तीन साल बाद भूलगढ़ी: हाथरस की वह घटना, जिसने लोकतंत्र को नाकाम कर दिया

आज हाथरस गैंगरेप कांड को तीन साल हो गए। तकनीकी रूप से साबित किया जा चुका है कि यह रेप कांड नहीं था। हत्‍या की मंशा भी नहीं थी। केवल एक आदमी जेल में है, तीन बाहर। परिवार कहीं ज्‍यादा सघन कैद में, जिसका घर सीआरपीएफ की छावनी बन चुका है। गांव से बाहर निकलने की छटपटाहट अदालतों में नाकाम हो चुकी है, हाथरस से शुरू हुई बंटवारे की राजनीति कामयाब। एक जीता-जागता गांव कैसे तीन साल में मरघट बन गया, बता रही हैं गौरव गुलमोहर के साथ भूलगढ़ी से लौटकर नीतू सिंह इस फॉलो-अप स्‍टोरी में

हाथरस के भूलगढ़ी गांव में 14 सितंबर, 2020 को क्‍या हुआ था? पारिवारिक रंजिश के चलते एक लड़की की गैर-इरादतन हत्‍या? एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्‍कार और हत्‍या? ऊंची जाति के लड़कों द्वारा निचली जाति की एक लड़की का गैंगरेप और हत्‍या? प्रेम प्रसंग में एक लड़की की उसके परिवार द्वारा ऑनर किलिंग? ये चार अलहदा जवाब भारतीय संविधान में न्‍याय को चार अलग-अलग उपचारों की ओर मोड़ देते हैं। न्‍याय-निर्णय के लिए सही जवाब पर पहुंचना जरूरी होता है, लेकिन समाज की प्राथमिकता में अगर न्‍याय न हो, तब? वहां ये चारों जवाब एक साथ एक ही समय में संभव हो सकते हैं, लेकिन सच धराशायी हो जाता है। न्याय, मर जाता है। संविधान, फेल हो जाता है।

तीन साल पहले 14 सितंबर से 29 सितंबर का पखवाड़ा हाथरस नहीं, इस देश में संविधान के नाकाम हो जाने का गवाह है। आज ही के दिन सुबह लगभग ग्यारह बजे भूलगढ़ी गांव की एक 19 वर्षीय दलित युवती खेतों के बीच खून से लथपथ फटे-चीथड़े कपड़ों में मिली थी। करीब 16 दिन अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझते हुए 29 सितंबर 2020 को लड़की की दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में इलाज के दौरान मौत हो गई थी। पुलिसवालों ने आनन-फानन में उसकी लाश गांव में लाकर मुंह अंधेरे जला दी थी।


आधी रात फूंक दी गई थी हाथरस पीड़िता की लाश, फाइल फोटो

सीबीआइ जांच हुई। चार में से तीन आरोपित छूट गए। एक को गैर-इरादतन हत्‍या के आरोप में सजा हुई। बलात्‍कार हुआ था, इसे कोर्ट ने नकार दिया। लोग भूल गए कि मृतक लड़की के ताऊ की छाती पर डीएम ने लात मारी थी या एक दलित एसडीएम ने पत्रकारों से अभद्रता की थी। किसी को याद नहीं कि राहुल गांधी को पुलिसवाले ने धक्का देकर गिरा दिया था, चंद्रशेखर आजाद को रोक लिया गया था, और तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ ब्रायन के ऊपर एक बदमिजाज मजिस्ट्रेट ने हाथ छोड़ दिया था। घटना के डेढ़ साल बाद उत्‍तर प्रदेश में हुए चुनाव तक सत्ता का एजेंडा भूलगढ़ी से ही तय होता रहा था, यह भी याद रखा जाना चाहिए।  

आज भूलगढ़ी को याद करना सिर्फ इसलिए जरूरी है ताकि हम समझ सकें कि 75 साल पुराने इस लोकतांत्रिक गणराज्‍य में सामान्‍य ज्ञान का एक मामूली सा सवाल कैसे महज तीन साल में हाथी बन जाता है- भारतीय उपमहाद्वीप की ज्ञान-परंपरा का वह हिंदू, बौद्ध और जैनी हाथी, जिसे पूंछ, सूंड़, पैर, कान, पीठ से पहचाना जाता है, इसलिए ‘अनेक सत्‍य’ की खोज में यहां न्‍याय हमेशा बलि चढ़ जाता है।   

छावनी बन चुका गांव

भूलगढ़ी गांव हाथरस जिला मुख्यालय से करीब 10 किलोमीटर दूर है। यहां जाते हुए सड़कों के किनारे लहलहाते खेत, पगडंडियां और यहां-वहां बेमतलब घूमते कुत्तों को देखकर वैसा ही लगता है जैसे यह यूपी का कोई दूसरा गांव हो, लेकिन राहगीरों पर आसपास मौजूद लोगों की सशंकित नजरें यह अहसास जरूर कराती हैं कि हम किसी ऐसे गांव में प्रवेश कर रहे हैं जहां सब कुछ सामान्य नहीं है।

गांव में घुसते ही सबसे पहले तीन आरोपितों संदीप, रामू और रवि के घर पड़ते हैं। तीनों के घर एक लाइन से बने हुए हैं। इस गांव की बसावट और घरों की बनावट जातिगत जकड़बंदी का पता देती है। दलित समुदाय के वाल्मीकि समाज से ताल्लुक रखने वाले पीड़ित परिवार का घर गांव के सबसे बाहरी दक्षिणी छोर पर पड़ता है। एक छोटा पुराना घर है, घर के आगे छोटा द्वार है जहां एक भैंस बंधी है। ठाकुर बहुल भूलगढ़ी गांव में कुल चार वाल्मीकि परिवार हैं, दो नाई और तीन ब्राह्मण परिवार। अन्य परिवार ठाकुरों के हैं।


आरोपितों के परिवार की एक महिला

एक पतली सी संकरी गली में आरोपितों के परिवारों की कुछ महिलाएं और लड़कियां खड़ी थीं। जैसे ही हमने अपना परिचय देते हुए बात करने की कोशिश की, एक महिला हमारा वीडियो बनाने लगी। दूसरी महिला गुस्से में बोली, “अब भी तुम लोगों को चैन नहीं मिला? मीडिया वालों की देन है जो ढाई साल जेल में रहकर आए हैं। सब चैनल वालों ने बलात्कार-बलात्कार दिखाया है। किसी मीडिया वाले ने हमारी नहीं सुनी। ढाई साल हमारे बच्चे कैसे रहे, कैसे खर्चा चला, किसी को क्या लेना-देना? वो हरिजन हैं तो उन्हें सरकार ने भी खूब मदद की।

इन महिलाओं ने मीडिया को खूब बुरा भला कहा। गांव की दूसरी महिलाएं भी अपने दरवाजे से घूंघट डाले बाहर की तरफ देख रही थीं पर आरोपितों के घर के अलावा गांव की किसी दूसरी महिला ने बात नहीं की। पता चला कि घटना के बाद से ही गांव के अन्य किसी भी जाति के परिवार से पीड़ित परिवार का कोई संबंध और सम्पर्क नहीं है।

गांव के भीतर घुसते ही वर्दीधारी केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के जवानों और उनके कैम्पनुमा लगे तंबुओं को देखकर सहज ही अंदाजा लग गया कि पीडि़त परिवार का घर कौन सा है। आकाश में छाए काले बादलों और बारिश के बीच हम 8 सितंबर को हाथरस के उस घर में पहुंचे थे, जहां तीन साल पहले राष्‍ट्रीय मीडिया का मेला लगा था। सुरक्षा प्रोटोकॉल की वजह से इस परिवार से मिलने के लिए हर आने वाले को रजिस्टर में अपना नाम दर्ज कराना होता है। सीआरपीएफ के एक जवान से हमें रजिस्टर दिया जिसमें हमने अपना नाम, पता, मोबाइल नम्बर दर्ज कराया। इसके बाद उस जवान ने एक फोन किया और हम दोनों के आने की सूचना दी। कुछ देर बात करने के बाद उसने मृतका के भाई को हमारे आने की खबर की।

पीड़ित परिवार के कुल नौ सदस्य घटना के बाद से गांव में उपेक्षित अपने घरों की चहारदीवारी में कैद चौबीसों घण्टे सीआरपीएफ जवानों की निगरानी में रहने को मजबूर हैं। सीआरपीएफ की 135 जवानों की एक कम्पनी पीड़ित परिवार की सुरक्षा में तैनात है। सुरक्षा कारणों से परिवार का एक भी सदस्य सीआरपीएफ जवानों की नजरों से दूर नहीं जा सकता। परिवार का यदि कोई सदस्य भैंस के लिए चारा लाने घर से बाहर अपने खेत में जाता है तो उसे अत्याधुनिक हथियारों से लैस जवानों के साथ जाना होता है। चारा काटने तक जवान परिवार के सदस्य के साथ खेत में मौजूद रहते हैं।

गांव में एक सवर्ण व्यक्ति की दुकान, जो इस बात पर नाराज थे कि मीडिया माहौल खराब करने चला आता है

मुलाकातियों में चंद रिश्तेदार या गाहे-बगाहे नोएडा से आने वाले मीडियाकर्मियों के अलावा कोई नहीं होता। गांव के किसी सामूहिक कार्यक्रम या त्योहार में पीड़ित परिवार को आमंत्रित नहीं किया जाता। परिवार की स्थिति ऐसी हो गई है कि जो सुरक्षा उन्हें मिली है वह उन्हें एक तरफ सुरक्षित भी महसूस कराती है तो दूसरी तरफ बंधन भी लगती है। तीन साल से परिवार घर में बंद है। परिवार का कोई सदस्य रोजी-रोजगार के लिए बाहर नहीं जा सकता। सरकार की ओर से शुरुआत में मिले 25 लाख रुपये से परिवार जीवनयापन कर रहा है और न्याय की लड़ाई लड़ रहा है। मृतका के दोनों भाइयों से बात कर के तस्‍वीर और खुलती है, हालांकि उनसे अकेले में बात कर पाना सीआरपीएफ के कारण संभव नहीं था।

अपने घर में नजरबंद

बाहर जाकर रोजी-रोजगार न कर पाने के संदर्भ में पीड़िता के बड़े भाई कहते हैं, “अगर हम खा-कमा रहे होते तो सरकार ने जो 25 लाख दिया था उसका सार्थक इस्तेमाल हो सकता था और आज हमारी स्थिति थोड़ी बेहतर होती।‘’

जहां हम मृतका के भाइयों से बैठकर बात कर रहे थे यह उनके चाचा का घर था। वहीं सीआरपीएफ ने घर के आंगन में 1 नवंबर 2020 से अपना तंबू लगा रखा है। बातचीत के दौरान हमारे आसपास तीन सीआरपीएफ के जवान बैठे थे। मृतका की मां और भाभी से भी हमारी मुलाकत संभव नहीं हो सकी।


मृतका के चाचा के घर का आंगन

मृतका के छोटे भाई ने बताया, “मेरी मां से अगर आप बात करेंगी तो वो बहन को याद करके बहुत परेशान हो जाएगी। अभी हम लोग किसी से भी ज्यादा नहीं मिल रहे। वीडियो बाइट भी नहीं दे रहे। तीन साल से अकेले कैदियों की तरह हुए, अब हम लोगों का ज्यादा किसी से मिलने-मिलाने का मन नहीं करता। घर के बाहर तभी निकलते हैं जब केस की किसी कार्रवाई के लिए जाना होता है। इन तीन साल में गाववालों ने तो बहिष्कार किया ही, हम लोगों ने भी रिश्तेदारी में जाना छोड़ दिया।

मृतका के बड़े भाई की तीन बेटियां हैं। घटना के बाद से इन्होंने अपनी बड़ी बेटी को रिश्तेदारी में पढ़ने के लिए रखा है जबकि दो छोटी बेटियां साथ में गांव में ही रहती हैं। वो दोनों भी स्कूल जाने लायक बड़ी हो गई हैं लेकिन घर में कैद होने की वजह से अभी तक वे स्कूल नहीं जा सकी हैं।

मृतका के बड़े भाई बताते हैं, “इस घटना के बाद एक बार मेरी बड़ी बेटी (9 वर्ष) सीआरपीएफ के एक सर के साथ डेयरी पर दूध लेने गई थी। वहां सर ने उसे चारपाई पर बैठा दिया, तो वहां खड़े ऊंची जाति के एक व्यक्ति ने उसे चारपाई से उठा दिया। यह बात मेरी बेटी को बहुत बुरी लगी। भले ही वो छोटी हो पर चीजों को समझती है। तब से वो कभी दूध लेने नहीं गई। इसी भेदभाव की वजह से तो हमारी बिरादरी की लड़कियां पढ़ाई नहीं कर पाती हैं।

मृतका पांच भाई बहनों में चौथे नम्बर की थी, जिसने तीसरी कक्षा तक ही पढ़ाई की थी। मृतका के छोटे भाई बताते हैं, “हमारी तीनों बहनों ने दूसरी-तीसरी तक ही पढ़ाई की है। वो पढ़ी इसलिए भी नहीं क्योंकि हमारे यहां छुआछूत बहुत होता है। हम वाल्मीकि जाति से हैं। हमसे लोग छूत मानते हैं। मेरी बहन मर गई, धीरे-धीरे तीन साल पूरे हो गए, पर गांव का एक व्यक्ति भी हमारे दरवाजे नहीं आया। किसी ने हमारे हालचाल तक नहीं लिए।‘’

वे बताते हैं कि जिस दिन आरोपी छूटकर आए, उसके बाद गांव में महीने डेढ़ महीने पूरे जश्न का माहौल था। हर कोई उनसे मिलने गया, मिठाई बांटी गई, बाजे बजाए गए।

छोटा भाई कहता है, ‘’हमारी बहन मरी, इसका किसी को रत्ती भर अफसोस नहीं था।

न्याय का पक्षपात

गैंगरेप और मर्डर के इस केस ने यूपी की राजनीति में घमासान मचा दिया था। इस गांव के तथाकथित ऊंची जाति के चार लोगों के खिलाफ एफआइआर दर्ज हुई थी। मुख्य आरोपी संदीप 19 सितंबर 2020, लवकुश 23 सितंबर, रवि 25 और रामू 26 सितंबर को गिरफ्तार किया गया था।

हाथरस केस के इस मामले की जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो ने की थी। सीबीआइ ने इस मामले में 11 अक्‍टूबर 2020 को एफआइआर दर्ज की थी। मृतका की मौत के करीब तीन महीने की जांच के बाद सीबीआइ ने इस मामले में 104 लोगों को गवाह बनाया। 18 दिसंबर 2020 को चारों आरोपितों के खिलाफ चार्जशीट कोर्ट में दायर की थी। सीबीआइ ने मौत से पहले लड़की के आखिरी बयान को आधार बनाकर करीब दो हजार पेज की चार्जशीट दाखिल की थी जिसमें कहा गया था कि चारों आरोपितों ने हत्या करने से पहले सरवाइवर के साथ गैंगरेप किया था। चार्जशीट में यूपी पुलिस पर भी लापरवाही के आरोप लगाए गए थे।

ढाई साल बाद 2 मार्च, 2023 को जब इस मामले में फैसला आया, तो विशेष अदालत ने तीन आरोपितों रवि, रामू और लवकुश को बरी कर दिया जबकि मुख्य आरोपित संदीप सिंह को आइपीसी की धारा 3/110 और 304 के तहत गैर-इरादतन हत्या एवं एससी/एसटी एक्ट के तहत दोषी पाया। कोर्ट ने संदीप सिंह को आजीवन कारावास और 50,000 रुपये जुर्माने की सजा सुनाई, हालांकि अदालत ने इस मामले से रेप के आरोप हटा लिए।


घटनास्थल दिखाता गांव का एक व्यक्ति, जिसका कहना है कि घटना के समय वह वहीं खेत में मौजूद था

जांच में मिले साक्ष्यों और गवाहों के आधार पर कोर्ट ने माना कि पीड़िता के साथ गैंगरेप की वारदात हुई ही नहीं थी। जिस दिन तीनों आरोपित बरी होकर आए उसके डेढ़ दो महीने तक गांव में जश्न का माहौल रहा। जयकारे लगे। होली के दिन आरोपितों के साथ पूरे गांववालों ने एकजुट होकर बैंड-बाजे के साथ गांव में नाचते-गाते हुए खुशियां मनाई थीं।

मृतका के बड़े भाई के अनुसार कोर्ट ने जिन तीन आरोपितों को बाइज्जत बरी किया है वे निर्दोष नहीं हैं। उनका आरोप है कि “कोर्ट ने बहन के अंतिम बयान को आधार न मानकर चंदपा थाने में दर्ज एफआइआर को आधार माना है जबकि हमें जब पता चला कि हमारी बहन खून से लथपथ खेत में पड़ी है तो हम उसे सीधा चंदपा थाने ले गए। वहां हमने एफआइआर दर्ज कराई, लेकिन अलीगढ़ अस्पताल में जब बहन को होश आया तब उसने बताया उसके साथ गांव के चार लोगों ने मिलकर बलात्कार किया और बुरी तरह मारा-पीटा। हम सादाबाद थाने पहुंचे, लेकिन सीओ नहीं मिले। हमने स्टेनो को लिखित दिया लेकिन बहन का बयान नहीं दर्ज कराया गया। हमने 18 सितंबर को एसपी को लेटर दिया, एसपी ने सीओ को सस्पेंड कर दिया और आरोपितों की गिरफ्तारी शुरू कर दी। नए सीओ ने अलीगढ़ अस्पताल में जाकर 22 सितंबर 2020 को बयान दर्ज कराया, लेकिन कोर्ट के फैसले में इस अंतिम बयान को आधार नहीं बनाया गया। हम इस आदेश के खिलाफ इलाहाबाद हाइकोर्ट में अपील दायर करने पर विचार कर रहे हैं।

लखनऊ में रहने वाले पूर्व आइपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी से इस मामले में हमने बात की। वे कहते हैं, “इस मामले में शुरू से ही स्थानीय पुलिस ने जान-बूझ कर ढिलाई और पक्षपात किया। एफआइआर लिखने में देरी की। इस केस की प्रशासन ने जो हैंडलिंग की वो बिलकुल विक्टिम विरोधी थी। जिस तरह से मेडिकल रिपोर्ट आने से पहले ही लखनऊ में डिक्लेयर कर दिया गया कि बच्ची के साथ रेप हुआ ही नहीं है, जो घटना के शिकार लोग थे पुलिस शुरू से ही उनके पक्ष में नहीं थी, पुलिस आरोपितों के साथ खड़ी थी- समय से और उचित ढंग से एफआइआर दर्ज न होने की वजह से केस कमजोर हो गया जिसका लाभ आरोपितों को मिला।



दारापुरी बताते हैं कि हाथरस केस में एफआइआर और बयानों में अंतर्विरोध पाए गए थ। शुरू में जब मृतका के बयान हुए तब रेप वाली बात उसने नहीं स्वीकारी थी। बलात्कार को लेकर जो स्टेटमेंट आए उसमें भी तालमेल नहीं था। अलग-अलग समय पर अलग-अलग बातें कही गईं जिससे घटना की सत्यता के बारे में संदेह पैदा हो गया। इसका सीधे तौर पर फायदा आरोपितों को मिला।

वे बताते हैं, ‘’घटना के तुरंत बाद जो प्रथम सूचना में बात कह दी जाती है उसकी विश्वसनीयता ज्यादा रहती है क्योंकि उसने घटना के बाद वो बात कही है। बाद में जोड़ी गई बातों पर संदेह पैदा होता है कि शायद किसी के बहकावे में आकर यह बात दर्ज करवाई गई हो।

अगर रेप या गैंगरेप जैसे संगीन मामलों में पुलिस लापरवाही बरतती है तो पुलिस के खिलाफ किस तरह की कार्रवाई हो सकती है? इस पर दारापुरी कहते हैं, “एससी/एसटी एक्ट की धारा 4 में यह प्रावधान है कि अगर पुलिस एफआइआर लिखने में लापरवाही बरतती है तो पुलिस को भी अभियुक्त मानकर उसके खिलाफ एफआइआर दर्ज होगी। दोष साबित होने पर उसे दण्डित किया जाएगा। इस मामले में पुलिस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। सस्पेंशन कोई सजा नहीं होती है।

अपने-अपने सच


“असली सजा तो उन्हें (मृतका का परिवार) मिली है। वे तो अपनी मर्जी से शौच तक नहीं जा सकते। अगर शौचालय में थोड़ी देर हो जाए तो सीआरपीएफ के जवान गेट खटखटाने लगते हैं। इनकी (आरोपी) सजा तो कम है। ये तो जेल से छूट आए। अब एक ही आदमी बंद है, पर उनकी (जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए) सजा तो बहुत ज्यादा है।”


एक बड़े से दरवाजे के पास कुर्सी पर बैठे 70 वर्षीय बलबीर सिंह की कही इस बात में बेशक सच्‍चाई है, लेकिन वे अपनी जातिगत ठसक के साथ मृतका के परिवार का उपहास उड़ाते हुए ऐसा कहते हैं। जब हमने गांव में घूमकर कुछ लोगों से बात की, तो उन्होंने इस परिवार के लिए खुलेआम जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल किया।

हमने उनसे पूछा कि इस घटना में तो परिवार की लड़की मरी है क्‍या उसे न्याय नहीं मिलना चाहिए था? इस पर बलबीर सिंह बोले, “लड़की हरजन थी और ये ठाकुर। लड़की के साथ हुआ तो गलत, लेकिन पूरे इलाके का ठाकुर एक हो गया इसलिए ये छूटकर घर आ गए। जिस दिन छूटकर आए थे गांव भर में लड्डू बंटे थे।

गांव के ज्‍यादातर लोगों को लगता है कि लड़के निर्दोष हैं। घटनास्थल को दिखाते हुए नीली शर्ट पहने एक व्यक्ति ने (नाम नहीं बताया) हमसे कहा, “घटना के वक़्त हम खेत में पानी लगाए हुए थे। जो तीन लड़के छूटकर आए हैं ये यहां नहीं थे। इन्हें तो छूटना ही था। ये निर्दोष थे। संदीप, जो बंद है, उसी ने लड़की से कुछ कहासुनी की थी, पर लड़की को उसके बड़े भाई ने मारा-पीटा था।”


तीन स्थानीय व्यक्ति, सबसे दाएं बैठे ओंकार सिंह सिसोदिया घटना के लिए पीड़िता को ही जिम्मेवार ठहराते हैं

गांव के निवासी ओंकार सिंह सिसोदिया घटना के लिए पीड़िता को ही जिम्मेवार ठहराते हैं। वे घटना को बिलकुल नया एंगल देते हुए कहते हैं, “हमारे गांव में यह प्रथा नहीं है कि कुमारी लड़की बिंदी लगाए और होंठ रचाए। वो लड़की होंठ रचा कर, टिकुली लगा के चलती थी। इसका संबंध संदीप (मुख्य अभियुक्त) से था, इसलिए उसके बड़े भाई ने गला दबा के मार दिया। इसलिए तीन लड़के छूट कर आ गए। इसीलिए जब वो लड़के आए, तो पूरे क्षेत्र में हजारों रुपये की मिठाई बांटी गई।

बड़े भाई द्वारा ‘ऑनर किलिंग’ वाली बात से गांव के कई लोग मुतमईन दिखते हैं। वैसे, गांव में बाहर से आने वालों को सशंकित और प्रश्नवाचक निगाहों से देखा जाता है इसलिए लोग बात करने से सामान्‍यत: कतराते हैं। अधिकांश सवालों का जवाब ग्रामीण ‘हां’ और ‘ना’ में देते हैं। गांव के लगभग परिवार पीड़ित परिवार को ही दोषी ठहराते हैं या वे मानते हैं जो उनके साथ जो हुआ वह सामान्य बात है। उनके अनुसार यह मुद्दा इतना बड़ा नहीं था कि पीड़ित परिवार को सीआरपीएफ की सुरक्षा दी जाए।

बलबीर सिंह के ठीक सामने चारपाई पर बैठे 80 वर्षीय रघुवीर सिंह थोड़ा और हिकारत से बात को आगे बढ़ाते हैं, “अब तो वे (मृतका का परिवार) करोड़पति हो गए हैं। उन्हें बहुत पैसा मिला है। राहुल गांधी, प्रियंका सब पैसा देकर गए हैं। उन्हें अब कोई कमी नहीं है।


नहीं, हम उनके यहां क्या करेंगे जाकर? गांव का माहौल ठीक नहीं है। उनके यहां से न्यौता पानी कुछ नहीं चलता। हम क्या, गांव का कोई आदमी उनके घर नहीं जाता।


ग्रामीणों का मानना है कि मीडिया ने ही इस मामले को तूल दिया। अगर मीडिया इतना बढ़ा-चढ़ाकर न दिखाता तो मामला इतना आगे नहीं बढ़ता और बेकसूर लोगों को ढाई साल जेल में न रहना पड़ता।

कुछ लोग पारिवारिक र‍ंजिश की कहानियां भी सुनाते हैं। वे बताते हैं कि 14 सितंबर, 2020 की घटना से बीस वर्ष पूर्व सन् 2000 में पीड़िता के दादा के साथ अपराधी संदीप सिंह के पिता गुड्डू सिंह और रवि सिंह (रेप केस मामले में कोर्ट द्वारा बरी) ने मार-पीट की थी। गुड्डू सिंह और रवि सिंह उस मामले में एक महीने से अधिक जेल में रहने के बाद जमानत पर बाहर आए थे, लेकिन स्थानीय वकील ने 2016 में पीड़ित परिवार से हस्ताक्षर कर उसे गुमराह कर दिया और केस को खारिज करा दिया।

खुद पीड़िता के भाई मानते हैं कि संभव है 14 सितंबर, 2020 की घटना रंजिशन अंजाम दी गई हो।

जीने की सजा

मृतका के छोटे भाई कहते हैं, “जितनी जल्दी हो सके हम लोग गांव छोड़ना चाहते हैं। जिन्हें सजा होनी चाहिए वो बरी होकर गांव में अकड़ से सरेआम घूम रहे हैं। उनके हौसले पहले से ज्यादा बुलंद हो गए हैं। इनमें नरमी नहीं आई है। अन्दर से खून खौल उठता है। बहुत पछतावा भी होता है कि हम अपनी बहन को इंसाफ नहीं दिला पाए। अदालत से छूटने के बाद ये लोग कह रहे हैं कि इस बार बयान देने लायक भी नहीं छोड़ेंगे।‘

पिछले साल इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच ने आदेश जारी कर सरकार को निर्देशित किया था कि वह अपना वादा पूरा करते हुए पीड़ित परिवार को छह महीने के भीतर नौकरी और आवास दे, लेकिन परिवार ने कोर्ट में लिखित रूप से सुरक्षा कारणों से हाथरस से बाहर आवास और नौकरी की मांग की थी।

छोटा भाई कहता है, “आरोपितों का घर भी हाथरस में है, इसलिए मैंने कोर्ट में लिखित रूप से हाथरस में नौकरी और आवास लेने से इंकार कर दिया था। हमने मांग की थी कि हाथरस से बाहर गाजियाबाद या नोएडा में आवास व नौकरी दी जाए। इसके बाद सरकार ने इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की, लेकिन कोर्ट ने उनकी याचिका को खारिज कर दिया। सरकार की याचिका खारिज होने के बाद हमने जिलाधिकारी को कई बार लेटर लिखा, लेकिन आज तक न आवास मिला और न ही परिवार में किसी सदस्य को नौकरी मिली।

वे बताते हैं कि तीन साल से परिवार की एक रुपये की आमदनी नहीं है। दोनों भाई प्राइवेट नौकरी करते थे और मिलकर महीने के 25,000 रुपये कमा लेते थे। उनके पिता पास के एक स्कूल में सफाई कर्मचारी थे, तो महीने का तीन-चार हजार उन्हें भी मिल जाता था। इसके अलावा परिवार ने भैंसें पाल रखी थीं तो महीने में वे दस-बारह हजार रुपये का दूध भी बेच लेते थे। कुल मिलाकर पूरे परिवार को महीने के चालीस-पचास हजार की आमदनी होती थी। यह कमाई तीन साल से पूरी तरह ठप पड़ी है।


हाथरस कांड की पीड़िता के दोनों भाई

वे बताते हैं, “घटना के बाद पापा को स्कूल से निकाल दिया गया। भैसें बेच दीं। पूरा परिवार चौबीसों घण्टे सुरक्षा जवानों की निगरानी में जीवन बिता रहा है। हमारी बहन भी गई और सजा भी हमें ही मिल रही है। आगे क्या होगा हमें खुद नहीं पता।

आमदनी के टोटे के साथ केस का बोझ अलग से है। परिवार को अगर जिले में कहीं जाना होता है तो प्रशासन की तरफ से गाड़ी मिली हुई है, लेकिन अगर इन्हें जिले के बाहर जाना होता है तो खुद प्रइवेट गाड़ी करनी पड़ती है। महीने में अगर कोर्ट की दो तारीख पड़ गई तो 25 से 30 हजार रुपये गाड़ी का ही खर्च हो जाता है। बड़ी गाड़ी करनी पड़ती है क्योंकि तीन चार सीआरपीएफ के जवान भी साथ जाते हैं।

‘’गांव में हमारा कोई नहीं है। हमारी जाति के चार घर हैं, दो गांव छोड़कर जा चुके हैं। बाकी सब ऊंची जाति के हैं। हमारे दुख से उन्हें क्या फर्क पड़ेगा?”

पीड़िता के भाई

भूलगढ़ी गांव में वाल्मीकि परिवारों के साथ शुरुआत से ही छुआछूत, भेद-भाव, ऊंच-नीच का व्यवहार होता रहा है। वाल्मीकि समुदाय को गांव की सवर्ण या पिछड़ी जातियों ने कभी अपने बीच का हिस्सा नहीं माना। वाल्मीकि परिवार गांव की सवर्ण जातियों के खेतों में मजदूरी करते हैं उसी से उनका घर चलता है। वाल्मीकि समुदाय के लोगों के साथ आज भी गांव के सवर्ण बैठकर खाना नहीं खाते हैं। 14 सितंबर की घटना के बाद यह खाई अधिक साफ नजर आने लगी है।

हाथरस और भी हैं

अपने ही गांव, अपने ही घर, अपने ही खेत-खलिहान को पीड़ित परिवार अब अपना नहीं मानता। परिवार हर समय गांव छोड़ कहीं दूर दूसरे देस में जाकर बसने के बारे में सोचता रहता है। परिवार अपने ही गांव में असुरक्षित महसूस करता है। एक घटना से तीन साल के भीतर गांव का बदला हुआ माहौल इस बात का भान कराता है कि पीड़ित परिवार के लिए इस गांव में आम जिंदगी जीना एक असम्भव सम्भावना है।


भूलगढ़ी को जाती सड़क, जिस पर एक दलित परिवार को चले तीन बरस गुजर गए

गांव की आबो-हवा में पीड़ित परिवार के प्रति संवेदना, उदारता और स्नेह की जगह खास तरह की अंतहीन नफरत फैली हुई है। गांव के बूढ़े, बच्चे, महिलाएं, नौजवान, सभी पीड़ित परिवार के प्रति दुर्भावना और एक अदृश्य कुंठा से ग्रस्‍त हैं। गांव में एक भी ऐसा परिवार नहीं दिखाई पड़ता जो आने वाले कल में पीड़ित परिवार के लिए सहारा बनकर खड़ा हो सके।

भूलगढ़ी के बाहर, हाथरस में और समूचे देश में अब भी अपराध रुके नहीं हैं। गाजियाबाद में पिछले दिनों बिलकुल हाथरस जैसी घटना होते-होते बची है, जहां मीडिया के दखल के चलते पुलिसवाले एक महिला की लाश को ठिकाने नहीं लगा पाए। नोएडा की एक ऊंची सोसायटी में गार्ड का काम करने वाली एक महिला के साथ गैंगरेप और हत्‍या के बाद पुलिस ने उसकी लाश को चुपके से जलाने की कोशिश की थी। इस महिला की उम्र भी 19 बरस थी और इसकी मौत भी सफदरजंग अस्‍पताल में इलाज के दौरान हुई थी।   


सभी तस्वीरें नीतू सिंह और गौरव गुलमोहर ने ली हैं। सह-लेखक गौरव गुलमोहर का लेखक-पेज


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