‘इमरजेंसी’ आधी सदी बाद भी दबंग शासकों के लिए आईना क्‍यों है? एक निस्‍संग किताब से कुछ सबक

Indira Gandhi
Indira Gandhi
इस साल प्रकाशित श्रीनाथ राघवन की इंदिरा गांधी पर लिखी किताब एक ओर सत्ता के काम करने के तरीके उजागर करती है, तो दूसरी तरफ आज के शासकों को चेतावनी भी देती है। पचास साल पहले इस देश में इमरजेंसी लगाने वाली युद्धोत्‍तर काल की पहली दबंग शासक इंदिरा गांधी पर आज की तारीख में कहानी कहना लोकतंत्र की उस नजाकत को उभारने जैसा काम है, जिसका मूल सबक यह है कि लोकतांत्रिक परिवर्तन और पतन दोनों एक ही राह के हमजोली होते हैं। ‘’इंदिरा गांधी ऐंड द ईयर्स दैट ट्रांसफॉर्म्‍ड इंडिया’’ पर अंतरा हालदर की समीक्षा

भारत की आजादी की (‍पिछले महीने बीती) 78वीं वर्षगांठ स्‍वातंत्र्योत्तर इतिहास के सर्वाधिक घातक पलों में से एक को फिर से याद करने का एक अवसर है- प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में इमरजेंसी लगाने और नागरिक स्‍वतंत्रताओं को रद्द करने का निर्णय। राजनीतिविज्ञानी श्रीनाथ राघवन की नई किताब इंदिरा गांधी ऐंड द ईयर्स दैट ट्रांसफॉर्म्‍ड इंडिया उस दुर्भाग्‍यपूर्ण कदम को न सिर्फ याद करती है, बल्कि आधी सदी के बाद उसके स्‍थाई प्रभाव की पहचान भी करती है।

देश के सर्वाधिक उथल-पुथल भरे दशकों में एक रहे 1970 के दशक की राघवन ने जैसी निस्‍संग शव-परीक्षा की है, वह इस बात का समायानुकूल अध्‍ययन है कि राजनैतिक सत्ता का इस्‍तेमाल कैसे लोकतंत्र की चौखट को तोड़ने-मरोड़ने में किया जा सकता है। ‘’हर पीढ़ी की अपनी समस्‍याएं विशिष्‍ट रूप से उत्‍पीड़नकारी होती हैं, इस भ्रम की काट’’ देने से वे अपनी बात को शुरू करते हैं लेकिन किताब में उठाए गए विषयों की गूंज वहां तक जाती है जिसका अंदाजा लेखक को भी नहीं रहा होगा।


Indira Gandhi and the years that transformed India by Srinath Raghavan

भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी को प्राय: दो तरीकों से दर्शाया जाता रहा है- या तो सब कुछ जानने वाली एक कुटिल रणनीतिकार, या फिर एक दयनीय खानदानी शासक। राघवन इन दोनों छवियों को बहुत दक्षता से तोड़ने का काम करते हैं। राघवन की इंदिरा गांधी एक दृढ़ सुधारक थीं जो नौकरशाही की जड़ता, आर्थिक झटकों, बिखर रही कांग्रेस पार्टी और शीतयुद्ध से उपजी भूराजनैतिक अस्थिरता द्वारा तय कर दी गई ‘’सरहदों’’ के भीतर काम कर रही थीं। वह दुनिया कुछ-कुछ वैसी ही थी जिसमें आज दक्षिणी गोलार्द्ध के देश खुद को तकरीबन फंसा हुआ पाते हैं।       

गांधी ने इन दबावों पर साहसपूर्ण प्रतिक्रिया दी- कभी बहुत मेधावी, तो कभी-कभार बेपरवाही भरी, पर हमेशा ही उनकी प्रतिक्रिया में निजी सत्ता को सुदृढ़ करने की अचूक प्रवृत्ति मौजूद रही। यह बात ही असल मायने रखती है। नेताओं के पास कोई ‘’विकल्‍प नहीं’’ होता, राघवन इस सुस्‍त नियतिवाद को खारिज करते हैं। इसके बजाय, वे उस राजनैतिक कर्तृत्‍व- और नैतिक जिम्‍मेदारी- को उभारकर लाते हैं जो हमेशा राजनैतिक विरासतों को तय करता है। यह एक ऐसा सबक है जिस पर आज के नेताओं को बेहतर ध्‍यान देना चाहिए। यही सबक इस किताब के केंद्र में मौजूद तनाव को भी निर्मित करता है: लोकतांत्रिक चौखटों की कीमत पर लाया जाने वाला बदलाव।   

इस सौदे को 1975-77 के बीच लगाए गए आपातकाल से बेहतर और कोई प्रसंग प्रकाशित नहीं कर सकता। जब एक अदालत ने इंदिरा गांधी की सांसदी को अयोग्‍य ठहरा दिया, तब उन्‍होंने इमरजेंसी घोषित की, नागरिक स्‍वतंत्रताओं को रद्द कर डाला, प्रेस पर बंदिश लगा दी और बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां करवाईं। इस समूचे प्रसंग को राघवन किसी उपदेशक की तरह नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक की तरह बरतते हैं। बाकी की कहानी तथ्‍य कह देते हैं। यह भारत के लोकतंत्र में आई पहली सबसे बड़ी दरार थी और इस बात का सबक भी, कि संविधान के औजारों को कैसे संविधान की आत्‍मा के खिलाफ ही इस्‍तेमाल किया जा सकता है।

इमरजेंसी आजकल के उन दबंग शासकों के लिए एक आईना भी है, जो उसी किस्‍म की कानूनी दलीलों, राष्‍ट्रीय सुरक्षा के जुमलों और विरोधियों की बदनामी जैसी हरकतों पर भरोसा करते हैं। राघवन किसी राजनीतिक दल के प्रचारक नहीं हैं, लेकिन उनकी किताब को जिस तरह से लिया गया है वह दिखाता है कि सबसे सतर्क बौद्धिकता भी हवा में नहीं पैदा होती। यह चलन भारत में चल रहे सांस्‍कृतिक युद्ध का अब तो हिस्‍सा बन चुका है, जो दुनिया के दूसरे लोकतंत्रों में भी सुपरिचित है।

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 में जब से सत्ता में आए, सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने लगातार कांग्रेस पार्टी (जिसने कुल 54 साल भारत पर राज किया) और नेहरू-गांधी खानदान को बदनाम करने की कोशिश की है। इस संदर्भ में, निरंकुशता की तरफ इंदिरा गांधी के मुड़ाव का एक विस्‍तृत और समृद्ध विवरण चाहे कितना ही संतुलित क्‍यों न होता, वह मौजूदा सत्ताधारियों के लिए तोहफे की शक्‍ल में ही आता।



इसलिए इसमें राघवन की कोई गलती नहीं है, बल्कि ऐसा कहने का आशय उस सच को स्‍वीकार करना है जो पढ़े-लिखे, सभ्‍य और विनम्र लोगों के बीच प्राय: दब जाता है: कि इतिहास एक बार दर्ज हो जाए, तो वह वर्तमान के लिए कच्‍चे माल का काम करता है। इतिहास को उसकी अर्थछवियों और संदर्भों से काटकर चुनिंदा ढंग से उद्धृत करना अब दो दलों के बीच का एक ऐसा खेल बन चुका है जहां इमरजेंसी राजनीतिक स्‍कोर बढ़ाने के काम आती है- उतनी ही आसानी से, जितना वह लोकतंत्र की नजाकत को समझने के काम आ सकती है।     

बावजूद इसके, भारत की ‘’आयरन लेडी’’ लगातार एक विस्‍मयकारी व्‍यक्तित्‍व बनी हुई है। एक प्रसिद्ध पिता की प्‍यारी पुत्री के रूप में जन्‍म (और भविष्‍य के प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मां) से लेकर सत्ता में 15 निर्णायक वर्ष, सबसे अलग करने वाली एक खास शैली और फिर हत्‍या (1984 में उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा) एक जबरदस्‍त जीवनी का सामान मुहैया करवाती है।

राघवन को इस बात का श्रेय जाता है कि अपने विषय को एक विशुद्ध चेतावनी-कथा की तरह गढ़ने का वे लोभ संवरण कर ले गए। ऐसा कर के उन्‍होंने गांधी की उन उपलब्धियों को बाकायदे स्‍वीकार किया है जिसे वे खुद बड़ा गिनवाती थीं- बांग्‍लादेश को जन्‍म देने वाले 1971 के पाकिस्‍तान-विरोधी युद्ध में एक झटके में जीत से लेकर भारत की रणनीति स्‍वतंत्रता को स्‍थापित करने वाला 1974 का परमाणु परीक्षण और बैंकिंग व तेल उद्योग का राष्‍ट्रीयकरण।      

ये उपलब्धियां महज प्रतीकात्‍मक नहीं थीं। इन्‍होंने भारत के आर्थिक और भूराजनैतिक यथार्थ को बदल डाला। राघवन दिखाते हैं कि ये उपलब्धियां दिल्‍ली में और प्रधानमंत्री कार्यालय के भीतर इंदिरा गांधी की सत्ता के केंद्रीकरण के साथ कैसे अविच्छिन्‍न रूप से जुड़ी हुई थीं, हालांकि इन तीव्र बदलावों को उनकी जिस निर्णायकता ने सक्षम बनाया था वही कांग्रेस पार्टी के भीतर चलने वाली बहसों की क्षमता से उसे खोखला भी कर गई। नतीजा यह हुआ कि अल्‍पकाल के लिए तो पार्टी एक सुगठित संगठन बन गई लेकिन लंबी दूरी में भुरभुरी होती चली गई।

सत्तर के दशक का पुनर्गठन करने की प्रक्रिया में राघवन हमारे सामने व्‍यवस्‍थागत दबावों के तले काम करने वाले राजनैतिक नेतृत्‍व के सावैभौमिक द्वंद्वों की एक केस स्‍टडी पेश करते हैं। जब वैधता हकलाने लगती है और संस्‍थाएं लड़खड़ाने लगती हैं, तब एक से एक लोकतांत्रिक नेता भी निरंकुशता की चोरगली के प्रलोभन में पड़ जाता है। फिर उसे जो फायदेमंद जान पड़ता है, वह वैसा ही करता है। बहुत मुमकिन है कि वैसा करने से कम से कम शुरुआत में उसे दिखने वाले नतीजे ही प्राप्‍त हों।

मानकों के उल्‍लंघन और संस्‍थाओं की अवमानना से हालांकि जैसी राजनैतिक संस्‍कृति फलती-फूलती है, वही आगे चलकर उल्‍लंघनों और अवमाननाओं को बढ़ावा भी देती है। लातिनी अमेरिका से लेकर पूर्वी यूरोप और अन्‍य जगहों पर हम बिलकुल यही परिपाटी पाते हैं: संकट प्रबंधन के रास्‍ते पहले वैधता निर्मित करना, फिर असहमति को आंतरिक विध्‍वंस (या ‘’राजद्रोह’’) की तरह बरतना और ‘’नतीजे पाने के लिए’’ निर्णय-प्रक्रिया का केंद्रीकरण कर देना। ‘’इमरजेंसी’’ के जवाब में जिस असामान्‍य या विशिष्‍ट परिस्थिति का आरंभ होता है, वही आगे चलकर प्राय: सामान्‍य बन जाती है। 


युद्ध ही शांति है : पचहत्तर साल पहले छपे शब्दों के आईने में 2025 की निरंकुश सत्ताओं का अक्स


पुस्‍तक में राघवन की प्रविधि अपने आप में उकसावे वाली है। वे दस्‍तावेजी साक्ष्‍य और राजनैतिक विवेक दोनों के सहारे लिखते हैं और दिखाते हैं कि कैसे संरचनागत बाध्‍यताएं तथा निजी चुनाव एक ही समय में आपस में टकराते हैं। यह दोहरी नजर ही इस किताब को खतरनाक बनाती है। सत्ता के काम करने के तरीकों को उजागर करने के साथ-साथ यह पुस्‍तक एक चेतावनी भी- एक दिशानिर्देशिका जैसी।

इंदिरा गांधी ऐंड द ईयर्स दैट ट्रांसफॉर्म्‍ड इंडिया एक राजनीतिक जीवनी से कहीं ज्‍यादा है। यह किताब सत्ता की यांत्रिकी और संस्‍थाओं की भंगुरता पर एक ऐसा अध्‍ययन है जो इस असहज वास्‍तविकता को हमारे सामने खोलती है कि लोकतांत्रिक रूपांतरण और क्षरण दोनों एक ही रास्‍ते के हमराह होने को बाध्‍य हैं। इंदिरा गांधी की कहानी को 2025 में कहना (और बिलकुल ताजा ढंग से, एक मजबूत महिला राजनेता वाले ‘’चालू’’ रूमानीकरण से मुक्‍त) लोकतंत्र के नाजुक स्‍वभाव की मर्मभेदी याद दिलाने जैसा काम है। एक ऐसे दौर में जब राजनीतिक रूप से असहज बातें करने का चलन बढ़ रहा है, यह तथ्‍य अपने आप में एक बीमार विडम्‍बना की तरह हमारे सामने आता है कि युद्धोत्तर दौर का पहला दबंग शासक एक स्‍त्री थी।


Copyright: Project Syndicate, 2025.
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