वह रात बहुत डरावनी थी। केवल डेढ़ महीने पहले की बात है। पंद्रह सितंबर को खंडवा के ओंकारेश्वर में नर्मदा नदी का पानी अचानक बढ़ने लगा। तीन दिन बाद यहां प्रधानमंत्री को आना था। एक भव्य मूर्ति का उद्घाटन करना था। मूर्ति आदि शंकराचार्य की थी, जिस पर छह साल से काम चल रहा था। यह मूर्ति मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का ड्रीम प्रोजेक्ट थी- वैसे ही जैसे नर्मदा पर बनी सरदार पटेल की मूर्ति प्रधानमंत्री का।
उस रात एक बजकर पांच मिनट पर ओंकारेश्वर बांध का पहला गेट खोला गया। एक बजकर पंद्रह मिनट तक यानी दस मिनट के बीच तेईसों गेट खोल दिए गए। पानी हहराकर चढ़ा आया। घाटी में और पहाड़ पर भी। हजारों लोग मर सकते थे, लेकिन बमुश्किल सैकड़ों लोग प्रभावित हुए। घर बह गए। दुकानें बह गईं। आश्रम डूब गए। नावों ने लंगर छुड़ा लिए तो मछुआरे भागे। मलबे में पशु दब गए।
नर्मदा में बाढ़ आती है, लेकिन ऐसी नहीं आती। ओंकारेश्वर के जेपी पुरोहित बताते हैं कि उन्होंने अपने जीवनकाल में पांच बड़ी बाढ़ें देखी हैं, और हर बार का उनका अनुभव है कि बाढ़ के दौरान नदियों में हर घंटे दो-तीन फुट ही पानी चढ़ता था। पहली बार ऐसा हुआ कि नदी हर घंटे 10-15 फुट ऊपर चढ़ रही थी।
वे कहते हैं, ‘’यह बड़ी से बड़ी बाढ़ के मुकाबले भी बहुत ज्यादा है। इतनी बाढ़ में होने वाली तबाही को रोकना लगभग नामुमकिन है।‘’ केवल तीन दिन के भीतर आधे से ज्यादा ओंकारेश्वर बह गया।
प्रधानमंत्री 18 सितंबर को तय कार्यक्रम में नहीं आए। बताया गया कि संसद सत्र की मजबूरी है, जिसे जाने किस ‘विशेष’ कारण से उन्होंने बुलवाया था। चूंकि सपना मुख्यमंत्री ने देखा था, इसलिए प्रधानमंत्री का न आना कार्यक्रम को रोक नहीं सका। मलबे, दुर्गंध और बिखरी हुई जिंदगियों के बीच तीन हजार करोड़ रुपये के प्रोजेक्ट का लोकार्पण हुआ शिवराज सिंह चौहान और उनकी पत्नी के हाथों।
ओंकारेश्वर पर्वत पर आदि शंकराचार्य की 108 फुट ऊंची प्रतिमा जब अनावृत्त की गई, तो बगल में खड़े शिव बिलकुल उलटी ओर मुंह फेर कर जाने किसे देख रहे थे। शिव और शंकराचार्य की दृष्टि अब हमेशा के लिए एक दूसरे से पलट चुकी है। यह कारनामा शिवराज के राज में हुआ है।
‘अद्वैतलोक’ नाम की इस सरकारी परियोजना ने शिव और शंकराचार्य का द्वैत रच दिया है। यह कोई दार्शनिक मुहावरा नहीं है, दृश्य हकीकत है।

कार्यक्रम 21 सितंबर को हुआ था। हम छह दिन बाद 27 तारीख को वहां पहुंचे थे। हर ओर सामान बिखरा पड़ा था। दर्जन भर से ज्यादा ट्रक सामान ढोने के लिए खड़े थे। मूर्ति के साथ वहां इन्फ्रास्ट्रकचर डेवपलपमेंट का काम कर रही कंपनी लॉर्सन एंड टुब्रो के एक कर्मचारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि कार्यक्रम भले ही एक दिन का था, लेकिन इसकी तैयारियां लगभग पंद्रह दिन पहले से चल रही थीँ। इन तैयारियों में हवन-पूजन की जगह बनाने से लेकर लोगों के बैठने की व्यवस्था और उनके आने-जाने के लिए रास्ते के निर्माण, खाने के पंडाल तक सब कुछ शामिल था।
वे बताते हैं, ‘’एक दिन के उत्सव के लिए करोड़ों रुपये फूंके गए थे। मैंने इतना बड़ा और इतना शानदार कार्यक्रम अपने जीवन में कभी नहीँ देखा।‘’ मध्य प्रदेश की सरकार देश के बाकी राज्यों के बीच सबसे बड़े कर्जदारों में से एक है। अद्वैतलोक परियोजना इस मामले में भी एक द्वैत गढ़ती है।
कथित रूप से चीन से बनकर आए इस ‘स्टैच्यू ऑफ वननेस’ का अनावरण करते हुए मुख्यमंत्री ने कहा, ‘’आदिशंकर की मूर्ति को स्थापित करने का उद्देश्य ग्लोबल स्तर पर एकता स्थापित करना है। यह वही कार्य है जो भगवान आदिशंकर ने आठवीं सदी में देश के चारों कोनों में चार पीठों की स्थापना करके किया था।‘’
एकता स्थापित करने का दावा कितना सच्चा है, इसे इससे समझा जा सकता है कि चारों पीठों के शंकराचार्यों को ही कार्यक्रम का न्यौता नहीं भेजा गया था। शिवराज के अद्वैतलोक का यह एक और द्वैत है। कार्यक्रम में न बुलाए जाने पर शंकराचार्यों ने अपना-अपना दुख भी प्रकट किया, लेकिन यह प्रधानमंत्री मोदी की ही लीक थी जिन्होंने अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास पर द्वारकापीठाधीश्वर शंकराचार्य की सुध तक नहीं ली थी।
पांच सौ परिवारों का दुख
दुख केवल शंकराचार्यों को ही नहीं है। उनको भी है जो लोग वर्षों से वहां रह रहे हैं। उन्हें भी कार्यक्रम में नहीं बुलाया गया। बुलाना तो दूर, उन्हें कार्यक्रम स्थल के पास फटकने भी नहीं दिया गया। ओंकार पर्वत और उसकी घाटी में चार-पांच पीढ़ी या उससे भी पहले से रह रहे इन लोगों को सरकार अतिक्रमणकारी मानती है। इन्हें हटाया जाना है। ये कम से कम चार-पांच सौ परिवार हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब मार्च 2019 में बनारस में काशी विश्वनाथ कॉरीडोर का लोकार्पण किया था, तब कहा था कि उन्होंने शिव को मुक्त कर दिया है। ठीक उसी वक्त जलासेन घाट की वाल्मीकि बस्ती में रहने वाले दलितों को उन्हीं के घरों में बंधक बना लिया गया था और कार्यक्रम स्थल के पास फटकने नहीं दिया गया था। बाद में उन सबके घर तोड़ दिए गए और उन्हें वहां से विस्थापित कर दिया गया।
शिवराज ने ओंकारेश्वर में जो किया है, वह नरेंद्र मोदी की ही लीक है। यहीं कथित अद्वैतलोक का एक तीसरा द्वैत खुलता है- शिव और उनके भक्तों का द्वैत। बनारस हो चाहे ओंकारेश्वर, दोनों जगहों पर शंकर को बसाने के लिए उनके गणों को उजाड़ा गया है। ओंकारेश्वर में यह उजाड़ अभी प्रक्रिया में है।
स्थानीय एसडीएम बजरंग बहादुर सिंह पुनासा का कहना है कि ओंकारेश्वर से ‘केवल अतिक्रमणकारियों को’ हटाया गया है। अतिक्रमणकारियों को कोई राहत देना है या नहीं, इसको लेकर कोई तय नियम नहीं है।
उन्होंने बताया, ‘’अभी तक डिमार्केशन नहीं हुआ है, उसके बाद ही तय हो पाएगा कि बाकी को हटाया जाएगा या नहीं।‘’ जो लोग वहां बच रहे हैं, उनका कहना है कि वे वर्षों से वहां रह रहे हैं, तो अचानक सामान उठाकर कैसे और कहां चल देंगे?
वस्तुस्थिति यह है कि ओंकारेश्वर के जिस ओंकार पर्वत पर ‘अद्वैतलोक’ को बसाया जा रहा है, वहां रह रहे करीब पांच सौ परिवारों (तीन हजार लोगों) को- जिसमें बच्चे, बूढ़े और बीमार सब शामिल हैं- को जबरदस्ती अतिक्रमणकारी बता कर वहां से हटा दिया गया है। हटाए जाने के बाद भी कुछ लोग वहां पर रह रहे हैं क्योंकि उनके पास जाने को कोई जगह नहीं है और सरकार के पास कोई पुनर्स्थापन या पुनर्वास की नीति नहीं है।
यहां रहने वाले ज्यादातर लोग भील आदिवासी हैं। हटाए गये परिवारों में से एक हैं अनिल सोने, जिनका परिवार कई पीढ़ियों से वहां रह रहा है। वे बताते हैं, “सरकार हमें हमारे ही घर में अतिक्रमणकारी बता रही है जबकि हम दशकों से यहां रह रहे हैं। केवल रह ही नहीं रहे हैं, हमारा रोजगार, काम-धंधा सब कुछ यहीं इसी जगह पर है। यहां रहकर हम लोग जो काम करते हैं, वह यहां आने वाले श्रद्धालुओं पर निर्भर है। यहां आने वाले ज्यादातर लोग पूजा पाठ की सामग्री, चाय-नाश्ते की दुकान तलाशते हैं और श्रद्धालुओं की आम जरूरतों को पूरा कर के ही हमारा परिवार चलता है।‘’
अनिल के भाई भाजपा कार्यकर्ता रह चुके हैं। इस प्रोजेक्ट के चलते रोजगार छिन जाने और पार्टी से समर्थन न मिलने के चलते उन्होंने भाजपा को छोड़ कांग्रेस का हाथ थाम लिया है। अनिल की भाभी राधाबाई सोने इस इलाके की पार्षद हैं और भाजपा में बनी हुई हैं।
लोग बताते हैं कि सरकार की तरफ से वहां रहने वालों को पीएम आवास योजना के तहत घर देने का वादा किया गया है। घर के अलावा उन्हें अलग से दो लाख रुपये और उस जगह पर रोजगार करने के लिए कुछ दुकानें भी अलॉट किए जाने का वादा है। पांच-सात लोगों को सरकारी आवास योजनाओं के तहत घर भी दिए गए हैं। जिन लोगों को घर मिला है, उसमें से ज्यादातर लोग अपने नए घरों में नहीं जाना चाहते। वे कहते हैं कि एक तो नई जगह है, दूसरा जहां घर मिला है वह मुख्य आबादी से दूर है।
इसके अलावा, जिन जगहों पर इन्हें बसाया जा रहा है वहां इनके लायक कोई काम भी नहीं है। ऐसे में वे अपना परिवार कैसे चलाएंगे यह सवाल भी उनके सामने बना हुआ है। अनिल सोने कहते हैं, ‘’हम लोग वहां जाकर क्या काम करेंगे? घर परिवार कैसे चलेगा? इस पर कोई नहीं सोच रहा है।“
हम जब वहां पहुंचे, तो छठवीं कक्षा में पढ़ने वाली 14 साल की प्रियंका कई दिनों से स्कूल नहीं गई थी। वह परिवार चलाने के लिए मंदिरों में आने वाले श्रद्धालुओं के माथे पर चंदन लगाने का काम करती है, जिसके एवज में उसे कुछ रुपये मिल जाते हैं। श्रद्धालु उसे पैसा दे यह जरूरी नहीं है, फिर भी सुबह से शाम तक कुल जमा तीन-चार सौ रुपये हर रोज मिल ही जाते हैं।
प्रियंका की मां संतोषी बाई उस दिन बुखार से परेशान थीं। बीमारी की ही हालत में वे बेटी के साथ काम में हाथ बंटा रही थीं।
प्रियंका रोते हुए कहती है कि उसे पढ़ना अच्छा लगता है। मां के बीमार होने और घर तोड़े जाने से पहले वह रोज स्कूल जाती थी। अब घर का काम करने, छोटे भाई-बहनों का खयाल रखने और बचे समय में श्रद्धालुओं के माथे पर चंदन लगाने के बाद उसके पास समय ही नहीं बचता कि वह पढ़ सके।
जिस दिन बाढ़ आई थी उस दिन भी संतोषी को बुखार था। वह इस हालत में नहीं थीं कि उठकर अपने सामान को हटा सकें। छोटे-छोटे बच्चों और परिवार के सामने उनके घर पर बुलडोजर चलाकर पूरा सामान तहस-नहस कर दिया गया। तब से लेकर वे अब तक प्लास्टिक की एक पन्नी डालकर बनाई गई एक झोपड़ी में रह रहे हैं। बिजली पानी की कोई सुविधा नहीं है।
सुमिल कलमे, गौरव माशरे, स्वयं गोलकर की हालत भी प्रियंका से जुदा नहीं है। फर्क बस इतना है कि वे लड़के हैं, तो पहले ही काम-धंधे में लग गए हैं। युवराज मोरे बताते हैं कि जिस जगह पर उन्हें रहने के लिए जगह दी जा रही है वह ओंकार पर्वत के पीछे है, यहां से कई किलोमीटर दूर जंगलों में, जहां पर कोई नहीं आता। ‘’हम लोग वहां क्या काम करेंगे’’?
वे कहते हैं, ‘’मान लीजिए कि किसी तरह से यहां हम लोग काम करने आ भी जाएं तो हमको यहां आने देंगे क्या? जंगल में क्या काम करेंगे, हम लोगों को जंगल की लकडी तक तो काटने नहीं देते, तो लकड़ी बेचकर भी गुजारा नहीं कर सकते हैं।‘’
कहने को यहां पेसा कानून लागू है, वनाधिकार कानून लागू है, कायदे से ग्रामसभा की अनुमति के बगैर कोई प्रोजेक्ट नहीं लगाया जा सकता है लेकिन जब सरकार ने पहले ही लोगों को अतिक्रमणकारी मान लिया हो तो ये सब कहने वाली बातें ही रह जाती हैं।
ओंकारेश्वर की चुप्पी
इंदौर-मुंबई हाइवे पर इंदौर से करीब तीन घंटे की दूरी पर स्थित एक छोटा सा कस्बा है ओंकारेश्वर। कस्बे का नाम भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक ओंकारेश्वर के नाम पर पड़ा है। यहां लाखों श्रद्धालु और पर्यटक हर साल आते हैं।
कस्बे के नामकरण को लेकर आम लोगों में कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं, जैसे कि यहां की तमाम छोटी-बड़ी पहाड़ियां आपस में मिलकर प्राकृतिक रूप से ओम की आकृति बनाती हैं! इन पहाडियों के नीचे बसे होने के कारण ही कस्बे का नाम ओंकारेश्वर पड़ गया। ओंकारेश्वर मध्य प्रदेश को मालवा और निमाड़ नामक दो अलग क्षेत्रों में बांटने का काम करता है।
ओंकार पर्वत नर्मदा के तट से करीब तीन सौ फुट ऊपर है, जिस पर जाने के लिए या तो खड़ी सीढ़ियों का सहारा है या फिर पांच किलोमीटर लंबे एक परिक्रमा मार्ग से जाना होता है। दोनों ही रास्तों में कई तरह की दिक्कतें हैं। पहाड़ी पर रहने वाले लोग अपने रोजमर्रा के कामों के लिए इन सीढ़ियोँ का प्रयोग करते हैं। पहाड़ी पर रहने वाले लोगों को अपनी हर जरूरत को पूरा करने के लिए पहाड़ से नीचे आना पड़ता है।
ओंकार पर्वत तक पहुंचने का रास्ता नीचे बह रही नर्मदा नदी से गुजरने वाले एक पतले और निचले पुल से होकर जाता है। मूर्ति अनावरण के समय अगर थोड़ा सा भी पानी इस पुल पर रहा होता तो बड़े-बड़े ट्रकों के लिए अद्वैतलोक की सजावट का सामान लेकर ऊपर जा पाना मुश्किल हो जाता। सितंबर के पहले पखवाड़े में जब आदि शंकराचार्य की मूर्ति के अनावरण की तैयारियां हो रही थीं, उस समय मध्य प्रदेश भारी बारिश का सामना कर रहा था, जिससे नदी के जलस्तर में बढ़ोतरी स्वभाविक थी।
तैयारियों के चलते ओंकारेश्वर से एक किलोमीटर दूर बने ओंकारेश्वर बांध से पानी का बहाव रोक दिया गया, जिसके चलते नदी एकदम निचले स्तर पर रही और सामान ढो रहे ट्रकों की आवाजाही लगातार जारी रही। ऊपर मूर्ति के अनावरण की तैयारियां हो रहीं थी, लोगों को हटाया जा रहा था और नीचे नदी सूख रही थी।
शहर के स्थानीय लोगों का कहना है कि यह ऊपर वाले माहौल से मेल नहीं खा रहा था। लगातार हो रही बारिश के कारण बांध पर भी दबाव बढ़ता जा रहा था। ऐसे में 15 सितंबर की रात एक बजे के आसपास अचानक बांध के फाटक खोल दिए गए जिसके चलते नदी का जलस्तर अचानक बढ़ गया। नदी के किनारों पर हजारों घरों में पानी भर गया। नाविकों की नावें और लोगों की दुकानें बह गईं।
बांध के फाटक अचानक खोले जाने का असर यहां से तीन-चार सौ किलोमीटर दूर गुजरात के सूरत तक हुआ है। खंडवा के आगे नर्मदा जहां-जहां जाती है, वहां सैकड़ों गांवों में हजारों लोगों का भारी नुकसान हुआ है।
बहुत से स्थानीय लोगों का मानना है कि यह बाढ़ स्वाभाविक नहीं थी, मानव निर्मित थी। अमरकंटक के बाबाघाट से 2013 में यहां आए संत मुनींद्र दास कबीर बताते हैं कि सरदार पटेल की मूर्ति के अनावरण पर पिछली बार नर्मदा का पानी प्रधानमंत्री के जन्मदिन से दो दिन पहले जब छोड़ा गया था तो उसकी लोगों में खूब चर्चा थी। वे बताते हैं कि उससे बहुत तबाही आई थी जबकि वह स्वाभाविक नहीं था, केवल यह दिखाने के लिए था कि सरदार सरोवर कितना भरा हुआ है।
अद्वैतलोक के निर्माण में नुकसान केवल वहां रहने वाले लोगों का ही नहीं हुआ है, बल्कि पर्यावरण को भी जबरदस्त नुकसान हुआ है। स्थानीय लोगों की मानें तो ओंकार पर्वत से करीब चार हजार पेड़ों को काटा गया है। सरकार द्वारा एनजीटी को जो जानकारी दी गई है उसमें 1300 पेड़ों को काटे जाने की बात है। पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरुकता प्रसार के कार्यक्रम में लगे लोगों का कहना है कि तीन हजार के लगभग पेड़ों को काटा गया है।
पेड़ों की कटान से हुए नुकसान पर मुनींद्र दास कबीर कहते हैं कि 1300 पेड़ों के काटे जाने की जानकारी तो सरकार खुद दे रही है, जबकि वास्तविकता इससे उलट है। नुकसान बहुत ज्यादा है। काटे गए हजारों पेड़ जंगल के हैं। वे कहते हैं कि साधारण पेड़ों को काटने और जंगल के पेड़ों को काटने में बहुत अंतर होता है।
कबीर कहते हैं, ‘’हमारा विरोध शंकराचार्य को लेकर नहीं है। हमारा विरोध पर्यावरण और वहां रह रहे लोगों को जबरदस्ती हटाए जाने को लेकर है। हमारा मानना है कि सरकार अगर चाहती तो अद्वैतलोक और आदि शंकराचार्य की मूर्ति किसी दूसरी जगह पर भी लगा सकती थी, जिससे न पेड़ काटने पड़ते और न इतने सारे लोगों को वहां से हटाना पड़ता।‘’
वे कहते हैं, ‘’जिस राम और श्याम का नाम लेकर ये लोग हल्ला मचा रहे हैं न, यह ओंकार पर्वत और राजा मांधाता उससे पहले से हैं। ओमकार पर्वत की छाती फाड़कर इन्होंने जो कुकर्म किया है, उसके परिणाम तो उन्हें भुगतने ही पड़ेंगे।‘’
वे कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि पर्यावरणीय कारणों से इस प्रोजेक्ट का विरोध करने के कारण उन्हें सत्ता और शासन का ‘अतिरिक्त प्रेम’ मिला।
शिवराज सरकार ने 2022 में कैबिनेट से अद्वैतलोक प्रोजेक्ट को पास करवाया था। उसी समय से यहां के संतों और साधुओं ने इसका विरोध शुरू कर दिया था। कबीर जिस ‘अतिरिक्त प्रेम’ की बात कर रहे हैं, वह सरकार द्वारा पिछले साल किया गया दमन था। बीते जून की बात है जब खंडवा के साधु-संतों और स्थानीय लोगों को भोपाल में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने पर गिरफ्तार कर लिया गया था। इस दौरान पुलिस ने साधुओं के साथ सख़्ती भी की थी।
इस योजना का विरोध अब खंडवा सहित इंदौर, खरगोन, बड़वानी और भोपाल में भी हुआ था। शुरुआती विरोध को ही जब दबा दिया गया तो दोबारा कोई आवाज नहीं उठ सकी। कबीर बताते हैं कि या तो नोटिस भेजकर या कागजात मांगकर प्रशासन बड़ी आसानी से साधु-संतों को ‘पैरलाइज’ कर देता है।

वे कहते हैं कि उसी का नतीजा है कि ज्यादातर लोगों ने इस मसले पर चुप रहना पसंद किया, लेकिन देखने वाली बात यह है कि यह चुप्पी कब टूटती है।
संघ की बगावत
विरोध करने वालों की आवाज दोबारा उभरे या नहीं, लेकिन यहां के मामूली आंदोलन का एक बड़ा प्रभाव यह हुआ कि स्थानीय राष्ट्रीय स्वयंसवक संघ (आरएसएस) दो हिस्सों में बंट गया। जो हिस्सा अलग हुआ, उसने अलग पार्टी बना ली और इस बार चुनावी मैदान में है। यह घटना इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि खंडवा लंबे समय से राजनीतिक और सांप्रदायिक दृष्टि से संवेदनशील रहा है और यहां संघ की पकड़ बहुत मजबूत रही है जबकि संघ में ओंकारेश्वर के प्रांत प्रचारक ने आदि शंकराचार्य की प्रतिमा लगाए जाने का विरोध किया था।
इलाके में संघ के प्रभाव पर वरिष्ठ पत्रकार जय नागदा बताते हैं कि संघ इस इलाके में हमेशा से प्रभावी रहा है। पूर्व सरसंघचालक केएस सुदर्शन काफी लंबे समय तक खंडवा प्रवास पर रहे हैं। संघ के वर्तमान प्रांत प्रचारक भी खंडवा के ही हैं।
अद्वैतलोक प्रोजेक्ट के विरोध की सबसे मुखर आवाजों में से एक थे विशाल बिंदल, जो 2007 तक आरएसएस के प्रचारक रहे हैं। 2007 में जब उन्होंने संघ छोड़ा उस समय वह भोपाल में प्रचारक थे। फोन पर हुई बातचीत में वे कहते हैं, “मैं और मेरे तमाम साथी अभी भी संघ की विचारधारा से प्रेरित हैं और उन्हीं आदर्शों पर कार्य कर रहे हैं, लेकिन संघ से सीधा कोई संबंध नहीं है।‘’
बिंदल, अभयचंद जैन और मनीष काले की बात कर रहे थे। इन दोनों ने भी उनके साथ ही संघ से अपने हाथ खींच लिए थे। अभयचंद जैन, मनीष काले और विशाल बिंदल का नाम बीते दिनों मध्य प्रदेश में बने एक नए राजनीतिक दल जनहित पार्टी के संस्थापकों के रूप में अचानक सामने आया था। अखबारों में खबरें छपी थीं- “संघ से नाराज प्रचारकों ने संघ छोड़कर बनाई अलग पार्टी”।

इंदौर को संघ का मिनि मुख्यालय कहते हैं और खंडवा संघ की प्रयोगशाला माना जाता है। ऐसे में वहां संघ के कुछ लोगों का दूसरी पार्टी बना लेना थोड़े समय तक हलचल वाली खबर अवश्य रही है। जैन इस चुनाव में इंदौर से खड़े हैं। पार्टी ने और प्रत्याशी भी खड़े किए हैं।
संघ के इन ‘नाराज’ लोगों की समस्या आदि शंकराचार्य की प्रतिमा लगाया जाना नहीं है। आशीष बिंदल कहते हैं, ‘’सनातन के प्रचार-प्रसार के लिए आदिशंकर की मूर्ति लगाए जाने का हर किसी ने स्वागत किया है, हमने भी किया है। हम मूर्ति लगाए जाने के विरोध में हैं ही नहीं। हिंदुस्तान में अगर सनातन का प्रचार नहीं होगा तो फिर कहां होगा? हमारा विरोध तो इस बात को लेकर है कि जो मूर्ति आप ओंकार पर्वत पर लगा रहे हैं उसको कहीं और लगाया जाए। यह पर्वत स्वयं शिवलिंग है और सदियों से एक धार्मिक स्थान के तौर पर पूजा जा रहा है। यह आस्था का विषय है।‘’
वे बताते हैं कि इस पर्वत को लेकर ओंकारेश्वर के लोगों की श्रद्धा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अमावस्या के दिन लोग यहां चप्पल-जूते तक पहनकर नहीं जाते हैं। उनके अनुसार सरकार ने आम जनमानस की भावनाओँ का खयाल नहीं रखा। साथ ही उसने शिवलिंग को खंडित करने का काम भी किया है। वे कहते हैं कि पहाड़ पर बड़ी-बड़ी मशीनें चलाकर बड़े-बड़े गड्ढ़े किए गए जिसका परिणाम यह हुआ कि बगल में बने बांध की दीवारें अपने आप चटक गईं, जो कभी भी दुर्घटना का कारण बन सकती हैं।
बिंदल और उनके संगठन भारत हित रक्षा की तरफ से इस मामले में कानूनी कार्रवाई भी गई। उन्होंने इंदौर की प्रसिद्ध समाज सेविका जनक पलटा मेक्गिलगन की ओर से मध्य प्रदेश सरकार के विरोध में इस मसले पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में एक जनहित याचिका दायर करवाई थी (याचिका संख्या 732/2022)।
NGT Action Taken Report
ACTION-TAKEN-REPORT-BY-JOINT-COMMITTEE-IN-OA-NO.-732-of-2022-JANAK-PALTA-MCGILLIGAIN-VS.-STATE-OF-MPयाचिका पर सुनवाई करते हुए एनजीटी ने 13 फरवरी 2023 को जारी आदेश में सरकार को जरूरी नियमों का पालन करने, सुरक्षा के उपाय करने तथा काटे गए पेडों के एवज में नए पेड़ लगाने तथा और पेड़ों के काटे जाने पर तथा पहाड़ तोडे जाने से निकले मलबे को नदी में बहाने पर रोक लगाते हुए याचिका का निस्तारण कर दिया था। अब इस याचिका में कुछ नहीं बचा है, लेकिन बिंदल नई पार्टी लेकर चुनाव के मैदान में जरूर हैं।
आरएसएस के कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनका सरोकार धार्मिक से ज्यादा सामाजिक है। उन्हीं में एक हैं ओंकारेश्वर के नगर प्रचारक संतोष चौहान। वे मूर्ति बनाए जाने से तो खुश हैं लेकिन जिस तरह से लोगों को हटाया गया है उससे दुखी हैं। चौहान से बात करते हुए अपने लोगों के लिए कुछ न कर पाने का दुख उनके चेहरे पर साफ देखा जा सकता है।
वे कहते हैं, “यहां रहने वाले लोग हमारे अपने ही लोग हैं। अपने ही लोगों को घर से उजाड़ कर कौन से भगवान को खुश कर रहे, और ऐसा करने के बाद कौन सा भगवान है जो खुश होगा? जिन लोगों को हटाया जा रहा है, वे यहां सालों से रह रहे हैं। यहां रहते हुए शायद ही कभी उन्होंने यहां के जंगल और पहाड़ को नुकसान पहुंचाया हो, लेकिन सरकार ने अपनी मंशा को पूरा करने और एकात्म धाम बनाने के लिए कई एकड़ में फैले सैकड़ों साल पुराने जंगल को एक झटके में साफ कर दिया।‘’
भाजपा की सरकारों में आरएसएस के प्रभावी होने और तमाम कार्यकर्ताओं के विरोध के बाद भी इस प्रोजेक्ट को शुरू किया गया, उन्हें इसी का दुख है। वे कहते हैं, ‘’...लेकिन पुराने लोगों की अब सुनता कौन है? जिन लोगों के साथ हमारा रोज का उठना बैठना रहा है अब क्या मुंह लेकर उनके पास जाएं?“
सांप्रदायिकता की चुनावी फसल
क्या मुंह लेकर अपनों के पास जाएं, चौहान का यह संकट बहुत वास्तविक है। उनके जैसे संघ प्रचारकों के संकट के साथ भाजपा का संकट जुड़ा हुआ है, जिसके खंडवा से 1990 से ही विधायक चुने जाते रहे हैं। तैंतीस साल में एक भी विधायक किसी अन्य पार्टी का यहां से नहीं रहा, तो इसमें बड़ी भूमिका हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता की थी जिसके दो छोर थे- आरएसएस और सिमि यानी स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया, जो दिग्विजय सिंह के कांग्रेसी राज में नब्बे के शुरुआती दशक में यहां पनपी।
यह सांप्रदायिक राजनीति वैसे तो पूरे निमाड़ क्षेत्र में देखी जा सकती है, जिसमें खंडवा के साथ बड़वानी, खरगोन और बुरहानपुर भी आते हैं। निमाड़ का क्षेत्र यह महाराष्ट्र से लगा हुआ है जिसकी वजह से मराठी प्रभाव यहां आसानी से दिखता है। इनके बीच खंडवा हालांकि संघ और सिमि के ‘हॉटस्पॉट’ के तौर पर बीते तीन दशक में उभरा है, तो उसकी एक वजह यहां की करीब पैंतीस प्रतिशत मुसलमान आबादी है जो संघ की राजनीति के लिए उर्वर जमीन मुहैया कराती थी। भाजपा ने लगातार उसी की चुनावी फसल काटी है।
एक बड़े राष्ट्रीय दैनिक के क्षेत्रीय संपादक नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, “अपने मूल रूप में यह क्षेत्र सौहार्दपूर्ण और शांतिप्रिय एकता के लिए जाना जाता है, जहां हर समुदाय एक साथ मिलजुल कर रहता आया है। पिछले कुछ दशकों में यहां की आबोहवा में काफी बदलाव आया है। इस बदलाव के पीछे का सबसे बड़ा कारण यहां की राजनीति है, जिसके चलते नब्बे के दशक और उसके बाद के समय में लगने वाले कर्फ्यू ही यहां की मुख्य पहचान बन गए।‘’

नागदा बताते हैं कि दिग्विजय सिंह की सरकार ने जब सिमि और बजरंग दल को बैन किया, उसके बाद से समाज में ध्रुवीकरण बढ़ने की शुरुआत हुई। प्रतिबंध के बाद इस मामले में पहला केस दर्ज हुआ तत्कालीन पुलिस कप्तान डीसी सागर के समय 2003-04 में, जब कुछ मुस्लिम लड़कियों को गिरफ्तार कर के प्रेस के सामने फोटो जारी की गईं। मुस्लिम समुदाय को यह बात नागवार गुजरी क्योंकि जिन लोगों को गिरफ्तार किया जा रहा था सब अच्छे परिवारों को लोग थे। इसके प्रचार प्रसार के बाद लड़कियों को शादी तक की दिक्कत हो गई, परिवार भी समाज से कट गए।
वे बताते हैं कि बाद में एक लड़की की शादी सिमि के प्रमुख डॉ. अबु फैजल के साथ हुई। बाद में चलकर यही वजह रही कि सिमि का नेटवर्क बढ़ा। इस मसले में पुलिस की भूमिका यह रही कि उसने अपनी उपलब्धि को बड़ा बताने के लिए इन्हें बड़ा आतंकी बता दिया। इस चक्कर में चीजें बड़ी होती चली गईं।
दैनिक के संपादक बताते हैं कि राजनीति और समाज को सांप्रदायिक बनाने में सबसे ज्यादा भूमिका उन पुलिसवालों की रही, जिन्होंने प्रमोशन और मेडल के लालच में खंडवा खूब बदनाम किया। इसका उन्हें तात्कालिक लाभ तो मिला, लेकिन इससे बहुत सारे लड़कों की जिंदगियां खराब हुईं। कई घटनाएं तो इसके रिएक्शन में भी हुईं। खंडवा को सिमि के गढ़ के रूप में प्रचारित कर दिया गया। इसका सीधा चुनावी लाभ भाजपा को मिला। वे बताते हैं कि इस दौरान कांग्रेस की छवि प्रो-मुस्लिम वाली बनी, जिसके चलते कांग्रेस ने भी मुसलमानों से दूरी बना ली और मुस्लिम समुदाय अलग-थलग पड़ गया।
इस सबके बीच फिर हिंदुत्व के उभार का दौर आया। खंडवा में हिंदुत्व का सबसे बड़ा चेहरा थे मूलचंद यादव। उनका कद और बढ़ पाता, उसके पहले ही यह सीट आरक्षित (एससी) कर दी गई। इसके चलते एक ओर तो यहां सांप्रदायिक राजनीति की जगह कम हो गई, दूसरी ओर यादव समुदाय की ताकत कमजोर पड़ती गई। पिछले तीन बार से यहां भाजपा से जीत रहे देवेंद्र वर्मा इस बार फिर से खड़े हैं।
देवेंद्र वर्मा को सौम्य व्यक्ति के तौर पर जाना जाता था, जो सबको साथ लेकर चलने में विश्वास करते थे। नागदा बताते हैं, ‘’हिंदुत्ववादी उन पर अपना प्रभाव जमाने का प्रयास कर रहे थे, जिसमें वे सफल नहीं हुए। फिर उन संगठनों ने पिछले चुनाव में वर्मा के खिलाफ अपना प्रत्याशी उतार दिया। उसे 25 हजार के करीब वोट मिले। इस सब के चलते वर्मा कमजोर हो गए और उन्होंने सरेंडर कर दिया। वर्तमान में अशोक पालीवाल यह काम कर रहे हैं, जिनकी इकलौती चाहत सांसद बनने की है।‘’
नागदा कहते हैं पहले यहां एक-दो जुलूस निकलते थे- “एक गणेश विसर्जन का, दूसरा मोहर्रम का, लेकिन अब इनकी संख्या पचासों में है। यह हाल किसी एक समुदाय का नहीं है, दोनों ही समुदाय इसे शक्ति प्रदर्शन के तौर पर लेने लगे। इस सबके चलते सबसे ज्यादा असर यहां की पहचान और विकास पर हुआ, जो ठप पड़ गया।‘’

संयोग नहीं है कि मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट आदि के तमाम आरोपी इसी इलाके से संबंध रखते हैं। इसके सबसे बडे नामों में लोकेश शर्मा औऱ साध्वी प्रज्ञा इसी इलाके के हैं। राजनीति करने वालों के लिए खंडवा और सिमि कैसे एक दूसरे के पूरक बन चुके हैं, इसको जानने के लिए याद किया जाना चाहिए 2016 के दिवाली की एक घटना, जब भोपाल की जेल में बंद आठ कैदी फरार हो गए थे और उनका एनकाउंटर कर दिया गया था। इनमें पांच सिमि के वे कैदी थे थे जो 2013 में खंडवा की जेल से फरार हुए थे। जेल से भागे सभी आठ कैदी खंडवा जिले के रहने वाले थे।
सांप्रदायिक रूप से इतना ज्यादा बंटे हुए समाज में अगर किसी मुद्दे पर संघ के लोगों को भाजपा से असंतुष्ट होकर अलग हो जाना पड़ रहा है तो यह आश्चर्य की बात नहीं है। इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं है कि शिवराज सिंह चौहान हिंदुत्व के गढ़ में साधु-संतों की गिरफ्तारी करवा दे रहे हैं या शंकाराचार्यों को न्यौता नहीं दे रहे हैं।
जैसा कि मुनींद्र कबीर कहते हैं, एक दौर के दमन के बाद यहां सब चुप हैं। अद्वैतलोक परियोजना के घोषित सरकारी उद्देश्य के हिसाब से एकता तो पैदा हुई है, लेकिन यह एकता चुप्पियों की है। इन चुप्पियों के बीच कई साजिशें पनप रही हैं, जो स्थानीय लोगों से बात करने पर पता चलती हैं।
प्रोजेक्ट में सियासी साधु
आदि शंकराचार्य की मूर्ति के अनावरण में प्रोजेक्ट की शुरुआत से ही जिस एक व्यक्ति की उपस्थिति महत्वपूर्ण रही है, वह हैं जूना अखाड़े के प्रमुख स्वामी अवधेशानंद गिरी। बीते कुछ वर्षों में वह लगातार सत्ता के करीब होते गए हैं- इतना, कि नोटबंदी के ठीक बाद दिल्ली के प्रेस क्लब में आकर उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर के प्रधानमंत्री का एजेंडा दुहराया था यह कवायद काला धन को वापस लाने के लिए है।
नरेंद्र मोदी और शिवराज सिंह चौहान के करीबी अवधेशानंद गिरी को लेकर धर्मगुरुओं और संतों के बीच भी कोई बहुत अच्छी राय नहीं है। कई साधु-संत इस बात को लेकर दबी जुबान से चर्चा भी करते हैं। खंडवा के पत्रकार जेपी पुरोहित कहते हैं कि मध्य प्रदेश में एकात्म धाम या फिर इस तरह की जो भी चीजें हो रही हैं, उस सबके पीछे अवधेशानंद गिरी महाराज हैं। उनके मुताबिक आदि शंकराचार्य की मूर्ति अनावरण के मौके पर चारों पीठों के शंकराचार्यों को न बुलाए जाने के निर्णय के पीछे वह भी एक वजह हो सकते हैं।

अखाड़ा परिषद का प्रमुख बनने की अवधेशानंद की ख्वाहिश किसी से छुपी नहीं है, जिसके लिए वे बीते कई वर्षों से प्रयासरत हैं। इसके अलावा अवधेशानंद ने बहुत सारे ऐसे लोगों को संत समाज में शामिल किया या कराया है जो साधु होते हुए भी समाज में नफरत फैलाने का काम कर रहे हैं। जिन लोगों को अवधेशानंद गिरी ने सरंक्षण दिया है उनमें यति नरसिंहानंद, राधा मां जैसे लोग हैं जिन्हें महामंडलेश्वर तक की पदवी दी गई है।
आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में एक के मुख्य पुजारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि इस प्रोजेक्ट में अवधेशानंद गिरी की गतिविधियों के मसले को मठों की आपसी लड़ाई बताते हैं।
वे कहते हैं, ‘’वह भी तो शंकराचार्य की गद्दी पर बैठना चाहते थे, जिसके लिए तमाम मुकदमेबाजी से लेकर न जाने क्या-क्या हुआ, लेकिन नहीं बन पाए। ऐसे में वे अपनी महत्ता के लिए कुछ न कुछ तो करेंगे ही- ऐसे ने सही वैसे सही। चारों पीठों के शंकराचार्यों को न बुलाए जाने पर हो सकता है उनका कुछ हित रहा हो।‘’
अद्वैत के नाम पर
अवधेशानंद का अद्वैतलोक परियोजना या एकात्म परियोजना के पीछे या संबद्ध होना एक और द्वैत है, जो सीधे धर्म और उसके दर्शन से जुड़ा हुआ है। यहीं पर आरएसएस, भाजपा और इसके नेताओं द्वारा विकास के नाम पर किए जा रहे धार्मिक आयोजनों का अंतर्विरोध और जुमलेबाजी समझ में आती है।
मुनींद्र दास कबीर कहते हैं कि शिवराज का अद्वैतलोक धर्म और विज्ञान दोनों के ही नजरिये से गलत है। वे कहते हैं कि यह धर्म को व्यापार बनाने का प्रोजेक्ट है, जिसे कुछ लोगों के फाय़दे के लिए बनाया गया है।
एकात्मधाम को लेकर सरकार जो प्रचारित कर रही है कि इस देश में एकता को बढ़ावा मिलेगा या फिर सनातन का प्रचार होगा, लेकिन मूल बात इससे उलट है जो ओंकार पर्वत पर जाकर ही समझ आती है। पर्वत पर 56 फुट ऊंची भगवान शंकर की एक मूर्ति पहले से ही लगी है जो 2007 में बनाई गई थी। शिव की वह मूर्ति श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण का बड़ा केंद्र है। आदि शंकराचार्य की जो मूर्ति लगाई गई है वह शिव से दोगुनी बड़ी है, दोनों ही मूर्तियों का चेहरा विरोधी दिशा में है और थोड़ा दूरी पर खड़े होकर देखने से अंदाजा लग जाता है आदि शंकराचार्य के सामने शिव को छोटा बताने का प्रयास किया जा रहा है।




प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बनारस में शिव को मुक्त करवाने की घोषणा की थी। शिवराज चौहान ने शिव को आदि शंकराचार्य से छोटा कर के दिखा दिया।
जिन आदि शंकराचार्य को सनातन परंपरा के वाहक के तौर पर स्थापित किया जा रहा है, वे वैष्णव परंपरा को मानने वाले नंबूदरी ब्राहम्ण समुदाय से आते हैं। उनके द्वारा स्थापित चार पीठों (धामों) से एक के मुख्य पुजारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि शैव और वैष्णव में आपसी झगड़ा हो सकता है, लेकिन यह बहुत बाद की चीजें है।
वे कहते हैं, ‘’मूल बात यह है कि श्री हरि हरानंद शिव ही वैष्णव हैं और एक दूसरे के पूरक हैं, कोई किसी की सीमा का अतिक्रमण नहीं करता है।‘’
वे कहते हैं कि जिस समय आदिशंकर का जन्म हुआ उस समय बौद्ध धर्म भारत में अपने चरम पर था, जिन्हें उस समय की शासन सत्ता का भी सहयोग मिला हुआ था। ऐसे में आदिशंकर, जो शिव के अवतार थे, उनके द्वारा सनातन का प्रचार करना धार्मिक रूप से एक बड़ी घटना थी।
जन्म से वैष्णव, बाकी के जीवन में शैव, यह आदिशंकर के जीवन का सबसे बड़ा विवाद है। आदिशंकर पर सबसे बड़ा सवाल जो उठाया जाता है वह यह है कि उन्होंने बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांतों को ही नए तरीके से प्रस्तुत कर उन्हें सनातन के रूप में पेश कर दिया। ब्राह्मणवाद और बौद्ध का आपसी संघर्ष जितना पुराना है, उसकी अनुगूंजें आज भी तमाम विमर्शों में सुनने को मिलती हैं। सामाजिक मनोविज्ञानी आशीष नंदी लंबे समय से भारत के समकालीन संकट और पहचान की राजनीति को बौद्ध बनाम ब्राह्मणवाद के खांचे में परिभाषित करने की कोशिशों में लगे हुए हैं।
इसके इतर हालांकि, आदिशंकर का सबसे ब़डा योगदान यह है कि उन्होंने वेदों की टीकाएं लिखीं, इतने बड़े देश को धार्मिक एकता स्थापित करने के लिए चार अलग-अलग मठों की स्थापना की, इनके संचालन के लिए नियम कानून तय किए। धार्मिक रूप में पीठ, मठ, अखाड़ों सहित इससे जुड़ी तमाम चीजों की व्यवस्था आदिशंकर द्वारा ही बनाई गई थी और न्यूनतम ही सही, लेकिन उनका पालन आज भी किया जाता है।
वैष्णव और शैव दोनों ही पंथों में इसको लेकर विवाद है कि आदिशंकर कौन है। इसके हल के रूप में उनके द्वारा स्थापित एक पीठ के महंत बताते हैं कि शैव हों या वैष्णव, ये शक्ति को मान्यता नहीं देते हैं, लेकिन शंकर ने उनको मान्यता दिलाई, जिसे उनके द्वारा स्थापित ऋंगेरी और द्वारका पीठ के तौर पर देखा जा सकता है। यहीँ से आदिशंकर एक अर्चक के तौर पर सामने आते हैं। उसके बाद से ही दोनों ही संप्रदायों में सनातन को पुनर्जीवित करने वाले प्रकांड पंडित भगवान आदिशंकर के रूप में उनकी मान्यता है।
सरकार बदलने की आस
लोकप्रिय धर्म में आदि शंकराचार्य हालांकि अब भी परिचय के मोहताज हैं। चूंकि खंडवा में प्रतिमा छह साल से स्थापित हो रही थी, तो वहां के लोगों को मोटे तौर पर इतना पता था कि आदि शंकर का सम्मान किया जाना चाहिए।
हमने ओंकारेश्वर में जितने भी लोगों से बात की, चाहे वे आदिवासी रहे हों या दूसरे समुदायों के, किसी ने भी आदि शंकराचार्य की मूर्ति पर सवाल नहीं उठाया। सबका एक स्वर में यही कहना था कि भगवान के चक्कर में भक्तों को नहीं उजाड़ा जाना चाहिए।
हटाए जा रहे लोगों की मानें, तो सरकार उन्हें 2013 से ही यहां से खदेड़ने का प्रयास कर रही है। लोग बताते हैं कि इसके लिए सरकार की तरफ से अधिकारियों ने कई बार उनसे मांधाता पहाड़ को छोड़कर कहीं चले जाने के लिए कहा। पहले पहल तो सरकार ने यह नहीं बताया कि वह यहां क्या करना चाहती है।
मध्य प्रदेश की पिछली शिवराज सरकार ने 2017 में ओंकारेश्वर में अद्वैतलोक बसाने की घोषणा की थी, लेकिन 2018 में भाजपा चुनाव हार गई जिससे यह प्रोजेक्ट अधूरा रह गया था। जब 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया की कांग्रेस से बगावत के बाद भाजपा दोबारा सत्ता में आई, तब जाकर इस प्रोजेक्ट “एकात्म धाम” को दोबारा परवान चढ़ाया गया। पिछले ही साल कैबिनेट ने इसे पास किया और पहले चरण में पिछले महीने बाढ़ की तबाही के बीच आदि शंकराचार्य की मूर्ति का अनावरण हुआ।
यह मूर्ति अद्वैतलोक का केवल एक हिस्सा है। पूरे अद्वैतलोक को 2026 तक विकसित किए जाने की योजना है। डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट के अनुसार इस प्रोजेक्ट को पूरा करने में लगभग तीन हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे। जिस स्टैच्यू ऑफ वननेस का औऱ अद्वैतलोक का अनावरण मुख्यमंत्री ने किया है, उसकी घोषणा पहली बार 2017 में की गई थी, इसलिए तीन हजार करोड़ खर्च की डीपीआर भी उसी समय का है। लिहाजा, आज से तीन साल बाद जब यह प्रोजेक्ट पूरा होगा तब इसकी कीमत बहुत ज्यादा बढ़ चुकी होगी।
जाहिर है, अगर इस बार कांग्रेस की सरकार आ गई तो योजना खटाई में पड़ सकती है। इसकी वजह यह है कि पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने लोगों के विस्थापन के मुद्दे को पुरजोर ढंग से उठाया था। बाढ़ के बाद उन्होंने खरगोन जिले के कसरावद में प्रभावित इलाकों का दौरा किया था और वहां के रेस्ट हाउस में 22 गांवों के प्रभावितों से बात की थी। इनमें कई किसान भी पहुंचे थे जिन्होंने बताया था कि उनके खेतों में पानी भर गया था और फसलें बर्बाद हो गईं, लेकिन उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला।

सिंह ने उस समय लोगों से बात करते हुए बताया था कि पानी छोड़ने की सीमा 32 हजार क्यूसेक थी लेकिन अचानक बिना किसी पूर्व जानकारी के 52 हजार क्यूसेक पानी छोड़ा गया जिस वजह से नर्मदा में बाढ आई। दिग्विजय सिंह ने इस मामले में सेवानिवृत्त जज से जांच कराने की मांग की थी और यह भी कहा था कि जांच के आधार पर जिम्मेदार अधिकारियों पर कठोर कार्रवाई होनी चाहिए।
ग्रामीणों द्वारा मुआवजे की मांग पर दिग्विजय सिंह ने कहा था कि क्षतिग्रस्त मकानों का सभी प्रभावितों को शत प्रतिशत मुआवजा मिले, विस्थापितों का पुनर्वास कर उन्हें भी मुआवजा दिया जाय, जनहानि और मवेशियों के बह जाने पर भी मुआवजा दिया जाना चाहिए और डूब प्रभावित गांवों का पुर्नस्थापन किया जाना चाहिए।
ओंकारेश्वर के प्रभावित लोगों का भविष्य एक हद तक मध्यप्रदेश के चुनाव परिणामों पर बहुत ज्यादा निर्भर है। जो मूर्ति लग गई उसका तो कुछ नहीं हो सकता, लेकिन कैबिनेट के लिए फैसले को रद्द कर के योजना का खाका बेशक बदला जा सकता है जिससे बरसों से वहां रह रहे लोगों को उजड़ना न पड़े।
(आदित्य सिंह और नीतू सिंह के साथ)
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