‘वोट चोरी’ और SIR के आर-पार, क्या सोच रहा है चुनावी बिहार? जमीनी स्वर और शुरुआती संकेत…

Bihar Assembly Elections 2025
By Gaurav Gulmohar/FUS
ऐसा लगा कि समय से पहले ही राहुल गांधी ने एक यात्रा निकाल कर बिहार में चुनावी माहौल जमा दिया था, लेकिन अब उसका असर छीजता दिख रहा है। तेजस्‍वी अपने दम पर अकेले एक नई यात्रा निकाल रहे हैं; मोदी-नीतीश योजनाएं और पैकेज देने में जुट गए हैं; तो विपक्ष की हवा बनाने वाला चुनाव आयोग का एसआइआर 7 अक्‍टूबर तक अदालत में फंस गया है। इस बीच लोग क्‍या सोच रहे हैं? बीस साल से कायम सत्ता की यथास्थिति टूटने की क्‍या कोई भी संभावना है? लगातार आठ दिन चौबीस घंटे बिहार की सड़कों को नाप कर दिल्‍ली लौटे गौरव गुलमोहर का बिहार विधानसभा चुनाव 2025 पर एक पूर्वावलोकन

बिहार विधानसभा चुनाव की तारीखें घोषित होने में अब भी कुछ हफ्ते बच रहे हैं, हालांकि राहुल गांधी की ‘वोटर अधिकार यात्रा’ ने अबकी बिहार में काफी पहले ही चुनावी हलचल पैदा कर दी थी। इस यात्रा की भव्यता और राह में जुटी भीड़ को देख कर राजनीतिक विश्लेषक तरह-तरह के कयास और दावे कर रहे थे। कई वरिष्ठ राजनीतिज्ञों ने तो राहुल गांधी की बिहार यात्रा की तुलना जेपी आंदोलन से कर डाली है।

सवाल है कि क्या वास्‍तव में इस यात्रा ने बिहार में कोई आंदोलन जैसा छेड़ दिया है? क्या इसने बिहार विधानसभा चुनाव की दिशा को मोड़ दिया है? क्या राहुल गांधी ने बिहार के किसी ऐसे वर्ग-विशेष को कांग्रेस या विपक्षी गठबंधन के पक्ष में मोड़ दिया है जो उसके साथ पहले से नहीं था? बिहार से बाहर लखनऊ, दिल्ली और कोलकाता में बैठे लोगों को राहुल गांधी की यात्रा जितनी आकर्षक दिख रही थी, क्‍या वह बिहार के मतदाताओं को भी उतना ही आकर्षित कर पाने में कामयाब रही है? क्या राहुल गांधी या विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की इस यात्रा ने धारणा की लड़ाई में चुनाव से पहले ही एनडीए गठबंधन को मनोवैज्ञानिक मात दे दी है?

दिल्‍ली या उत्तर प्रदेश में बैठकर इन सवालों को समझना मुश्किल था। इसलिए मैं यह जानने के लिए बिहार के सफर पर निकल पड़ा कि राहुल गांधी की यात्रा का वहां के चुनाव पर क्या असर पड़ने जा रहा है। मैंने तय किया कि उन्हीं रास्तों से होते हुए बिहार का भ्रमण करूंगा जिन रास्तों से होकर वोटर अधिकार यात्रा गुजरी है। जब यात्रा जारी ही थी, उस बीच एक रात लखनऊ से राजधानी एक्सप्रेस पकड़ कर मैं सीधे कटिहार पहुंच गया और यात्रा समाप्‍त होने के बाद तक कुल आठ दिन बिहार में गुजारे।

सुबह आंख खुली, तो ट्रेन बिहार के सीमांचल में प्रवेश कर चुकी थी। पास में बैठे बंगाल और बिहार के कुछ लोग उस वक्‍त नाश्ता कर रहे थे, चाय पी रहे थे। उनसे मैंने कटिहार स्टेशन की दूरी पूछी। तीन व्‍यक्तियों ने एक साथ जवाब दिया- ‘’बस आधा घण्टे में आप कटिहार में होंगे।‘’ फिर उनमें से एक ने कहा, ‘’राजधानी है, इसलिए आप राइट टाइम पहुंच रहे हैं वरना बिहार में गाड़ियां दस घंटे की देरी से पहुंचती हैं।‘’

उनमें से एक व्‍यक्ति राजू कुमार के हाथ में अखबार देखते ही मैंने चुनावी सवाल दाग दिया, ‘’इस बार बिहार चुनाव का क्या माहौल है’’? जवाब आया, “ठीक-ठाक ही है। राजद (राष्‍ट्रीय जनता दल) और जदयू (जनता दल युनाइटेड) का प्रभाव है। राजद का प्रभाव ज्यादा है। नीतीश कुमार के आने के बाद विकास तो हुआ, लेकिन भ्रष्टाचार नहीं रुका है।‘’ राजद का प्रभाव ज्यादा होने की उनकी बात से बाकी दो सहयात्री असहमत दिखे। यह बिहार प्रवेश पर मेरा पहला संवाद था। कटिहार से एक गाड़ी लेकर मैंने उन रास्तों से आगे बढ़ने की योजना बनाई जिनसे होकर राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा गुजर चुकी थी।


Publicity Van of Rahul Gandhi's Voter Adhikar Yaatra in Bihar Assembly Elections 2025
राहुल गांधी की यात्रा का प्रचार वाहन

वह यात्रा आज से ठीक महीने भर पहले 17 अगस्त को सासाराम से शुरू होकर औरंगाबाद, गया, नवादा, भागलपुर, कटिहार, गोपालगंज, मोतिहारी, मधुबनी, दरभंगा, से होते हुए 1 सितम्बर को पटना के गांधी मैदान पहुंची थी। अंतिम दिन पटना में यह यात्रा गांधी मैदान से निकलकर अम्बेडकर चौक पर जाकर समाप्त हुई। यात्रा शुरू करने से दस दिन पहले 7 अगस्त, 2025 को राहुल गांधी ने एक प्रेस कांफ्रेंस की थी। उसमें बेंगलुरु सेंट्रल लोकसभा क्षेत्र की महादेवपुरा सीट पर फर्जी मतदाताओं की संख्या बढ़ाए जाने का उन्‍होंने आरोप लगाया था। राहुल ने फर्जी मतदाता, अमान्य पते और फार्म-6 के दुरुपयोग से जुड़े साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए भारतीय जनता पार्टी पर वोट चुराने का आरोप लगाया था। इसी मुद्दे को लेकर उन्‍होंने बिहार में विपक्षी गठबंधन के घटक दलों के साथ वोटर अधिकार यात्रा की शुरुआत की और नारा दिया, “वोट चोर, गद्दी छोड़”!

पिछले लोकसभा चुनाव से पहले की गईं दो ‘भारत जोड़ो यात्राओं’ के बाद राहुल गांधी की यह तीसरी यात्रा थी। लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद भी पहली और दूसरी यात्रा की सफलता या असफलता पर उस तरह से सवाल नहीं उठे क्‍योंकि उन यात्राओं में ‘मोहब्‍बत की दुकान’ खोलने की बात कही गई थी, किसी को चुनाव में सीधे हराने का आह्वान नहीं था। बिहार की यात्रा में ऐसा नहीं है। इस बार न सिर्फ राहुल गांधी का नारा ‘वोट चोरी’ के मुद्दे पर टिका है, बल्कि उस नारे का उद्देश्‍य ही सत्ताधारी दल को ‘गद्दी से हटाना’ है। शायद इसीलिए मतदाता भी बिहार यात्रा को सीधे चुनाव से जोड़कर ही देख रहे हैं।

लिहाजा, राहुल गांधी (या मोटे तौर से कांग्रेस-समर्थित विपक्ष) के राजनैतिक भविष्‍य के संदर्भ में इसके कुछ संभावित खतरे देखने को मिल सकते हैं। मसलन, यदि विपक्षी गठबंधन की बिहार चुनाव में हार हो जाती है, तो सत्ताधारी दल और चुनाव आयोग के ऊपर वोट चोरी का आरोप अपने आप कमजोर पड़ जाएगा। फिर इस मुद्दे के प्रति न केवल बिहार, बल्कि अन्‍यत्र भी मतदाता वैसे ही उदासीन हो जाएगा जिस तरह राफेल में भ्रष्टाचार, ईवीएम में गड़बड़ी, नोटबंदी की यातनाओं, कोविड में जनस्‍वास्‍थ्‍य के कुप्रबंधन, आदि तमाम जरूरी मसलों पर सार्वजनिक बेपरवाही फैल चुकी है।

यह खतरा खास और तात्‍कालिक इसलिए है क्‍योंकि बिहार चुनाव में अभी मोटामोटी महीने भर का समय बाकी है, लेकिन औसत मतदाताओं के बीच ‘वोट चोरी’ का मुद्दा सामान्‍य चर्चा का विषय अब तक नहीं बन सका है जबकि यात्रा का प्रभाव लगातार कम होता जा रहा है। जो समुदाय पारम्परिक तौर पर राजद और कांग्रेस के मतदाता रहे हैं, केवल उन्हीं के बीच वोट चोरी का मुद्दा चर्चाओं में आया जबकि अन्य समुदायों के बीच हिंदुत्व, बिहारी बनाम बाहरी, रोजी-रोजगार, बाढ़, पलायन, महंगाई और सरकारी लाभ अहम मुद्दे हैं।


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भागलपुर जिले में राहुल गांधी की यात्रा जहां ठहरी थी, उस गांव में मेरी मुलाकात छाठू कुशवाहा (67) से हुई। यात्रा के बारे में पूछने पर छाठू कुशवाहा शिकायती ल‍हजे में कहते हैं, “पकरा हाई स्कूल में राहुल की यात्रा रुकी थी, लेकिन गांववालों से उन्होंने बात नहीं किया। न ही यात्रा निकलते समय रुके ही। राहुल अपनी सारी व्यवस्था से आए थे। गांव से कोई मतलब नहीं था। वोट अधिकार यात्रा क्यों हो रही है मुझे नहीं मालूम है।”

छाठू के साथ बैठे ताश खेल रहे नौजवान इमरान वोटर अधिकार यात्रा के बारे में ज्‍यादा जागरूक दिखे। उन्होंने बताया, “देश में जो वोट चोरी हो रही है उसी के खिलाफ राहुल गांधी यात्रा कर रहे हैं। भाजपा चुनाव में वोट चोरी कर के चुनाव जीतती है। इस बार बिहार में नई वोटर लिस्ट बन रही है और बहुत लोगों का वोट काटा जा रहा है।”

वहीं हमारी मुलाकात चाय की दुकान पर बैठे लक्ष्मण कुमार सिंह (राजपूत) से हुई। वे कहते हैं, “राहुल गांधी टोटली झूठ बोल रहा है। भोट पॉलिटिक्स के लिए संविधान खतरे में है फैलाया, राफेल पर भी झूठ बोला और अब भोट चोरी की बात फैला रहा है। महिलाओं को 2500 देने का वादा करके क्या दे सकते हैं? महाराष्ट्र, हिमाचल, झारखण्ड नहीं दे पा रहा है तो तेजस्वी यादव बोल रहा है लेकिन कैसे दे पाएगा?”

इसी तर्ज पर हमने पाया कि पूरे प्रदेश में मतदाता अपने-अपने जातिगत हित वाले राजनीतिक दलों से अपने जुड़ाव के हिसाब से राहुल गांधी की यात्रा का विश्लेषण कर रहे थे। यानी, फिलहाल हम कह सकते हैं कि बिहार चुनाव अपनी पारंपरिक गति, लय और दिशा के साथ ही आगे बढ़ रहा है। कम से कम इतना तो कह ही सकते हैं कि वोटर अधिकार यात्रा बिहार के चुनाव की दिशा नहीं बदल पाई है।



बावजूद इसके, इस यात्रा ने कुछ स्‍मृतियां जरूर ताजा कर दी हैं। जैसे, मतदाताओं को राहुल गांधी के बहाने उनके पिता राजीव गांधी की याद आई या बेलछी गांव में दलित नरसंहार के समय हाथी पर चढ़ कर आईं इंदिरा गांधी की याद जेहन में ताजा हो गई। शायद इसीलिए यात्रा जहां-जहां से गुजरी, आसपास के गांवों से भारी तादाद में बच्चे, बूढ़े, महिलाएं, अधेड़ और नौजवान राहुल गांधी को देखने के लिए पहुंचे। औसतन सभी राजनीतिक दलों से जुड़ाव रखने वाले लोग जुटने वाली भीड़ में शामिल हुए।

नवादा जिले में दैनिक भास्कर के वरिष्ठ पत्रकार अशोक प्रियदर्शी बताते हैं, “राजीव गांधी के बाद राहुल गांधी की पहली यात्रा थी। जो उनके वोटर नहीं थे वे भी उन्‍हें देखने पहुंचे थे। यात्रा का ज्यादा प्रभाव यह होगा कि अबकी प्रत्याशी मायने रखेंगे। जातिगत गोलबंदी तो मायने रखेगी ही। अभी अगड़ी और महादलित जातियां कांग्रेस के साथ आने को तैयार नहीं हैं। अगड़ी जातियां राहुल से सहानुभूति तो रखती हैं, लेकिन वे गठबंधन के प्रत्याशी को वोट नहीं करेंगी।‘’

यात्रा के दौरान एक सकारात्‍मक बात यह रही कि विपक्षी गठबंधन की एकता देखने को मिली। यात्रा की शुरुआत से ही राहुल गांधी के दाहिनी तरफ तेजस्वी यादव, बाईं तरफ मुकेश सहनी और दीपंकर भट्टाचार्य मौजूद रहे। गठबंधन की एकता का इससे जो संदेश गया, उसका असर इन पार्टियों के कार्यकर्ताओं के बीच एकता में भी देखने को मिला है। अगर एकता कायम रही, तो इसका लाभ गठबंधन को चुनाव में मिल सकता है।

विपक्षी गठबंधन के समर्थकों के बीच एकता का अनुमान पश्चिमी चंपारण जिले की नौतन विधानसभा के बुजुर्ग राममिलन की कही बात से लगाया जा सकता है, “देखिए, मैं यादव हूं लेकिन चाहता हूं यहां से टिकट किसी मल्लाह को मिले क्योंकि यहां पन्द्रह से बीस हजार मतदाता मल्लाह बिरादरी के हैं। यदि उनके समुदाय के व्यक्ति को टिकट मिलेगा तो उनका पूरा समर्थन मिलेगा और तब यहां से कोई राजद को जीतने से नहीं रोक सकता है। भाजपा इन्हीं जातियों के दम पर चुनाव जीतती है।”

वोटर अधिकार यात्रा का सबसे ज्यादा प्रभाव गठबंधन के घटक दलों के मुस्लिम और यादव जैसे पारम्परिक मतदाताओं में एकीकरण के रूप में देखने को मिल रहा है। पिछले चुनाव में सीमांचल की कुछ मुस्लिम-बहुल सीटों पर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम को लाभ मिला था, लेकिन यात्रा के बाद अबकी ऐसा होता प्रतीत नहीं हो रहा। मुस्लिम मतदाताओं के एक हिस्से में नीतीश कुमार की पार्टी जदयू का प्रभाव रहा है। यदि मुस्लिम मतदाता एकवट होते हैं तो जदयू को आंशिक नुकसान उठाना पड़ सकता है।


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इस बारे में बिहार के वरिष्ठ पत्रकार संतोष सिंह कहते हैं, “मुझे नहीं लगता मुस्लिम बड़ी संख्या में जदयू को वोट करते हैं। 2010 तक जदयू को मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन मिलता रहा है और 2015 में राजद के साथ गठबंधन में रहने के कारण नीतीश कुमार को मुस्लिमों का वोट मिला, लेकिन 2017 में एनडीए में आने के बाद पूरी तरह खत्म हो गया। असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को पिछले चुनाव में जरूर कुछ लाभ मिला था, लेकिन इस बार असर नहीं रहने वाला है। कांग्रेस के प्रति मुस्लिम कॉन्सोलिडेशन बढ़ा है। पूरी यात्रा में कांग्रेस के झंडे के साथ मुस्लिमों की संख्या ठीकठाक रही, विशेष तौर पर जहां उनकी संख्या है।”

बिहार में विपक्ष ने चुनाव आयोग द्वारा स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) के तहत लगभग 65 लाख मतदाताओं के नाम काटने का मामला उठाया, तो राहुल गांधी ने महाराष्ट्र, कर्नाटक और हरियाणा में हुई ‘वोट चोरी’ की तरफ ध्‍यान खींचा। तेजस्वी यादव यात्रा के दौरान लगातार एसआइआर को भाजपा की कुटिल नीति बताते रहे, तो राहुल गांधी बेंगलुरु की महादेवपुरा सीट पर ‘वोट चोरी’ की बात करते नजर आए। सवाल है कि बिहार जैसे राज्य का मतदाता, जो अपने आसपास की सैकड़ों समस्याओं से हर रोज जूझ रहा है, क्यों दो हजार किलोमीटर दूर के किसी भ्रष्टाचार पर अपना दिमाग खपाएगा?

मुंगेर जिले के इंद्रजीत यादव की बात से ‘वोट चोरी’ पर बिहार के मतदाता की सामान्‍य समझ को आंका जा सकता है। वे कहते हैं, “जिसके पास देश की सारी शक्ति और संसाधन है वही जीतेगा। उसके (भाजपा) पास शक्ति थी तो वह चोरी किया। चोरी करते हुए नहीं पकड़ पाए न? हमको सरकार राशन फ्री दे रही है। किसान सम्मान निधि दे रही है। पेंशन बढ़ा दिया है। अगर विपक्ष भी जीत गया और केंद्र से बजट नहीं मिलेगा, तो क्या विकास होगा?”

अकेले इंद्रजीत नहीं, बिहार की विशाल अवाम के सामने बड़ा मुद्दा ‘वोट चोरी’ और एसआइआर का नहीं बल्कि रोजमर्रा की जिंदगी में आने वाले अंतहीन उतार-चढ़ाव का है, हालांकि मतदाताओं का एक ऐसा वर्ग भी है जो एसआइआर को नागरिकता के दायरे में देख-समझ रहा है। ऐसे ही एक शख्‍स से हमारी मुलाकात नवादा के वारिसलीगंज में एक चाय की दुकान पर हुई।


Guarav Gulmohar in conversation with local people at a tea shop in Bihar
चाय की अड़ी पर स्थानीय लोगों के साथ चर्चारत गौरव गुलमोहर

बुजुर्ग भुवन पटेल एसआइआर के मुद्दे को एक लाइन के जवाब में समेट देते हैं। दिलचस्‍प है कि चाय के इंतजार में बैठे बाकी लोग भी थोड़े ना-नुकुर के साथ उनके कहे से लगभग सहमत ही नजर आए। भुवन पटेल बोले, “जो पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, नेपाली है, उसका नाम कटा है। कोई धर्मशाला है जो सब घुस आया है? मोबाइल खोलिए, अपना-अपना नाम वोटर लिस्ट में देखिए। अगर आप बिहार से हैं तो आपका नाम नहीं कटा होगा।”

एसआइआर प्रक्रिया की खामियां और उसकी समीक्षा अब न्‍यायिक प्रक्रिया का हिस्‍सा है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से स्‍पष्‍ट कह दिया है कि अगर एसआइआर के लिए आयोग की अपनाई प्रविधि में कुछ भी गैर-कानूनी पाया गया तो वह समूची प्रक्रिया को ही रद्द कर देगा। कोर्ट के निर्देश के बाद बूथ स्‍तर के अधिकारियों पर कार्रवाइयां भी हो रही हैं, इसके बावजूद एसआइआर इतना प्रभावी मुद्दा अब तक नहीं बन पाया है कि उसका असर मतदाता के मतदान व्यवहार पर बड़े पैमाने पर पड़े।

इस बारे में कुछ भी अंतिम रूप से अभी कहना मुश्किल है क्‍योंकि बहुत संभव है कि चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद तक एसआइआर पर अदालती सुनवाई चलती रहे। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में एसआइआर की वैधता पर अंतिम दलीलों को सुनने की तारीख 7 अक्‍टूबर मुकर्रर की है जबकि माना जा रहा है कि दशहरे के बाद यानी अक्‍टूबर के पहले हफ्ते में ही आयोग मतदान की तारीखें घोषित कर देगा। ऐसे में कहीं ऐसा न हो जाए कि चुनाव अपनी राह चल पड़े जबकि एसआइआर अदालती दलीलों में ही फंसा रह जाए।  

इसीलिए, ‘वोट चोरी’ के आरोपों और एसआइआर की पेचीदगियों के अलावा अपने सफर में मैंने बिहार के चालू सियासी मुद्दों पर भी मतदाताओं को टटोलने की कोशिश की ताकि चुनावी सतह के नीचे की सरगर्मी का थोड़ा अंदाजा लग सके।


बिहार सरकार झूठ बोल रही है या घर लौट कर खाली बैठे लाखों प्रवासी मजदूर?


जो विद्वान भारतीय समाज के स्‍मृतिलोप से ग्रस्‍त होने के दावे करते हैं, उनके लिए यह बात असहज करने वाली हो सकती है कि बिहार के गांव-गिरांव में आज भी लालू प्रसाद यादव के शासनकाल की स्मृतियां लोगों के दिमाग से गाफिल नहीं हुई है जबकि उनकी पार्टी का राज बीते बीस साल से ज्‍यादा हो चुके हैं (सन् 2000 से 2005 तक लालू की पत्‍नी राबड़ी देवी बिहार की मुख्‍यमंत्री थीं)।

गैर-यादव पिछड़ी या अतिपिछड़ी जातियों में जहां एक तरफ लालू प्रसाद यादव के ‘जंगलराज’ (यह शब्‍द टीवी मीडिया द्वारा बहुप्रचारित है) का डर है, वहीं दूसरी ओर नीतीश कुमार के सुशासन और लाभकारी सरकारी योजनाओं की चर्चा है। नीतीश कुमार पिछले बीस साल से लगातार सूबे की सत्ता में हैं, लेकिन उनके खिलाफ विपक्ष कोई प्रभावी अफसाना खड़ा कर पाने में सफल होता नजर नहीं आ रहा है। इसके ठीक उलट, दो दशक पहले के लालू के शासनकाल पर बना नैरेटिव अब भी लोगों के बीच चर्चा का विषय है।

लखीसराय में सड़क किनारे ताश खेल रहे ‘कुर्मी जाति के एक समूह’ से हमने राजनीतिक चर्चा शुरू की (बिहार में मतदाताओं की जातिगत पहचान को जाहिर किए बगैर चुनाव की चर्चा में निकले निष्‍कर्षों को पकड़ पाना मुश्किल होता है, इसलिए न चाहते हुए भी जातिगत पहचान लिखनी पड़ रही है – संपादक)। उस समूह में एक अधेड़ व्यक्ति के लिए शराबबंदी मुद्दा था, लेकिन समूह के अन्य लोगों के लिए ‘लालू का जंगलराज’ अहम मुद्दा था। उन्‍हीं में एक चंदन एक ईंट-भट्ठे की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, “लालू यादव के राज में दिनदहाड़े गोली चल जाती थी। जब से नीतीश की सरकार आई है कम से कम शांति तो है। जंगलराज नहीं है।”



उक्‍त समूह में शराबबंदी केवल एक शख्‍स की समस्‍या होने के पीछे ठोस कारण है। बिहार में आधिकारिक शराबबंदी के बावजूद शराब महंगी दरों पर सहज उपलब्ध है। बिहार के सुदूर गांवों में बिजली और मोबाइल का नेटवर्क भले ही न पहुंच रहा हो, लेकिन शराब की होम डिलिवरी की व्यवस्था एकदम दुरुस्त है। इसके बावजूद, शराबबंदी आज भी महिलाओं के बीच नीतीश कुमार की सबसे अच्छी योजनाओं में से एक है।

दूसरी ओर, विधवा पेंशन में वृद्धि, गृहरक्षकों के वेतन में वृद्धि, इंटर्न जूनियर डॉक्टरों की छात्रवृत्ति में वृद्धि और ग्राम कचहरी सचिव के मानदेय में वृद्धि जैसे लाभ देने वाले बिहार सरकार के उठाए कई कदम नीतीश कुमार के हक में जाते हैं। बिहार में जीविका कार्यक्रम के अन्तर्गत जुड़ी महिलाएं भी नीतीश कुमार की मजबूती की बड़ी वजह हैं। वर्तमान में जीविका के अंतर्गत राज्य के विभिन्न जिलों में 10 लाख 63 हजार से अधिक स्वयं सहायता समूह गठित किए जा चुके हैं। इन समूहों से जुड़ी महिलाओं की संख्या लगभग 1 करोड़ 40 लाख हो चुकी है।

लखीसराय के हलसी ब्लॉक में विधवा मालती देवी (चंद्रवंशी) छोटा-सा शाकाहारी होटल चलाती हैं। सरकार के बारे में वे कहती हैं, “नीतीश कुमार ने शराबबंदी किया उससे घर में शांति है। आदमी जो कमाता था सब पी जाता था। हमारे घर में भी एक आदमी पीता था, रोज मारपीट करता था। जो दिन भर कमाता था पी जाता था। कभी-कभी घर का सामान बेच कर शराब पी जाता था। विधवा पेंशन 400 से बढ़ कर 1100 हो गया है। हमारे लिए तो यह सरकार बुरी नहीं है।”

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से जीविका निधि में 105 करोड़ रुपये की धनराशि ट्रांसफर की थी। गोपालगंज जिले की इस आयोजन सभा में मेरी मुलाकात महिलाओं के एक समूह से हुई। उनमें से एक प्रेमा देवी ने बताया, “हम यादव हैं। तेजस्वी जादव हमारे रिश्तेदार हैं। हम तो उन्हीं को भोट करेंगे, लेकिन जीविका से जुड़ी दीदियां ज्यादा नीतीश कुमार को ही भोट करेंगी।”

पिछड़ी जातियों में कुर्मी आज भी नीतीश कुमार के साथ हैं, वहीं कुशवाहा जाति के मतदाता कुछ जगहों पर नीतीश के खिलाफ तो कुछ सीटों पर नीतीश के साथ हैं। राज्‍य में कुशवाहाओं के इकलौते बड़े नेता उपेंद्र कुशवाहा का जदयू से मिलने-बिछड़ने का इतिहास उनकी राजनीति के लिए खतरा बन चुका है। पहले उन्‍होंने राष्‍ट्रीय समता पार्टी बनाई, फिर 2009 में जदयू में उसका विलय कर दिया। उसके बाद उन्‍होंने राष्‍ट्रीय लोक समता पार्टी बनाई, फिर उसका भी 2021 में जदयू के साथ विलय कर दिया। 2023 में उन्‍होंने वापस राष्‍ट्रीय लोक मोर्चा बनाया, एनडीए के साथ ही रहे लेकिन नीतीश कुमार से कटे रहे। नतीजा, वे पिछला लोकसभा चुनाव कराकट से हार गए, हालांकि राज्‍यसभा में पहुंचा दिए गए।      



अतिपिछड़ी जातियों में मंडल, बढ़ई, प्रजापति, पचपनिया और चौहान नीतीश कुमार या एनडीए गठबंधन को अपना समर्थन देते नजर आते हैं। दलित जातियों में मिलाजुला प्रभाव देखने को मिलता है। पासवान जाति के बीच आज भी लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान स्वीकार्य नेता के बतौर देखे जाते हैं और वे एनडीए गठबंधन का हिस्सा हैं। यह पार्टी दो हिस्‍सों में टूटने के बाद चिराग के चाचा पशुपति पारस का धड़ा इसी साल अप्रैल में राजद-कांग्रेस वाले गठबंधन के साथ चला गया था और अब भी कायम है। उससे विपक्षी गठबंधन को कुछ लाभ होगा भी या नहीं, यह इस पर निर्भर करेगा कि पारस के धड़े की झोली में कितनी सीटें आती हैं।   

बहरहाल, अतिपिछड़ी जातियों के नीतीश कुमार के साथ जुड़ाव को हम शिवनाथ मंडल (भुच्ची) की बात से समझ सकते हैं। शिवनाथ कहते हैं, “हम लोग नीतीश को नहीं छोड़ेंगे। खाने के लिए अनाज देता है, पैसा देता है, स्कूल के बच्चों को खाना, स्कूल में साइकिल देता है तो हम इसको छोड़ेंगे? रोड बनवाया है। जबसे नीतीश आया तबसे लालू आना-जाना शुरू किया है। कांग्रेस यहां नहीं आता है। राहुल बोल रहे हैं वोट चोरी कर मोदी प्रधानंत्री बना है, हम नहीं जानते ऐसा कुछ है। हमें राहुल की बात पर विश्वास नहीं है।”

पारंपरिक खिलाड़ियों के बीच एक तीसरी ताकत बहुत तेजी से बिहार में उभरी है- प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी। आगामी दो अक्‍टूबर को इस पार्टी के स्‍थापना अधिवेशन की पहली सालगिरह होगी। पटना के गांधी मैदान में पिछले साल गांधी जयंती पर जब किशोर ने पार्टी की घोषणा की थी, तब मौके पर मौजूद विष्‍णु नारायण ने इस पार्टी की संभावनाओं पर यहां लंबी रिपोर्ट लिखी थी। साल भर बाद प्रशांत किशोर की स्थिति को फिर से देखना दिलचस्‍प है।    

प्रशांत की छवि एक चुनाव प्रबंधक की रही है जो बिना किसी घोषित विचारधारा के अपनी फीस के बदले राजनीतिक दलों के लिए चुनाव मैनेज करते रहे हैं। ऐसा उन्होंने किसी एक या दो दल के लिए नहीं बल्कि भाजपा से लेकर जनता दल, आम आदमी पार्टी और बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के लिए बराबर किया है। प्रशांत 2022 में कांग्रेस के पुनरोद्धार के लिए लगभग आठ से नौ घण्टे का एक प्रेजेंटेशन तैयार करके सोनिया गांधी के पास ले गए थे, लेकिन वहां उनकी रणनीति को सिरे से नकार दिया गया था। उसी के बाद वे अपना राजनीतिक दल बनाने की योजना के साथ बिहार के मैदान में उतरे।

एक निजी समाचार चैनल पर प्रशांत खुद बोल चुके हैं कि जो रणनीति उन्होंने कांग्रेस के लिए बनाई थी, उसी रणनीति को अपनी पार्टी जन सुराज के साथ लेकर बिहार में उतरे हैं। सवाल यह है कि यदि प्रशांत किशोर बिहार में नाकाम होते हैं, तो क्या वे मानेंगे कि कांग्रेस ने उनकी रणनीति को फेल होते हुए पहले ही देख लिया था? तात्‍कालिक सवाल यह है कि बिहार के मतदाता प्रशांत और उनकी नवनिर्मित पार्टी के बारे में क्या सोच रहे हैं? देश के महागनरों के बौद्धिक गलियारों में यही सवाल सबसे ज्‍यादा चर्चा में है, कि बिहार में प्रशांत किशोर फैक्टर कैसा रहने वाला है।


Prashant Kishor with various leaders who were once his poll clients
प्रशांत किशोर घाट घाट का पानी पी चुके हैं

प्रशांत किशोर एक बात पर बेशक संतोष कर सकते हैं कि उपचुनाव में बुरी हार के बावजूद उनकी पार्टी का नाम बिहार के सुदूर गांवों तक पहुंच चुका है। मतदाता वोट भले ही न दे, लेकिन जन सुराज और प्रशांत किशोर का नाम उसे पता है। कुल 243 विधानसभा सीटों वाले बिहार में जन सुराज के पोस्टर, बैनर, दीवार पेंटिंग, झंडा, ऑटो और रिक्‍शों के पीछे चिपके हुए स्टिकर दिख जाते हैं। हर विधानसभा में पीले रंग में रंगी जन सुराज की औसतन चार से पांच गाड़ियां नजर आ ही जाती हैं। विधानसभा की सीटों पर मैनेजमेंट के लिए सैकड़ों युवक-युवतियां पार्टी के पेरोल पर रखे गए हैं। एक वरिष्ठ पत्रकार आपसी चर्चा में जन सुराज के इस चुनाव में खर्च का अनुमान लगभग 200 करोड़ रुपये लगाते हैं।

नाम न छापने की शर्त पर वे कहते हैं, “प्रशांत किशोर हजारों गाड़ियां चलवा रहे हैं। बड़े-बड़े कार्यक्रम कर हैं। सैकड़ों युवा वेतन पर जनसुराज का प्रचार कर रहे हैं। वे मुस्लिम वोट काटने के बारे में सोच रहे थे, लेकिन वोटर अधिकार यात्रा के बाद मुस्लिम वोट कंसॉलिडेट हुआ है।”

बिहार में जन सुराज का प्रचार और तरीका देखते ही दिल्ली में आम आदमी पार्टी की याद आ जाती है। आम आदमी पार्टी की भी कोई घोषित विचारधारात्‍मक लाइन नहीं थी। वहां राजनीति लाभार्थी बनाम लाभार्थी के बीच हो रही थी। अंततः, हमने देखा कि कांग्रेस को केंद्र और दिल्‍ली से बेदखल करने वाली आम आदमी पार्टी खुद दिल्‍ली चुनाव में इस साल हिंदुत्व की वैचारिक लाइन पर चलने वाली भाजपा के हाथों बेदखल हो गई। तो क्‍या प्रशांत किशोर का भी राजनीतिक प्रयोग कुछ इसी तर्ज पर जाने को अभिशप्‍त है?

बिहार में घूमते हुए मैंने पाया कि मतदाताओं के एक बड़े हिस्से में जन सुराज की छवि भाजपा की बी-टीम के रूप में ही है। राजनीतिक गलियारों में यह भी चर्चा है कि भाजपा के पास समूचे बिहार में प्रभाव रखने वाला कोई चेहरा नहीं है, तो आगामी दिनों में प्रशांत किशोर भाजपा के पोस्टर बॉय भी बन सकते हैं।

प्रशांत किशोर बिहार में पलायन, बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे सार्वजनिक महत्‍व के मुद्दे उठा रहे हैं, हालांकि ‘जय बिहार’ का नारा देकर वे क्षेत्रवाद का गौरवबोध पैदा करने की जुगत में भी हैं। फिलहाल यह भी होता नजर नहीं आ रहा है। बिहार जैसे राज्य में, जहां जातिगत गोलबंदियों के आधार पर दशकों से चुनाव हो रहे हैं, वहां जन सुराज पर किसी जाति विशेष ने अपना विश्वास अब तक नहीं जताया है। उलटे, खुद उनकी जाति का सार्वजनिक होना उनके लिए मुश्किल पैदा कर रहा है।


Vishnu Narayan
  • विष्णु नारायण

गयादीन महतो कहते हैं, “जन सुराज के प्रशांत किशोर का जबसे टाइटल (पांडेय) पता चला तभी से लोग उसका समर्थन नहीं कर रहे हैं। हम लोग तो राजद का समर्थन कर रहे हैं।” दिलचस्प है कि बिहार का सवर्ण भी जन सुराज के साथ जाने का जोखिम उठाता नजर नहीं आ रहा है।

बिहार की राजनीति पर करीबी नजर रखने वाले और जन सुराज के स्‍थापना अधिवेशन का गवाह रहे पटना स्थित पत्रकार विष्णु नारायण कहते हैं, “बिहार में चुनावी लड़ाई मुख्यतया दो ध्रुवों के बीच ही होनी है। वे दोनों ध्रुव एनडीए और ‘इंडिया’ अलायंस हैं, लेकिन बिहार जैसे राज्य में जहां लोग यथास्थिति को तोड़ने के लिए चुनाव लड़ना जरूरी मानते हों वहां कई ऐसे प्रत्याशी भी होते हैं जो स्थापित दलों या गठबंधन में समा न पाएं। ऐसे लोग जन सुराज की ओर रुख कर रहे हैं और आगे भी करेंगे। हालांकि दल में प्रोफेशनल्स के अतिहस्तक्षेप की वजह से राजनीतिक लोगों की गुंजाइश कम ही है, लेकिन कई जगहों पर जन सुराज ‘खेलब न खेले देब खेलवे बिगाड़ब’ की भूमिका तो जरूर अदा कर सकता है।”

जातिगत गुणा-गणित, चुनावी वादे और राजनीतिक एजेंडा अपनी जगह, लेकिन अंततः चुनाव की सुई आकर सीट दर सीट बंटवारे की रणनीति पर ही टिकने वाली है। इसलिए दोनों गठबंधनों के सामने सीट बंटवारा सबसे बड़ी चुनौती साबित होने वाली है।

इस लिहाज से एनडीए में चिराग पासवान, जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा बड़ा संकट बनकर उभरे हैं। चिराग पासवान ने पिछले चुनाव में अलग लड़कर सबसे ज्यादा नुकसान जदयू को पहुंचाया था। वे इस बार एनडीए गठबंधन का हिस्सा हैं और गठबंधन की मजबूती भी हैं, लेकिन अंततः सीट बंटवारा ही मुख्य सवाल है। ‘इंडिया’ में प्रमुख विपक्षी दल राजद के साथ शामिल कांग्रेस ने पिछले चुनाव में 70 सीटों पर चुनाव लड़कर 19 सीटों पर जीत दर्ज की थी। राहुल गांधी की यात्रा के बाद कांग्रेस यदि 70 सीटों से अधिक नहीं मांगती, तो पिछले चुनाव से कम सीटों पर लड़ने को भी तैयार नहीं होगी।

इस गठबंधन में शामिल तीन वामपंथी दल 29 की जगह 40 सीटों की मांग कर रहे हैं। मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) ने 60 सीटों के साथ उपमुख्यमंत्री पद पर अपना दावा जता दिया है। इसके अलावा, पारस की लोजपा 10 और झारखण्‍ड मुक्ति मोर्चा पांच सीटें मांग रही हैं। ऐसे में यदि राजद सभी सहयोगी दलों की मांग मान लेता है तो खुद 60 सीटों के नीचे आ जाएगा।

शायद इसी दबाव से निपटने के लिए मुजफ्फरपुर की एक रैली में तेजस्‍वी यादव ने अपने समर्थकों के बीच घोषणा कर दी कि वे सभी 243 सीटों पर अकेले लड़ने वाले हैं। अब यह बात घटकों को दबाव में लेने के लिए कही गई थी या अपने समर्थकों में उत्‍साह जगाने के लिए, लेकिन उनके बयान ने ‘इंडिया’ के बाकी सदस्‍यों की पेशानी पर तनाव की लकीरें पैदा कर दी हैं।



सवाल यह भी है कि जब सत्तारूढ़ एनडीए के खिलाफ दो दशक बाद भी सत्ता-विरोधी कोई लहर देखने को नहीं मिल रही, तब विपक्षी गठबंधन की सीट बंटवारे पर क्या रणनीति होगी? इस सवाल पर राजनीतिक विश्लेषक राजन पांडेय कहते हैं, “पहला सवाल तो सीट शेयरिंग का ही है। सीट शेयरिंग की चुनौती समान रूप से दोनों गठबंधन के लिए है, लेकिन ज्यादा उठापटक की संभावना ‘इंडिया’ में ही देखने को मिल सकती है।‘’

वे कहते हैं, ‘’जहां तक रही रणनीति की बात है, तो बिहार की पिछड़ी जातियों में यादव के बाद कुशवाहा दूसरी सबसे बड़ी जाति है और कुशवाहा मतदाता का कोई एक स्वीकार्य दल नहीं है। दूसरा, अतिपिछड़ी जातियां जो राजद के साथ नहीं हैं उन्‍हें लाने के लिए क्या कर रहे हैं? सांगठनिक स्तर पर कुछ कर सकते हैं लेकिन अब उसका समय नहीं बचा है तो ज्यादा से ज्यादा टिकट दे सकते हैं, इसका लाभ विपक्ष को मिल सकता है। अतिपिछड़ा को कितना टिकट बांट सकते हैं और यादव-मुस्लिम का कितना टिकट काट सकते हैं, यही मुख्य सवाल है। लेकिन पहले भी देखा गया है यादव और मुस्लिम दोनों मतदाता पूरी तरह राजद के कंट्रोल में नहीं हैं।”

अब, जबकि राहुल गांधी का ‘वोटर अधिकार यात्रा’ से खड़ा किया शुरुआती गुबार महीने भर पुराना हो चुका है और नए चुनावी अभियान सामने हैं, तो मतदान से पहले अगले एक महीने में बिहार की हवा नजर रखने लायक होगी क्‍योंकि कुछ नए सवाल खड़े हो रहे हैं।



जैसे, क्‍या राहुल गांधी की यात्रा कारगर नहीं रही कि तेजस्‍वी यादव को 16 सितंबर को नाम बदलकर ‘बिहार अधिकार यात्रा’ शुरू करनी पड़ी? कांग्रेस द्वारा 39 सदस्‍यों वाली लंबी-चौड़ी बिहार चुनावी कमेटी को अलग से बनाने का क्‍या अर्थ है? विपक्षी गठबंधन के मुख्यमंत्री चेहरे को लेकर मुकेश सहनी के हालिया विवादास्पद बयान क्या उनके मोहभंग का संकेत दे रहे हैं? क्‍या नीतीश कुमार के कथित सुशासन पर एनडीए को भरोसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी को करीब चालीस हजार करोड़ रुपये की विकास परियोजनाओं की सौगात बिहार को देनी पड़ी और रथयात्राएं निकालनी पड़ रही हैं? इसी बीच उद्योगपति गौतम अदाणी को भागलपुर में एक रुपये सालाना की दर पर 33 साल के लिए 1050 एकड़ जमीन के पट्टे देने का विवादास्पद मामला भी सतह पर आ चुका है।

बिहार विधानसभा चुनाव के इस पूर्वावलोकन के अंत में आज की तारीख में दो सबसे बड़ी राष्‍ट्रीय जिज्ञासाओं का जिक्र करना जरूरी है। एक कांग्रेस और दूसरी भाजपा से जुड़ी है। पहली, क्‍या राहुल गांधी ‘हाइड्रोजन बम’ के नाम से चर्चित जो नए उद्घाटन करने जा रहे हैं उसका धुआं बिहार तक फैलेगा? दूसरे, 17 सितंबर को पचहत्तर साल के पूरे हो चुके नरेंद्र मोदी की चुनावी मशीन आखिर कब तक धुआं छोड़ती रहेगी?


[सभी तस्वीरें गौरव गुलमोहर की खींची हुई हैं]


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