भारत का पत्रकार मानवाधिकार कार्यकर्ता कैसे बना?

इस प्रेस स्‍वतंत्रता दिवस पर युनेस्‍को की थीम में एक अदृश्‍य सबक छुपा है, कि अब समुदाय, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता के बीच अंतर बरतने का वक्‍त जा चुका

अधिकारों का भविष्‍य: अन्‍य सभी मानव अधिकारों के चालक के रूप में अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता अपने तीसवें वर्ष में प्रवेश कर चुके विश्‍व प्रेस स्‍वतंत्रता दिवस की यह थीम अपने आप में एक मुकम्‍मल कहानी हो सकती है। इस थीम में अधिकारों का एक ऐसा भविष्‍य गढ़ने की बात शामिल है जो अभिव्‍यक्ति की आजादी पर टिका हो। यानी अगर लिखने-बोलने की आजादी नहीं है, तो आपके पास कोई और अधिकार नहीं बचेंगे। यानी यदि आपको अपने अधिकारों को बचाना है तो लिखने-बोलने वालों के उत्‍पीड़न के खिलाफ आपको खड़ा होना होगा। यानी समाज को पत्रकारों के साथ खड़ा होना होगा- जाहिर है, उन पत्रकारों के साथ, जो समाज के हक में खड़े होने की कीमत चुकाते हैं।

इस साल संयुक्‍त राष्‍ट्र की संस्‍था युनेस्‍को इस नायाब थीम तक क्‍यों और कैसे पहुंची, इसकी प्रक्रिया क्‍या रही, इसे भारत में लिखने-बोलने के खास परिदृश्‍य के आलोक में समझा जाना चाहिए।

पांच साल पहले


शुजात बुखारी

वह 2018 की गर्मियां थीं जब कश्‍मीर के मानिंद पत्रकार और राइजिंग कश्‍मीर के संपादक शुजात बुखारी की गोली मार के हत्‍या कर दी गई थी। बेशक, 2010 से इस हत्‍या के बीच गुजरे आठ वर्षों के दौरान 27 और पत्रकार इस देश में मारे गए थे, लेकिन बुखारी की हत्‍या को पहली बार मानवाधिकार के दायरे में देखा जा रहा था। उनसे पहले मारे गए 27 पत्रकारों में दो बड़े नाम थे- मुंबई के जे. डे और बंगलुरु की गौरी लंकेश, लेकिन इन दोनों के मामलों में इनकी निजी और वैचारिक सम्‍बद्धताओं को भी हत्‍या के साथ जोड़ कर देखा गया था। संभवत: पहली बार संयुक्‍त राष्‍ट्र के भीतर शुजात बुखारी की हत्‍या का मामला वहां के मानवाधिकार उच्‍चायुक्‍त ने उठाया और भारत के राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस मामले में जम्‍मू और कश्‍मीर की सरकार व पुलिस महानिदेशक को नोटिस भेजा। अपने भाषण में मानवाधिकारों पर संयुक्‍त राष्‍ट्र के उच्‍चायुक्‍त जायद राद अल हुसैन ने शुजात बुखारी को ‘ह्यूमन राइट्स डिफेन्‍डर’ यानी मानवाधिकार रक्षक कहा था।

इसके हत्‍या के बाद नागरिक समाज के भीतर इस बात का अहसास बड़ी शिद्दत के साथ हुआ कि एक पत्रकार की हत्‍या केवल एक पत्रकार की हत्‍या नहीं है और पत्रकार केवल एक पत्रकार भर नहीं है। जिस तरह एक पत्रकार लोगों के अधिकारों के लिए लिखता है, ठीक उसी तरह तो मानव अधिकारों के रक्षक कार्यकर्ता और समाजकर्मी भी लोगों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते हैं। यानी दोनों का लक्ष्‍य एक ही है, पेशेवर तरीके अलहदा हो सकते हैं। चूंकि उसी दौर में भारत के समाजकर्मियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर भी हमले बढ़ रहे थे, तो यह दर्द दोनों का साझा था। दोनों के बीच एक पुल का बनना जरूरी था।

पत्रकार भी एचआरडी है!

उस वक्‍त एक हत्‍या से पैदा हुए इस अहसास के पीछे बेशक इतनी सूत्रवत समझदारी नहीं रही होगी कि बाकी सारे अधिकार अभिव्‍यक्ति की आजादी के अधिकार से ही निकलते हैं। फिर भी, आने वाले वर्षों में, खासकर मार्च 2020 में लगाए गए लॉकडाउन के बाद से पत्रकारों पर जिस ढंग से हमले बढ़े, अधिकतर मामलों में यह देखा गया कि पैरवी के लिए लोगों ने मानवाधिकार आयोग का दरवाजा खटखटाया। उसी दौरान बनारस के पास एक घटना हुई थी। लॉकडाउन को लगे कुछ दिन बीते थे। एक सामाजिक कार्यकर्ता ने मुसहर समुदाय के बच्‍चों को जंगली घास खाते हुए देखा। उसने जनसंदेश अखबार के संवाददाता को खबर दी। यह खबर बाकायदे पहले पन्‍ने पर छपी। इस खबर पर स्‍थानीय संपादक विजय विनीत और संवाददाता को जिलाधिकारी ने नोटिस भेज दिया।

इस मामले में जिस व्‍यापक स्‍तर पर पैरवी हुई, उसमें राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग को बाकायदे संयुक्‍त राष्‍ट्र के मानवाधिकार उच्‍चायोग का घोषणापत्र (ओएचसीएचआर) भेजा गया जिसमें पत्रकारों को मानवाधिकार रक्षक (एचआरडी) कहा गया था। भुखमरी की कगार पर खड़े एक समुदाय के जीवन के अधिकार की रक्षा करने के उद्देश्‍य से की गई खबर पर जहां प्रशासन के कान खड़े हो जाने चाहिए थे, उसने खबरनवीस को ही दोषी मान लिया। इसके बाद कई ऐसे मामले पत्रकार उत्‍पीड़न के रहे जहां ओएचसीएचआर के घोषणापत्र का सहारा लिया गया। यह घोषणापत्र 1998 में संयुक्‍त राष्‍ट्र आम सभा द्वारा अपनाया गया था, लेकिन दो दशक बाद भारत में इसका प्रयोग नागरिक समाज अपनी संस्‍थाओं को जगाने के लिए कर रहा था।

ऐसा नहीं है कि युनेस्‍को यदि इस वर्ष अभिव्‍यक्ति की आजादी को बाकी सभी मानवाधिकारों का मूल नहीं बताता तो यह बात कहीं पदिृश्‍य में होती ही नहीं। अपने अनुभव से लोग, कम से कम भारत में, इस समझदारी पर पहुंच रहे थे कि जनता के संवैधानिक अधिकारों की गारंटी मूल रूप से बोलने की आजादी पर टिकी हुई है। संयोग नहीं है कि उसी दौरान आई रवीश कुमार की किताब का नाम ही था- बोलना ही तो है। बुखारी की हत्‍या के बाद का ही वह दौर रहा जब लोगों ने बोलने के अलग-अलग तरीके आजमाए। देश में स्‍टैंड-अप कॉमेडियनों की बाढ़ आ गई। लोग कुछ सेकंड के रील बनाकर बोलने लगे। अभिव्‍यक्ति रुकी नहीं, उसने बस अपनी शक्‍ल बदल ली। अब सामाजिक कार्यकताओं को प्रताडि़त होने के लिए कुछ ठोस करने की जरूरत नहीं रह गई। केवल बोलने पर ही उनके खिलाफ मुकदमे होने लगे। पत्रकारों को बोलने की भी जरूरत नहीं थी, केवल एक ट्वीट उन्‍हें जेल पहुंचा सकता था।

इन ज्‍यादतियों का रंग पिछले साल विश्‍व प्रेस स्‍वतंत्रता सूचकांक में उभर कर आया जब भारत 180 देशों के बीच आठ पायदान नीचे खिसक कर 150वें नंबर पर पहुंच गया। इस साल यह स्थिति और बुरी हो चुकी है। भारत 11 पायदान नीचे खिसक कर 161वें स्थान पर जा चुका है।

सरकार इस सूचकांक को नहीं मानती। सरकार किसी ऐेसे सूचकांक को नहीं मानती जो विदेशी हो। और देसी सूचकांकों या आंकड़ों को उसने पालतू बना लिया है। जैसे बनारस के जिलाधिकारी ने भी नहीं माना था कि अकरी की घास जंगली होती है, जिसे लॉकडाउन में मुसहर खा रहे थे। यह साबित करने के लिए खुद जिलाधिकारी ने अपने मासूम बच्‍चे के साथ अकरी की घास का गट्ठर रखकर फेसबुक पर फोटो पोस्‍ट की और दावा किया कि इसे तो खाया ही जाता है। इस किस्‍म की हरकतों से दो चीजें सधती हैं- पहली, कि समुदाय के मानवाधिकार का हनन नहीं हुआ है और इसी से निकलती दूसरी बात, कि पत्रकार ने मानवाधिकार की रक्षा नहीं की है। इस तरह पत्रकार को राजकाज बदनाम करने का दोषी ठहराया जा सकता है। सुप्रिया शर्मा से लेकर दिवंगत पवन जायसवाल तक यही हुआ। सरकार ने यह स्‍थापित ही नहीं होने दिया कि पत्रकार मानव अधिकारों पर बात कर रहा है। लिहाजा, कोरोना के पहले चरण तक मानव अधिकार और पत्रकारिता कमोबेश दो अलग छोर पर बने रहे और दोनों के गले में शिकंजा कसता रहा।

दूरियां कैसे कम हुईं

अभिव्‍यक्ति की आजादी की कहानी बदली किसान आंदोलन से, लेकिन इस परिवर्तन की पृष्‍ठभूमि दिल्‍ली के दंगों के दौरान तैयार की जानी शुरू हुई थी। यह दंगा नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में उपजे आंदोलन की परिणति था, जिस दौरान पत्रकारों के आइडीकार्ड यानी उनके संस्‍थान को देखकर उनके ऊपर दिल्‍ली के अलग-अलग इलाकों में हमले किये जा रहे थे। उक्‍त अवधि में अकेले दिल्‍ली में जो 32 घटनाएं सामने आयी थीं, उनमें हमला करने वाले ज्‍यादातर ऐसे लोग थे जिनका सीधे तौर पर सत्‍ता प्रतिष्‍ठान से कोई लेना-देना नहीं था। ये अराजकीय तत्‍व थे, लेकिन इनके हमले सरकारी नैरेटिव के तर्ज पर थे। यह पहली बार पत्रकारों के ऊपर हिंसा की संगठित ‘आउटसोर्सिंग’ थी। दिल्‍ली के दंगों तक आते-आते यह स्थिति राजकीय हमले में तब्‍दील होती दिखी, जहां न केवल दिल्‍ली बल्कि उत्‍तर प्रदेश, तेलंगाना और कश्‍मीर जैसे राज्‍यों में पत्रकारों को पुलिस की ज्‍यादती का शिकार बनना पड़ा। यह स्थिति कोरोना महामारी के चलते लगाए गए लॉकडाउन से ठीक पहले तक थी। पत्रकारों के मोबाइल का सर्वेलांस और मुसलमानों को दंगा भड़काने वाला साबित किया जाना दोहरी कवायद थी। इसी का विस्‍तार था कोरोना लॉकडाउन में अकेले पत्रकारों पर नहीं बल्कि आम लोगों पर लादे गए मुकदमे और तबलीगी जमात के बहाने एक समूचे समुदाय का खलनायकीकरण।

इसे सिर्फ इस आंकड़े से समझें, कि 2020 में लगाये गये लॉकडाउन के पहले महीने में उत्‍तर प्रदेश में 19448 एफआइआर दर्ज किए गए और 60,258 व्‍यक्तियों पर आइपीसी की धारा 188 व महामारी अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज किया गया (बार एंड बेंच, 17 अप्रैल 2020)। हालत यह हो गई थी कि इतनी भारी संख्‍या में दर्ज की गई एफआइआर को खत्‍म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका लगानी पड़ गई। 2020 और 2021 के लॉकडाउन में यानी मोटे तौर पर दो साल के भीतर जितने पत्रकारों को महामारी अधिनियम के तहत नोटिस पकड़ाए गए या जिनका उत्‍पीड़न हुआ उसकी गिनती व्‍यावहारिक तौर पर नामुमकिन है- पूरे देश की तो छोड़ दें, अकेले एक राज्‍य में भी यह काम भगीरथ प्रयास के बराबर होगा। यह बात अलग है कि कानूनी नोटिसों और एफआइआर की इतनी भारी संख्‍या अपने आप में इस बात को साबित करती है कि कम से कम दो साल तक देश में डंडे का राज चला है।


Republic-In-Peril_report


इससे पहले साल भर तक चले किसान आंदोलन में किसानों को ही अलग-अलग नामों और विशेषणों से बदनाम किया गया। उत्‍तर प्रदेश में बलात्‍कृत महिला पर मुकदमा हुआ। पत्रकारों को खबर लिखने के लिए देश को बदनाम करने का दोषी ठहराया गया। इस तरह अब ‘शूट द मैसेंजर’ के साथ ‘ब्‍लेम द विक्टिम’ न्‍यू नॉर्मल बन रहा था। पत्रकार और जनता को सरकार एक चक्‍की में पीसने लगी। सुप्रीम कोर्ट दो साल के इस सर्वसत्‍तावाद के बाद राज्‍यतंत्र को जब ‘ऑरवेलियन’ कहने को मजबूर हुआ, तो जाहिर है ये आंकड़े उसकी नजर से भी ओझल नहीं रहे होंगे। और यह भी संयोग नहीं है कि युनेस्‍को ने 2022 में यानी पिछले साल प्रेस स्‍वतंत्रता दिवस की अपनी थीम ‘जर्नलिज्‍म अंडर सर्वेलांस’ रखी थी! यानी भारत में अभिव्‍यक्ति की आजादी के अधिकार और संवैधानिक अधिकार, दोनों पर राजकीय निगरानी की समान नियति संयुक्‍त राष्‍ट्र की निगाह में जरूर रही होगी।

आम लोगों और पत्रकारों को एक साथ जो चक्‍की 2020 में पीस रही थी, उसका पाट बाद में काफी चौड़ा हो गया जब पेगासस जासूसी की कहानी जुलाई 2021 में उजागर हुई। भारत में कम से कम 174 ऐसे लोगों के नाम सामने आए जिनकी सरकारी जासूसी की गई थी। इसमें पत्रकार तो थे ही, खुद भारत सरकार के मंत्री तक शामिल थे। फोन नंबरों के आधार पर जासूसी के शिकार व्‍यक्तियों से मीडिया संस्‍थानों ने जब दरयाफ्त की, तब जाकर यह बात सामने आई कि कोई दो साल पहले ज्‍यादातर व्‍यक्तियों को वॉट्सएप की तरफ से जासूसी से आगाह करते हुए संदेश भेजे गए थे। इसके बाद यह उद्घाटन भी हुआ कि भीमा कोरेगांव प्रकरण में जिन पत्रकारों, समाजकर्मियों और वकीलों को जेल भेजा गया है उन सबकी इस माध्‍यम से न केवल जासूसी की गई थी बल्कि उनके मोबाइल और लैपटॉप में ऐसे फर्जी दस्‍तावेज प्‍लांट किए गए थे जिनके आधार पर उन्‍हें अपराधी ठहराया जा सके। हिंदी पट्टी के कम से कम चार पत्रकार इस जासूसी का शिकार हुए- ‘दस्‍तक नये समय की’ पत्रिका की संपादक सीमा आज़ाद, वर्कर्स राइट्स के संपादक संदीप राय, चौथी दुनिया के संपादक संतोष भारतीय और झारखण्‍ड के स्‍वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह।

पेगासस प्रकरण का उद्घाटन यदि नहीं होता तो शायद यह समझने में दिक्‍कत आती कि अभिव्‍यक्ति की आजादी पर प्रतिबंध लगाने से लेकर जासूसी करने और उस पर हमला करने वाले तमाम संदिग्‍ध तत्‍वों के पीछे दरअसल सीधे तौर पर राज्‍य की ही भूमिका है। मार्च 2020 तक जैसे हमले पत्रकारों पर हुए, हम यही मानते रहे कि राजकीय ताकतों के साथ बाहरी तत्‍वों की भी स्‍वतंत्र भूमिका आवाजों को दबाने में थी। पेगासस ने एक झटके में इस धुंध को छांट दिया। इस धुंध के छंटने के बाद 2020 और 2021 में पत्रकारों पर हमले के आंकड़े जब हम सामने रख के देखते हैं, तो उनका आशय और उनमें छुपे हुए निहितार्थ बहुत साफ समझ में आते हैं। साथ में यह भी समझ आता है कि बीते कुछ वर्षों के दौरान भारत राजकीय हमलों का शिकार हर वह व्‍यक्ति हुआ है जिसका कोई भी लेना-देना जनता के अधिकारों से रहा हो। वह नेता-मंत्री, कार्यकर्ता, आंदोलनकारी, पत्रकार या सामान्‍य सोशल मीडिया उपयोक्‍ता भी हो सकता है।

साझा हित, साझा कार्रवाई

मानवाधिकार संस्‍थानों और पत्रकार समूहों को अपने-अपने अनुभव के आधार पर इस समझदारी पर पहुंचने में बेशक कुछ वक्‍त लगा, लेकिन 2022 की शुरुआत में इसकी परिणति एक साझा रिपोर्ट में हुई। यह रिपोर्ट उत्‍तर प्रदेश में पत्रकारों पर हमले पर केंद्रित थी जिसे पत्रकारों पर हमले के विरुद्ध समिति (काज) और पीपुल्‍स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने मिलकर तैयार किया था। ऐसे कई प्रयास 2020 के बाद हुए। मीडिया पर खुद पीयूसीएल ने अपनी एक रिपोर्ट निकाली, तो दूसरी ओर कमेटी टु प्रोटेक्‍ट जर्नलिस्‍ट्स (सीपीजे) जैसे प्रतिष्ठित पत्रकारीय संस्‍थानों ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं तक अपनी चादर फैलाई। भीमा कोरेगांव हिंसा के केस में जेल में बंद गौतम नवलखा और आनंद तेलतुम्‍बडे की सूचनाओं को सीपीजे ने न सिर्फ अपने मंच पर जगह दी बल्कि उनके लिए नियमित अपील भी जारी की।

राज्‍य के बरअक्‍स मानवाधिकार कार्यकर्ता और पत्रकार को एक पंक्ति में रखकर देखने की जो कोशिश शुजात बुखारी की हत्‍या के बाद शुरू हुई थी, 2022 आते-आते वह अंतरराष्‍ट्रीय मंचों पर मान्‍य हो गई। बोलने के अधिकार और बाकी अधिकारों के बीच एक सहज बिरादराना रिश्‍ता कायम हो गया। हाथ घुमाकर कान पकड़ें, तो कह सकते हैं कि यह काम सरकार ने किया। उसने महामारी की आड़ में सबको एक साथ रखकर तौल दिया। सबके दुखों के बीच एक रिश्‍ता बन गया। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के बीच बरसों से चला आ रहा नकली पेशागत विभाजन खत्‍म हो गया।


Media-Ki-Gherabandi_Final


उपर्युक्‍त के आलोक में यदि हम युनेस्‍को की ताजा थीम ‘’अन्‍य सभी मानव अधिकारों के चालक के रूप में अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता’’ को देखें, तो कम से कम भारत के विशिष्‍ट संदर्भ में इसे सुसंगत पाते हैं। हम जहां पहुंचे हुए थे, युनेस्‍को वहां थोड़ी देर से पहुंचा। लिखने-बोलने की आजादी ही सर्वोपरि है। यहां पर एक जरूरी सवाल बच जाता है कि सूचनाओं की महामारी के दौर में आखिर सच को कैसे बोलें और लिखें।

इस संदर्भ में सबसे पहले दो परचों का जिक्र करना उचित होगा- पहला परचा जर्नल ऑफ पब्लिक इकनॉमिक्‍स में दिसंबर 2018 का है जिसका शीर्षक है: ‘’फैक्‍ट्स, आल्‍टरनेटिव फैक्‍ट्स एंड फैक्‍ट चेकिंग इन टाइम्‍स ऑफ पोस्‍ट-ट्रुथ पॉलिटिक्‍स’’। दूसरा परचा अमेरिकन जर्नल ऑफ कल्‍चरल सोशियोलॉजी में 28 सितंबर 2020 को प्रकाशित है जिसका शीर्षक है ‘’दि परफॉर्मेंस ऑफ ट्रुथ’’।

सच कैसे कहें

मीडिया में 2020 के बाद विकसित हुए परिदृश्‍य को देखते हुए सच को कहने और बरतने के संदर्भ में कुछ पुरानी कथाएं सुनाई जानी जरूरी लगती हैं। झूठ के मेले में सच का ठेला लगाने के ये तरीके इतिहास की विरासत हैं और भविष्‍य की जिम्‍मेदारी।

अमेरिकी नाज़ी पार्टी के एक मुखिया होते थे जार्ज लिंकन रॉकवेल। साठ के दशक में उनकी एक मीडिया रणनीति बहुत चर्चित थी। इसे उन्‍होंने अपनी आत्‍मकथा में भी लिखा था:

‘’यहूदियों को उनके अपने साधनों से हमारे संदेश फैलाने को बाध्‍य कर के ही हम उनके वामपंथी, नस्‍लमिश्रण सम्‍बंधी दुष्‍प्रचार का जवाब देने में थोड़ा बहुत कामयाब होने की उम्‍मीद पाल सकते हैं।‘’

उन्‍होंने क्‍या किया? हारवर्ड से लेकर कोलम्बिया युनिवर्सिटी तक कैंपस दर कैंपस अपने हिंसक विचारों और अपने अनुयायियों की भीड़ का बखूबी इस्‍तेमाल किया सुर्खियों में बने रहने के लिए, जिसमें वे सफल भी हुए। रॉकवेल को दो चीजें चाहिए थीं इसके लिए: पहला, एक नाटकीय और आक्रामक तरीका जिसकी उपेक्षा न की जा सके। दूसरे, जनता के सामने ऐसे नाटकीय प्रदर्शन करने के लिए बेशर्म और कड़े नौजवान। वे इस बात को समझते थे कि कोई भी आंदोलन तभी कामयाब होगा जब उसके संदेश को खुद मीडिया आगे बढ़ाएगा। अपने यहां अन्‍ना आंदोलन को याद कर लीजिए, जो काफी हद तक मीडिया का गढ़ा हुआ था।

अमेरिका में रॉकवेल की काट क्‍या थी, यह जानना ज़रूरी है। वहां के कुछ यहूदी समूहों ने पत्रकारों को चुनौती दी कि वे रॉकवेल के विचारों को कवर ही न करें। वे इस रणनीति को ‘’क्‍वारंटीन’’ कहते थे। इसके लिए सामुदायिक संगठनों के साथ मिलकर काम करना होता था ताकि सामाजिक टकराव को कम से कम किया जा सके और स्‍थानीय पत्रकारों को पर्याप्‍त परिप्रेक्ष्‍य मुहैया कराया जा सके यह समझने के लिए कि अमेरिकी नाज़ी पार्टी आखिर क्‍यों कवरेज के लिए उपयुक्‍त नहीं है।

जिन इलाकों में क्‍वारंटीन कामयाब रहा, वहां हिंसा न्‍यूनतम हुई और रॉकवेल पार्टी के लिए नए सदस्‍यों की भर्ती नहीं कर पाए। उन इलाकों की प्रेस को इस बात का इल्‍म था कि उसकी आवाज़ को उठाने से नाज़ी पार्टी का हित होता है, इसलिए समझदार पत्रकारों ने ‘’रणनीतिक चुप्‍पी’’ ओढ़ना चुना ताकि जनता को न्‍यूनतम नुकसान हो।

पत्रकारिता में रणनीतिक चुप्‍पी कोई नया आइडिया नहीं है। 1920 के दशक में कू क्‍लक्‍स क्‍लान अपने काडरों की बहाली के लिए मीडिया कवरेज को सबसे प्रभावी तरीका मानता था और पत्रकारों से दोस्‍ती गांठने में लगा रहता था। 1921 में न्‍यूयॉर्क वर्ल्‍ड ने तीन हफ्ते तक इस समूह का परदाफाश करने की कहानी प्रकाशित की, जिसे पढ़कर हजारों पाठक कू क्‍लक्‍स क्‍लान में शामिल हो गए। क्‍लान को कवर करने के मामले में कैथेलिक, यहूदी और अश्‍वेत प्रेस का रवैया प्रोटेस्‍टेन्‍ट प्रेस से बिलकुल अलहदा था। वे इस समूह को अनावश्‍यक जगह नहीं देते थे। अश्‍वेत प्रेस अपनी इस रणनीतिक चुप्‍पी को ‘’डिग्निफाइड साइलेंस’’ कहता था।

ये कहानियां बताने का आशय यह है कि पत्रकारों और संस्‍थानों को यह समझना चाहिए कि अपनी सदिच्‍छा और बेहतरीन मंशाओं के बावजूद वे कट्टरपंथियों के हाथों इस्‍तेमाल हो जा सकते हैं। स्‍वतंत्रता, समानता और न्‍याय के हित में यही बेहतर है कि इन संवैधानिक मूल्‍यों के विरोधियों को अपने यहां जगह ही न दी जाय, फिर चाहे वह कैसी ही खबर क्‍यों न हो। सभी भारतीयों को अपनी बात अपने तरीके से कहने का अधिकार है, लेकिन ज़रूरी नहीं कि हर व्‍यक्ति के विचारों को प्रकाशित किया ही जाय, खासकर तब जब उनका लक्ष्‍य हिंसा, नफ़रत और अराजकता पैदा करना हो।

एक पत्रकार अपनी सीमित भूमिका में आज की तारीख में नफरत और झूठ को बढ़ावा देने से अपने स्‍तर पर रोक सकता है। आखिर हम पत्रकारिता इसी बुनियादी आस्‍था के साथ तो करते हैं कि हमारे लिखे से फर्क पड़ता है। इसलिए लिखने से पहले यह सोच लेने में क्‍या बुराई है कि कहीं हम कवर करने की जल्‍दबाजी तो नहीं कर रहे? फिलहाल अगर चुप ही रह जाएं, तो क्‍या बुरा? 


विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस 2023 पर यूनेस्को का संकल्प

384177eng


वैकल्पिक मीडिया की एक सशक्‍त आवाज और दि सिविक बीट की सह-संस्‍थापक अन जि़याओ मीना एक बेहतर विकल्‍प सुझाती हैं: वे कोरोना के बाद मीडिया के व्‍यवहार को पीली कनारी चिडि़या का नाम देती हैं। इसका एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य है जिसे जानना ज़रूरी है।

इंग्‍लैंड में कोयले की खदानों में पीली कनारी चिडि़या को रखा जाता था। यह प्रथा 1911 से 1986 तक चली, जिसके बाद खतरे को भांपने वाली मशीनें आ गईं। दरअसल, कनारी को जीने के लिए बहुत ऑक्‍सीजन की जरूरत होती है। खदानों के भीतर मीथेन गैस के रिसाव का खतरा रहता है। उसका संकेत कनारी के मरने से मिल जाता था। इससे सजग होकर किसी बड़े खतरे, विस्‍फोट या आग को टाला जा सकता था। मशीनें आईं तो कनारी की ऐतिहासिक भूमिका समाप्‍त हो गई।

आज भले ही फैक्‍ट चेक करने के लिए तमाम ऑनलाइन उपकरण मौजूद हैं, लेकिन एक पत्रकार के बतौर हम उससे कहीं बेहतर पहले ही ज़हरीली होती सामाजिक हवा को महसूस कर सकते हैं। हम जिस तरह चुनावों को सूंघते हैं और उलटे सीधे फ़तवे देते हैं, उसी तरह सामाजिक संकटों को सूंघने और चेतावनी जारी करने के अभ्‍यास को अपने काम का नियमित हिस्‍सा बनाना होगा। चुनाव तो मैनिपुलेट किए जा सकते हैं, शायद इसीलिए पत्रकारों की भविष्‍यवाणियां गलत हो जाती हैं। सामाजिक परिवेश तो साफ़-साफ़ भाषा में हमसे बोलता है। एक पत्रकार अपने सहजबोध से हर घटना के सच झूठ को समझता है। ये वही कनारी का सहजबोध है, जो मीथेन गैस के रिसाव पर चहचहा उठती थी। इससे पहले कि कोई आग लगे, कनारी सबकी जान बचा लेती थी।

अन जि़याओ मीना द्वारा पीली कनारी का बिम्‍ब इस लिहाज से दिलचस्‍प है जब वे कहती हैं कि 2020 का वर्ष हमारे लिए एक चेतावनी बनकर आया था कि आगे क्‍या होने वाला है। 2021 और उससे आगे के लिए 2020 में कोई संदेश छुपा था, तो पत्रकारों के लिए व‍ह बिलकुल साफ है- तकनीकी निर्भरता को कम कर के सहजबोध को विकसित करें और बोलें। ट्विटर पर चहचहाने से कहीं ज्‍यादा ज़रूरी है अपने गली, समाज, मोहल्‍ले में गलत के खिलाफ आवाज उठाना। यहीं युनेस्‍को का ताजा नारा हमारे लिए मंत्र बन जाता है कि हर किस्‍म के अधिकार का मूल हमारे बोलने के अधिकार में निहित है।

अधिकार से मूल्‍य तक

इस प्रेस स्‍वतंत्रता दिवस पर युनेस्‍को की थीम में एक अदृश्‍य सबक छुपा है, कि अब समुदाय, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता के बीच अंतर बरतने का वक्‍त जा चुका। दुनिया भर में 2020 के बाद सामने आए पत्रकारिता के संकट के संदर्भ में जो वैकल्पिक काम हो रहे हैं, उनके मूल में यही बात है कि हम अपने मन के भीतर मौजूद विभाजनों और पूर्वग्रहों को पाटें; विभाजन बढ़ाने के बजाय इस विभाजन को ही विषय बनाएं; और इस पर बात करें। जब युनेस्‍को पत्रकार और गैर-पत्रकार यानी पेशागत कारण से बोलने वालों और बाकी बोलने वालों के बीच का फर्क नहीं कर रहा, तो इसका आशय यह है कि वह दरअसल बोलने के मूल्‍य को केंद्र में रख रहा है। मूल्‍य के स्‍तर पर पहुंचकर अभिव्‍यक्ति सबकी हो जाती है। वह अधिकार या विशेषाधिकार की मोहताज नहीं रह जाती।

यही हमारे अधिकारों का सच्‍चा भविष्‍य है- एक बंटे हुए समाज में और बांटने वाली सत्‍ता के साये में मौजूद अलग-अलग अधिकारों व विशेषाधिकारों को एक साझा मूल्‍य तक पहुंचाना ही सारे अधिकारों को बचा सकता है। उसके लिए जरूरी है कि हम अपने-अपने अधिकारों पर अपने परस्‍पर विरोधी आग्रहों को धीरे-धीरे मिटाएं और बुनियादी मूल्‍यों पर एकजुटता व आस्‍था कायम करें। जैसा इस देश में मानवाधिकार और पत्रकारिता जैसे दो अलहदा क्षेत्रों (या कहें पेशों) के बीच बीते पांचेक साल में हुआ है। इस एकता में चाहे कितना भी वक्‍त लग जाए, लेकिन इसका कोई विकल्‍प नहीं है- समाज और पत्रकारिता दोनों के भविष्‍य के लिए।  


More from अभिषेक श्रीवास्तव

मंगलेश डबराल के अभाव में बीते तीन साल और संस्कृति से जुड़े कुछ विलंबित लेकिन जरूरी सवाल

वे 'नुकीली चीजों' की सांस्‍कृतिक काट जानते थे लेकिन उनका सारा संस्‍कृतिबोध...
Read More

101 Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *