नेपाल में एक ऐसा घोटाला हुआ है जिसने बरसों पुराने अन्याय का मखौल उड़ाया है। अन्याय और बेदखली के मारे छह हजार से ज्यादा ‘नेपाली मूल के भूटानी शरणार्थी’ (ल्होत्सम्पा) जो बरसों से नेपाल में रहने को मजबूर हैं, उन्हें अपने देश लौटने या फिर किसी और देश में बसाए जाने की लंबे समय से आस थी। उनका तो कुछ हुआ नहीं, उलटे कुछ शातिर लोगों ने नेपाल के नागरिकों को फर्जी भूटानी शरणार्थी बनाकर अमेरिका में बसाने के नाम पर ठग लिया। कहां तो शरणार्थियों को बसाया जाना था, कहां नागरिकों को ही पैसे लेकर शरणार्थी बना दिया गया। यह घोटाला करोड़ों का है।
तीसरी बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने पुष्प कमल दहाल ‘प्रचण्ड’ जब अपने ताजा कार्यकाल की पहली आधिकारिक यात्रा पर 31 मई को भारत आ रहे हैं, तो नेपाल में यह मामला गरमाया हुआ है। घरेलू मोर्चे पर उनकी गठबंधन सत्ता ‘फर्जी शरणार्थी घोटाले’ के गंभीर जंजाल में फंस चुकी है। नेपाल की उथल-पुथल भरी राजनीति में हाल के वर्षों में भ्रष्टाचार का यह सबसे बड़ा मामला है, वह भी एक ऐसी मानवीय त्रासदी के नाम पर किए गए दोहन पर टिका, जो चार दशक से जारी है।
पिछले साल शुरू हुई इस घोटाले की जांच में पता चला है कि ऐसे 800 से ज्यादा नेपाली नागरिकों को ‘भूटानी शरणार्थी बनाने’ और अमेरिका में बसाने के नाम पर हरेक से 10 लाख से 50 लाख रुपये तक के बीच रकम ऐंठी गई। 2021 में करीब डेढ सौ लोगों द्वारा फर्जीवाड़े और वसूली की शिकायत के बाद यह मामला खुला था। भ्रष्टाचार का यह पैसा नौकरशाहों से लेकर नेताओं और सरकारी कर्मियों के बीच बराबर बंटा है। इसकी आंच प्रचण्ड सरकार पर भी है और पूर्व प्रधानमंत्री के. पी. ओली भी फंसते नजर आ रहे हैं।
बीते सोमवार को पुलिस ने काठमांडू के जिला अटॉर्नी कार्यालय को जो जांच रिपोर्ट सौंपी है, उसमें 33 व्यक्तियों पर ‘फर्जीवाड़े, संगठित अपराध और राजद्रोह’ के आरोपों के अंतर्गत मुकदमा चलाने की सिफारिश की गई है। यह जांच 113 लोगों द्वारा दर्ज कराई गई 23 शिकायतों के आधार पर की गई है। इस सिलसिले में अब तक कुल 16 गिरफ्तारियां हुई हैं, जिनमें पूर्व गृहमंत्री राम बहादुर थापा बादल के सुरक्षा सलाहकार रहे इंद्रजीत राय और उनके बेटे नीरज राय, उपराष्ट्रपति कार्यालय में सचिव रहे टेक नारायण पांडे, और पूर्व उपप्रधानमंत्री टोप बहादुर रायमाझी के बेटे संदीप रायमाझी के नाम प्रमुख हैं। टोप बहादुर और एक पूर्व ऊर्जा मंत्री के खिलाफ अरेस्ट वारंट निकला हुआ है। सबसे बड़ा नाम नेपाली कांग्रेस के नेता और पूर्व गृहमंत्री बाल कृष्ण खांड का है, जिन्हें उनके घर में ही नजरबंद कर दिया गया था। कुल 17 आरोपी फरार हैं।
चूंकि प्रचण्ड की मौजूदा सरकार नेपाली कांग्रेस के समर्थन से बनी है, इसलिए घोटाले की आंच दूसरे राजनीतिक दलों के साथ नेपाल सरकार के घटकों पर भी है। हाल ही में सोशल मीडिया में एक ऑडियो टेप जारी हुआ था जिसमें नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा की पत्नी आरजू राणा द्वारा घोटालेबाजों से नकद लेनदेन की बात सामने आई थी। इसके अलावा केपी ओली के भूतपूर्व सलाहकार अजय क्रांति शाक्य पर भी एक करोड़ नेपाली रुपया लेने का आरोप है। प्रधानमंत्री प्रचण्ड इस घोटाले के सभी दोषियों को सामने लाने की बात तो कह रहे हैं लेकिन वे अपने घटक दलों के दबाव में हैं।
गठबंधन सरकार की मजबूरियों की एक झलक 29 मई को मनाए जाने वाले गणतंत्र दिवस पर देखने को मिली जब एक सजायाफ्ता नेता रेशम चौधरी को 501 कैदियों के साथ माफी दे कर छोड़ दिया गया, जो 2015 में कई पुलिसकर्मियों की हत्या के अभियोग में जेल में थे। इस पर पूरे देश में गणतंत्र दिवस के दिन सरकार की आलोचना हुई और कई जगह काला दिवस मनाया गया। कहा जा रहा है कि सरकार ने गठबंधन सहयोगी नागरिक उन्मुक्ति पार्टी का समर्थन बनाए रखने के लिए यह कदम उठाया है, जिसकी स्थापना चौधरी ने की थी और यह पार्टी लंबे समय से उनकी रिहाई की मांग कर रही थी। ऐसी उथल-पुथल भरी आंतरिक स्थिति में नेपाली प्रधानमंत्री की भारत यात्रा के कई निहितार्थ हो सकते हैं।
चौंकाने वाली एक गिरफ्तारी
शरणार्थी घोटाले की जांच के सिलसिले में सबसे चौंकाने वाली गिरफ्तारी 25 मई को टेकनाथ रिजाल की हुई है, जो नेपाली मूल के प्रवासी भूटानी शरणार्थियों के सर्वमान्य नेता हैं और बरसों से लगातार उनके मुद्दे को उठा रहे हैं। इससे पहले उन्हें 1989 में नेपाल की राजशाही सरकार ने गिरफ्तार कर के भूटान को सौंप दिया था, जिसके बाद उन्हें दस साल तक यातना भरी कैद में रखा गया। अंतरराष्ट्रीय दबाव में भूटान को उन्हें रिहा करना पड़ा था। इतने साल बाद उन्हें फिर से नेपाल में पिछले हफ्ते गिरफ्तार किया गया, जब राजशाही से मुक्त हो चुका यह देश संघीय गणराज्य बनने के पंद्रह वर्ष मना रहा था। आरोप है कि उन्होंने भी इस घोटाले के पैसे खाये हैं।
यह एक ऐसी गिरफ्तारी है जो फर्जी शरणार्थी घोटाले की जांच को संदिग्ध बनाती है और नेपाली प्रधानमंत्री की भारत यात्रा का एक दिलचस्प आयाम खोलती है। नेपाली शरणार्थियों के लिए काम करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता राम कार्की पूछते हैं कि अगर रिजाल वाकई दोषी थे तो इतने दिनों तक काठमांडू की सड़कों पर आराम से घूमते कैसे रहे, उन्हें पहले ही गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया। कार्की ने अपने फेसबुक पोस्ट में घोटाले के आरोपी बाल कृष्ण खांड और उनकी पत्नी मंजू खांड के हवाले से कुछ चौंकाने वाली बातें लिखी हैं और इस घोटाले में भारतीय दूतावास की संलिप्तता की ओर इशारा किया है।
पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली ने भी पिछले दिनों संसद में दिए अपने भाषण में कहा था कि नेपाल सरकार इस घोटाले में निर्दोषों को फंसा रही है। राम कार्की के मुताबिक रिजाल को सात लाख रुपये देने का जिस शख्स ने दावा किया था वह अब अपनी बात से पलट गया है। रिजाल अब भी हिरासत में हैं।
रिजाल का राजनीतिक कद इस तथ्य से समझा जा सकता है कि वे भूटान की नेशनल असेंबली में 1973 से 1984 तक दक्षिणी भूटान से निर्वाचित प्रतिनिधि रह चुके हैं। भूटान की नेशनल असेंबली ने उन्हें 30 नवंबर 1984 को रॉयल एडवायजरी काउंसलर चुना था। इस दौरान वे लगातार मानवाधिकारों पर काम करते रहे और दक्षिणी भूटान के ल्होत्सम्पा समुदाय के सवाल उठाते रहे थे। बाद में उन्हें भी देश छोड़ कर नेपाल जाना पड़ा था, जहां 1989 में उन्हें गिरफ्तार के वापस भूटान भेज दिया गया था।
अतीत के अनुभव यह बताते हैं कि नेपाली मूल के लोगों को भूटान से खदेड़े जाने, उन्हें कैद किए जाने और इस समूची स्थिति के तीन दशक के भीर एक घोटाले तक पहुंचने में नेपाल और भारत दोनों की बराबर भूमिका रही है। इस संदर्भ में टेकनाथ रिजाल और थिनले पेंजोर द्वारा 2007 में लिखी एक पुस्तक ‘भूटान अनवील्ड’ शरणार्थी समस्या को पूरी ऐतिहासिकता में सामने रखती है। नेपाल में जारी शरणार्थी घोटाले की जांच और प्रचण्ड की आधिकारिक भारत यात्रा के बीच इस समस्या को विस्तार से समझना और उसके आलोक में ताजा घटनाक्रम को देखना जरूरी है।
आगे की कहानी ‘भूटान अनवील्ड’ से ली गई है, जिसके एक लेखक टेकनाथ रिजाल फिलहाल नेपाल पुलिस की हिरासत में हैं। इस कहानी के केंद्र में है भूटान का दक्षिणी हिस्सा और वहां रहने वाले नेपाली मूल के भूटानी लोग, जिन्हें ल्होत्सम्पा कहते हैं। कुल शरणार्थियों का 80 प्रतिशत यही लोग हैं।
दक्षिणी भूटान और ल्होत्सम्पा
भूटान को ‘रिद्रग’ कहा जाता था और यहां के मूल निवासियों को ‘रिद्रगपा’ कहा जाता था। ‘रिद्रग’ और ‘रिद्रगपा’ का शाब्दिक अर्थ है ‘पथरीले पहाड़’ और ‘पथरीले पहाड़ों के लोग’। भूटान के दक्षिण में खतरनाक जंगल हैं। प्रसिद्ध भूटानी विद्वानों लोपोन नादो और लोपेन पेमाला द्वारा लिखे गए भूटान के इतिहास में यह बात सामने आती है कि भूटान के दक्षिणी हिस्से की जमीनों पर कब्जा करने का दुस्साहस आज तक किसी ने नहीं किया। नेपालीभाषी लोग भूटान में अलग-अलग समय पर आते रहे हैं और वे 1958 तक भूटान के दक्षिण में बसे रहे। नेपालीभाषी लोगों की बसावट से पहले भूटान का दक्षिणी हिस्सा दलदलों से भरा घना जंगल था जिसमें जंगली जानवर रहते थे और जहां मलेरिया व्याप्त था।
अलगाव से उपजे गतिरोध को समाप्त करने की प्रक्रिया में भूटान ने उन्हें ‘ल्होत्सम्पा’ के रूप में स्वीकार किया तथा मुख्यधारा के द्रुकपा समाज में उन्हें औपचारिक मान्यता दी गई। तब से लेकर अब तक (2007) चाहे वे भूटानी समुदाय के शार्चोप, खेंग, बुमथांग, कुर्तोद, नगालोंग, ब्रोकपा, दोया हों या नेपालीभाषी लोग, धर्म, संस्कृति और भाषा की विभिन्नताओं के बावजूद ये सभी पूर्ण सद्भावना और शांति के साथ सह-अस्तित्व में रहते आए हैं।
1980 तक भूटान में दो किस्म की प्रशासनिक व्यवस्थाएं काम कर रही थीं- उत्तरी हिस्से में जोंगदाग यानी जिला प्रमुख और दक्षिणी हिस्से में आयुक्त या उपायुक्त। 1968 तक भूटान में गृह मंत्रालय समेत अन्य कोई भी मंत्रालय नहीं था। इसीलिए 1968 तक जनगणना का कोई उपयुक्त दस्तावेज देखने को नहीं मिलता है। भूटान के आधुनिकीकरण के लिए भारत द्वारा दिए गए सहायता पैकेज के बाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की भूटान यात्रा के दौरान 1958 में दक्षिणी भूटान के बाशिंदों को मुख्यधारा की द्रुक राष्ट्रीयता में समाहित किया गया। लोगों को औपचारिक रूप से आवंटित की गई जमीनों के बाद थ्राम और पट्टों पर आधारित पूर्ववर्ती व्यवस्था का स्थान नई भूमि दस्तावेज व्यवस्था ने लिया। लोगों से मर्थाम-चेम यानी लाल डोरा के तहत आने वाली जमीनों के दस्तावेज वापस एकत्रित किए गए और नए दस्तावेज तैयार किए गए, जो जमीन के टुकड़ों की सभी दिशाओं में रेखांकित सीमा के आधार पर नए मर्थाम-चेम से तैयार किए गए थे।
भूटान उस वक्त संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश की तैयारी कर रहा था। इसके लिए एक ओर जहां जनसंख्या की घोषणा किए जाने की शर्त थी वहीं दूसरी ओर सरकार 18-56 साल की अवस्था के नागरिकों को निशुल्क श्रमदान के लिए संगठित करने में जुटी थी जिससे देश के विभिन्न क्षेत्रों में ढांचागत संरचना विकसित की जा सके। लिहाजा, अपनी श्रम आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सरकार ने जनगणना करवाई। 1964 में जो पहली जनगणना का काम शुरू किया गया गहन सतर्कता के तहत था ताकि पड़ोस के दार्जिलिंग, कालिमपोंग और तिब्बती लोगों की गैर-कानूनी घुसपैठ और उससे पैदा हो सकने वाली गड़बड़ियों को रोका जा सके।
इसके बाद, गृह मंत्रालय ने एक पंजीकरण विभाग की स्थापना की और जनगणना की पूरी जिम्मेदारी दो नए विभागों को सौंप दी गई। सरकार ने सभी भूटानियों को नागरिकता पहचान पत्र जारी करने का फैसला लिया। 1981 तक पंजीकरण विभाग ने पहली जनगणना के उपलब्ध दस्तावेजी साक्ष्यों के आधार पर दूसरी जनगणना का काम पूरा कर देश भर में लोगों को नागरिकता पहचान पत्र वितरित कर दिया। अस्सी के दशक के दौरान सरकार ने सभी आयुक्तों को हटा दिया और ल्होत्साम क्षेत्र के लिए जोंगदाग नियुक्त कर दिया।
जब भूटान नई नागरिकता और विवाह कानून को अमल में लाकर अपनी जनता के कल्याण की ओर तेजी से प्रगति कर रहा था, अचानक ही भूटान नरेश ने जोंगखाग यार्गे शोगछुंग यानी संसद से बगैर कोई संवाद किए 1958 के नागरिकता कानून को रद्द कर दिया और एक नया 1985 नागरिकता कानून लागू किया। तब तक 1958 के नागरिकता कानून पर कोई विवाद नहीं था। विवाह कानून और भूमि कानून भी 1958 के कानून के आधार पर ही बनाए गए थे। इस नए कानून के आधार पर उसी पंजीकरण विभाग को 1988 में फिर से जनगणना करने के निर्देश दिए गए जिसका सीधा निशाना दक्षिणी भूटान के छह जिले थे। पंजीकरण विभाग ने पहले जारी किए गए पहचान पत्रों को रद्द कर डाला। नीति में अचानक इस तरह किए गए बदलाव के कारण को आज तक लोगों के सामने नहीं लाया गया है।
अचानक ही भूटानी नागरिकों को गैर-कानूनी शरणार्थी कह कर उस देश से बाहर खदेड़ दिया गया जहां उन्होंने देश, राजा और वहां की जनता की सेवा में बरसों बिताए थे। परिवार टूट कर बिखर गए, परिवार के सदस्य शरणार्थी हो गए और लोगों को सिर्फ जुबानी सहानुभूति ही हाथ लगी।
भारत की भूमिका
द्रुकपा समाज की मुख्यधारा में दक्षिण से आए लोगों को समाहित करने पर न सिर्फ दक्षिणी सीमा की रक्षा करने की जिम्मेदारी भूटान पर थी, बल्कि 1971 में इसके चलते उसे संयुक्त राष्ट्र की सदस्यता भी मिल गई। ल्होत्सम्पाओं को मिलाकर संयुक्त राष्ट्र में घोषित की जाने वाली कुल आबादी तेरह लाख रही। 1989 में एक भारतीय पत्रकार के साथ साक्षात्कार में राजा ने यह स्वीकार किया कि भूटान में सिर्फ छह लाख से कुछ ही ज्यादा आबादी है जो आबादी के आंकड़ों पर फर्क डाल रही है। दक्षिण के लोगों को यहां की राष्ट्रीयता देते वक्त भूटान नरेश जिग्मे सिंगे वाग्चुक की अवस्था सिर्फ तीन वर्ष की थी। पंडित नेहरू के बाद तक भारत में गांधी परिवार के शासन के दौरान यह समझ रही थी कि भूटान को बगैर किसी भेदभाव और वहां के समाज से बगैर कोई पक्षपात किए उसे जोड़े रखना होगा।
भूटान में लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरुआत 1953 में नेशनल असेम्बली की स्थापना, नेपाली भाषी समुदाय को 1958 में भूटान की मुख्यधारा में स्वीकार करने, 1968 में उच्च न्यायालय की स्थापना के बाद कार्यपालिका और न्यायपालिका को अलग करने, ल्हेंग्ये झुंग शॉक के उसी वर्ष गठन तथा राजा के खिलाफ ‘अविश्वास प्रस्ताव’ की व्यवस्था करने से हुई। अगले ही वर्ष कैबिनेट मंत्रियां ने एक सक्रिय लोकतंत्र की ओर भूटान के विकास के मद्देनजर इसका वादा जनता से किया। नैरौबी में राजा के गुजर जाने के बाद भूटानी जनता का भविष्य एक किशोर राजकुमार के हाथ में आ गया जिसके अपरिपक्व हाथों में भूटानी नेतृत्व था और अपने दूरदर्शी पिता द्वारा छोड़े गए पदचिन्ह दृष्टि का काम कर रहे थे।
भारत के एक राज्य के रूप में सिक्किम के रूपान्तरण के बाद भूटान के शाही परिवारों को यह डर सताने लगा कि कहीं भारतीय सत्ता खासकर इंदिरा गांधी उनके साथ भी यही सलूक न करें। राजा के प्रति ल्होत्सम्पाओं के विश्वास को मजबूत करने के लिए राजा अक्सर दक्षिणी हिस्से का दौरा कर वहां की आम जनता को यह आश्वासन देते थे कि वह ‘विशेष प्रेम और देखभाल’ के साथ ल्होत्सम्पाओं का कल्याण करेंगे। दूसरी ओर, राजा ने सभी आयुक्तों और उपायुक्तों को हटा कर उनकी जगह सशस्त्र सेनाओं से जोंगदाग की नियुक्तियां करनी शुरू कीं। इसके पीछे दक्षिणी क्षेत्र के लोगों का दमन करने की मंशा थी।
भारत की सत्ता से उपजे राजा के भय से ठीक उलट पंडित नेहरू ने 1958 में पारो में जनता को संबोधित करत हुए जहां भूटान को एक सम्प्रभु राज्य का दर्जा देने की बात कही थी वहीं इंदिरा गांधी ने अपने नेतृत्व में भूटान से कहा था कि वह अपनी स्थिति की तुलना सिक्किम से न करे। उन्होंने कई बार भूटान में आने वाले समय में एक स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर दिलचस्पी दिखाई थी और कोई भी राजनीतिक हित न जुड़े होने का आश्वासन दिया था। राजा ने उस वक्त अपने निजी सलाहकार काल्योन जाफाग दोरजी से सलाह के बाद इंदिरा गांधी के दृष्टिकोण को समझने के लिए भूटान के तत्कालीन विदेश मंत्री ल्योनपो दावा शेरिंग को नियुक्त किया। भूटान का शाही परिवार नेपालीभाषी समुदाय को सशंकित दृष्टि से देखता था कि कहीं उनका भी हाल सिक्किम जैसा न हो जाए। भूटान के लिए लोकतंत्र, शांति और स्वतंत्रता की दृष्टि रखने वाली इंदिरा गांधी की असमय मौत से हुए नुकसान का गहरा झटका भूटान के राजा को लगा और उन्होंने भूटान का राष्ट्रीय ध्वज आधा नीचे करने के साथ एक ऐसा अद्भुत राष्ट्रीय शोक घोषित किया जो 49 दिनों का था।
फिर उन्होंने नई दिल्ली में राजीव गांधी से मुलाकात की और शोक जाहिर किया। राजीव गांधी को खुश करने के लिए राजा उनके भूटान दौरे के दौरान अक्सर राजीव के बच्चों को वन में शिकार करने और घुमाने के लिए पहले से तय कैबिनेट की बैठक भी रद्द कर दिया करते थे। इसी दौरान, नेपाल के साथ भारत के ठहरे हुए कूटनीतिक संबंध और उत्तरी बंगाल के नेपालीभाषी लोगों द्वारा चलाए जा रहे गोरखालैंड आंदोलन की नजाकत को समझते हुए राजा ने ल्होत्सम्पाओं के भविष्य पर राजीव गांधी की सलाह लेने का अवसर नहीं चूका। भारत की सलाह पर ही राजा ने 1958 के नागरिकता कानून को उलट दिया, ताकि ल्होत्सम्पाओं को बाहर खदेड़ने संबंधी भारत से किए गए वादे को पूरा किया जा सके।
बेदखल जिंदगी
दक्षिणी क्षेत्र में आतंक मचाने के लिए राजा ने सेना के बर्बर अधिकारियों को जिला प्रशासन के ऊपर नियुक्त कर दिया और उन्हें वहां के नियम-कानून का प्रबंधन करने, कर्फ्यू लगाने तथा घुटनों के नीचे संदेहास्पद व्यक्ति को गोली मार देने की अनुमति दे दी। इसके लिए उत्तर और पूर्व के छात्रों-युवाओं, सक्षम महिलाओं तथा पचास वर्ष से कम आयु के सेना के पूर्व कर्मचारियों को दक्षिणी भूटान में सैन्य प्रशिक्षण के लिए संगठित किया गया जिससे लोगों के बीच मनोवैज्ञानिक आतंक पैदा किया जा सके। दक्षिण में नियुक्त युवा सरकारी अफसरों और थिम्पू व मुख्य शहरों में बैठे बड़े अधिकारियों को आत्मरक्षा के नाम पर निजी शस्त्र खरीदने के लाइसेंस जारी कर दिए गए और सैन्य प्रशिक्षण केन्द्र में उन्हें प्रशिक्षण दिया गया जिससे दक्षिण के लोगों को यह दिखाया जा सके कि देश की जनता में आतंक से लड़ने की बहुत क्षमता है।
सभी जोंगखाग से यानी जिलों से राष्ट्रविरोधियों के खिलाफ लड़ाई को समर्थन देने के नाम पर जबरन पैसा और राशन इकट्ठा किया गया, बावजूद इसके कि पहले से चलाई जा रही परियोजनाओं की अनुदान राशि और वाहनों को दक्षिणी भूटान में तैनात सशस्त्र बलों की ओर मोड़ दिया गया था। इससे उन सभी परियोजनाओं को असमय लकवा मार गया। सरकार ने सुनियोजित तरीके से दक्षिणी भूटानी समुदाय के उद्योग से जुड़े लोगों और सिविल सेवारत शिक्षित व राजनीतिक रूप से जागरूक लोगों को लक्ष्य बना कर अपनी दमनकारी नीतियों का क्रियान्वयन किया।
इस मुहिम का नतीजा यह हुआ कि दक्षिण के आर्थिक रूप से सम्पन्न और राजनीतिक रूप से जागरूक तथा करोड़ों की अचल सम्पत्ति के स्वामी स्थानीय लोगों को इस बेदखली का शिकार बनना पड़ा।
दक्षिण के लोग अपने राजा और उस धरती को बहुत प्यार करते थे जहां से उनका जुड़ाव सदियों पुराना था, जहां वे पैदा हुए थे, पले-बढ़े थे और जहां उन्होंने राष्ट्र निर्माण में निस्वार्थ भाव से योगदान दिया था। सेना और प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा शिकार बनाए गए और प्रताड़ित किए गए दमित लोगों ने राजा से अपनी रक्षा की गुहार लगाई, चूंकि वे खुद राजा की राजनीति को नहीं जानते थे। इस मुलाकात में जो लोग भी राजा से मिलने आए उन्हें धैर्य से सुना गया, शब्दों से राहत दी गई और इसी दौरान उनके जाने के बाद सैन्यबलों को दमनात्मक कार्रवाई जारी रखने का आदेश दिया गया। एक पखवाड़े के भीतर शांतिप्रिय और वफादार ल्होत्सम्पाओं को शरणार्थियों में तब्दील कर दिया गया। उन्हें सुरक्षित ठिकाने के लिए असम और बंगाल भाग कर आना पड़ा।
जब भूटान ने ल्होत्सम्पाओं को निष्कासित कर दिया, तो ऐसी स्थिति में सांसदों, वरिष्ठ नागरिकों, किसानों, स्त्रियों, बच्चों, विकलांगों, वृद्ध और पंडितों समेत तमाम निस्सहाय लोग अपनी जान बचाने के लिए असम और बंगाल में प्रवेश कर गए। पड़ोस के लोग इन निष्कासित लोगों से अच्छी तरह परिचित थे चूंकि उनके पुरखे बीते समय में भारत पर नमक, माचिस, कपड़ों और आजीविका की बुनियादी आवश्यकताओं के लिए निर्भर थे। इन परिचितों में भारत के पड़ोसी गांवों में रहने वाला नेपालीभाषी समुदाय भी था जो बदहाली में ल्होत्सम्पाओं की मदद के लिए आगे आया। निष्कासितों और इन पड़ोसी लोगों के बीच संबंध सिर्फ नस्ली और विवाह जैसे सांस्कृतिक संपर्कों की वजह से ही नहीं था, बल्कि उनके परिजनों की वजह से भी था जो सीमा के आर-पार रह रहे थे और सीमा विभाजन के वक्त बिछड़ गए थे। निष्कासित लोग भूटानी सेना से बचने के लिए सीमा से लगे इन्हीं गांवों में अपने रिश्तेदारों की खोज में प्रवेश कर गए थे। भले ही, शुरुआती चरण में राहत आती दिखाई दे रही थी लेकिन सरकार की सतर्कता की वजह से इनको सहयोग देने वाले नेपाली और गैर-नेपाली दोनों ही समुदायों ने मानवीय राहत से अपने हाथ खींच लिए।
असम और बंगाल में रह रहे दूर के रिश्तेदार जिन्होंने इन निष्कासित लोगों को सहानुभूतिवश अपने गांवों और जंगल की खाली जमीनों पर शरण लेने की व्यवस्था की थी, उन्हें भी अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा। भूटान सुरक्षा बलों ने भारतीय सीमा सुरक्षा बलों के साथ मिल कर इन निष्कासितों को पकड़ लिया और पश्चिम की ओर जाने वाली लॉरियों में भर दिया। इन वाहनों का इस्तेमाल इन भूटानी निष्कासितों को भर कर भारत-नेपाल सीमा तक पहुंचाने में किया गया। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि उसमें माल जा रहा है या जानवर। इसका नतीजा यह हुआ कि जो पुरुष और नौजवान इस दौरान शिविरों से बाहर भोजन की तलाश में गए हुए थे, वे पीछे छूट गए। ये सभी आज तक लापता हैं।
भूटान के भीतर लुटेरी सेना के हाथों से बचा ली गई जो भी अमूल्य अमानत थी, उसे या तो भारतीय सुरक्षाबलों द्वारा छीन लिया गया या वाहनों में कुत्ते-बिल्लियों की तरह भर कर ले जाए जाने की प्रक्रिया में कहीं खो गई। महिलाओं और बच्चों के साथ बर्बर भारतीय सुरक्षाबलों के दुर्व्यवहार का शिकार खासकर गर्भवती महिलाओं को बनना पड़ा जहां रक्तस्राव और गर्भविफलता के बहुत मामले सामने आए। कई की मौत रास्ते में ही हो गई जबकि कई जो नेपाल पहुंच गए वे आज भी भूटानी सेना और भारतीय सुरक्षा बलों की अमानवीय प्रताड़ना के सदमे से उबर नहीं पाए हैं और दवाओं पर जिंदा हैं।
नेपाल पहुंचने के बाद तत्काल मानवीय राहत की गैर-मौजूदगी में वृद्ध और बच्चे सभी भुखमरी और तमाम बीमारियों के शिकार हो गए। जिनकी इसमें मौत हुई उनकी अंत्येष्टि और कफन-दफन के दृश्य दारुण और हृदयविदारक थे। दान-दक्षिणा से इकट्ठा किया गया अनाज लोगों को जिंदा रखने के लिए पर्याप्त नहीं था चूंकि बांटने पर हरेक के हिस्से करीब एक मुट्ठी यानी पचास ग्राम आता था। नेपाल के स्थानीय लोगों का सहयोग और इनके साथ एकजुटता की बात जब नेपाली सरकार तक पहुंची, तो उसने पवित्र नदी माई के किनारे रोजाना मर रहे इन भूटानी शरणार्थियों को बचाने के लिए मानवीय सहयोग की गुहार संयुक्त राष्ट्र से लगाई। 1991 में यूएनएचसीआर ने नेपाल सरकार की दरख्वास्त पर पहलकदमी करते हुए भूटानी शरणार्थियों के लिए आपात राहत और सहयोग का कार्यक्रम चलाया। इस घटना के खबरों में कवर किए जाने के साथ ही विश्व समुदाय को यह पता चला कि भूटान एक ऐसा देश है जहां निरपेक्ष राजशाही है।
नेपाल में शरणार्थियों के शुरुआती पंजीकरण की प्रक्रिया में कई लोगों को छोड़ दिया गया था। वे मौके पर आ नहीं सके जो भोजन की तलाश में बाहर गए थे। लौट कर आने के बाद जब वे पंजीकरण के लिए गए तो काम बंद हो चुका था। ऐसे लोगों की संख्या पचास हजार के करीब ठहरती है जो आज भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विस्थापित जीवन बिता रहे हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि बच्चे अपने मां-बाप से बिछड़ गए। पुरुष अपनी पत्नियों से बिछड़ गए। उनका पता लगा पाना मुश्किल हो चुका है।
नेपाल में शरणार्थियों के प्रवेश और शरणार्थी शिविरों में उनके स्थापित होने के बाद नेपाल की सरकार ने शरणार्थी संकट का समाधान करने के लिए भूटान सरकार से द्विपक्षीय बातचीत शुरू की, लेकिन भूटान ने नेपाल में यूएनएचसीआर द्वारा चलाए जा रहे शिविरों पर यह आरोप लगाया कि वहां पूर्वोत्तर भारत या नेपाल के ही गरीब नेपालियों को रख कर खिलाया-पिलाया जा रहा है और उसने उन शरणार्थियों को भूटानी नागरिक मानने से इनकार कर दिया।
दूसरी ओर भारत ने भूटान को इस अपमानजनक कार्रवाई से बाज आने की सलाह देने के बजाय निस्सहाय और बदहाल भूटानियों को नेपाल में ले जा कर फेंक दिया। इसके बाद भारत ने इस मसले को नेपाल और भूटान के बीच का द्विपक्षीय मामला मानते हुए इस पर चुप्पी साधे रखी। नेपाल द्वारा इस मसले को द्विपक्षीय तरीके से उठाए जाने की नीयत कम से कम यह थी कि भूटान के इन शरणार्थियों की मानवीय समस्या के समाधान का कोई रास्ता निकल सके।
द्विपक्षीय वार्ताओं के कई दौर के बाद भूटान और नेपाल इस समझौते पर पहुंचे कि शरणार्थियों की पहचान की जाए। भूटान ने अपने प्रतिनिधियों की एक टीम नेपाल भेजी जहां वहां की टीम के साथ मिल कर खुदुनाबारी शिविर में पहला निरीक्षण किया गया। इसमें यह बात सामने आई कि वहां 75 फीसदी भूटानी हैं। चूंकि भूटान सरकार को इन शिविरों में भूटानियों की भारी संख्या में मौजूदगी को स्वीकार करना पड़ा, इसलिए भूटान की टीम नेपाल से एक चोर की तरह दबे पांव खिसक गई और लौट कर कभी नहीं आई। भूटान ने भारत सरकार को प्रभावित करने की नेपाल सरकार की अक्षमता का फायदा उठाते हुए 60 हजार अन्य लोगों को देश से बाहर खदेड़ने का अगला कदम तैयार कर लिया। दक्षिणी भूटान में शरणार्थियों की जमीनों और गांवों का नया नामकरण कर दिया गया।
एक ओर जबकि नेपाल में लगातार सरकारें बदलती रहीं, भूटान ने इस परिस्थिति का फायदा उठाया और नेपाल की कूटनीति को धता बताते हुए तमाम प्रस्तावों पर असहमति जाहिर कर दी व अपनी योजनाओं को रणनीति में बदल लिया। लंबे समय से राज कर रहे भूटान के मंत्रियों ने नेपाल की अस्थिरता का फायदा उठा कर अपनी योजनाओं को मूर्त रूप दिया, चूंकि शरणार्थी समस्या से मुंह मोड़ने का उनका अनुभव पुराना था। जब तक नेपाल भूटान की साजिशों को समझ पाता, भूटान अपने द्वारा तैयार किए गए प्रस्तावों को द्विपक्षीय वार्ता के सभी दौरों में आगे बढ़ाते हुए उस पर सहमत हो गया। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि नेपाल की अपनी राजनीतिक परिस्थिति ने शरणार्थी जीवन को और बदहाल स्थितियों में गहरे धकेल दिया है।
नेपाल, शरणार्थी नेताओं के साथ समन्वय बैठाने और अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिज्ञों व प्रतिनिधियों को स्थिति से अवगत कराने में काफी हद तक विफल रहा। वह भारत को शरणार्थी समस्या में हस्तक्षेप करने के लिए तैयार करने में भी विफल रहा। नेपाल अपनी राजनीतिक अस्थिरता की वजह से भूटान पर दबाव नहीं बना सका कि वह पहचाने गए शरणार्थियों को स्वीकार कर ले।
अमेरिका का पक्ष
नेपाली मूल के भूटानी शरणार्थियों के प्रवासन में अमेरिका तीसरा और अहम पक्ष है। दो दिन पहले ही काठमांडू स्थित नेपाली भाषा और कला केंद्र में अमेरिकी कांग्रेस के सदस्य ग्रेग लैंड्समैन का आना और बचे हुए भूटानी शरणार्थियों को अमेरिका में पुनर्वासित करने की उनसे की गई अपील दिखाती है कि अमेरिका की लगातार इस मसले पर निगाह है।
अमेरिका के सहायक विदेश मंत्री रॉबिन रफेल शुरुआती महत्वपूर्ण व्यक्तियों में थे जिन्होंने नब्बे के दशक की शुरुआत में भूटानी शरणार्थी शिविरों का दौरा कर उनका हाल जाना। अमेरिका द्वारा 50-70 हजार भूटानी शरणार्थियों को अमेरिका में बसाने का प्रस्ताव सहानुभूतिपूर्ण और स्वागतयोग्य था, जबकि भूटान ने अपने ही नागरिकों को उनके बलिदानों का पुरस्कार देते हुए देश से बाहर फेंक दिया था।
अमेरिका के इसी प्रस्ताव की परिणति आज फर्जी शरणार्थी घोटाले के रूप में हुई है, जिसका शिकार कोई 875 नेपाली नागरिक बताए जा रहे हैं, हालांकि यह संख्या बढ़ भी सकती है। अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि इनमें वास्तविक शरणार्थी शामिल हैं या नहीं। नेपाली मूल के भूटानी लोग, जो भूटान की आबादी का 18 प्रतिशत यानी करीब एक लाख थे, 1991 की शुरुआत से बड़े पैमाने पर भगाना शुरू किए गए थे। अब तक कुल एक लाख तेरह हजार ऐसे शरणार्थियों को अमेरिका सहित दुनिया के आठ देशों में बसाया जा चुका है। इनमें अकेले 96000 से ज्यादा अमेरिका में बसे हुए हैं। इन शरणार्थियों ने नेपाल के झापा और मोरंग के सात शिविरों में दशकों यातना भरे दिन काटे हैं। बाकी के शरणार्थी कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, डेनमार्क, नॉर्वे, नीदरलैंड्स और यूके में बसे हुए हैं। अब भी करीब 6300 शरणार्थी नेपाल में पड़े हुए हैं जिनमें से कई अपने देश वापस लौटना चाहते हैं।
इस बीच ग्लोबल कैम्पेन फॉर दि रिलीज ऑफ पॉलिटिकल प्रिजनर्स इन भूटान (जीसीआरपीपीबी) ने एक बयान जारी करते हुए कहा है कि प्रधानमंत्री प्रचण्ड को शरणार्थियों का मसला भारत के साथ उठाना चाहिए क्योंकि ‘भूटान भारत की सुनता है’’। कैम्पेन ने प्रचण्ड से भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बातचीत में उठाने को दो मुख्य मुद्दे सुझाए हैं। एक, नेपाल के शरणार्थी शिविरों में रह रहे वापस लौटने के इच्छुक भूटानी शरणार्थियों के जल्द से जल्द प्रत्यर्पण पर भारत का सहयोग और दूसरा, 1990 से 2009 के बीच राजनीतिक गतिविधियों के लिए गिरफ्तार किए गए और भूटान की विभिन्न जेलों में बंद राजनीतिक कैदियों की जल्द से जल्द रिहाई में भारतीय समर्थन।
प्रचण्ड अपनी यात्रा के दौरान मोदी के साथ द्विपक्षीय वार्ता में भूटानी शरणार्थियों का मुद्दा उठा पाएंगे या नहीं, यह एक अलहदा बात है। यह सही है कि ‘भूटान भारत की सुनता है’, लेकिन इस मसले पर भूटान से भारत कुछ कहेगा या नहीं, वह भी एक अलग बात है।