Resistance

Ngugi wa Thiong'o

न्गुगी वा थ्योंगो : जिन्हें नोबेल मिलना भारत की मुक्तिकामी आवाजों को शायद बचा ले जाता!

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महान अफ्रीकी लेखक और मुक्तिकामी राजनीति के हस्‍ताक्षर न्गुगी वा थ्योंगो का 28 मई को निधन हो गया। वैश्विक स्‍तर पर उनके निधन की ठीकठाक चर्चा हुई है लेकिन भारत में और खासकर हिंदी जगत में एक परिचित किस्‍म का सन्नाटा है- बावजूद इसके कि न्‍गुगी पहली बार 1996 में और दूसरी बार 2018 में न सिर्फ भारत आए, बल्कि बीते तीन दशक में उनके लिखे साहित्‍य का हिंदी में विपुल अनुवाद भी हुआ। भारत की राजनीति और समाज से जबरदस्‍त समानताएं होने के बावजूद अफ्रीकी जनता के नवउदारवाद-विरोधी संघर्ष को हिंदी के व्‍यापक पाठक समाज ने यदि तवज्‍जो नहीं दी, तो क्या उसकी वजह न्‍गुगी को नोबेल न मिल पाना है? अगर उन्‍हें नोबेल मिल जाता, तब क्‍या तस्‍वीर कुछ और होती? न्‍गुगी की दूसरी भारत यात्रा के संस्‍मरणों को टटोलते हुए इस काल्‍पनिक सवाल के बहाने अभिषेक श्रीवास्‍तव का स्‍मृति-लेख

Bombard the Media: 1992 के बाद बौद्धिक हस्तक्षेप के संकट पर आनंदस्वरूप वर्मा से बातचीत

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महज तीस साल पहले की बात है जब दो पत्रकारों की पहल पर दिल्‍ली से पांच दर्जन लेखक, पत्रकार और बुद्धिजीवी ट्रेन पकड़ कर प्रतिरोध मार्च निकालने लखनऊ निकल लिए थे। यह 6 दिसंबर, 1992 के ठीक दो हफ्ते बाद हुआ था। सारे अखबारों ने इस प्रतिरोध और सभा की न केवल कवरेज की थी, पूर्व सूचना भी छापी थी। तब देश भर में प्रदर्शन हुए थे। आज ऐसा बौद्धिक दखल नदारद है। क्‍या हुआ है इन तीन दशकों में? दिल्‍ली से लखनऊ गए जत्‍थे के संयोजक वरिष्‍ठ पत्रकार आनंदस्‍वरूप वर्मा से फॉलो-अप स्‍टोरीज के लिए अभिषेक श्रीवास्‍तव की बातचीत

मिलान कुंदेरा के बहाने: प्राग और मॉस्को के दो विरोधी ध्रुव

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अपनी रचनाओं में कम्‍युनिस्‍ट सर्वसत्‍तावाद की आलोचना करने वाले चेक-फ्रेंच लेखक मिलान कुन्‍देरा 11 जुलाई को चल बसे। कभी वे कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के सदस्‍य हुआ करते थे। उन्‍हें पार्टी से निकाला गया था। वे 1975 में पेरिस चले आए और वहीं के नागरिक हो गए। उनके पीछे जो रह गए, जिन्‍होंने कम्‍युनिस्‍ट आतंक के साये तले देश नहीं छोड़ा बल्कि वे लड़े और सब सहे, उनकी कहानियां कम ज्ञात हैं