आज जब छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव के लिए 70 सीटों पर प्रचार खत्म हो चुका है और कल मतदान है, तो ठीक पांच साल पहले इस सूबे में हुई उस दर्दनाक घटना को लोगों ने भुला दिया है जब एक पत्रकार ने अदालत में जाकर इच्छामृत्यु की मांग की थी और इसकी इजाजत न मिलने पर कोर्ट के सामने ही जहर खा लिया था। घटना रायगढ़ की थी और पत्रकार का नाम था सौरभ अग्रवाल, जिसने डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन भाजपा सरकार के ऊपर प्रताड़ना का आरोप लगाया था। इस घटना से कुछ महीने पहले ही सूबे के दो पत्रकारों ने खुदकुशी की थी। तब की तुलना में आज छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता अपेक्षाकृत राहत की सांस ले रही है। दसेक साल पहले इसकी कोई उम्मीद नहीं दिखती थी।
तेईस साल पहले इसी महीने की पहली तारीख को मध्य प्रदेश से अलग होकर स्वतंत्र राज्य बनने के बाद से छत्तीसगढ़ लगातार पत्रकारों की यातनागाह बना रहा है। खासकर यहां के बस्तर संभाग का एक समय में हाल ये था कि इसे पत्रकारिता का ‘ब्लैक होल’ करार दिया जाता था। इस ब्लैक होल के लम्बरदार थे यहां के पुलिस निरीक्षक कल्लूरी, जिनके राज में जाने कितने ही पत्रकारों पर देशद्रोह का मुकदमा हुआ और कितने ही मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेल हुई। इस देश ने बस्तर में ही वह दिन देखा जब पुलिसवालों और सुरक्षा बलों ने पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के पुतले जलाए थे, दिवंगत स्वामी अग्निवेश और डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा को अपमानित किया था।

यही वे स्थितियां थीं जिनके कारण हिंदी पट्टी में सबसे पहले पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर एक कानून बनाने की मांग छत्तीसगढ़ से ही उठी। यह मुद्दा पिछले विधानसभा चुनाव में इतना गरमाया हुआ था कि कांग्रेस पार्टी को अपने घोषणापत्र में पत्रकार सुरक्षा कानून लाने का वादा करना पड़ा। भूपेश बघेल की सरकार आने के बाद ऐसा कानून बनाने में राज्य सरकार को पूरे साढ़े चार साल लग गए। बीते मार्च में यह कानून बनकर पारित हुआ, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी।
अव्वल तो पत्रकारों पर अलग-अलग किस्म के हमले बघेल सरकार में जारी रहे, दूसरे पत्रकार सुरक्षा कानून को पीयूसीएल के बनाए मूल मसौदे के मुकाबले इतना ढीला कर दिया गया कि उसके अंतर्गत किसी अधिकारी को दंडित करने या किसी पत्रकार को न्याय दिलवाने की बात दूर की कौड़ी साबित हुई। आज भी छत्तीसगढ़ के रायपुर से लेकर कोने-अंतरों में पत्रकार पिट रहे हैं, झूठे मुकदमे झेल रहे हैं, लेकिन रमन सिंह और कल्लूरी के राज वाला ‘आतंक’ बस सतह पर नहीं दिख रहा। इसकी एक बड़ी वजह बघेल सरकार की मीडिया के प्रति बदली हुई नीति है- विरोधी पत्रकारों को यातना देने के बजाय जितना संभव हो, अपना बना लो। अपना बनाने में राजकोष का कुछ पैसा ही जाया होगा, और क्या?
मीडिया को अपना बनाने की नीति
बीते तीन-चार साल के दौरान मीडिया में आए सरकारी विज्ञापनों को देखें, तो पता लगता है कि भूपेश बघेल की सरकार अखबारों और छोटे-छोटे न्यूज़ पोर्टलों पर खासा मेहरबान रही है। छत्तीसगढ़ की समृद्धि का बखान करते विज्ञापन न सिर्फ दिल्ली के अखबारों और पत्रिकाओं में प्रमुखता से छपे हैं, बल्कि झारखंड और ओडिशा के रेलवे स्टेशनों पर भी छत्तीसगढ़़ सरकार के बिलबोर्ड नजर आते हैं।

राज्य सरकार की ओर से प्रतिवर्ष विज्ञापन पर किए गए खर्च और मुख्यमंत्री बघेल के छवि निर्माण पर पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह) ने सदन में 2021 में एक सवाल पूछा था, “क्या मुख्यमंत्री महोदय यह बताने की कृपा करेंगे कि (क) दिनांक 1 जनवरी 2019 से 15 जून, 2021 तक प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कितना-कितना विज्ञापन दिया गया? (ख) प्रश्नांक (क) के अनुसार कितना-कितना व्यय किया गया?“
इस सवाल पर विधानसभा को जानकारी देते हुए छत्तीसगढ़ सरकार ने तब जवाब दिया था, “दिनांक 1 जनवरी 2019 से 15 जून 2021 तक प्रिंट मीडिया को 92,29,23,126 रुपये का तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 1,16,42,62,302 रुपये का विज्ञापन दिया गया; (ख) उक्त अवधि में प्रिंट मीडिया को 85,06,96,916 रुपये का तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को 1,05,25,83,704 रुपये का भुगतान (व्यय) किया गया है।”
दस साल पहले राज्य में जब रमन सिंह की सरकार थी, तब छत्तीसगढ़ के महालेखा परीक्षक ने राज्य सरकार द्वारा प्रचार पर किए गए अनावश्यक खर्च के ऊपर सवाल उठाया था। उस वक्त स्थिति यह थी कि फरवरी 2010 से जनवरी 2013 के बीच टीवी चैनलों और अखबारों के ऊपर 90 करोड़ रुपये खर्च किए गए थे। भाजपा के तीन साल के राज में दोनों माध्यमों को मिलाकर नब्बे करोड़ का खर्च बघेल सरकार के ढाई साल के खर्च के सामने मामूली जान पड़ता है, जो प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक को मिलाकर दो सौ करोड़ के आसपास बैठ रहा है।

इसमें अभी सोशल मीडिया पर किए गए खर्चे को नहीं जोड़ा गया है। ताजा आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन दिल्ली के मीडिया गलियारों में दो-तीन बरस से लगातार इस बात की चर्चा है कि पत्रकार से यूट्यूबर और सोशल मीडिया इनफ्लुएंसर बने कौन-कौन से लोग भूपेश बघेल सरकार के पेरोल पर काम कर रहे हैं। कुछ ऐसे लोग हैं जिनके कारनामे बिलकुल सामने हैं- मसलन, एक पत्रकार जो पिछले साल कुछ दिनों के लिए एक बड़ी पत्रिका के ‘एडिटर-ऐट-लार्ज’ बने थे, उन्होंने अपनी पहचान का लाभ भारी विज्ञापनों के रूप में पत्रिका को न सिर्फ दिलवाया, बल्कि भूपेश बघेल के प्रायोजित साक्षात्कार वहां छापे और रायपुर में पत्रिका समूह के एक आयोजन को राज्य सरकार के तत्वाधान में करवाया। माना जाता है कि एक अंग्रेजी अखबार में छत्तीसगढ़ से रिपोर्ट करने के दौरान उनके सरकार से करीबी संबंध बने थे।
बहरहाल, ऐसी कहानियां बड़े रसूखदार पत्रकारों की बाजार में बहुत सी हैं। असल समस्या छोटी जगहों पर काम कर रहे उन स्वतंत्र पत्रकारों की है, जिनसे सरकार की दिलचस्पी न तो लेनदेन में होती है और न ही उन्हें बदली हुई सरकार और पत्रकार सुरक्षा कानून का कोई लाभ मिल पाता है। फॉलो-अप स्टोरीज ने छत्तीसगढ़ में कुछ ऐसे पत्रकारों से खुल कर बात की और जानना चाहा कि पत्रकार सुरक्षा कानून पारित होने के बीते आठ महीनों में ही सही, पत्रकारिता के मोर्चे पर यहां कुछ बदला है क्या।
कानून तो बन गया, लेकिन…
जशपुर में दैनिक भास्कर अखबार के साथ सम्बद्ध संवाददाता विकास पांडे पत्रकार सुरक्षा कानून के पारित किए जाने और छोटे शहरों या कस्बों में रिपोर्टिंग को लेकर कहते हैं, ‘’बड़े शहरों, जैसे राजधानी में तो पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक लॉबी होती है, लेकिन छोटे शहरों में प्रशासन या किन्हीं राजनेताओं की आलोचनात्मक रिपोर्टिंग पर संबंधित हित-समूह अलग तरीक़े से रिएक्ट करते हैं। कई बार उन पर तरह-तरह के मामले दर्ज करा के प्रताड़ित किया जाता है।‘’
विकास अपनी बात को पुख़्ता करते हुए एक उदाहरण देते हैं, कि एक व्यक्ति की जमीन दो बार बिकने और संबंधित व्यक्ति की पुलिस प्रताड़ना से हुई मौत को लेकर जिले के दो पत्रकारों ने जब रिपोर्टिंग की, तो पुलिस ने मामले पर रिपोर्ट करने वाले दो पत्रकारों पर ही पलट कर मुकदमा दर्ज कर दिया।

“पुलिस ने पत्रकारों पर मामला दर्ज करवाने के लिए जनजाति समूह से ताल्लुक रखने वाले आरोपी (भाजपा से सम्बद्ध) का भरपूर इस्तेमाल किया। कुल मिला-जुला कर पत्रकारों को रिपोर्टिंग करने से रोकने की कोशिशें की गईं।”
विकास पांडे
अब इस बात को समझने के लिए रॉकेट साइंस की जरूरत नहीं है कि छत्तीसगढ़ का पुलिस प्रशासन भाजपा और कांग्रेस में कोई भेदभाव नहीं करता, बस उसके लिए अगले को रसूखदार होना चाहिए। पांच साल पहले सरकार भले बदल गई थी, लेकिन यह समस्या पूरे राज्य में आम है।
रायपुर में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार आवेश तिवारी कहते हैं, ‘’यह सच है कि पुलिस प्रशासन और अधिकारियों का रवैया अब भी नहीं बदला है। यह कहना गलत होगा कि कानून बन जाने भर से पत्रकारों का उत्पीड़न खत्म हो गया है। अब भी पत्रकार प्रताडि़त हो रहे हैं। हां, पहले जैसी अंधेरी स्थिति बिलकुल नहीं है।‘’
पत्रकार सुरक्षा पर हमने तिवारी से पूछा कि दस के स्केल (एक मने सबसे अच्छा, दस मने सबसे खराब) पर वे इस सरकार को कितने अंक देंगे। उन्होंने इस सरकार को तीन अंक दिए। तकरीबन यही बात मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार रुचिर गर्ग भी कहते हैं, ‘’हम यदि सोच लें कि कानून बन जाने भर से चुनौतियां खत्म हो जाएंगी तो ऐसा होता नहीं है, लेकिन एक चीज के लिए हम आश्वस्त कर सकते हैं कि यह सरकार पत्रकारों की हितैषी सरकार है।‘’
गर्ग से हमने बीजापुर वाली हालिया घटना के संदर्भ में खुलकर बात की। पिछले महीने 25 अक्टूबर को बीजापुर से एक ख़बर आई कि नक्सलियों ने हाइवे पर आइईडी ब्लास्ट कर दिया है और हाइवे को जाम करते हुए मतदान का बहिष्कार करने का आह्वान कर रहे हैं। स्थानीय पत्रकारों ने इस खबर को ब्रेक किया और व्हाट्सएप पर खबर आगे बढ़ाई। इस पर स्थानीय प्रशासन ने कहा कि पत्रकार अफ़वाह फैला रहे हैं। सामान्य पत्रकारीय कर्म को लोक शांति में बाधा उत्पन्न करने वाला बताकर प्रशासन ने संबंधित पत्रकारों को नोटिस भेज दिया था।
रुचिर गर्ग कहते हैं कि मुख्यमंत्री को सब खबर है। वे कहते हैं, “मुख्यमंत्री पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर वाक़ई गंभीर हैं। पत्रकारों की सुरक्षा उनकी प्राथमिकता में है। उक्त घटना (बीजापुर) भी मुख्यमंत्री के संज्ञान में है। पत्रकारों पर किसी भी तरह की अनुचित कार्रवाई नहीं होगी जो प्रताड़ना के दायरे में चली जाए, लेकिन इस बात को भी समझने की ज़रूरत है कि पत्रकारिता खुद में एक चुनौती भरा काम है।‘’
छत्तीसगढ़ के पत्रकारों की दो पीढ़ी रुचिर गर्ग को अपना गार्जियन मानती है। खासकर नक्सल इलाकों की रिपोर्टिंग के मामले में रुचिर गर्ग शुरुआती चेहरों में रहे हैं, जिन्होंने राज्य में पत्रकार सुरक्षा क़ानून के लागू किए जाने से पहले इस कानून के मसौदे को तैयार करने में अहम भूमिका निभाई है। फॉलो-अप स्टोरीज से लंबी बातचीत में रुचिर गर्ग कहते हैं, ‘’इस सरकार के शुरुआती फैसलों में से इस क़ानून को लाना रहा, भले ही कई कारणों से इसे लाने में देर हुई। नौकरशाही का भी अपना रवैया और ढर्रा होता है। कानून के बनने और मामलों को देखने के लिए एक राज्यस्तरीय कमेटी गठित हो चुकी है और कानून का गजेट नोटिफिकेशन हो चुका है। अब नियम बनने हैं, जो कि बन कर तैयार हैं।”
“पत्रकार सुरक्षा कानून का मामला मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट में फंसा हुआ है। चुनाव के खत्म होते ही वे नियम-कायदे प्रभावशील हो जाएंगे।”
रुचिर गर्ग, मीडिया सलाहकार, मुख्यमंत्री छत्तीसगढ़

पत्रकार सुरक्षा कानून की प्रगति को देखते हुए कहा जा सकता है कि चुनाव में राजनीतिक दलों का किया वादा पूरा होने के लिए पांच साल का समय पर्याप्त नहीं होता है। चूंकि मौजूदा चुनाव भी वादों और गारंटियों के भरोसे लड़ा जा रहा है, तो वादों के पूरा किए जाने की गति और इस मामले में पिछला रिकॉर्ड ही तय करेगा कि मतदाता किस दल की ओर जाएगा। चूंकि एक पत्रकार भी मतदाता होता है, लिहाजा बघेल सरकार के प्रति चुनाव में पत्रकारों का क्या रुख रहेगा यह बहुत कुछ इस पर निर्भर करता है कि छत्तीसगढ़ के पत्रकार अपनी सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून को कैसे देखते हैं।
कानून पर आपत्तियां
बघेल सरकार ने इस कानून को लाते समय खुद की पीठ भी थपथपाई थी और मसौदे को प्रगतिशील और पत्रकार-हितैषी बताया था। भले ही छत्तीगसगढ़ पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कानून लाने वाला दूसरा राज्य बन गसया हो और मुख्यमंत्री इसे ‘ऐतिहासिक’ करार देते हों, लेकिन राज्य के भीतर सक्रिय कई पत्रकार सरकार के दावों से इत्तेफाक नहीं रखते। पत्रकारों की आपत्तियां कानून के तकनीकी पहलुओं पर हैं, जो वाजिब जान पड़ती हैं।
कई पत्रकारों को कानून के उस हिस्से से आपत्ति है जहां कौन पत्रकार है या नहीं, यह तय करने का अधिकार सरकार के पास होगा जबकि जस्टिस आफताब आलम की कमेटी की ओर से प्रस्तावित मसौदे में यह प्रावधान था कि हर जिले में एक मीडिया सुरक्षा इकाई का गठन होगा जिसके प्रतिनिधि स्थानीय पत्रकारों द्वारा ही चुने जाएंगे। मौजूदा पारित कानून में केवल एक राज्यस्तरीय प्राधिकरण और एक समिति का प्रावधान है।
इसके अलावा, कानून में यह बात गौरतलब है कि यहां ‘पत्रकार’ या ‘रिपोर्टर’ शब्द पर जोर देने के बजाय ‘मीडियाकर्मी’ को विस्तार से परिभाषित किया गया है। विधेयक में ‘मीडियाकर्मी’ का अर्थ है ऐसा व्यक्ति जो कर्मचारी, स्वतंत्र संविदा अथवा प्रतिनिधि के तौर पर किसी मीडिया प्रतिष्ठान से जुड़ा हो। इसमें लेखक, समाचार संपादक, उप-संपादक, फीचर लेखक, कॉपी एडिटर, रिपोर्टर, संवाददाता, कार्टूनिस्ट, समाचार फोटोग्राफर, वीडियो पत्रकार, अनुवादक, इंटर्न, और समाचार संकलनकर्ता या स्वतंत्र पत्रकार जो एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में मान्यता प्राप्त होने के पात्र हैं, आदि सभी शामिल हैं।

कानून के हिसाब से समाचार संकलनकर्ता की परिभाषा है स्ट्रिंगर या एजेंट समेत हर वह व्यक्ति जो नियमित रूप से समाचार या सूचना एकत्र करता है या उसे मीडियाकर्मियों या मीडिया प्रतिष्ठानों को भेजता है। वहीं “मीडियाकर्मी जिसे सुरक्षा की आवश्यकता है” की परिभाषा केवल जोखिम या हिंसा का सामना कर रहे पंजीकृत मीडियाकर्मी तक सीमित नहीं दिखती, बल्कि इसमें तकनीकी सहायक कर्मचारी, ड्राइवर, दुभाषिया और बाहरी वैन ऑपरेटर भी शामिल हैं।
कानून के अनुसार सरकार के पास मीडियाकर्मियों का एक रजिस्टर होगा। इसमें आवश्यक पात्रता की सूची भी दी गई है, जैसे छह बाइलाइन, तीन पेमेंट, आदि। पंजीकरण दो साल के लिए वैध होगा और इसका स्वत: नवीनीकरण नहीं होगा। कई पत्रकारों को यह बात ठीक लग रही है तो कई को नागवार भी गुजरी है।
Chhattisgarh Media Personnel Security Bill, 2023
ActNo.14of2023CHGइस कानून के लिए शुरू से ही आंदोलनरत संस्था पत्रकार संरक्षण कानून संयुक्त संघर्ष समिति के संयोजक कमल शुक्ला फॉलो-अप स्टोरीज से बातचीत में कहते हैं, ‘’इस कानून से राज्य के भीतर पत्रकारिता कर रहे लोगों के लिए कोई सहूलियत नहीं होने जा रही। यह कानून ग्राउंड पर काम कर रहे पत्रकारों के लिए धोखा है क्योंकि मसौदे के प्रावधानों को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया है। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के रिटायर्ड जज जस्टिस आफताब आलम की अध्यक्षता में बनी कमेटी के ड्राफ्ट को भी रद्दी की टोकरी में फेंक दिया।‘’
वे कहते हैं कि यह कानून ग्रामीण क्षेत्र में ईमानदारी से काम कर रहे लोगों के लिए और मुश्किलें पैदा कर देगा जबकि इन्हीं लोगों द्वारा की गई खबरों पर बाद में लोग फॉलो-अप करके अवॉर्ड जीत लेते हैं। वे इस बात की ओर ध्यान दिलाते हैं कि कानून में मीडियाकर्मियों की सुरक्षा के बजाय उनके पंजीकरण पर अधिक ध्यान दिया गया है।
शुक्ला कहते हैं, ‘’यह कानून राज्य की मीडिया को और भी अदृढ़ और सत्तापरस्त बनाने का प्रयास है। यह सर्वथा अनुचित है।‘’
हमलों का सिलसिला
कमल शुक्ला करीब आठ साल से पत्रकार सुरक्षा कानून के लिए लगभग ‘वन मैन आर्मी’ के बतौर आंदोलनरत थे। पिछली सरकार में तो उन्हें प्रताड़ना और देशद्रोह का मुकदमा झेलना ही पड़ा, लेकिन सरकार बदलने के बाद उनके ऊपर दिनदहाड़े कांकेर में जैसा जानलेवा हमला हुआ वह अप्रत्याशित था।
उन्हें सरेराह सरेबाजार कुछ गुंडों ने मारा-पीटा। एक और पत्रकार सतीश यादव की भी पिटाई हुई। यह घटना तीन साल पहले की है। विडम्बना यह है कि जिन लोगों ने शुक्ला पर हमला किया था, वे सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता थे।
पत्रकार कमल शुक्ला ने पत्रकार सुरक्षा कानून की नींव रखी उसी पत्रकार को छत्तीसगढ़ के कांग्रेस सरकार राज में सिर फटते तक कांग्रेस के लोगो ने मार पीट किया। pic.twitter.com/lixADoBWVV
— Tameshwar Sinha (@tameshwarsinha2) September 26, 2020
कमल शुक्ला पर हमले के खिलाफ देश भर से कोई दो दर्जन पत्रकारों ने तब भूपेश बघेल को पत्र लिखा था। चार लोगों के खिलाफ कांकेर में एफआइआर हुई। दबाव में आकर बघेल सरकार को जनसंपर्क विभाग के अंतर्गत छह सदस्यीय एक तथ्यान्वेषी दल गठित करना पड़ा जिसे दस दिन के भीतर अपनी रिपोर्ट जमा करने को कहा गया। इस घटना के विरोध में कमल शुक्ला लंबे समय तक रायपुर में अनशन पर बैठे रहे थे। सरकार बदलने के बाद पत्रकारों पर हमले का यह मामला काफी बड़ा था, हालांकि सरकार बदलने के तुरंत बाद भी कुछ हमले हुए थे और शुक्ला पर हमले के बाद भी हमले जारी रहे।


ज्यादातर हमलों को देखें तो समझ आता है कि वे विपक्षी भारतीय जनता पार्टी द्वारा या उसकी शह पर करवाए गए हमले थे। मसलन, भूपेश बघेल की सरकार बनने के तुरंत बाद भाजपा के कार्यालय में पार्टी के कार्यकर्ताओं ने वाइस न्यूज के सुमन पांडे पर हमला कर के उनका कैमरा आदि तोड़ दिया था। उस वक्त पार्टी मुख्यालय में हार की समीक्षा हो रही थी। इस घटना पर न केवल भाजपा के तीन नेताओं के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ, बल्कि रायपुर के पत्रकार धरने पर बैठ गए। इस तरह कह सकते हैं कि बघेल सरकार की शुरुआत ही पत्रकारों के आंदोलन से हुई।
इसी तरह, पिछले साल एक महिला पत्रकार ममता लांजेवार को उनके घर में घुसकर बजरंग दल के आठ व्यक्तियों ने डराया धमकाया। प्रकरण हाउसिंग बोर्ड की एक जमीन पर जबरन मंदिर बनाए जाने का था जिसका पत्रकार ममता विरोध कर रही थीं।
रायपुर की घटना को बहुत दिन नहीं बीते थे कि जशपुर में पत्रकारों पर हमले और मानसिक प्रताड़ना के मामले सामने आने लगे। पत्थलगांव के पत्रकार सुरेंद्र चेतवानी के ऊपर कुछ लोगों ने जमीन विवाद के चलते हमला कर दिया। पुलिस ने हमलावरों पर कार्रवाई के बजाय उलटे चेतवानी के खिलाफ ही मामला दर्ज कर लिया। एक और मामले में आइबीसी24 के रिपोर्टर विकास पांडे के साथ जिला अस्पताल में मारपीट की गई। इस पूरे मामले में जशपुर के सभी पत्रकार सड़क पर उतरे और एक सुर में पत्रकारों पर हो रहे हमले और झूठे मामले को खत्म करने को लेकर ज्ञापन सौंपा।
कांग्रेस के शासन में पत्रकार उत्पीड़न का सबसे बड़ा और चर्चित मामला जितेंद्र जायसवाल का रहा। अंबिकापुर में ‘भारत सम्मान’ नाम का अखबार चलाने वाले स्वतंत्र पत्रकार जितेंद्र को न सिर्फ थोन में पीटा गया, बल्कि यह उनकी पत्नी के सामने हुआ। एक थानेदार ने एक चिटफंड कंपनी के मालिक के कहने पर जितेंद्र को लगातार प्रताड़ित किया। जितेंद्र लगातार भूमाफिया और भ्रष्टाचार के खिलाफ खबरें लिख रहे थे।

पिछले दो साल में देखें, तो दो-तीन प्रकरण बहुत चर्चित रहे, जैसे सुनील नामदेव और निलेश शर्मा के उत्पीड़न के केस। इन मामलों में हालांकि स्थानीय पत्रकारों की राय बंटी हुई दिखती है। नामदेव के मामले में तो दिल्ली से पत्रकारों की एक फैक्ट फाइंडिंग टीम गई थी, लेकिन रायपुर के पत्रकारों के बीच नामदेव या निलेश को लेकर एक राय नहीं है।
जाहिर है, राजनीति जितना ज्यादा ध्रुवीकृत है उतना ही पत्रकार समाज भी बंटा हुआ है। अतीत में पत्रकारों द्वारा ही पत्रकारों को फंसाये जाने की घटनाएं यहां हो चुकी हैं क्योंकि ज्यादातर पत्रकार किसी न किसी पाले में बंधकर काम करने में महफूज महसूस करते हैं। इसके चलते सरकारों को भी एकतरफा कारवाई करने में सहूलियत होती है। बीजापुर की घटना इसका उदाहरण है।
इस मामले में प्रशासन की ओर से नामित पत्रकार मुकेश चंद्राकर से हमने संपर्क किया। मुकेश उस दिन हुई घटना और खबर को आगे प्रेषित किए जाने पर कहते हैं, “बात 25 अक्टूबर की है जब माओवादियों ने नेशनल हाइवे पर सड़क खोदकर आवागमन को बाधित किया जबकि पुलिस अधीक्षक ने ऐसी किसी भी बात से इनकार किया। तभी शाम (साढ़े सात) बजे के आसपास एक खबर आई कि जिले के जांगला थानाक्षेत्र में आइईडी ब्लास्ट हुआ है। तसदीक करने के दौरान ही हमें सूचना मिली कि हमारे एक साथी जो कि दैनिक भास्कर से सम्बद्ध हैं, वो मौके पर मौजूद हैं। उनकी सूचना को ही हमने आगे बढ़ाया। इस दौरान भास्कर ने मौके से ग्राउंड रिपोर्ट भी पब्लिक कर दी। इंडिया न्यूज ने तो संभवत: मौक़े से लाइव भी किया था, लेकिन हमें उसी ख़बर को आगे बढ़ाने के लिए एसडीएम कोर्ट की ओर से नोटिस जारी कर दिया गया। जवाब देने को कहा गया नहीं तो हम पर एकतरफा दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी।”

UAPA पर यथास्थिति
पत्रकार सुरक्षा कानून के बनने को लेकर राज्य के भीतर और इतर अच्छी-खासी बहस हुई थी। राज्य में सत्तारूढ़ दल (कांग्रेस) और निवर्तमान मुख्यमंत्री (भूपेश बघेल) ने तो विपक्ष में रहते हुए पत्रकारों की सुरक्षा को तब अपने खास एजेंडे में रखा था। कांग्रेस ने पत्रकारों के सुरक्षा के मसले को विशेष तौर पर अपने घोषणापत्र में शामिल किया था। तब विपक्ष के एजेंडे को इसलिए भी बल मिला था क्योंकि राज्य के बस्तर संभाग के भीतर नियुक्त आइजी एसआरपी कल्लूरी पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए ‘आतंक’ का पर्याय बन कर उभरे थे- चाहे पत्रकारों को रिपोर्टिंग करने से रोकना हो या फिर सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ उस दौरान किया गया दुर्व्यवहार।
विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस उन्हें बस्तर में ‘सरकारी आतंकवाद’ को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार तक ठहराती रही, हालांकि सत्ता में आने के बाद कल्लूरी को इकोनॉमिक ऑफेंस यूनिट में नियुक्ति दे दी गई। इसका उस समय काफी विरोध हुआ था। बीते लंबे समय से हालांकि कल्लूरी की कहीं कोई चर्चा नहीं है, लिहाजा बस्तर से भी उत्पीड़न की खबरें आना बंद हो गई हैं। बीजापुर की घटना से जोड़कर देखें तो ऐसा लगता है कि सरकार अब ‘अप्रिय’ खबरें दबाने पर ज्यादा काम कर रही है। ढाई साल में दो सौ करोड़ का मीडिया पर किया गया खर्च इसकी पुष्टि करता है।
इसके बावजूद, यह संतोष की बात है कि लंबे इंतजार के बाद महाराष्ट्र के बाद छत्तीसगढ़ देश का दूसरा ऐसा राज्य बन गया है जहां पत्रकारों के लिए एक सुरक्षा कानून है। यह बात अलग है कि सूबे के भीतर सक्रिय पत्रकारों और इस विधा से जुड़े अन्य लोगों की स्थितियां कुछ ख़ास बदलती नहीं दिखाई देती हैं। ग्राउंड जीरो पर काम कर रहे पत्रकारों और रिपोर्टरों के लिए यथास्थिति बरकरार है।
इस यथास्थिति को दो महत्वपूर्ण लेकिन परस्पर विरोधी प्रकरणों से समझा जा सकता है। इसमें एक को सकारात्मक और दूसरे को नकारात्मक कहा जा सकता है। पहला मामला बस्तर के पत्रकार संतोष यादव का है जिनके ऊपर 2015 में भाजपा के राज में यूएपीए की संगीन धाराएं लगाई गई थीं। संतोष पांच साल जेल में रहने के बाद 2020 में बरी और रिहा हो गए। दूसरा मामला आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता हिडमे मरकम का है जिनके ऊपर यूएपीए की धारा भूपेश बघेल की सरकार में ही लगाई गई थी। पुलिस को दो साल तक आरोप साबित करने के हक में कोई सबूत नहीं मिले, मरकम रिहा हो गईं।
इन दोनों मामलों को देखें, तो यूएपीए के प्रयोग के स्तर पर भाजपा और कांग्रेस की सरकारों के बीच फर्क करना मुश्किल है। फिर भी, यह सच है कि पत्रकार कानून सुरक्षा से इतर, बस्तर अब पत्रकारिता का ‘ब्लैक होल’ नहीं रह गया है। इसके पीछे कई कारण गिनवाए जा सकते हैं, लेकिन पत्रकार सुरक्षा कानून उस पंक्ति में सबसे अंतिम होगा, जिसे बनने में पांच साल लग गए और जो अब भी जमीन पर नहीं उतर सका है।
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8) Удобный способ для утилизации мусора – мешки для мусора
9) Продуманное приобретение для любого дома – мешки для мусора
10) Просто сортируйте мусор с помощью различных цветов мешков для мусора
11) Сэкономьте время и силы с надежными мешками для мусора
12) Защитите окружающую среду вместе с мешками для мусора
13) Удобный способ для уборки двора – мешки для мусора
14) Сортируйте мусор в мешках для мусора
15) Качество и экологичность – главные критерии при выборе мешков для мусора
16) Сохраняйте свой двор в чистоте с мешками для мусора
17) Легко и быстро – утилизируйте мусор с помощью мешков для мусора
18) Интуитивно понятные мешки для мусора упростят вашу жизнь
19) Экономьте место с помощью компактных мешков для мусора
20) Поддержите чистоту города с качественными мешками для мусора
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