना कम हो गया है। अस्थिरता व आतंकवाद की वजह से पर्यटन से आय समाप्त हो गई है, किंतु पाकिस्तानी शासक वर्ग अपने लिए लग्जरी का आयात बंद या कम करने के लिए तैयार नहीं है। विदेशी मुद्रा का संकट अत्यंत गंभीर हो गया है। जिओपॉलिटिक्स में घटे महत्व की वजह से आइएमएफ भी दो साल से वार्ताओं और बहुत सी शर्तों के बावजूद अब तक कर्ज जारी नहीं कर रहा है। पाकिस्तानी रुपया तेजी से गिरा है। बिजली, पेट्रोल-डीजल, दवाओं, आटा-केला सभी जरूरी चीजों के दो से तीन गुना दाम बढ़े हैं। रमजान के दौरान जकात व सरकारी राशन वितरण के दौरान भीड़ व भगदड़ की स्थितियां बनीं और कई कुचल कर मारे गए।

यहां जिओपॉलिटिक्स के इस पहलू को भी याद रखना जरूरी है जिसके चलते जनरल अयूब द्वारा 1950 के दशक में सेंटो पैक्ट के जरिये अमरीकी खेमे में शामिल होने के बाद से 21वीं सदी के आरंभिक वर्षों तक अमेरिका से पाकिस्तान को बड़ी आर्थिक व सैन्य मदद मिलती रही है। यह मदद भी पाकिस्तान की आर्थिक तरक्की या जनकल्याण कार्यों के बजाय इसी शासक तबके द्वारा हजम की जाती रही है, परंतु पिछले डेढ़ दशकों में अमेरिकी खेमे के लिए पाकिस्तान का महत्व घटता गया है और 2008 के परमाणु समझौते के वक्त से भारत के साथ उसकी रणनीतिक निकटता बढ़ती गई है जो अब क्वाड आदि समूहों के रूप में सामने है। इससे पाकिस्तान को मिलने वाली सैन्य व नागरिक आर्थिक सहायता लगभग बंद हो गई है। पाकिस्तान के शासक तबके के लिए इस महत्वपूर्ण सहायता का बंद होना भी संकट का एक कारण है।   


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इन संकटों ने पाकिस्तानी समाज के शीर्ष पर काबिज इस गठजोड़ के बीच अंतर्विरोध तीव्र कर दिए हैं क्योंकि इन नई स्थितियों में सभी के हित पूरे करना संभव नहीं हो रहा है। अब पहले की तरह सत्ता द्वारा विपक्ष के हितों को एडजस्ट करना मुमकिन नहीं है और कटुता बढ़ती जा रही है। पहले विपक्ष में रहने वालों द्वारा सत्ता में आने पर की गई बदले की कार्रवाई की अब एक श्रृंखला बन गई है। इन परस्पर विरोधी धड़ों में भी फौज-सिविल अफसर, उद्योगपति, भूस्वामी, नेता सभी शामिल हैं। ये सभी इस भ्रष्ट तंत्र में शामिल हैं जिसमें भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर एक दूसरे के खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं। इन्हीं अंतर्विरोधों की वजह से सत्ता के लिए रोज नए समीकरण व गलाकाट होड़ जारी है। खास तौर पर मुशर्रफ के फौजी शासन के बाद से इस प्रक्रिया को लगातार तीव्र होते हुए देखा जा सकता है।

इसी शासक तबके से आने के बावजूद इमरान खान लंबे सघन प्रचार व अपने भाषणों से खुद को इसके पीड़ित के तौर प्रस्तुत करने में कामयाब हुए हैं। उन्होंने खुद को संपन्न पाकिस्तानी उच्च व मध्य वर्ग, अनिवासी पाकिस्तानियों, बुद्धिजीवी पेशेवरों की नजर में एक ‘नए पाकिस्तान’ की आकांक्षाओं के प्रतीक के तौर पर पेश किया है। नरेंद्र मोदी के ‘60 साल में कुछ नहीं हुआ’ की तर्ज पर लंबे समय तक शासन करने वाली फौज तथा शरीफ-भुट्टो परिवारों को पाकिस्तानी जनता के संकटों व तकलीफों का जिम्मेदार ठहराते हुए इमरान खान ने खुद को मुक्तिदाता की तरह पेश किया है। हालांकि उनकी अपनी कोई स्पष्ट नीति या कार्यक्रम नहीं है, न ही उनके तीन साल के कार्यकाल में किसी क्षेत्र में कोई सुधार हुआ, पर आर्थिक संकट, महंगाई, बेरोजगारी आदि से त्रस्त जनता को वे बता रहे हैं कि उन्होंने बहुत कोशिश की पर निहित स्वार्थों ने उन्हें काम ही नहीं करने दिया। पहले उन्होंने खुद को हटाए जाने के लिए अमेरिकी दबाव का इल्जाम लगाया। अब अमेरिका का जिक्र बंद है। फौज से भी उनका विरोध कुछ अफसरों से ही है। उन्हें फौज के नेतृत्व में अपनी पसंद के अफसर चाहिए।

इस प्रकार इमरान खान खुद को शासक तबके के पीड़ित के रूप में पेश करने में कामयाब हैं जबकि खुद उनके पीछे शासक तबके का ऐसा बड़ा सशक्त हिस्सा है कि शरीफ-भुट्टो सरकार व फौज मिलकर भी उनके इतने तीखे भाषणों के बावजूद उन्हें जेल भेज पाने में असफल है। कहा जा सकता है कि इमरान खान अपने ‘नए पाकिस्तान’ के वादे पर एक लोकप्रिय दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी आंदोलन खड़ा करने में सफल रहे हैं। पर यह भी सच्चाई है कि उनके इस आंदोलन के पीछे कोई स्पष्ट वैचारिकी और संगठित शक्ति मौजूद नहीं है। अकेले इमरान खान की लोकप्रियता ही इसका आधार है और इसका बिखर जाना भी उतना ही अचानक संभव है। और यह भी संभव है कि खुद फौज के साथ उनका गठजोड़ फिर से बन जाए।  


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