बिहार: परंपरा और लोकलाज के दबाव में गर्व और कर्ज का मर्ज बनता पितरों का श्राद्धभोज

पितृपक्ष बीत गया। हर साल की तरह इस बार भी अंधविश्‍वास और कुरीतियों के खिलाफ तथा परंपराओं के पक्ष में खूब कागजी बहसें चलीं, लेकिन देश भर में अर्पण-तर्पण से लेकर भोज-भात चलता रहा। राजस्‍थान में मृत्‍युभोज के खिलाफ बने कानून का वहां कोई असर नहीं दिखता। बिहार का मिथिलांचल इस मामले में हमेशा की तरह सबसे आगे रहा। कर्ज लेकर, जमीन बेचकर भी लोग अपनी प्रतिष्‍ठा बचाते रहे। इसके बावजूद कई जगह इस परंपरा का विरोध हो रहा है, बेड़ियां टूट रही हैं। राहुल कुमार गौरव ने अपनी रिपोर्ट में जमीन पर हो रहे बदलाव का आकलन किया है

कोरोना काल में एक वीडियो सोशल मीडिया पर बहुत वायरल हुआ था। घटना मई 2021 की है, जब बिहार के सीमांचल इलाके में स्थित अररिया जिले के बिशनपुर गांव में एक औरत की मौत हो जाने के बाद उसकी बेटी ने पीपीई किट पहनकर लाश का अंतिम संस्‍कार अकेले ही किया था। महामारी और संक्रमण के डर से उस औरत की अंत्‍येष्टि में एक भी आदमी नहीं आया था। दस दिन बाद उसी औरत के श्राद्ध कर्म में 150 लोग शामिल हुए थे। यह घटना और ऐसी दर्जनों घटनाएं जिंदगी और मौत से बढ़कर मृत्‍युभोज के महत्‍व को दिखाती हैं।

इस पितृपक्ष में बिहार से एक अजीब घटना सामने आई है। मुजफ्फरपुर के विशनपुर कल्‍याण गांव में एक बुजुर्ग दंपत्ति ने जीते जी गया जाकर न सिर्फ खुद अपना पिंडदान कर डाला, बल्कि गांववालों को मृत्‍युभोज भी दिया। खबर के मुताबिक दंपत्ति ने जिंदगी भर की कमाई श्राद्ध और भोज में खपा दी। मृत्‍युभोज के बारे में ऐसी दुर्लभ खबर के अलावा सामान्‍यत: बीमार पड़ने या मौत तक की खबरें आई हैं। भोजपुर में श्राद्ध के दौरान हर्ष फायरिंग की एक घटना हुई है, तो वैशाली में भोज के बाद दो लोगों की मौत की सूचना है।   

मध्‍य सितंबर से लेकर अब तक चले पूरे पितृपक्ष के दौरान इस साल सोशल मीडिया पर अलग-अलग दायरों में श्राद्ध और भोज को लेकर वैचारिक बहसें चली हैं। हर बार यह होता है। अंधविश्‍वास और अतार्किकता बनाम परंपरा पर हर साल चलने वाली बहसों के बावजूद श्राद्धकर्म और मृत्‍युभोज में कोई कमी नहीं आई है, बल्कि घर के घर इस परंपरा के चक्‍कर में तबाह हो रहे हैं।


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Posted by Ram Ayodhya Singh on Wednesday, September 11, 2024

इस बार जाने क्यों मन हुआ कि पापा की स्मृति में पितृपक्ष में एक छोटा सा भंडारा किया जाये। जो मित्र आना चाहें उनका स्वागत है। पटपड़गंज की जोशी कॉलोनी की मस्जिद के पास वाले स्कूल के बग़ल में।

Posted by Ashok Kumar Pandey on Thursday, September 19, 2024

पितृपक्ष पर शुभ-अशुभ खेल रहे कुछ पत्रकारों के पितर जिन्दा होते तो उनसे वही कहते जो औरंगेजब से उसके पिता शाहजहाँ ने कहा…

Posted by Rangnath Singh on Friday, September 20, 2024

भारत के अमूमन हर हिस्से में किसी की मृत्‍यु के बाद खाने-खिलाने की परंपरा मौजूद है, लेकिन बिहार के उत्तरी भाग खासकर मिथिलांचल, सीमांचल और कोसी में भोज खाने और खिलाने की परंपरा काफी अलग है। मिथिला के लोग मानते हैं कि भोज एक उत्सव सरीखा है जो उन्‍हें परंपरा से मिला है। इस परंपरा को लेकर समाज दो हिस्‍सों में बंटा हुआ है। एक हिस्‍सा कहता है कि परंपराओं को निभाते रहना चाहिए। कुछेक लोग मृत्युभोज को कुप्रथा मानकर उसका विरोध करते है।

वैचारिक बहस को एक ओर रख दें, तो परंपरा निभाने के चक्‍कर में कई लोगों को कर्ज तक लेना पड़ता है, जिनकी आर्थिक स्थिति अच्‍छी नहीं होती। कभी-कभार तो जमीन बेचने तक की नौबत आ जाती है। सुपौल जिले की बैरिया पंचायत में डभारी के रहने वाले खुदीराम सिंह आज से करीब चार दशक पहले 1986 में इच्‍छा न होते हुए भी समाज के दबाव में अपनी तीन कट्ठा जमीन बेचकर मृत्युभोज किए थे।

खुदीराम खेती-किसानी करते हैं। उस घटना के बारे में याद करते हुए वे बताते हैं, “उस वक्त हमारा इलाका बाढ़ से प्रभावित था। मेरे पिता की मृत्यु हुई थी। मेरी इच्छा भोज करने की नहीं थी, हालांकि समाज के प्रेशर की वजह से गांव के ही एक व्यक्ति से कर्ज लेना पड़ा। कर्ज नहीं चुकाने की वजह से अपनी महंगी तीन कट्ठा जमीन उन्हें बेचनी पड़ी थी।”

यह सामाजिक दबाव आज भी कायम है। सुपौल जिले के ही किशनपुर पंचायत के वार्ड नंबर 5 में रहने वाले अरुण कुमार झा के पिता ने अपने पिता के श्राद्ध का भोज कराने के लिए कर्ज लिया था। यह घटना 2008 की है। कर्ज के बदले में उन्होंने अपनी जमीन सूद के रूप में महाजन को दे दी थी।


Khudiram Singh and Arun Jha from Bihar sold their farmland for funeral fiest
खुदीराम सिंह (बाएं) और अरुण कुमार झा

अरुण बताते हैं, ‘’उस जमीन को लगभग पांच महीने बाद हमने छुड़ाया था। आप ही सोचिए, जमीन बेचकर समाज को खिलाने में किसे खुशी होती है? फिर भी अधिकांश लोग लोकलाज के चक्कर में मृत्युभोज करते हैं। मेरा मानना है कि मृत्युभोज नहीं होना चाहिए। सबसे बड़ा है रोग, क्या कहेंगे लोग। इसी बुनियाद पर मृत्युभोज टिका है।”

बैरिया पंचायत के वार्ड नंबर 13 में राम नारायण साह रहते हैं। बचपन में ही उनके पिताजी का देहांत हो गया था। उन्‍हें भी मृत्‍युभोज कराने के लिए कर्ज लेना पड़ा था। कर्ज का ब्याज इतना ज्यादा हो गया कि उन्‍हें जमीन बेचनी पड़ गई। वे मानते हैं कि लोगों पर मृत्‍युभोज देने के लिए दबाव नहीं बनाया जाना चाहिए।

वे कहते हैं, ‘’अभी तो ठीक भी है, कई लोग इसका विरोध भी करते है। पहले तो जो लोग मृत्युभोज नहीं करते थे उनको समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता था। मेरा मानना है कि मृत्युभोज के लिए लोगों को प्रभावित नहीं करना चाहिए। मैं अपने गांव में इस दिशा में काम भी कर रहा हूं।”

परंपराओं का विरोध हालांकि इतना आसान नहीं होता। सामाजिक दबाव को न मानने की कीमत भी चुकानी पड़ती है, जैसा कि बहुजन समाज से आने वाले अजय आजाद के साथ हुआ जो मृत्‍युभोज की कुरीति को मिटाने के लिए अभियान चला रहे हैं।

सहरसा जिले के सौर बाजार थाना क्षेत्र में चंडोर पश्चिमी पंचायत के खोकसाहा भगवानपुर गांव के अजय आजाद पेशे से वकील और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। फिलहाल उनका परिवार परंपरा न निभाने के चलते सामाजिक बहिष्‍कार झेल रहा है। आजाद के पिता की मृत्‍यु दिसंबर 2023 में हुई थी। उन्‍होंने मृत्युभोज देने के बदले गांव में एक लाइब्रेरी खोलने का फैसला किया। साथ ही उन्होंने कर्मकांड भी नहीं करने का फैसला किया। इसके बाद गांव के लोगों ने उनके परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया।

अजय बताते हैं, ”सिर्फ गांववाले नहीं, कई रिश्तेदार भी हमारा विरोध कर रहे थे। पिताजी की शोकसभा के वक्त जान-बूझ कर हमारे घर का लाइट काट दिया गया था। हम बहुजन समाज से जुड़े लोग कर्मकांड और पूजा-पाठ पर विश्वास नहीं करते हैं। मृत्युभोज जैसी कुरीतियों को मिटाने के लिए हम अभियान चला रहे हैं।”


Ram Narain Sah from Bihar has started awareness campaign against the funeral fiest
  • राम नारायण साह

मृत्‍युभोज की परंपरा सामाजिक दबाव के रूप में कैसे काम करती है, इसे 28 वर्षीय एक युवा हमें विस्‍तार से समणते हैं, “समाज कभी भी किसी व्यक्ति को भोज करने के लिए डायरेक्ट नहीं बोलता है। समाज के द्वारा एक इनडायरेक्ट रूप से सवाल पूछा जाता है कि खाए हो तो खिलाओगे नही? इसी सवाल के प्रभाव में आकर हर व्यक्ति को यह करना पड़ रहा है, चाहे वह इसमें समर्थ हो या न हो।‘’

वे पूछते हैं, ‘’आपके चारों तरफ श्राद्धभोज होता हो, आप उसमें शिरकत भी करते होंगे। फिर जब आपके यहां कोई मरे तो आपको न चाहते हुए भी भोज करना ही पड़ेगा। अगर नहीं कीजिएगा तो इनडायरेक्टली आप पर इतना कमेंटबाजी होगा कि आप वह कमेंट बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे।”

पूरे देश में भले ही मृत्युभोज की प्रासंगिकता पर बहस छिड़ी हो लेकिन इससे मिथिलांचल, सीमांचल और कोसी क्षेत्र के जनमानस पर कोई फर्क नहीं पड़ता। विडम्‍बना है कि सोशल मीडिया पर भी भोज की इस परंपरा को अब ‘’मैथिल गर्व’’ की नजर से दिखाया जाने लगा है।

मिथिलांचल ब्लॉग की पोस्ट के मुताबिक मिथिला के एक गांव में एक दिन के भोज में 10,000 रसगुल्ला खत्म हुआ था। मधुबनी के खरौआ गांव के रहने वाले लखन झा अपने भतीजे मुन्ना की शादी में 718 रसगुल्ले खा गए थे। पचपन साल के लखन झा एक बार में 250 केले खा जाते हैं। इस तरह की सूचनाएंअब गौरवान्वित महसूस कराने वाली खबरों की शक्‍ल में आने लगी हैं जबकि  मिथिलांचल इलाके के लगभग हर गांव में ऐसे लखन झा आम तौर से मिल जाएंगे।

भागलपुर में रहने वाले हाईस्कूल के रिटायर्ड शिक्षक ललन झा कहते हैं, “मृत्युभोज की परंपरा गलत नहीं है। दिक्कत सामाजिक व्यवस्था की है। मृत्युभोज करने का उद्देश्य यह था कि मृतक के दुनिया से चले जाने के बाद भी उसके संबंधियों का घर से नाता बना रहे। परिवार व रिश्तेदार एकजुट रहें। धर्म मृत्युभोज के लिए प्रेरित भी नहीं करता। आप 11 या 21 लोगों को खिलाकर भी धर्म का सम्मान कर सकते हैं लेकिन आज की परिस्थिति में मृत्युभोज एक व्यवहार और लोकाचार बन गया है। लोग यह अपनी प्रतिष्ठा के लिए करने लगे हैं।‘’

वे कहते हैं, ‘’खुद को श्रेष्ठ दिखाने के चक्कर में… कि मेरे पास भी धन है… यह दिखाने के लिए औकात से ज्यादा खर्च करते हैं। इन सारी वजहों से धीरे-धीरे यह कुरीति का रूप लेने लगा है। दिखावे और झूठी शान के चक्कर में समाज ने ही इसे विकृत कर दिया है। अब यह इतना खर्चीला हो गया है कि कई गरीब परिवारों की इसके कारण कमर टूट जाती है और वे कर्ज के तले दब जाते हैं।”


https://twitter.com/ShreyaMishra00/status/1807420472784548026

पूर्णिया जिला के रहने वाले विकास एक समाजसेवी हैं। वे आदित्य कम्युनिटी किचन के संस्थापक हें। आदित्‍य की मां की कोरोना में मृत्यु हुई थी। उन्‍होंने फैसला किया कि वे साधारण भोज करेंगे। वे बताते हैं, ‘’समाज ने मेरा समर्थन किया था। मैं मानता हूं कि समाज में भी बदलाव की जरूरत है।”

विकास मृत्‍युभोज का एक जरूरी आयाम खोलते हैं, ‘’मिथिला में भोज एक अर्थव्यवस्था की तरह काम करता है जिससे गांव के कई लोगों का जीवनयापन होता है।‘’ इसी बात को मधुबनी जिले के एक शिक्षक प्रभास झा आगे बढ़ाते हैं, “पहले भोज के बहाने गांव के गरीब तबकों को अच्छा खाना मिल जाता था। एक वक्त था जब भोज के लिए निमंत्रण आता था तो उसकी तैयारी सुबह से होती थी। दिन भर हलका खाना खाते थे, ताकि रात का भोज अच्छे से खा सकें।‘’

कभी गरीबों का पेट भरने वाली यह व्‍यवस्‍था अब गरीबों का नासूर बन चुकी है क्‍योंकि इसका बजट लाखों में जा चुका है। सुपौल जिले के पचपन वर्षीय किसान हरिमोहन झा बताते हैं, कि, “यहां श्राद्ध में चार दिन भोज होता है। मेरे गांव बभनगामा में लगभग नखवाल में 200, एकादशा में 500, द्वादशा में 1000 और अंतिम दिन यानी मांस-मछली के भोज में लगभग 200 व्यक्ति खाना खाते हैं। इसमें लगभग पांच से छह लाख रुपया खर्च होता है। यह सिर्फ भोज का बजट है, श्राद्ध में अलग लगता है। लगभग 40 से 50 प्रतिशत गांव में हो रहे श्राद्ध भोज का यही मेन्यू है। अब जिसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नही है, वह इससे थोड़ा कम खर्चीला भोज करता है।”

बहुजन विचारधारा से जुड़े आकाश आनंद कहते हैं, “अमीर और गरीब की खाई बहुत बढ़ चुकी है। जो अमीर है, उनके लिए यह उत्सव है। जो गरीब है उनके लिए सिरदर्द। समाज कभी नहीं कहता कि फलां व्यक्ति आर्थिक रूप से सक्षम नहीं है, तो उस पर श्राद्ध भोज का दबाव नहीं डाला जाए। जो तथाकथित छोटी जाति है वहां भी देखादेखी भोज का प्रचलन बढ़ रहा है।”



बिहार में निषाद जाति आर्थिक रूप से बहुत कमजोर है, लेकिन सभी जातियों की तरह उसमें भी भोज को लेकर इतना उत्साह है कि एक निषाद परिवार के भोज में तीन लाख लोग खाना खाए थे। इस भोज को उस परिवार ने सोशल मीडिया पर एक उपलब्धि के रूप में दिखाया था।

मृत्युभोज के खिलाफ अब बड़ी संख्या में लोग खड़े हो रहे हैं। उत्तरी बिहार के कई गांवों ने मृत्यु भोज नहीं करने का फैसला लिया है। इनमें सिमरी बख्तियारपुर प्रखंड का सरोजा गांव और नरपतगंज प्रखंड क्षेत्र की मानिकपुर पंचायत स्थित भवानीपुर गांव शामिल हैं।

कई लोग अब इस परंपरा के खिलाफ कानून बनाने की मांग भी कर रहे हैं। उत्तरी बिहार में कई संस्थाएं और लोग मृत्युभोज पर रोक लगाने के उद्देश्य से काम कर रहे है। लोरिक विचार मंच बिहार में मृत्युभोज के विरोध में काम कर रहा है। इस संस्था के प्रदेश संयोजक डॉ. अमन बताते हैं, “मैं 2006 से मृत्युभोज विरोधी अभियान चला रहा हूं। मेरा मानना है कि सरकार को इसको लेकर कानून बनाना चाहिए। हर जाति और वर्ग के लोगों को इसका नुकसान हो रहा है। धर्म में भी इस भोज का कोई जिक्र नहीं है। इस प्रथा को बंद करने के लिए जगह-जगह हम बैठक कर के लोगों को मृत्युभोज से बचने के लिए जागरूक कर रहे हैं। कई लोगों को मैं यह समझाने में सफल हुआ हूं। संघर्ष जारी है।”

राजस्थान में मृत्‍युभोज के खिलाफ बाकायदा एक कानून बहुत पहले से मौजूद है। मृत्युभोज निवारण अधिनियम 1960 के मुताबिक मृत्युभोज करना और उसमें शामिल होना कानूनन दंडनीय अपराध है। राजस्थान पुलिस ने सोशल मीडिया पर इस बारे में एक पोस्ट भी लिखी थी। इसके बावजूद कानून का असर नहीं हो रहा है। राजस्थान के एक पत्रकार हितेश राजपुरोहित बताते हैं कि वहां मृत्युभोज के खिलाफ कानून जरूर बना है और इसके खिलाफ आवाज भी उठती रहती है, फिर भी मृत्युभोज पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं लग पाया है।



कोरोना के दौरान पूरे देश की तरह बिहार में भी मृत्युभोज पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया था। इसके बावजूद कई गांवों में उतने ही उत्साह के साथ भोज किया गया था और लोगों ने भोज खाया था। नाम न छापने की शर्त पर एक पुलिस अधिकारी कहते हैं, “बिहार सरकार ने कोरोना महामारी में लोगों के इकट्ठा होने पर रोक लगाई थी। इसमें मृत्युभोज जैसे आयोजन नहीं करने का आदेश भी था। इस संबंध में कई शिकायतें भी आई थीं, हालांकि कुछ मामले ही दर्ज हुए और जुर्माना लगा।”

इस मामले में धर्माचार्यों के हालिया बयान भी स्थिति को स्‍पष्‍ट करते हैं। ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद मृत्युभोज में ब्राह्मणों को खिलाने को शास्त्रसम्मत तो मानते हैं, लेकिन कहते हैं कि यह आपकी इच्छा पर निर्भर है और यह काम कर्ज लेकर नहीं करना चाहिए। वे बताते हैं कि शास्त्र कर्ज लेकर यज्ञ करने और श्राद्ध करने को निषेध मानता है।


(फेसबुक पोस्ट्स और ट्वीट लेखकों की दीवार से साभार, बाकी फोटो और वीडियो राहुल कुमार गौरव के लिए हुए हैं)


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