महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) के संबंध में बिहार सरकार ने एक बड़ा दावा किया है। सरकार ने कहा है कि वह मनरेगा में काम करने के सभी इच्छुक परिवारों को रोजगार देने में कामयाब रही है। अपनी कामयाबी का बखान करते हुए राज्य सरकार ने कहा है कि वह कोरोना के बाद से बिहार में ही रोजगार सृजन कर रही है और इसमें मनरेगा बहुत बड़े हथियार के रूप में उभरकर सामने आया है। कोरोनाकाल में अलग-अलग राज्यों से लौटे बिहारी मजदूरों को अब राज्य से बाहर न जाना पड़े, इसके लिए सरकार प्रतिबद्ध है। सरकार का दावा है कि इस मुहिम को पुख्ता करने के लिए लगातार जॉब कार्ड बनाए जा रहे हैं।
समस्तीपुर से विधान परिषद सदस्य तरुण कुमार ने विधानसभा में कुछ सवाल पूछे थे। ये सवाल मोबाइलवाणी और सूचना के अधिकार (आरटीआइ) के कार्यकर्ताओं के किए आवेदनों पर आए जवाबों के आधार पर किए गए थे। जवाब में सरकार ने सदन में दावा किया कि कोरोनाकाल में क्वारंटीन कैम्प में रहने वाले कुल 2,23,105 परिवारों के जॉब कार्ड बनवाए गए ताकि वे राज्य में रहकर ही काम करें। सरकार कहती है कि आपदा प्रबंधन, जिला परामर्श केन्द्र, उद्योग विभाग, जिला औद्योगिक नवप्रवर्तन योजना के तहत अलग—अलग विभागों की मदद से रोजगार के नए अवसर पैदा किए जा रहे हैं जिससे एक ओर न केवल गांव का विकास हो रहा है बल्कि दूसरी ओर राज्य से पलायन कम हो रहा है।
MNREGA के 17 साल बाद मजदूर आंदोलन क्यों कर रहे हैं?
इन दावों के बीच सवाल है कि अगर सरकार ने कोरोनाकाल के बाद से अब तक इतना कुछ अच्छा कर दिया है तो राज्य में मनरेगा मजदूरों की परेशानियां कम क्यों नहीं हो रही हैं? क्यों इस साल फरवरी में मनरेगा मजदूरों को दिल्ली कूच करने की जरूरत आन पड़ी और वो भी जंतर-मंतर पर लगातार 60 दिनों तक धरने के लिए? इसका जवाब बिहार के गांवों से ही मिलता है, जहां मजदूर साफ तौर पर कह रहे हैं कि सरकार के दावे झूठे हैं। मोबाइलवाणी ने सरकारी दावों की जांच करने के लिए बिहार के अलग-अलग प्रखण्डों के लोगों से बातचीत की है।
सरकारी दावों की हकीकत
जमुई जिला के गिद्धौर प्रखंड से एक महिला ने मोबाइलवाणी पर बताया कि कोरोना के समय काम छूट गया था तो वे गांव वापस आ गए थे, पर तब से अब तक यहां कोई काम नहीं मिला। लोगों के यहां काम मांगकर वे गुजारा करते हैं।
वे कहती हैं, ‘’यहां न तो आयुष्मान भारत कार्ड बनाने का कोई कैम्प लगा है, न जॉबकार्ड बनाने के लिए। इसलिए सरकारी सुविधा का लाभ नहीं मिलता। कोरोना के समय भी बहुत मुश्किल से गुजारा कर पाए थे।‘’
बिशनपुर पंचायत के दरियापुर गांव से रामजी सदा कहते हैं कि सरकार केवल वादे कर रही है, काम नहीं दे रही। उनके गांव में महीनों से मनरेगा में कोई काम नहीं हुआ है। वे बताते हैं, ‘’मुखिया और वार्ड सदस्य कहते हैं कि सारे काम पूरे हो चुके हैं, अब यहां करने के लिए कुछ नहीं है। कोरोना के बाद से अब तक गांव में मनरेगा के तहत कोई काम नहीं मिला है।‘’
जमीनी आवाजों से इतर सरकारी रिपोर्टें खुद बिहार सरकार की पोल खोलती नजर आती हैं। नीति आयोग की रिपोर्ट ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल-3’ में बताया गया है कि जब देश भर में कोरोनावायरस का कहर था, तो मजदूरों ने मनरेगा के तहत जितना काम मांगा था उसके मुकाबले 78.60 प्रतिशत काम ही मुहैया कराया जा सका था। इसके पहले 2019 में बिहार में मनरेगा के तहत काम की जितनी मांग की गई थी उसके मुकाबले 77.25 प्रतिशत काम ही दिया गया था। बिहार सरकार पर यह आरोप अक्सर लगता रहता है कि मनरेगा के तहत काम मुहैया कराने को लेकर वह गंभीर नहीं है, जिस कारण मजदूरों को मजबूर होकर पलायन करना पड़ता है।
मुंगेर के हवेली खड़गपुर से राकेश सिंह ने कोरोना लॉकडाउन के समय मोबाइलवाणी पर कॉल कर के काम की मांग की थी। राकेश का कहना है कि कोरोना के बाद से अब शहर में फिर से काम करना आसान नहीं है, वे अपने गांव में ही काम चाहते हैं या फिर गांव के आसपास लेकिन यहां मनरेगा में कोई काम ही नहीं है। मनरेगा के तहत बस खुदाई के काम हो रहे हैं जबकि उनकी योग्यता ज्यादा है लेकिन मुखिया कहते हैं कि यहां उनके लायक काम नहीं। अब राकेश सोच रहे हैं कि वे कैसे अपने परिवार का पालन पोषण करें।
सारण जिला के दिघवारा प्रखंड से दीपक मांझी कहते हैं कि कोरोना से पहले वे दिल्ली के एक कारखाने में काम कर रहे थे पर लॉकडाउन के समय काम छूट गया और वहां लोगों ने साथ नहीं दिया तो गांव आ गए। अब वापस शहर नहीं जाना चाहते, लेकिन गांव में कोई काम ही नहीं है। वे बताते हैं, ‘’यहां न तो राशन कार्ड बन पा रहा है न ही मनरेगा कार्ड। आधार कार्ड में जानकारी अपडेट तक नहीं हो पाती। पंचायत से कोई मदद नहीं मिल रही है। ऐसे में हम लोग कहां जाएं?’’
उलटे जॉब कार्ड रद्द हो रहे हैं
रोजगार सृजन के सरकारी दावों के बीच खबर है कि बिहार सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने राज्य में निष्क्रिय मजदूरों के 39.36 लाख मनरेगा जॉब कार्ड रद्द कर दिए हैं। एक अधिकारी के मुताबिक, राज्य सरकार ने ऐसा इसलिए किया है क्योंकि मनरेगा मजदूरों के जॉब कार्ड के साथ आधार कार्ड मेल नहीं खाता था। सबसे ज्यादा कार्ड पटना, वैशाली, समस्तीपुर, भागलपुर, भोजपुर और दरभंगा जिले में रद्द हुए हैं।
चंपारण में पण्डितपुर क्षेत्र से मोबाइलवाणी के एक श्रोता ने बताया कि उनके क्षेत्र में कई मजदूर हैं जो जॉब कार्ड बनवाने के लिए चक्कर लगा रहे हैं लेकिन कार्ड बन नहीं पा रहा। मजदूर जॉब कार्ड के लिए आवेदन कर रहे हैं पर प्रखंड कार्यालय से उनका सत्यापन नहीं हो रहा। क्षेत्र के पीओ प्रकाश कुमार श्रीवास्तव कहते हैं कि जॉब कार्ड के लिए आधार, खाता नंबर, फोटो व मोबाइल नंबर देना अनिवार्य होता है पर मजदूरों के पास सारे दस्तावेज ही नहीं हैं जबकि मजदूरों का कहना है कि वे सारे दस्तावेज जमा कर चुके हैं पर कार्ड नहीं बन रहे हैं।
सरकारी आंकडों के अनुसार कोरोना महामारी और लॉकडाउन के समय 32 लाख 60 हजार से ज्यादा प्रवासी मजदूर प्रदेश वापस लौटे थे। राज्य में ही नौकरी के वादे को पूरा करने के लिए नीतीश कुमार ने मनरेगा को मजबूत करने, गरीब कल्याण रोजगार अभियान के अंतर्गत नई नौकरियां देने, राज्य में कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम चालू करने और कुशल और अर्धकुशल प्रवासी मजदूरों को काम का अवसर देने के लिए छोटे उद्यम लगाने की बात की थी। फिर जुलाई और अगस्त में प्रलयंकारी बाढ़ आ गई। इससे राज्य में बहुत से लोग प्रभावित हुए। बाढ़ ने खेतों और घरों को तहस-नहस कर दिया और लोगों की बची-खुची बचत भी खत्म कर दी। इसका मतलब यह हुआ कि कई श्रमिकों के समक्ष रोजगार की तलाश में राज्य से बाहर जाने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचा।
स्थिति यह है कि राज्य से बाहर जाना मजदूरों के लिए महंगा पड़ रहा है क्योंकि उन्हें बड़े शहरों में जाने के लिए पैसे उधार लेने पड़ रहे हैं। पश्चिमी चंपारण जिले के श्रम अधिकार कार्यकर्ता सिद्धार्थ कुमार ने बताते हैं, “बहुत से लोगों को अपना आत्मसम्मान गिरवी रखना पड़ा है। लॉकडाउन के दौरान जिस तरह का बुरा बर्ताव और अपमान उन्होंने झेला था उसके चलते अधिकांश मजदूर बड़े शहरों में दोबारा जाना नहीं चाहते थे लेकिन उन्हें जाना पड़ रहा है। कोई आदमी आजीविका के साधन के बिना घरों में कितने दिनों तक रह सकता है?”
शिवपुर से त्रिभुवन कुमार का मनरेगा का जॉब कार्ड बना हुआ है पर उनके गांव में महीनों से कोई काम नहीं है। वे कहते हैं कि मजबूरी में गांव के बहुत से लोग शहर चले गए हैं लेकिन वहां भी काम का ठिकाना नहीं है।
बीते साल अलायंस फॉर दलित राइट्स ने एक सर्वे किया था जिसमें पता चला था कि महामारी शुरू होते वक्त ही ग्रामीण बिहारियों के घरों की आर्थिक स्थिति, खासकर सीमांत समुदायों की, बहुत खराब थी। इन लोगों ने 14 राज्य के 112 गांव में 1400 दलित और आदिवासी परिवारों का सर्वे किया था। 27 फीसदी परिवारों के पास लॉकडाउन की घोषणा के वक्त एक पैसा नहीं था, जबकि 36 प्रतिशत परिवारों के पास थोड़ी बचत थी। सर्वे में पता चला कि केवल 5 फीसदी परिवारों के पास लॉकडाउन जैसी आपातकालीन स्थिति में जिंदा रहने लायक पैसे थे। 85 फीसदी परिवार दैनिक मजदूरी पर आश्रित थे, जबकि बाकी परिवार अधिकांश प्रवासी मजदूरों द्वारा भेजे जाने वाले पैसे पर निर्भर थे। महामारी ने आय के सभी साधनों को समाप्त कर दिया, जिसकी वजह से बिहार के गरीब लोग बिना किसी निश्चित आय, भोजन और सरकारी सहायता के आजीविका से वंचित हो गए।
भ्रष्टाचार का क्या करें?
मनरेगा के तहत काम हासिल करने के रास्ते में सबसे बड़ा अवरोध स्थानीय भ्रष्टाचार है। काम देने का अधिकार पूरी तरह से स्थानीय ठेकेदारों और पंचायत के अधिकारियों के अधीन है। मधुबनी से रानीदेवी बताती हैं, ‘’ मैंने चार महीने मनरेगा में काम किया है। तब मुझे केवल 50 रुपये दिन की मजदूरी मिलती थी। मैं मनरेगा में और काम करना चाहती हूं पर ठेकेदार काम ही नहीं देता, काम करवा ले तो पैसा पूरा नहीं मिलता।‘’
यहीं की गुड़िया देवी बताती हैं कि चार महीने उन्होंने मनरेगा में मजदूरी की पर पैसे नहीं मिले, ‘’हमें तो ये भी नहीं पता कि मनरेगा में क्या क्या काम होता है, कितने रुपये मिलते हैं। ठेकेदार इसी का फायदा उठाते हैं।‘’
मनरेगा मजदूर यास्मीन खातून को बस दो दिन ही काम मिला, उसके बाद से वे खाली बैठी हैं। उनसे ठेकेदार ने कहा कि मनरेगा में मजदूरी तभी मिलेगी जब वे उसके पास आधार कार्ड और जॉब कार्ड जमा करेंगी। वे कहती हैं, ‘’हमने कार्ड उसके पास जमा करवा दिया, अब वह हमें कार्ड वापस नहीं कर रहा। ठेकेदार कहता है कि मजदूरी के जो भी पैसे आएंगे उसमें से 200 रुपये हमें मिलेंगे, बाकी उसे देने पड़ेंगे तभी कार्ड वापस करेगा।‘’
मधुबनी के मेधवन पंचायत की सरिता देवी ने जॉब कार्ड बनवाया है पर मनरेगा में अब तक कोई काम नहीं मिला है। सरिता को मनरेगा में होने वाले काम और मजदूरी की पूरी जानकारी है पर ठेकेदार और सरपंच गांव की महिला मजदूरों को ज्यादा काम ही नहीं देते, जिसके कारण उनका जॉब कार्ड बेकार पड़ा है।
इस योजना के अंतर्गत पंजीकृत मजदूरों को यह भी नहीं पता था कि काम के लिए श्रमिकों का चयन किस आधार पर किया जाता है। अक्सर यह निर्णय पंचायत के प्रतिनिधि मनमाने तरीके से करते हैं। ये लोग मनरेगा के तमाम रिकार्डों को गुप्त रखते हैं। कानूनन ठेकेदारों और पंचायत के लिए जरूरी है कि वे बोर्ड में उन श्रमिकों के नाम लिखें जिन्हें काम के लिए चयनित किया गया है और प्रत्येक मजदूर का कितना पैसा पंचायत पर बकाया है यह भी लिखा जाना चाहिए। सार्वजनिक रिकॉर्ड की कमी का मतलब है कि अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि मनरेगा के लिए उपलब्ध कितने पैसों का गबन हुआ। जब इस योजना के अंतर्गत कोई काम होता है तो छाया के लिए टेंट, दवाइयां या अन्य सुविधाएं भी अक्सर श्रमिकों को नहीं दी जाती हैं।
मजदूरी के इंतजार में
बहुत सी कमी ठेकेदारों के हिस्से भी है। जैसे, रोहतास जिला के चेनारी प्रखंड से सीताराम बताते हैं कि मनरेगा में बहुत काम मांगने के बाद उन्हें मौका तो मिला पर काम करवाने के बाद ठेकेदार ने अब तक पैसों का हिसाब नहीं किया है। ठेकेदार कहते हैं कि सरकार पैसे देगी पर एक महीना हो चुका है और पैसे नहीं मिले।
सीताराम बताते हैं, ‘’मेरे साथ और भी कई मजदूरों ने काम किया था, सभी के साथ यही हुआ। मनरेगा में समय पर पैसे नहीं मिलते इसलिए लोग शहर जाकर कारखानों में काम करने को मजबूर होते हैं।‘’
कैमूर क्षेत्र की डिहरिया पंचायत के मजदूर भी कम परेशान नहीं हैं। यहां महादलित बस्ती के बहुत से मजदूरों से मनरेगा में काम करवाया गया पर बदले में पैसे नहीं दिए गए। मजदूर अपनी मजदूरी मांगने कभी ठेकेदार के तो कभी मुखिया के चक्कर लगा रहे हैं। पहले उन्हें यह कहकर टाल दिया गया कि खाता नहीं खुला है और अब कहा जा रहा है कि सरकार खातों में पैसे नहीं डाल रही। जिन मजदूरों ने विरोध किया उन्हें अब मनरेगा में दोबारा काम नहीं दिया जा रहा है।
Length_of_the_Last_Mile-_Delays_and_Hurdles_in_NREGA_Wage_Payments
सामाजिक कार्यकर्ताओं, इंजीनियर्स और डेटा साइंटिस्टों के एक समूह लिबटेक इंडिया की एक रिपोर्ट आई है। ‘Length of the Last Mile: Delays and Hurdles in NREGA Wage Payments’ नामक इस रिपोर्ट में बताया गया है कि मनरेगा मजदूरों को अपने हफ्ते भर की कमाई का एक तिहाई से अधिक हिस्सा अपनी मजदूरी निकालने में खर्च करना पड़ता है। इससे यह भी पता चलता है कि करीब आधे (45 प्रतिशत) मजदूरों को अपना पैसा निकालने के लिए कई बार बैंक जाना पड़ता है। इसके अलावा कई श्रमिकों ने शिकायत की कि उन्हें बैंक से अपनी मजदूरी प्राप्त करने में चार घंटे तक का समय लगता है।
रिपोर्ट के मुताबिक, 45.1 फीसदी श्रमिकों को अपनी मजदूरी के पैसे निकालने के लिए कई बार बैंक के चक्कर लगाने पड़े हैं। रिपोर्ट में मनरेगा मजदूरी के वितरण के लिए पोस्ट ऑफिस की व्यवस्था को सुधारने और इसे बढ़ावा देने की मांग की गई है। सर्वे में इस ओर भी ध्यान खींचा गया है कि कई तकनीकी समस्याओं के कारण भुगतान कैंसिल हो जाता है या उनके खाते में नहीं पहुंचता है। इसके चलते मजदूरों को तब तक उनकी मजदूरी नहीं मिलती है जब तक कि कैंसिल या रिजेक्ट किए गए भुगतान को सत्यापित नहीं किया जाता।
बिहार सरकार अगर विधान परिषद में एक विधायक के पूछे सवालों के जवाब में सबके सामने कह रही है कि उसने मनरेगा पर काम किया है और इसका असर दिख रहा है, तो जमीन से आती इन आवाजों का मतलब क्या है?
(आवरण चित्र: बिहार के मुजफ्फरपुर के सकरा ब्लॉक में विरोधरत मनरेगा मजदूर महिलाएं)