बहुचर्चित बिहार विधानसभा चुनाव के परिणाम आ चुके हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने एक बार फिर से बहुमत हासिल कर लिया है। इस चुनाव में भी विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने-अपने तरीके से छात्रों और युवाओं के मुद्दों को उठाया, लेकिन क्या वास्तव में इन मुद्दों को चुनाव प्रचार अभियान में प्राथमिकता दी गई?
केंद्रीय चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 14 लाख युवाओं ने पहली बार बिहार के विधानसभा चुनाव में मतदान किया। बिहार के 7.42 करोड़ मतदाताओं के बीच 18-29 वर्ष आयु के बीच के युवा एक बड़ा हिस्सा हैं। इसलिए यह स्पष्ट है कि राजनीतिक दलों प्रचार अभियान में ये युवा क्यों और कितना महत्वपूर्ण थे।
इन्हीं युवाओं के लिए महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव ने ‘हर घर नौकरी’ देने का वादा किया था। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक जनसभा में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) पर तंज कसते हुए ‘मारब सिक्सर के छह गोली छाती में’ गीत के बोल का हवाला देते हुए डर फैलाने का घृणित तरीका अपनाया और जीतने वाली पार्टी के लिए मतदाताओं का समर्थन जुटाने के लिए उसका इस्तेमाल किया। स्पष्ट है कि विपक्षी नेताओं द्वारा खड़े किए गए प्रगतिशील नैरेटिव के खिलाफ एनडीए की ओर से बिहार के विशेष जाति और समुदायों को लक्षित किया गया था।
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युवाओं की प्रतिक्रिया
बिहार चुनाव के परिणाम घोषित होने के बाद विभिन्न छात्र और युवा नेताओं से बातचीत के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि जहां रोजगार, पेपर लीक, विलंबित डिग्री, एसआइआर, वोट चोरी और पलायन जैसे ज्वलंत मुद्दे मौजूद थे, वहीं ये मुद्दे मतदाताओं को एकजुट करने में विफल रहे।
हमने विपक्ष से जुड़े कुछ छात्र नेताओं से बात की। इनमें चुन्नू सिंह, भाग्यभारती, जय मौर्य, जैशंकर, शामिल हैं। इन युवा नेताओं ने विपक्ष की हार के कई कारणों को गिनवाया। जय मौर्य ने कहा कि चुनाव से कुछ महीने पहले तक जो युवा एकजुट थे, वे चुनाव नजदीक आते-आते जाति, पार्टी और तात्कालिक फ़ायदों के आधार पर बंट गए जिससे उनके मूल मुद्दे पीछे रह गए।
भाग्यभारती और जैशंकर ने कहा कि एनडीए/भाजपा ने विकास पर बात करने के बजाय एमवाइ (यादव-मुस्लिम) से डर और सुरक्षा का माहौल बनाकर अन्य समूहों को ध्रुवीकृत कर दिया। यह दिखाता है कि बिहार में युवाओं की नाराजगी राजनीतिक रूप से प्रभावशाली तो है, लेकिन चुनावों में संगठित रूप में दिखाई नहीं देती। उन्होंने यह भी कहा कि नीतीश कुमार ने तेजस्वी द्वारा सुझायी गयी रोजगार और कल्याण योजनाओं (जैसे 2,500 रुपये महीना) का जवाब देने के लिए पहले ही अपनी योजनाएं लागू कर दी थीं (जैसे महिलाओं के खाते में 10,000 रुपये), जिससे जनता के बीच वे नैरेटिव की लड़ाई जीतने में आगे दिख सकें।
चुन्नू सिंह ने भी इसे सही माना। उन्होंने कहा कि महिलाओं और बुज़ुर्गों ने तुरंत मिलने वाले फायदों (10,000 रुपये की बात, मिड-डे मील जैसी योजनाएं) को ज्यादा महत्व दिया। साथ ही उन्होंने चुनावी प्रबंधन, टिकट वितरण और अपने मूल नैरेटिव को अंत तक बनाए रखने में महागठबंधन की संगठनात्मक कमियों और जातिगत समीकरण की समझ को भी हार का कारण बताया।
घोषणापत्र में युवा
बिहार के छात्रों और युवाओं की स्थिति पिछले कई वर्षों से चिंताजनक है। पेपर लीक, बिहार लोक सेवा आयोग के खिलाफ आंदोलन, बढ़ती फीस, कटती स्कॉलरशिप, और कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में तीन साल की डिग्री पांच साल में मिलने जैसी समस्याएं आम हैं। बिहार विधानसभा चुनाव में छात्रों और युवाओं के मुद्दों का विश्लेषण करते हुए हम पाते हैं कि विभिन्न दलों ने अपने घोषणापत्रों में उनके मुद्दों को कैसे उठाया था और छात्रों-युवाओं को उन्होंने कितनी जगह दी थी।

महागठबंधन का जोर: तुरंत नौकरियां और बेरोजगारी भत्ता– महागठबंधन (राष्ट्रीय जनता दल और तेजस्वी यादव के नेतृत्व में) ने खुद को बेरोजगार युवाओं का सबसे बड़ा समर्थक बताया। उनका घोषणापत्र इस बड़े वादे पर टिका था कि अगर वे सत्ता में आए तो पहली ही कैबिनेट बैठक में 10 लाख सरकारी नौकरियां देंगे। तुरंत आर्थिक मदद के लिए आरजेडी ने युवाओं को 1,500 रुपये प्रतिमाह बेरोजगारी भत्ता देने का वादा किया, जो उन्हें नौकरी मिलने तक मिलता रहेगा। इसके अलावा, महागठबंधन के घटक भाकपा(माले-लिबरेशन) ने इससे भी ज्यादा 3,000 रुपये प्रतिमाह भत्ता देने की घोषणा की। इससे पता चलता है कि गठबंधन का पूरा ध्यान बेरोजगारी कम करने पर था।
एनडीए का जवाब: कौशल विकास और बड़े पैमाने पर रोजगार निर्माण– महागठबंधन के आक्रामक रुख के जवाब में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और जनता दल युनाइटेड (जेडीयू) वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने भी अपनी रोजगार और कौशल विकास की मजबूत योजना पेश की।
भाजपा ने अपने घोषणापत्र में 19 लाख रोजगार अवसर देने का वादा किया। इसमें यह भी कहा गया कि एक साल के भीतर स्कूलों और कॉलेजों में तीन लाख खाली पद भरे जाएंगे। उन्होंने यह भी वादा किया कि मेडिकल और इंजीनियरिंग जैसे तकनीकी कोर्स हिंदी भाषा में उपलब्ध कराए जाएंगे ताकि स्थानीय छात्रों के लिए उच्च शिक्षा आसान हो सके।
जदयू ने अपने ‘सात निश्चय’ कार्यक्रम के दूसरे चरण में कौशल विकास को मुख्य स्थान दिया। इसमें हर जिले में आइटीआइ और हर उपप्रखंड में पॉलिटेक्निक संस्थान खोलने की बात शामिल थी ताकि बिहार के युवाओं की रोजगार पाने की क्षमता बढ़े।
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अन्य दलों के युवाओं पर केंद्रित वादे: बाकी दलों ने भी युवाओं को ध्यान में रखते हुए महत्वपूर्ण वादे किए। चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) ने अपना “बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट” विजन डॉक्युमेंट जारी किया जिसमें शासन की मौजूदा स्थिति की आलोचना करते हुए आगे की बेहतर विकास दिशा देने का दावा किया गया।
प्लूरल्स पार्टी (टीपीपी) ने इससे भी आगे बढ़ते हुए अपना “बिहार टोटल ट्रांसफॉर्मेशन” घोषणापत्र जारी किया, जिसमें 88 लाख नौकरियां देने का वादा किया गया, जिनमें से आठ लाख सरकारी क्षेत्र में होंगी। यह वादा सीधे तौर पर उन युवाओं को आकर्षित करता था जो तुरंत रोजगार की तलाश में थे।
वादे बनाम दावे
क्या घोषणापत्र में शामिल इन मुद्दों को दलों द्वारा चुनाव प्रचार में प्राथमिकता दी गई? बिहार चुनाव में छात्रों और युवाओं के मुद्दों पर विभिन्न पार्टियों के लिखित वादे और प्रचार के दौरान उनके प्रदर्शन का अंतर साफ दिखाई देता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चुनाव प्रचार अभियान सीधे तौर पर डर फैलाने की राजनीति पर केंद्रित था, जिसमें उन्होंने छात्रों और युवाओं के मुद्दों को दरकिनार कर दिया। उन्होंने लालू यादव और तेजस्वी यादव को कथित ‘जंगलराज’ के प्रतीक के रूप में पेश किया, जिससे मतदाताओं में डर का माहौल बनाया जा सके। इस प्रचार अभियान में मोदी ने नौकरी, शिक्षा, और अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात करने से परहेज किया। इससे यह स्पष्ट होता है कि एनडीए, खासकर भाजपा का मुख्य उद्देश्य मतदाताओं को डराकर अपने पक्ष में करना था, न कि वास्तविक मुद्दों पर चर्चा करना।
पीछे मुड़कर देखें, तो सवाल उठता है कि क्या नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार ने छात्रों और युवाओं के मुद्दों पर अब तक कोई काम किया है? क्या उनके वादे धरातल पर उतरे हैं? याद करें किे 2014 में मोदी ने दो करोड़ रोजगार देने का वादा किया था, लेकिन आज तक उस पर उनका कोई बयान नहीं आया है।
इसके ठीक उलट, तेजस्वी यादव ने अपनी 17 महीने की सरकार में पांच लाख नौकरियां देने का दावा किया है। इस चुनाव में उन्होंने हर घर नौकरी देने का वादा किया था, जो छात्रों और युवाओं के लिए एक बड़ा मुद्दा था।

बिहार चुनाव यह दिखाता है कि राज्य में छात्रों और युवाओं से जुड़े मुद्दे संख्या में बड़े होने के बावजूद व्यावहारिक चुनावी राजनीति में अब भी गंभीर रूप से उपेक्षित रहते हैं। एनडीए ने युवाओं के सवाल को, वास्तविक समस्याओं जैसे रोजगार और शिक्षा, को हल करने के बजाय राजनीतिक फायदा उठाने के लिए इस्तेमाल किया। सुधारों की जगह सिर्फ भाषण और नारों ने ले ली, जिससे बिहार की छात्र-युवा आबादी जो देश में राजनीतिक रूप से सबसे ज्यादा सक्रिय है, आज भी नीतिगत रूप से सबसे ज्यादा उपेक्षित समूहों में से एक बनी हुई है।
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बीपीएससी उम्मीदवार सौरभ कुमार बिहार के छात्रों की परेशानियों पर रोशनी डालते हुए नौकरियों की कमी, पारदर्शिताहीन भर्ती प्रक्रिया, और परीक्षाओं में देरी जैसी समस्याएं गिनवाते हैं। बार-बार परीक्षा रद्द होना, पेपर लीक, और भर्ती में लंबी देरी ने छात्रों का भविष्य अनिश्चित कर दिया है।
वे बताते हैं कि इस बार छात्रों को उम्मीद थी कि चुनाव के बाद बदलाव और सुधार आएगा, लेकिन एनडीए सरकार के दोबारा आने से वे निराश हैं। उन्हें डर है कि उनकी समस्याएं फिर से पीछे छूट जाएंगी। बेहतर पढ़ाई और अवसरों के लिए मजबूर होकर उन्हें दूसरे राज्यों में जाना पड़ता है, जहां उन्हें महंगी फीस, नई जगह के माहौल, और सांस्कृतिक बदलाव जैसी नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
इस चुनाव से एक बात साफ है: बिहार चुनाव में छात्र और युवाओं के मुद्दे बेहद जरूरी हैं और राजनीतिक दलों को इन पर गंभीरता से काम करना होगा। चुनी गई एनडीए सरकार को अपने घोषणापत्र में किए वादों को पूरा करना होगा और विपक्ष को भी उन्हें लागू कराने के लिए लगातार दबाव बनाए रखना होगा।
[सभी तस्वीरें: गौरव गुलमोहर]
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