बीते शनिवार को भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी), दिल्ली के अंतिम वर्ष में पढ़ रहे दलित छात्र आयुष आशना ने फांसी लगा कर कथित रूप से आत्महत्या कर ली। पुलिस को अब तक कोई सुसाइड नोट नहीं मिला है। दिल्ली की किशनगढ़ पुलिस मामला दर्ज कर के जांच कर रही है। इस साल देश भर के आइआइटी में इंजीनियरिंग छात्रों की खुदकुशी का यह पांचवां मामला है।
आयुष के लिए इंसाफ और उसकी मौत की जांच की मांग करते हुए आंबेडकर फुले पेरियार स्टडी सर्किल ने 13 जुलाई को आइआइटी प्रशासन के खिलाफ कैंडिल मार्च का आयोजन किया था। आइआइटी में पढ़ने वाले छात्रों के एक समूह ने आयुष की मौत को संस्थागत हत्या कहा है।
आयुष आशना की मौत के बाद छात्रों के एक समूह ने सामूहिक व्यक्तव्य जारी कर कहा है कि ‘’अब समय आ गया है जब हमें आइआइटी के कैंपसों में जारी संकट के बारे में खुल कर चर्चा करनी चाहिए जहां हर दूसरे महीने में एक छात्र की मौत के कारण वे कब्रिस्तान बनते जा रहे हैं।‘’
इस संयुक्त बयान में कहा गया है कि इन संस्थानों को तब तक सामान्य रूप से चलने देने से रोक देना चाहिए जब तक कि ग्रेड, सीजीपीए और प्लेसमेंट की संस्थागत मशीनरी में पूरी तरह से सुधार नहीं हो जाता, जो छात्रों के जीवन का अवमूल्यन और बर्बादी कर रहा है। बयान के मुताबिक ऐसे माहौल में जहां छात्र पहले से ही जाति, वर्ग, क्षेत्र और भाषाई स्तर पर अलग-अलग पृष्ठभूमि से आते हैं, यह मशीनरी केवल ‘योग्यतम’ को पुरस्कृत करती है, जिससे संस्थान के भीतर भी हाशिये पर रहने वाले छात्रों को निचले हिस्से में धकेल दिया जाता है, जिससे कई लोगों को पढ़ाई छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ता है। या फिर वे अपनी जान ले लेते हैं।
बयान में साफ तौर पर कहा गया है कि आइआइटी के कैंपस रैंक, ग्रेड और जातियों में विभाजित हैं जहां दलित-बहुजन समुदाय से आने वाले छात्र को आरक्षण का लाभ उठाने का अतिरिक्त कलंक झेलना पड़ता है।
छात्रों ने कहा कि संस्थान को नैतिक अपीलों के बजाय व्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तनों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जहां जरुरत के वक्त प्रशासन और छात्र एक दूसरे के लिए हमेशा मौजूद रहें वरना तमाम नैतिक अपील फिजूल हैं।
इसके साथ ही छात्रों ने कुछ मांगे रखी हैं, जिनमें एससी/एसटी सेल के साथ मिलकर उन कारकों की जांच के लिए एक समिति का गठन करना है जिनके कारण आयुष को अपनी जान लेनी पड़ी। साथ ही जांच के आधार पर सिफारिशें देने और उन पर कार्यान्वयन करने की मांग शामिल है।
यह भी मांग की गई है कि संकायों की निरंतर निगरानी और संवेदीकरण होना चाहिए। संकाय को अपने पाठ्यक्रमों में छात्रों के प्रदर्शन के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।
आइआइटी बॉम्बे द्वारा बीते साल किए गए एक सर्वे के अनुसार तीन एससी/एसटी छात्रों में से एक से उसकी जाति के बारे में पूछा गया। इस सर्वेक्षण में 388 एससी/एसटी छात्रों ने में भाग लिया था, जिनमें से कई छात्रों ने बताया था कि परिसर में उन्हें किस तरह के जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा।
‘नेचर’ पत्रिका में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, देश के शीर्ष पांच आइआइटी में 98 फीसदी फैकल्टी ऊंची जाति की है और वहां आरक्षण लागू नहीं है। आरटीआइ और अन्य सरकारी आंकड़ों के आधार पर इस रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के इन विशिष्ट विज्ञान संस्थानों में एसटी/एससी समुदायों के छात्रों और संकाय दोनों का प्रतिनिधित्व निम्न स्तर पर है। पत्रिका के मुताबिक आइआइटी और भारतीय विज्ञान संस्थान (आइआइएससी) सहित विशिष्ट संस्थानों में आदिवासी और दलित समुदायों के छात्रों और प्रोफेसरों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है।
मजदूर और छात्र के मुद्दों पर सक्रिय संगठन ‘कलेक्टिव’ के सदस्य शौर्य ने बताया कि आयुष का कोर्स खत्म हो चुका था, लेकिन उसे एक विषय पर बैक मिला था इसलिए वह हॉस्टल में रह रहे थे और बताया जा रहा है कि इस वजह से उसने अपनी जान दे दी, लेकिन इस मामले में आइआइटी प्रशासन की तरफ से अभी तक कोई भी औपचारिक जांच नहीं हुई है। छात्रों का सवाल है कि आइआइटी में इतनी आत्महत्याएं क्यों हो रही हैं।
बीते पांच साल में देश भर के आइआइटी में करीब 33 आत्महत्याएं हुई हैं और इस साल अब तक पांच छात्रों ने ख़ुदकुशी कर ली है।
आयुष की मौत को कुछ लोग रोहित वेमुला की मौत की तरह देख रहे हैं। 26 वर्षीय दलित छात्र रोहित वेमुला ने 17 जनवरी 2016 को युनिवर्सिटी के हॉस्टल के एक कमरे में फांसी लगाकर अपनी जान दे दी थी। उनकी आत्महत्या का मामला लंबे समय तक सुर्खियों में रहा। रोहित की मौत की गूंज सड़क से संसद तक उठी थी। इसने देश भर में छात्र आंदोलन को जन्म दिया था।
रोहित ने खुदकुशी करने से पहले कुलपति को एक पत्र लिखा था जिसका शीर्षक था: दलित समस्या का समाधान। इस पत्र में उन्होंने कहा था कि हर दलित छात्र को जहर और कमरे में लटकने के लिए एक रस्सी उपलब्ध कारवाई जानी चाहिए।
रोहित वेमुला हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी में विज्ञान में पीएचडी कर रहे थे। रोहित आंबेडकर छात्र संगठन के सदस्य थे और वे लगातार छात्र आंदोलन में सक्रिय थे, लेकिन एक झूठे मामले में रोहित और उनके साथियों को विश्वविद्यालय प्रशासन ने सजा दी।
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक सदस्य ने रोहित और उनके साथियों पर मारपीट का आरोप लगाया था, लेकिन यूनिवर्सिटी की पहली जांच में यह आरोप बेबुनियाद पाया गया। यह नोट किया गया कि जिसने आरोप लगाया था, उस पर हमले का कोई सबूत नहीं, जख्म का निशान नहीं, इसलिए आरोप साबित नहीं होता। लेकिन जिस कुलपति के कार्यकाल में रोहित और उनके साथियों को आरोपमुक्त किया गया, उनके जाने और नए कुलपति के आने के बाद बिना कोई नई वजह बताए, बिना किसी नई जांच के, इस फैसले को उलट दिया गया। रोहित और उनके मित्रों के लिए हॉस्टल और अन्य सार्वजनिक जगहें प्रतिबंधित कर दी गईं। रोहित का फेलोशिप बंद कर दी गई थी।
रोहित के संदर्भ में मोदी सरकार में तत्कालीन केन्द्रीय राज्य मंत्री और बीजेपी नेता बंडारू दत्तात्रेय ने तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को एक खत लिखा था जिसमें उन्होंने यूनिवर्सिटी को राष्ट्रविरोधियों का अड्डा बताते हुए हस्तक्षेप का सुझाव दिया था।
रोहित ने अपने सुसाइड नोट में हालांकि किसी को भी अपनी मौत के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया था, लेकिन उसकी मौत ने देश को आंदोलित कर दिया था। इसके बावजूद दलित और आदिवासी छात्रों की मौतों में कोई कमी नहीं आई।
आइआइटी के ही छात्र दर्शन सोलंकी के अलावा मेडिकल छात्रा पायल तड़वी, शोध छात्र सेंथिल कुमार, पी. राजू की सुसाइड के मामले बहुत चर्चित रहे हैं।
यह बात दिन के उजाले में एकदम साफ है कि शैक्षणिक परिसरों में दलित और आदिवासी छात्र अपनी जान क्यों लेते हैं, लेकिन फिर भी हर बार यह सवाल नए सिरे से उठता है कि एक छात्र ने आत्महत्या क्यों की। और हर बार उसे संस्थागत हत्या ठहराने की कोशिशें बेकार चली जाती हैं क्योंकि संस्थानों के प्रशासन कभी इस बात को मानने को तैयार नहीं होते कि उनके परिसरों में जातिगत भेदभाव कायम है।
आयुष की मौत में केवल एक नया आयाम यह जुड़ा है कि इस बार मीडिया में भी इस मौत पर बात करने वाला कोई नहीं है। हिमाचल से लेकर दिल्ली तक आई हुई बाढ़ में एक दलित छात्र की मौत की खबर जैसे डूब सी गई है।