उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद जिले स्थित साढ़ूपुर गांव (तत्कालीन जिला मैनपुरी, थाना शिकोहाबाद) में 1981 में एक कत्लेआम हुआ था, जिसमें दस दलितों (जाटव) की हत्या कर दी गई थी। इस मामले की सुनवाई अब जाकर खत्म हुई है। बुधवार को नब्बे साल के एक बुजुर्ग को आजीवन कैद और जुर्माने की सजा सुनाई गई है।
इस हत्याकांड के कुल दस आरोपित थे, जिनमें नौ सुनवाई के दौरान मर गए। घटना के 42 साल बाद आए इस फैसले की अहमियत इस तथ्य से पता लगती है कि उस दौर में उत्तर प्रदेश में जातिगत हत्याओं का सिलसिला जिस कुख्यात बेहमई कांड से शुरू हुआ था- जिसके कुल 20 मृतकों में ज्यादातर ठाकुर थे- उसमें आज तक सुनवाई अपने अंजाम तक नहीं पहुंच पाई है जबकि फूलन देवी सहित कुल 17 आरोपित मर चुके हैं और मात्र दो हिरासत में जिंदा बचे हैं। बेहमई कांड के आरोपितों में शामिल फूलन देवी के एक सहयोगी पूसा की मौत पिछले ही महीने हुई है।
साढ़ूपुर हत्याकांड में नब्बे साल के आदमी को बयालीस साल बाद हुई सजा को इंसाफ कहा जाए या नहीं, यह बहस का विषय हो सकता है लेकिन यह हत्याकांड उस दौर के एक निर्णायक पड़ाव को रेखांकित करता है जो आगे चलकर कांग्रेस पार्टी के पतन और भारतीय जनता पार्टी सहित क्षेत्रीय राजनीति के उभार का कारण बना। आज की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों को समहने के लिहाज से मैनपुरी के इस जघन्य दलित हत्याकांड की परतों को फिर से देखना कारगर हो सकता है।
भाजपा और बसपा के उभार की पृष्ठभूमि
इसे संयोग नहीं कहा जा सकता कि भाजपा 28-30 दिसंबर 1980 को औपचारिक रूप से बंबई में गठित हुई, उसके दो महीने बाद ही 14 फरवरी, 1981 को फूलन देवी ने बेहमई कांड को अंजाम दिया। इसके पांच दिन बाद 19 फरवरी, 1981 को तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में 4000 दलितों ने इस्लाम अपना लिया। और फिर शुरू हुआ मुसलमानों और दलितों के संगठित हत्याकांडों का सिलसिला।
सितम्बर, 1981 में विश्व हिंदू परिषद ने विराट हिंदू समाज के नाम से दिल्ली में एक विशाल सम्मेलन किया जहां मीनाक्षीपुरम की घटना को उठाते हुए धर्म परिवर्तन के खिलाफ एक कानून बनाने की मांग उठाई थी। यही वह मोड़ था जब एक ओर भाजपा अपने कोर एजेंडे पर लग चुकी थी तो दूसरी ओर इंदिरा गांधी भी उसी के एजेंडे की ओर कांग्रेस की राजनीति को मोड़ चुकी थीं और हिंदू तीर्थों के चक्कर लगा रही थीं। इस बीच मेरठ, मुरादाबाद, अलीगढ़, बिहार शरीफ आदि में सिलसिलेवार मुस्लिम विरोधी दंगे हुए, तो बेहमई हत्याकांड के बाद 18 नवंबर 1981 को मैनपुरी के देहुली में ठाकुरों ने दलितों की हत्या कर दी। देहुली की आंच ठंडी भी नहीं हुई थी कि साढ़ूपुर में दलित हत्याकांड हो गया।
पहली गौर करने वाली बात यह है कि विश्व हिंदू परिषद के दिल्ली में हुए सम्मेलन की अध्यक्षता कर्ण सिंह ने की थी जो इमरजेंसी के दौर में इंदिरा गांधी की कैबिनेट में स्वास्थ्य मंत्री हुआ करते थे। उन्हें विराट हिंदू समाज का अध्यक्ष इसी सम्मेलन में चुना गया था। दूसरी बात यह, कि इन हत्याकांडों के दौरान ढाई वर्ष तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह थे। वीपी सिंह और कर्ण सिंह दोनों ही संजय गांधी के वफादार थे, जिन्होंने इमरजेंसी में नसबंदी अभियान को बढ़-चढ़ कर लागू करवाया था।
वास्तव में, 1980 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी की धमाकेदार वापसी के बाद कहा जाने लगा था कि लोकसभा में संजय गांधी ब्रिगेड बैठती है- कांग्रेस के कुल 353 सांसदों में से 150 गांधी के वफादार थे। संजय गांधी ने ही सांसद वीपी सिंह को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनवाया था। ठीक इसी तरह, संजय के वफादार जगन्नाथ पहाड़िया राजस्थान के मुख्यमंत्री बने, एआर अंतुले महाराष्ट्र के, जगन्नाथ मिश्र बिहार के, जेबी पटनायक उड़ीसा के, अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के और माधव सिंह सोलंकी गुजरात के मुख्यमंत्री बने। अर्जुन सिंह को गांधी के खासमखास कमलनाथ का समर्थन मिल गया था और सोलंकी को गांधी के वफादार योगेंद्र मकवाना (तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री) का समर्थन था।
यानी, 1980 के बाद हुए दलितों और मुस्लिमों के हत्याकांडों के बरअक्स संसदीय राजनीति में कांग्रेस के पतन और भाजपा के उभार की शुरुआत में दोनों दलों की बराबर भूमिका रही, बेशक कांग्रेस की ज्यादा रही क्योंकि वह केंद्र और उत्तर प्रदेश दोनों जगह सत्ता में थी। साढ़ूपुर हत्याकांड इसलिए अहम है क्योंकि वह केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार के होने से लोकतंत्र के संघीय चरित्र के भ्रष्ट हो जाने की महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि को बतलाता है। इस संदर्भ में यह याद किया जाना जरूरी है कि उस दौर में सबसे बड़ा भ्रष्टाचार का मामला (30 करोड़ रुपये का) महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अंतुले के खिलाफ सामने आया था, लेकिन इंदिरा गांधी ने उन्हें नहीं हटाया। जनवरी 1982 में कोर्ट से दोषी ठहराये जाने तक वे पद पर बने रहे। ठीक ऐसे ही कांग्रेस की वापसी के बाद बिहार में दलितों के नरसंहार हुए (बेलछी और पिपरा) और भागलपुर का कुख्यात अंखफोड़वा कांड हुआ, लेकिन जगन्नाथ मिश्र के सिर पर इंदिरा गांधी का हाथ बना रहा। फरवरी 1982 में संसद में यह आंकड़ा सामने आया कि बीते दो वर्ष में देश भर में 960 दलितों की हत्या हुई है, जिसमें ज्यादातर बिहार के मामले हैं।
यहां बात यह नहीं है कि इस सब में सीधे कांग्रेस लिप्त थी, बल्कि ऐसी घटनाओं पर कांग्रेस की राज्य सरकारों ने कुछ नहीं किया क्योंकि उन्हें केंद्र का वरदहस्त प्राप्त था। सभी सत्ता प्रतिष्ठानों में उच्च जातियों के नेतृत्व के कारण 1980 के आम चुनाव के बाद हुई हिंसा की घटनाओं को रोका नहीं गया और कोई कार्रवाई नहीं की गई। इस तरह उत्तर प्रदेश जातिगत और सांप्रदायिक हिंसा का केंद्र बन गया। कुछ मामलों में हिंसा पुलिस ने की, दूसरे समूहों ने नहीं। यूपी में कांग्रेस की वापसी के कुछ माह बाद ही 13 अगस्त, 1980 को मुरादाबाद में जो मुसलमानों के खिलाफ हिंसा हुई, उसे यूपी की पीएसी ने किया। यह हिंसा और जिलों में फैली। कोई 300 के आसपास लोग मारे गए। आज तक इस दंगे पर गठित जस्टिस सक्सेना की जांच रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है, जिसमें खुद मुख्यमंत्री वीपी सिंह को दोषी बताया गया था।
दिलचस्प है कि पुराने घाव अब धीरे-धीरे खुल रहे हैं। एक ओर जहां अभी साढ़ूपुर हत्याकांड में फैसला आया है, तो दूसरी ओर यूपी की सरकार ने पिछले दिनों फैसला लिया है कि मुरादाबाद दंगों की जांच रिपोर्ट विधानसभा के पटल पर रखी जाएगी। चार दशक पहले हुए अन्यायों पर इंसाफ मिलने में चाहे कितनी ही देरी हो, लेकिन चुनावी वर्ष में उन पर राजनीति अचानक सुर्खरू हो उठने को है।
साढ़ूपुर के आगे और पीछे
साढ़ूपुर के दलित नरसंहार की तात्कालिक पृष्ठभूमि फूलन देवी द्वारा किया गया बेहमई कांड था, जिसमें ठाकुरों की हत्या हुई थी। फूलन ने बाद में सरेंडर कर दिया, 1996 और 1998 में सांसद बनीं और बाद में शेर सिंह राणा नाम के एक ठाकुर के हाथों मारी गईं, जो जेल से भागने के बाद 2017 के सहारनपुर दलित विरोधी दंगों में अचानक उभरा और आजकल अपनी एक राजनीतिक पार्टी चला रहा है। बेहमई हत्याकांड हालांकि कोई स्वतंत्र घटना नहीं थी क्योंकि उसके पहले और बाद में राजनीति और समाज की बदलती धारा उससे जुड़ी रही। बेहमई के बाद 18 नवंबर, 1981 को मैनपुरी के देहुली गांव में ठाकुरों ने 24 दलितों को मार दिया। 23 नवंबर को मुख्यमंत्री वीपी सिंह इस गांव में पहुंचे थे। उन्होंने कानून व्यवस्था बहाल करने के लिए एक महीने का वक्त मांगा था और कहा था कि अगर वे ऐसा नहीं कर पाए तो इस्तीफा दे देंगे।
दिलचस्प है कि मुरादाबाद के दंगे के बाद 13 सितंबर 1980 को और बेहमई हत्याकांड के बाद फरवरी 1981 में भी उन्होंने इस्तीफा देने की बात की थी, लेकिन यह इस्तीफा देहुली में तीसरी बार की धमकी के बाद भी नहीं आया। देहुली हत्याकांड का एक भी आरोपित नहीं पकड़ा गया क्योंकि मुख्य आरोपित राधे खुद ठाकुर था। वीपी फिर भी मुख्यमंत्री बने रहे। हां, इसके बाद उन्होंने यूपी पुलिस को गोली चलाने की खुली छूट दे दी। देहुली कांड के बाद महीने भर में पूरे राज्य में कोई 300 लोग मारे गए, जिन्हें डकैत बताया गया जबकि ज्यादातर निर्दोष लोग थे। यह संख्या 6 जनवरी 1982 तक 325 पहुंच गई। 1982 के सूर्योदय से ठीक दो दिन पहले वह 30 दिसंबर का दिन था जब वीपी सिंह के शुरू किए दस्यु उन्मूलन अभियान पर उनकी पीठ ठोंकने के लिए इंदिरा गांधी लखनऊ पहुंची थीं।
आम तौर से इंदिरा गांधी राज्य सरकारों की प्रगति समीक्षा के लिए जाती थीं, लेकिन यूपी का दौरा इस मायने में अलग था कि देहुली हत्याकांड के बाद मचे हल्ले में वीपी सिंह की गरदन बड़ी मुश्किल से बच सकी थी। इसलिए गांधी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में बाकायदा वीपी सिंह की पीठ थपथपाई और खुद को इस बात से संतुष्ट बताया कि वीपी सिंह ने सत्ता में रहते हुए कैसे हरिजनों को सुरक्षित करने का काम किया है। वरिष्ठ पत्रकार एमजे अकबर उस समय साढ़ूपुर कांड पर छपी अपनी रिपोर्ट में यह विवरण देते हुए लिखते हैं, ‘बुलबुले में ठीक उसी समय उंगली की गई जब वह पूरा फूला हुआ था।‘
उंगली हुई देहुली से सैंतीस किलोमीटर दूर मैनपुरी के ही साढ़ूपुर गांव में, ठीक उसी वक्त जब इंदिरा गांधी प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रही थीं। तीन व्यक्ति गांव में घुसे, उन्होंने रास्ता पूछा और हरिजन बस्ती की ओर निकल लिए। वे हथियारबंद थे। अकबर लिखते हैं कि उन्होंने बाकायदे एक-एक घर की जांच की कि कौन से में दलित रहते हैं। पंद्रह मिनट में मुआयना निपटा कर उन्होंने छह औरतों, चार बच्चों और दो आदमियों को ढेर कर डाला। इनमें से दस की मौत हो गई।
इस घटना के बाद आरोप मढ़े जाने शुरू हुए। इलाके में ब्राह्मणों, यादवों और ठाकुरों के डकैत गिरोह थे। फूलन तब तक फरार चल रही थी क्योंकि मल्लाहों ने उसे संरक्षण दिया हुआ था। इस घटना को ठाकुरों की हरकत मानना वीपी सिंह के लिए ठीक नहीं था क्योंकि वे खुद ठाकुर थे। वे घटना के बाद दिल्ली भागे, फिर वहां से एक दिन बाद ज्ञानी जैल सिंह और योगेंद्र मकवाना के साथ साढ़ूपुर आए। उनके दो मंत्री घटना के बाद गांव पहुंचे। उनमें एक मंत्री राजेंद्र त्रिपाठी ने आनन-फानन में बयान दे दिया कि ये राजनीति से प्रेरित हत्याएं हैं (यानी विपक्षाी दल डकैतों के हाथों हरिजनों को मरवा के वीपी सिंह को बदनाम करना चाहे रहे थे)। लगे हाथ पुलिस ने एक चिट्ठी पैदा कर दी और बताया कि हत्या के बाद हत्यारे उसे छोड़ गए हैं। इसके आधार पर हत्यारों को अनार सिंह गिरोह का बताया गया। इस बात को गृह सचिव ले उड़े। उन्होंने मीडिया से कह दिया कि अनार सिंह की गैंग ने ही ये हत्याएं की हैं।
इस बात का तर्क लोगों के गले नहीं उतरा क्योंकि अनार सिंह ठाकुर नहीं, यादव थे। इसके अलावा, बेहमई हत्याकांड की गूंज इतनी तगड़ी थी कि लोग ठाकुरों को ही दोषी मान कर चल रहे थे। एक और वजह यह थी कि देहुली हत्याकांड को ठाकुरों के राधे गिरोह ने अंजाम दिया था, जो अब तक फरार था। इस चक्कर में वीपी सिंह दबाव में आ गए और उन्होंने पुलिस को डकैतों के नाम पर निर्दोषों के शिकार के लिए खुला छोड़ दिया। साढ़ूपुर हत्याकांड में जो मुकदमा लिखा गया, वह अनार सिंह यादव और उनकी गैंग के लोगों के खिलाफ था। मुकदमा लिखवाया शिकोहाबाद रेलवे स्टेशन के एक अधिकारी डीसी गौत ने ग्राम प्रधान अग्रवाल की दी हुई सूचना पर, जिसमें अनार सिंह, जयपाल और गंगादयाल सहित कुल दस आरोपी बनाए गए। चूंकि अनार सिंह गैंग कथित रूप से लोकदल के करीब था, तो कांग्रेस सरकार के लिए यह कहना आसान हो गया कि उसे बदनाम करने के लिए दलितों को निशाना बनाया गया है। इस पर लोगों को विश्वास नहीं था जबकि विपक्ष राधे गैंग को घेरने की कोशिश में था।
साढ़ूपुर के परिणाम
राजनीति दूसरी ओर से भी पर्याप्त हुई। साढ़ूपुर में विपक्षी एकता बनाने के लिए भाजपा अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी भजन मंडली के साथ देहुली से पदयात्रा करते हुए साढ़ूपुर तक आए, हालांकि बीच में ही उसे छोड़कर दिल्ली निकल गए। अकबर बताते हैं कि वाजपेयी की मंडली में उसी इलाके के वे सूदखोर थे जिन्होंने बरसों बरस दलितों को लूटा था, लेकिन आज वाजपेयी की अगुवाई में वे ‘हरिजनों के रक्षक बने हुए थे’।
विपक्ष के नेता राधे को साढ़ूपुर का अपराधी बता रहे थे, जिसने देहुली में दलितों को मारा था। चैतन्य कालबाग लिखते हैं कि तथ्यों को देखा जाय, तो राधे गैंग के 19 में चार आदमी पहले ही मारे जा चुके थे और नौ गिरफ्तार हो चुके थे, जिनमें उसका दायां हाथ संतोषा भी था (वास्तव में दस्यु उन्मूलन अभियान की दो बड़ी कामयाबियों में एक संतोषा की गिरफ्तारी थी और दूसरी पान सिंह तोमर की हत्या, जिसका श्रेय मध्य प्रदेश पुलिस को जाता है)। इसलिए कालबाग के अनुसार साढ़ूपुर में राधे गैंग का हाथ होने की आशंका बहुत कम थी।
अकबर एक स्रोत के हवाले से अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि संतोषा ने 1980 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के एक प्रत्याशी का प्रचार किया था, लिहाजा उसकी गिरफ्तारी दरअसल उसकी जान बचाने का एक ढोंग थी। दूसरी ओर राधे को बड़े ठाकुर नेताओं का संरक्षण प्राप्त था, तो उसकी गिरफ्तारी की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। एमजे अकबर उस रिपोर्टिंग के दौरान देहुली में राधे के घर होकर आए थे। उन्होंने पाया था कि पुलिस ने दरवाजे का ताला तोड़ कर सुराग की तलाश में वहां छानबीन की थी।
कुल मिलाकर ठाकुरों की डकैत गिरोह सुरक्षित रही जबकि यादवों की ग्रिरोह के अनार सिंह आदि पर मुकदमा चलता रहा। जनवरी 1982 के अंत तक साढ़ूपुर के मृतकों को सरकार और विपक्ष दोनों भूल गए। इससे पहले हालांकि एक खतरनाक घटना हुई। अप्रैल 1982 में यानी हत्याकांड के चार महीने बाद इलाहाबाद हाइकोर्ट के एक जज चंद्रशेखर प्रसाद सिंह की बरगढ़ के जंगल में गोली मार के हत्या कर दी गई, जहां वे शिकार खेलने गए हुए थे। चंद्रशेखर प्रसाद सिंह, मुख्यमंत्री वीपी सिंह के भाई थे। तीन महीने बाद एक और कांड हुआ। 28 जून, 1982 को कानपुर के पास दस्तमपुर में दलितों का एक और नरसंहार हुआ। इसके बाद वीपी सिंह का बहुप्रचारित इस्तीफा आया। श्रीपत मिश्र नए मुख्यमंत्री बने।
बेहमई से शुरू होकर वाया देहुली, साढ़ूपुर और दस्तमपुर कुल डेढ़ साल में जो कहानी बनी, उसने दलित एकजुटता के प्रभावस्वरूप कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी को जन्म दिया। इसमें एक धारणा ने और मदद की, कि जगजीवन राम को दलित होने के कारण कांग्रेस में प्रधानमंत्री नहीं बनाया गया। 1989 में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 10 परसेंट वोट बटोरे। इसी के समानांतर मुस्लिम विरोधी दंगों और राम जन्मभूमि आंदोलन से भाजपा मजबूत होती गई और उसने भी 11 परसेंट वोट खींच लिए। बसपा को 13 सीटें मिलीं जो पहली बार हुआ जबकि भाजपा को 57 सीटें मिलीं, जो पिछले चुनाव से 41 ज्यादा थीं। इसी के समानांतर 1989 के आम चुनाव में भाजपा करीब 11 परसेंट वोट के साथ लोकसभा की 85 सीटें जीत गई।
कल और आज
अस्सी के दशक में भाजपा के उभार की वजह उत्तर प्रदेश था और उसकी पृष्ठभूमि में केंद्र व राज्य दोनों ही जगह कांग्रेस की बहुमत वाली निरंकुश सरकारें थीं। आज स्थिति ठीक उलटी है, केंद्र और राज्य दोनों जगह भाजपा बहुमत के साथ सत्ता में है। 1980 और 2023 में हालांकि दो अहम समानताएं है। पहली समानता है दलितों और मुसलमानों के खिलाफ हिंसा और राज्य सरकारों की नाकामी।
पहले यह हिंसा थोक में होती थी, आजकल खुदरा है। ग्राफ हालांकि यूपी का ही ऊंचा था और है। 1981 में दलितों के खिलाफ हुई हिंसा की घटनाओं की संख्या 13866 से बढ़कर 14308 हो गई थी और 1982 आते-आते कांग्रेस-शासित राज्यों यूपी, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान की देश भर में हुई कुल दलित-विरोधी हिंसा में 70 फीसदी हिस्सेदारी थी। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ताजा रिपोर्ट कहती है कि यही चार राज्य 2021 में भी दलित-विरोधी हिंसा में शीर्ष पर हैं, जिनका नेतृत्व यूपी 13146 घटनाओं (करीब 26 परसेंट) के साथ कर रहा है। ओडिशा के साढ़े चार परसेंट को इनमें मिला लें तो दलित-विरोधी कुल राष्ट्रीय हिंसा का करीब 71 परसेंट बनता है।
राष्ट्रीय स्तर पर एलसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि 2021 के अंत में 70818 दलित हिंसा के मामले लंबित थे। 2020 (50291 मामले) के मुकाबले 2021 में दलित हिंसा में 1.2 परसेंट इजाफा हुआ है (50900 मामले)।
अस्सी के दशक की शुरुआत और आज हो रही हिंसा के बीच एक समानता और है- असली अपराधियों का राजनीतिक संरक्षण के चलते बचकर निकल जाना और हिंसा के असली कारणों के इर्द-गिर्द राजनीतिक धुंध खड़ी कर दिया जाना। महिला पहलवानों के मामले में भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह का मामला तो गरम है ही, जो दंडहीनता की स्थापित हो चुकी संस्कृति को पुष्ट करता है। अलग-अलग स्रोतों की मानें तो चार दशक पहले साढ़ूपुर में भी कुछ ऐसा हुआ था।
चैतन्य लिखते हैं कि गांव में नरसंहार से तीन महीने पहले एक डकैत बादशाह को कुछ गांववालों ने मार दिया था। वह जगदीश पंडित की गैंग में काम करता था। पंडित का जुड़ाव अनार सिंह गैंग से था। इसके अलावा, पंडित गैंग के सुरेश नाई के खिलाफ किसी ने मुखबिरी कर दी थी, जिसके चलते 8 दिसंबर, 1981 को पुलिस ने उसे मार गिराया था। पंडित गैंग को पूरा शक अपने प्रतिद्वंद्वी गैंग रमेश मिश्रा उर्फ नथी पंडित की गैंग पर था। नत्थी पंडित की गैंग में ज्यादातर जाटव दलित थे।
इस कहानी के हिसाब से देखें, तो जुर्म जैसा दिख रहा था दरअसल वैसा था नहीं और इंसाफ जैसा जिस रूप में हुआ है उसे भी जुर्म से सुसंगत बैठा पाना मुश्किल है। इसके बावजूद, सब कुछ सरकार और उसे चलाने वाली जाति के पक्ष में ही रहा। चैतन्य की रिपोर्ट जिस टिप्पणी के साथ समाप्त होती है उसे पढ़ा जाना चाहिए: ‘’ऐसा जान पड़ता है कि देहुली और साढ़ूपुर महज ऐसे दो बंद सिरे थे जिनके बीच उत्तर प्रदेश की पुलिस ने अपने नरसंहार को पूरी सनक के साथ अंजाम दिया है’’।
उत्तर प्रदेश पुलिस के आंकड़े बताते हैं कि 2017 में राज्य में भाजपा की सरकार आने के बाद से अब तक 10900 से ज्यादा एनकाउंटर हुए हैं जिनमें 813 कथित मुजरिम मारे गए हैं, 23300 पकड़े गए हैं और 5046 जख्मी हुए हैं। ‘माफिया को मिट्टी में मिला देने’ के इस राजकीय अभियान के बरअक्स अगर दलितों और मुसलमानों पर हुई हिंसा की घटनाओं को देखा जाए, तो चैतन्य कालबाग की 1982 में लिखी उपर्युक्त टिप्पणी आज के हालात पर की गई लगती है।
जिंदगी की अंतिम बेला में चल रहे एक बूढ़े को उम्रकैद के रूप में साढ़ूपुर के दलितों को इंसाफ मिला है या मजाक, वे खुद तय करेंगे। सवाल है कि तब से लेकर अब तक यूपी में क्या कुछ भी बदला है?
संदर्भ-स्रोत:
The Turbulent 1980’s in Indian Politics, Anant Krishna
Have Gun, Will Kill (Riot after Riot), MJ Akbar
India Today report, Chaitanya Kalbagh
The Other Side, October 1982