वोट के लिए नौकरी? मध्य प्रदेश में पेसा की भर्तियों पर सवाल

विधानसभा में दी गई एक जानकारी के मुताबिक सरकार ने बीते अप्रैल से इस साल की शुरुआत तक 21 लोगों को रोजगार दिया है। वहीं रोजगार कार्यालयों के संचालन पर करीब 16.74 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं।

मध्यप्रदेश में चुनाव का मौसम आ चुका है। इस मौसम में मुद्दों को हवा मिलती है और वे खिलते हैं। इस बार प्रदेश में बेरोजगारी का मुद्दा सबसे ज्यादा खिला हुआ है। मुद्दे से सरकार चिंतित भी है और नौकरियां भी दे रही है, लेकिन सत्‍ताधारी दल के कार्यकर्ताओं को।

अव्‍वल तो सरकार की झोली में नौकरियां जरूरत के लिहाज से काफी कम हैं। दूसरे, सत्‍ताधारी भारतीय जनता पार्टी को चुनाव की तैयारियां भी करनी हैं इसलिए अपने रुठे हुए कार्यकर्ताओं को मनाना भी है। पिछली बार 2018 में इस काम को जन अभियान परिषद के द्वारा किया गया था। इस बार इसके लिए पेसा (अनुसूचित क्षेत्रों तक पंचायती राज कानून का विस्‍तार) कानून का सहारा मिला है। नतीजा यह है कि सरकारी कर्मचारी और राजनीतिक कार्यकर्ता के बीच की पहले से ही धुंधली लकीर अब मिटती जा रही है। उधर, बेरोजगारी के आंकड़े जस का तस मुंह बाए खड़े हैं।

एक अनुमान के मुताबिक प्रदेश में करीब पचास लाख बेरोजगार हैं। इनमें से 39 लाख से अधिक बेरोजगार रोजगार कार्यालयों में दर्ज हैं। ये आंकड़ा तब है जब भाजपा ने अपने 2018 के घोषणापत्र में कहा था कि उसकी सरकार हर साल दस लाख युवाओं को रोजगार देगी। विधानसभा में दी गई एक जानकारी के मुताबिक सरकार ने बीते अप्रैल से इस साल की शुरुआत तक 21 लोगों को रोजगार दिया है। वहीं रोजगार कार्यालयों के संचालन पर करीब 16.74 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं।

इंदौर में कुछ नौजवानों ने इस मुद्दे को पहचाना और एक आंदोलन शुरू किया था। इसे रोजगार सत्याग्रह कहा गया। प्रदेश के चौथी बार मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान खुद को हर बार जन हितैषी नेता की तरह पेश करते आए हैं, लेकिन इस मुद्दे पर वे फंस गए।

बीते साल हुए रोजगार सत्याग्रह के बाद यह मुद्दा बड़ा होता गया और प्रदेश भर में इसे लेकर छोटे-छोटे आंदोलन हुए जिन्हें शायद ही खबरों में जगह मिली। नौजवानों ने सरकार पर दबाव बनाना जारी रखा और पांच साल से रुकी हुई शिक्षक भर्ती पर काम शुरू हुआ। इससे करीब 20 हजार शिक्षकों को भर्ती किया जा रहा है। बेरोजगारों के इस बढ़ते विरोध से निपटने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज ने इस साल एक लाख नौकरी देने का वादा किया था, हालांकि वे यह वादा बीते वर्षों में भी कर चुके थे, लेकिन हाल ही में उन्होंने तकरीबन हर मंच से यह घोषणा दोहराई।

रोजगार के इसी हल्ले के पीछे एक और खेल जारी था। यह खेल था प्रदेश के आदिवासियों को रिझाने का। इसके लिए स्टेशनों के ऐतिहासिक इस्लामिक नाम बदलकर उन्हें आदिवासी नायकों के नाम पर किया गया। यहां तक कि चौक-चौराहों और सड़कों के नाम भी बदल दिए गए। बीते साल नवंबर में राज्‍य सरकार ने पेसा एक्ट लागू कर दिया। इसका मकसद चुनाव के मद्देनजर आदिवासियों को खुश करना था।

इस कवायद में आदिवासी कार्यकर्ताओं का खयाल सबसे पहले रखा गया। एक्ट के लागू होते हुए नियुक्तियों का खेल शुरू हो गया। पेसा के क्रियान्वयन के लिए बड़े पैमाने पर भर्ती की जानी है। अब तक कई भर्तियां हो चुकी हैं और इन्हें देखकर अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि जनता के बीच रोजगार देने के नाम पर किस तरह बेरोजगार नौजवानों के साथ धोखा हो रहा है। 

भाजपा से जुड़े एक आदिवासी नेता बताते हैं कि पेसा एक्ट को लागू करने और इसके साथ पार्टी के चुनावी कामकाज की तैयारियां काफी पहले से शुरू हो चुकी थीं। इसे लेकर भाजपा में ऊपरी स्तर से योजना बनाई गई थी। इसी के तहत भारतीय नौसेना आयुध संगठन में पदस्थ मध्‍य प्रदेश के एक आदिवासी समाज के अधिकारी लक्ष्मण सिंह मरकाम को अप्रैल 2021 में मध्‍य प्रदेश शासन में उपसचिव के तौर पर पदस्थ किया गया था। मरकाम लगातार आदिवासी इलाकों में काम कर रहे थे। मरकाम की पारिवारिक पृष्ठभूमि संघ कार्यकर्ता की रही है। ऐसे में उन्होंने अपने काम के दौरान संघ के विचार आदिवासी इलाकों में रोपना शुरू किए। इस दौरान वे संघ के गणवेश में कई बार भाजपा के मंचों से खुले तौर पर राजनीतिक बयानबाजी करते हुए नजर आए।

झाबुआ के पत्रकार बताते हैं कि मरकाम ने आदिवासी इलाकों में काम करते हुए संघ और भाजपा से जुड़े आदिवासियों के बीच अपनी पकड़ मजबूत की। इसके बाद पेसा एक्ट लागू हुआ और इसके क्रियान्वयन की आंतरिक जिम्मेदारी मरकाम को ही दी गई। पेसा के तहत आदिवासी जिलों में 14 जिला और 89 ब्लॉक कोऑर्डिनेटरों की भर्ती की जानी थी, जिसकी प्रक्रिया एक साल पहले से जारी थी। जिला कोऑर्डिनेटर के पद के लिए 30 हजार और ब्लॉक कोऑर्डिनेटर के पद के लिए 25 हजार रुपये वेतन दिया जाना है। इन पदों के लिए प्रदेश भर के युवाओं ने आवेदन किया। ब्लॉक कोऑर्डिनेटर के 89 पदों पर इस भर्ती के लिए 890 शॉर्टलिस्ट हुए और इन्हें इंटरव्यू के लिए बुलाया गया, लेकिन 4 फरवरी को इन युवाओं को इंटरव्यू रद्द होने की जानकारी व्यक्तिगत तौर पर दी गई। डिस्ट्रिक्ट कोऑर्डिनेटर की भर्ती भी इसी तरह हुई।

इन अभ्यर्थियों को बाद में पता चला कि इनके स्थान पर अन्य लोगों को चुना जा चुका है। ये चयन बिना किसी इंटरव्यू के ही कर लिए गए। जिनके चयन हुए वे संघ औऱ भाजपा से जुड़े थे और कई तो सक्रिय सदस्य थे। ज्यादातर लोगों की पब्लिक प्रोफाइल में उनकी राजनीतिक पहचान उजागर हो रही थी। उनमें से लगभग सभी पहले से ही भाजपा और संघ से जुड़े हुए हैं और मरकाम के करीबी हैं।

मरकाम इस आरोप को नकारते हैं कि उनका पंचायती राज विभाग से कोई लेना-देना है। वे कहते हैं कि वे आइईएस अफसर हैं और डेपुटेशन पर हैं, इसलिए किसी राजनीतिक दल के सदस्‍य नहीं हो सकते। वे कहते हैं कि ‘’मैं उतनी ही राजनीति जानता हूं जितना एक मतदाता को जानना चाहिए।‘’ उनके अनुसार सीएमओ में काम करने वाले उनके जैसे अफसरों के लिए ऐसे आरोप सेवा की राह में जोखिम होते हैं।

आरोपों पर जवाब देते हुए उन्‍होंने कहा, ‘’इसके लिए जिम्‍मेदार लोग ही इसे देखेंगे। मैं अपने कार्यालय द्वारा सौंपे गए कर्तव्‍य निभा रहा हूं।‘’   

व्यापम घोटाले के व्हिसिल ब्लोअर्स में शामिल डॉ. आनंद राय कहते हैं कि कई आदिवासी युवाओं ने इसके लिए आवेदन किया था लेकिन चयन केवल उन्हीं का हुआ जो भाजपा की विचारधारा से आते थे। डॉ. राय के मुताबिक यह सब आदिवासी इलाकों में बूथ मैनेजमेंट को प्रभावी बनाने के लिए किया जा रहा है जहां आदिवासी मतदाता के बीच सरकारी कर्मचारी के तौर पर भाजपा अपने ही कार्यकर्ता भेजेगी और इसका फायदा चुनाव में उठाएगी।

पेसा के क्रियान्वयन के लिए अब तक 104 पदों पर भर्ती की जा चुकी है लेकिन अभी ग्रामीण इकाई छूटी हुई है और इसके लिए करीब पांच हजार भर्ती का आंकड़ा बताया जा रहा है जिन्हें पंद्रह हजार रुपये महीने दिए जाएंगे। कितने पदों पर भर्ती होगी इसकी कोई ठोस जानकारी अब तक नहीं है, लेकिन यह तय है कि जिला, ब्लॉक औऱ ग्राम कोऑर्डिनेटरों को लगाकर भाजपा की सरकार को प्रत्‍यक्ष लाभ होगा।

यह कोई पहली बार नहीं है जब चुनाव से पहले संघ और भाजपा से जुड़े लोगों और उनके कार्य़कर्ताओं को लाभ दिए गए हैं। मध्‍य प्रदेश में जन अभियान परिषद भी एक ऐसी ही संस्था का नाम है जिसे संघ के प्रचारक औऱ पूर्व केंद्रीय मंत्री अनिल माधव दवे ने बनाया था। 1998 में स्थापना और फिर एक एनजीओ के रूप में सरकार से जुड़ने के बाद यह संस्था सरकार का हिस्सा हो गई। इसमें सैकड़ों कर्मचारी और अधिकारी काम करते हैं, जिन्हें 2018 में नियमित कर्मचारी मान लिया गया।

मध्‍य प्रदेश के संविदा कर्मचारी भी इसी तरह अपने नियमितीकरण के लिए कह रहे हैं लेकिन सरकार उन्हें जन अभियान परिषद की तरह जरूरी नहीं मानती। भोपाल में संविदा कर्मचारियों के एक नेता ने नाम प्रकाशित न करने के आग्रह पर बताया कि जन अभियान परिषद में भाजपा के ही लोग होते हैं लेकिन ‘’हम यह नहीं कह सकते क्योंकि कांग्रेस सत्ता में आने के बाद भी ठोस विचारधारा के साथ काम नहीं करती है और इसका ख़ामियाजा आवाजज उठाने वाले कर्मचारियों को भुगतना पड़ता है।‘’

इस संस्था का काम सरकार की योजनाओं को विस्तार देना और प्रचार-प्रसार से जड़ा हुआ है। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर पर्यावरण की बेहतरी और वैचारिक विमर्श जैसे कार्यक्रम भी यह संस्था करवाती है। इस संस्था पर अक्सर सरकार का एजेंडा आगे बढ़ाने के आरोप लगते रहे हैं। यही वजह रही कि 2018 में चुनाव के बाद सत्ता में आने के बाद कांग्रेस ने इसका बजट रोक दिया था।

अब एक बार फिर पेसा एक्ट में भी ऐसी ही होने जा रहा है, हालांकि इस बार दायरा बड़ा है औऱ भाजपा अब मध्‍य प्रदेश की आदिवासी जमात को अपने में मिलाने का काम कर रही है। इसी को देखते हुए आदिवासी आखा हिन्दू क्षेत्र जैसे अभियान चलाए गए। इस सब के चलते भाजपा कार्यकर्ता और सरकारी कर्मचारी के बीच का बचा-खुचा अंतर भी मिटता जा रहा है। 


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