पिछले दो साल से देश के किसान अपनी उत्पादित फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी गारंटी दिए जाने की मांग को लेकर राजधानी दिल्ली की सरहदों पर संघर्ष कर रहे हैं। उन्हीं किसानों के खेतों में काम करने वाले खेतिहर मजदूरों की समस्याओं पर राजनीति और समाज में कहीं कोई चर्चा नहीं है।
सच्चाई यह है कि किसानों के साथ खेतिहर मजदूरों की आर्थिक और सामाजिक उन्नति न केवल जुड़ी हुई है, बल्कि अपने वजूद के लिए दोनों समुदाय एक-दूसरे पर घनिष्ठ रूप से आश्रित भी हैं। कृषि श्रमिकों का किसानों के साथ रिश्ता और उनकी समस्याएं खेतिहर मजदूरों की वर्तमान स्थिति पर न केवल बहस की मांग करती हैं, बल्कि स्वामीनाथन कमेटी द्वारा कृषि मजदूरों के संदर्भ में की गई सिफारिशों को भी बहस के केंद्र में खड़ा करती हैं।
इस संदर्भ में किसान आंदोलन के परंपरागत रूप से अगुवा रहे महाराष्ट्र के कृषि मजदूरों पर एक सीमित अध्ययन दिखाता है कि कैसे यहां का किसान खेतिहर मजदूरों के बरअक्स लगातार शोषक की भूमिका में खड़ा है, बावजूद इसके कि नई सरकार में जनवरी की समाप्ति पर कम खरीद के कारण ज्यादातर किसान न सिर्फ घाटे में जा रहा है बल्कि लगातार कमजोर भी होता जा रहा है। नवंबर 2024 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान सोयाबीन की कीमत बुरी तरह टूट गई थी और तमाम किसानों को एमएसपी से नीचे अपनी उपज बेचनी पड़ी थी। किसानों के व्यापक असंतोष के बावजूद सूबे में महायुति की सरकार दोबारा बन गई। इस कहानी में किसानों पर आश्रित खेतिहर मजदूरों का राजनीतिक असंतोष हवा हो गया।
बीते महाराष्ट्र चुनाव दौरान इस लेखक ने उत्तरी महाराष्ट्र के जलगांव में कुछ दिनों तक प्रवास किया और इलाके के किसानों-मजदूरों से बात कर के कृषि, मजदूरी और पलायन के संबंधों को समझने की कोशिश की थी। उनके अनुसार सवाल सिर्फ यह नहीं है कि किसानों को एमएसपी मिले, इसके आगे भी खेती के सामने कई गंभीर सवाल हैं। कृषि मजदूरों का सवाल इसका एक बड़ा अंश है।
जनवरी खत्म, बेरोजगारी शुरू
उत्तर महाराष्ट्र के जलगांव, नान्दुरबार, नाशिक, धुले और अहिल्याबाई नगर (पूर्व में अहमद नगर) जिले को महाराष्ट्र के खेती-किसानी प्रधान क्षेत्रों में गिना जाता है। क्षेत्र का कुर्मी पाटील समुदाय, जो खुद को मराठा मानता है, उनकी बहुसंख्या वाला यह क्षेत्र अपनी उन्नत और समृद्ध कृषि के लिए जाना जाता है। पूरा क्षेत्र नकदी फसल जैसे कपास, सोयाबीन और मूंग दाल उत्पादन का बड़ा केंद्र है। नाशिक जहां प्याज उत्पादन का केंद्र है, वहीं जलगांव का भुसावल क्षेत्र केले की खेती का केंद्र है। इन फसलों से प्राप्त नकदी ही क्षेत्र के किसानों की सामाजिक-राजनैतिक दबदबे और आर्थिक प्रगति का आधार है।
पिछड़े समुदाय से आने वाले इस क्षेत्र के पाटील (कुर्मी पाटील) परिवारों के पास क्षेत्र की सत्तर फीसद से ज्यादा कृषि-योग्य भूमि है। इसके बाद इस क्षेत्र में भील-पारधी जैसी आदिवासी जातियां और दलित बसते हैं। विमुक्त जनजातियां, जैसे भोई काफी संख्या में हैं। इस क्षेत्र के दलित, जो अब खुद को जय भीम समुदाय के बतौर पहचाना जाना ज्यादा पसंद करते हैं, अमूमन भूमिहीन हैं। विमुक्त जनजातियां आज भी बैलगाड़ी में अपनी पूरी गृहस्थी समेटे खानाबदोश जीवन जीते हुए देखी जाती हैं। आदिवासी परिवारों में भूमि नहीं के बराबर है।
क्षेत्र में कृषि मजदूर के बतौर दलित, आदिवासी और विमुक्त जनजाति समुदाय के लोग ही पाटील समुदाय के खेतों में मजदूरी करते हैं। उससे जो आय होती है उससे उनके कुछ महीनों का गुजारा होता है। कुर्मी पाटील समुदाय से इतर, बाकी मजदूर जातियों में किसी-किसी परिवार के पास एक-दो एकड़ की कृषि जोत है जो वर्षा आधारित होने कारण इन परिवारों थोड़ी-बहुत ही आर्थिक मदद कर पाती है। क्षेत्र के गैर-पाटील समुदाय का बहुत बड़ा हिस्सा सिर्फ कृषि मजदूर है।
क्षेत्र के लगभग पचास फीसद किसान ही इन कृषि मजदूरों को अपने खेतों में मजदूरी पर लगाते हैं। क्षेत्र के तीस फीसद किसान छोटी जोत वाले हैं जो अपने खेतों में श्रम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने ही घर के सदस्यों को खेती के काम पर लगाते हैं। शेष बीस फीसद फसल तैयार होने के बाद खेतों से फसल निकालने के लिए इन कृषि श्रमिकों का प्रयोग करते हैं। फसल तैयार होने तक इन किसानों का पूरा घर मिलजुल कर फसलों की निराई-सफाई का काम पूरा कर लेता है क्योंकि जोतें छोटी होने के कारण घर के लोग खेती सम्बंधित कार्यों की लिए पर्याप्त होते हैं।
जिन पचास फीसद किसानों के यहां मजदूरी मिलती है, वहां कपास, मूंग दाल, सोयाबीन, मक्का, बाजरा जैसी फसलों में की बुवाई के बाद कृषि मजदूरों को खरपतवार नियंत्रण (जैसे निराई-गुड़ाई) का काम मिलता है। फसल तैयार होने पर उसे तोड़ने, सुखाने और साफ करने जैसे काम भी मजदूरों को मिलते हैं। कृषि श्रमिकों को यह काम केवल जून से जनवरी के बीच ही मिलता है क्योंकि वर्षा-आधारित होने के कारण सिर्फ जून से लेकर जनवरी तक ही खेतों में फसल होती है।
यानी, मजदूरों की बेरोजगारी का सीजन यहां अब शुरू हो रहा है। उन्हें जून आने तक अगर काम मिलेगा भी तो बेरोजगारी की हालत ऐसी होगी कि श्रमिकों की अधिकता के कारण मजदूरी दर काफी गिर जाएगी। खेतों में काम करने के लिए बरसात के मौसम में पुरुषों को तीन सौ पचास रुपये प्रतिदिन तक अधिकतम मिलते हैं। महिला श्रमिकों को अधिकतम दो सौ पचास रुपये तक मिल जाते हैं।
एमएसपी या सामाजिक वर्चस्व?
कृषि श्रमिकों को इतनी कम मजदूरी क्यों मिलती है? इस सवाल पर क्षेत्र के गैर-कुर्मी नेताओं का कहना है कि कुर्मी किसान इन कृषि मजदूरों का शोषण करके उन्हें कमजोर बनाए रखना चाहते हैं ताकि क्षेत्र में सामाजिक-राजनैतिक तौर पर पाटील किसानों का दबदबा कायम रहे।
कुर्मी किसान खुद ऐसा नहीं मानते। जलगांव की अमलनेर तालुका के ढेकू गांव के किसान अनूप पाटील कहते हैं, “कम मजदूरी की मुख्य वजह कृषि श्रमिकों का शोषण नहीं, बल्कि कृषि उपज का बाजार में लाभकारी मूल्य नहीं मिलना है। जब तक किसान को अपनी उत्पादित फसल का एक लाभप्रद मूल्य नहीं मिलेगा, वह कृषि श्रमिकों को ऊंची मजदूरी दे पाने की स्थिति में ही नहीं होगा क्योंकि किसान की खर्च करने की भी एक सीमा होती है। फिर, हर साल उत्पादन लागत बढ़ने से उसकी आय भी तो घट रही है।”
इन दो विरोधी दावों के बीच सच्चाई को जानने के लिए कुछ बुनियादी सवालों को समझना जरूरी है। जैसे, क्षेत्र के कृषि मजदूरों की वर्तमान स्थिति क्या है? उनका जीवनयापन कैसे होता है? उनके पलायन का रुझान क्या है?
जलगांव की परोला तहसील के मोहाडी-दहिगांव ग्राम पंचायत के सरपंच अरमान खटीक के अनुसार इस क्षेत्र से कृषि मजदूरों के पलायन को दो तरह से देखा जा सकता है। पहला है भूमिहीन समुदायों का पलायन और दूसरा है थोड़ी बहुत कृषि जोत रखने वाले समुदायों का के पलायन का पैटर्न। वे बताते हैं, ‘’जिस समुदाय के पास बिलकुल भी कृषि भूमि नहीं है उसके दो ठिकाने हैं। बरसात के सीजन में वह क्षेत्र के कुर्मी पाटील समुदाय के खेतों में मजदूरी (निराई-गुड़ाई और मूंग दाल तोड़ने का कार्य) करता है। बरसात बाद वह कपास तोड़ता है, मक्का के खेतों से कटाई-निकासी करके उन्हें साफ करता है। फिर जनवरी में यहां काम खत्म होने के बाद वह परिवार सहित काम की तलाश में जिले के बाहर जाता करता है।‘’
यह पलायन दो क्षेत्रों में होता है- आदिवासी, विमुक्त जनजातियों और अनपढ़ दलितों का आधा हिस्सा सूरत, अहमदाबाद, पुणे, मुंबई जैसे शहरों में दिहाड़ी मजदूरी करने चला जाता है। बाकी आधा हिस्सा कोल्हापुर, बारामती और ऐसे ही अन्य गन्ना उत्पादक जिलों में गन्ना काटने के काम में चला जाता है।
वे बताते हैं, “इस पलायन में गन्ना मजदूरों श्रमिकों के लिए केवल एक ही फायदा होता है कि जून में बरसात आने के पहले तक उनके पास गन्ने के खेतों में रेगुलर काम रहता है। दिहाड़ी मजदूरों के साथ यह फिक्स नहीं होता। गन्ना मजदूर जहां पांच सौ रूपये अधिकतम दिहाड़ी पाते हैं, वहीँ शहरों में पलायन किए मजदूरों को सात सौ रुपये तक रोज दिहाड़ी मिलती है। बाकी, जिनके पास थोड़ी बहुत खेती है और वह छोटे-मोटे किसान हैं उनके परिवार का मुखिया माइग्रेट करता है और कुछ नकदी हर माह जीवन निर्वाह के लिए बड़े शहरों से घर भेजता रहता है। संकट में तो दोनों हैं।”
अमलनेर तालुका की ग्राम पंचायत भरवस के सरपंच दयाराम भील बताते हैं, “गन्ना के खेतों में काम करने वाले मजदूरों को छह माह में इतना ही मिल पाता है कि वे किसी तरह से जिन्दा रह लें और अगले सीजन में फिर से काम करने के लिए उन खेतों में वापस आ पाएं। उनके मुताबिक क्षेत्र के ज्यादातर भील और पारधी समुदाय के लोग इस काम में कोल्हापुर और बारामती की तरफ़ जाते हैं।‘’
पलायन करने वाले गन्ना मजदूरों के हालात पर एक रिपोर्ट
Human_Costs_of_Sugar-_Living_and_Working_Conditions_of_Migrant_Cane-cutters_in_on882bbवे बताते हैं कि जनवरी में जब स्थानीय खेतों में काम खत्म हो जाता है, तब आप बस स्टैंडों पर लगने वाली भारी भीड़ को देख सकते हैं। ये कृषि श्रमिक परिवार सहित इसलिए जाते हैं ताकि बरसात में जब काम का संकट हो तब के लिए कुछ नकदी बचा लें ताकि वह बरसात में जी सकें। गन्ने के खेतों में श्रमिक आम तौर से परिवार सहित ही काम करते हैं।
परिवार को काम पर साथ ले जाने से होने वाले संकट पर स्वाभिमानी शेतकरी संगठन के जिलाध्यक्ष बंटी भाई कहते हैं, “इससे इन श्रमिकों के बच्चों की एक पूरी पीढ़ी अनपढ़ रह जाती है। यह देश के लिए सबसे बड़ा नुकसान का बिंदु है। आखिर ये अनपढ़ बच्चे कैसे आगे बढ़ पाएंगे?”
सरपंच दयाराम भील इस बात को मानते हैं कि किसानों की आय गिरती जा रही है, इसलिए वह ऊंची मजदूरी दे पाने में अक्षम है। कपास की फसल के बाजार भाव और उत्पादन खर्च का उदाहरण देकर उन्होंने समझाया कि किसान कैसे अपने मजदूरों को ज्यादा मजदूरी दे पाने की स्थिति में नहीं है। उनके मुताबिक, ‘’गन्ना किसानों की स्थिति हमसे बहुत ज्यादा अच्छी नहीं है। अच्छी मजदूरी तब मिलती है जब उत्पादक किसान के पास एक सम्मानजनक नकदी बाजार से आ रही हो।”
पास के ही एक गांव के किसान भाऊ साहिब पाटील बताते हैं कि कम मजदूरी कृषि श्रमिकों में असंतोष पैदा कर रही है, ‘’कृषि मजदूरों की निगाह में हम किसान उनका खून चूस रहे हैं। मजदूर मानते हैं कि हमने एक गुट बनाकर तय कर लिया है कि इससे ज्यादा मजदूरी नहीं देनी है, हालांकि ऐसा नहीं है। किसान ही जब संकट में हैं तो वह इन मजदूरों को ऊंची मजदूरी कैसे दे सकता है?”
राजनीति से गायब, योजना से गाफिल
क्षेत्र के पिछड़ों और दलितों-आदिवासियों के बीच मालिक-मजदूर का रिश्ता सिर्फ उनके आर्थिक संबंध को नहीं, बल्कि उनके सांस्कृतिक और राजनैतिक संबंधों को भी निर्धारित करता है। या यूं कहा जाए कि कई स्तर पर नियंत्रित भी करता है।
क्षेत्र के कृषि मजदूर जहां सामाजिक-राजनैतिक तौर पर समाज के सभी विमर्शों और प्रगति में अपना दखल और उचित स्थान देखना चाहते हैं, वहीँ इन खेतों के मालिकान कुर्मी पाटील समुदाय उसे अपने सामाजिक-राजनैतिक रुतबे के कमजोर होने के बतौर रेखांकित करते हैं। कृषि मजदूरों और किसानों के बीच का यह नाजुक रिश्ता सामाजिक-राजनैतिक परिवेश में सियासी हितों के टकराव के बतौर नए अंतर्संबंधों की व्याख्या की मांग करता है। अमलनेर की मारवाड़ ग्राम पंचायत के किसान बीकन राव पाटील, जो एक सामाजिक कार्यकर्त्ता भी हैं, विस्तार से कृषि मजदूरों का संकट समझाते हैं।
वे बताते हैं, “बीते साल क्षेत्र में ज्यादा बारिश से किसानों की मूंग दाल की फसल नष्ट हो गई। किसानों ने इसके लिए राज्य सरकार से मुआवजे की मांग की और दबाव बनाया। सरकार ने प्रभावित नुकसान का सर्वे करवाया। किसानों को तो कुछ न कुछ मदद जरूर मिलेगी, लेकिन इन्हीं खेतों में मूंग दाल तोड़कर अपना गुजारा करने वाले स्थानीय कृषि श्रमिक तो बर्बाद हो गए। उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। इस तबाही में उन्हें कुछ मिला ही नहीं। बरसात के सीजन में जिन फसलों पर मजदूरी करके उनके पास नकदी आनी थी उसके नष्ट होने से इनके पास नकदी का संकट हो गया। यह पैसा बाजार में भी नहीं पहुंच पाया। इस तरह से इन मजदूरों का बहुत नुकसान हुआ और इनकी परेशानी पर कोई बात नहीं हो पाई। यही अंतर इन मजदूरों को कचोटता है और किसान तथा मजदूर के रिश्तों में तल्ख़ दूरी बनाता है।”
वे कहते हैं, “आप यह समझिये कि इन खेतों में काम करने वाले लोग गरीबी रेखा से नीचे के परिवार हैं। उनका जीवन कैसे चला होगा? कृषि श्रमिकों को लगता है कि किसान अपना नुकसान तो सरकार से दबाव बनाकर पा लेते हैं जबकि उन्हें कुछ हासिल नहीं होता। यह किसानों के खिलाफ गुस्से को पैदा करता है और राजनैतिक तौर पर उन्हें किसानों या कहें किसान जातियों के खिलाफ गोलबंद करता है। इसी गुस्से को कुछ शातिर अपराधी अपने सियासी हित में प्रयोग करके जातिगत विभाजन को मजबूत करते हुए इनका मसीहा बनकर अपना उल्लू सीधा करते हैं।”
पाटील के अनुसार आज किसान और कृषि श्रमिकों के बीच इतनी दूरी बन चुकी है कि किसान तबाह हो जाए तो कृषि श्रमिकों को खुशी होती है क्योंकि किसान सिर्फ अपने लिए लड़ता है, ‘’कृषि श्रमिकों को इस लड़ाई में क्या हासिल होगा? वह किसानों के साथ क्यों खड़े हों। उन्हें क्या मिलेगा?”
गौरतलब है कि महाराष्ट्र में 42 लाख भूमिहीन श्रमिक हैं। राज्य के 62 फीसद आदिवासी गरीबी रेखा से नीचे जीवन जीते हैं। राज्य के 84 फीसद दलित भूमिहीन हैं, जबकि 55 फीसद पिछड़े समुदाय के पास आज भी कोई कृषि जोत नहीं है। राज्य की विमुक्त जनजातियां तो सिर्फ घूमकर कृषि क्षेत्र में मजदूरी से अपनी जीविका चलाती हैं। जाहिर है राज्य के इन भूमिहीनों का लगभग 55 फीसद हिस्सा सिर्फ कृषि क्षेत्र में मजदूरी करता है। इतनी बड़ी संख्या होने के बावजूद भी इनके वजूद का सवाल राज्य की राजनीतिक विमर्श से बाहर है।
कृषि श्रमिकों की बेहतरी वाली सामाजिक सुरक्षा योजनाएं भी इनकी कुछ खास मदद नहीं कर पाती हैं। राज्य के कृषि श्रमिकों को साल में औसत 200 दिन से ज्यादा कृषि क्षेत्र में रोजगार नहीं मिलता है। गैर-कृषि क्षेत्र में इन्हें अमूमन 100 दिन का रोजगार मिलता है। बाकी दिन इन्हें बेरोजगार रहना पड़ता है। इस दौरान राज्य की मनरेगा योजना भी कृषि श्रमिकों को कोई राहत नहीं दे पाती क्योंकि विभाग के पास जहां स्थानीय स्तर पर काम का अभाव है, वहीं महज 297 रुपये की दैनिक मजदूरी इतनी कम है कि मजदूर इसमें तभी रुचि लेता है जब उसे खाने के लाले पड़े हों।
कृषि मजदूरों की औसत मजदूरी 328 रुपये (पुरुष) और 250 रुपये (महिला) है जो पांच आदमी के एक परिवार के न्यूनतम जीवनयापन के लिए भी अपर्याप्त है। संकट यही नहीं है। छोटी जोत के किसान पीढ़ी दर पीढ़ी कृषि श्रमिकों में बदलते जा रहे हैं। 2019 में जहां राज्य के 11.7 करोड़ मजदूरों में 42.5 फीसद कृषि मजदूर थे, वहीं कोरोना के बाद (2021-22 में) यह बढ़ कर 46.1 फीसद हो गया जबकि इस दौरान कृषि क्षेत्र की दैनिक मजदूरी में लगभग 36.50 पैसे की मामूली बढ़ोतरी हुई।
अमलगांव के खेतिहर मजदूर भोंदू भील कहते हैं, “हम लोगों को सरकार की किसी योजना की कोई जानकारी ही नहीं है। हमें तो सिर्फ मजदूरी ही ढंग से मिल जाए, बारह महीने काम मिल जाए, यही बहुत है। हम जी-खा लेंगे।”
किसानों के संकट पर बने स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट
NCF3-1देश के कृषि संकट को किसानों और कृषि श्रमिकों के अलग-अलग संकट के बतौर देखना समस्या के प्रभावी निपटान के मार्ग में बड़ी बाधा है। स्वामीनाथन कमेटी ने इस सन्दर्भ में बहुत ठोस विश्लेषण किया है जो छोटी जोत के किसानों समेत कृषि मजदूरों की बुनियादी समस्याओं पर प्रभावी डाटा के साथ बात करती है।
स्वामीनाथन कमेटी जहां कृषि क्षेत्र के श्रमिकों को कई सहूलियतें देने जैसे सामाजिक सुरक्षा योजनाओं तक पहुंच, बेरोजगारी भत्ता, मेडिकल और पेंशन देने सहित कई सुझाव देती है वहीँ खेती को लाभप्रद बनाए जाने के सन्दर्भ में बड़े और छोटे दोनों किसानों के लिए कई ठोस रास्ते दिखाती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी भी उसी रास्ते में से केवल एक है, जिसे लेकर दिल्ली के खनौरी बॉर्डर पर किसान नेता जगजीत सिंह दल्लेवाल दो महीने से ज्यादा समय से अनशन पर बैठे हुए हैं।
उत्तर महाराष्ट्र के कृषि मजदूरों संकट यह बताता है कि दिल्ली में सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य मांग रहे किसानों की फिक्र में कृषि मजदूर कहीं नहीं हैं। शायद इसीलिए इस आन्दोलन के बारे में यह कहा जा रहा है कि किसान अपनी चौधराहट सुरक्षित रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं जिसे वैश्विक पूंजी रौंद डालने पर आमादा है। बेहतर होता कि मौजूदा किसान आंदोलन किसानों की समस्याओं और एमएसपी पर बात करने के साथ कृषि श्रमिकों की समस्याओं पर भी संजीदगी से बात करता क्योंकि खेती पर दोनों का ही भविष्य टिका हुआ है।