अकेले अकेले के खेल में: संगम पर दम तोड़ रहा है नाव, नदी और नाविक का रिश्ता

इलाहाबाद के संगम पर इस साल केवल दो नावें बनी हैं। रोजी-रोटी की तलाश में नाविकों ने दूसरे सूबों का रुख कर लिया है। बनारस में गंगा पर क्रूज और वाटर टैक्‍सी चली, तो मल्‍लाहों ने क्रूज को घेर लिया, फिर नाव बांध दिए और हड़ताल पर चले गए। नदी, नाव और नाविक को अलग-अलग बांट कर देखने और बरतने वाले इस निजाम में हर नदी के किनारे गरीबी और वंचना की कहानियां बिखरी हुई हैं। इस सब के बीच नाव बनाने की कला ही लुप्‍त हो रही है। इलाहाबाद से गौरव गुलमोहर की लंबी कहानी

‘संगम आइ गवा साहेब’
ऊंची आवाज में बोलता है नदी की पाठशाला में पढ़ा-बढ़ा मल्लाह
आवाज का भी अपना एक धर्म है
वह उसी तक नहीं पहुंचती जिसके लिए उठाई गई है
सो मल्लाही भाषा की आवाज पहुंच गई है गोदान-पिंडदान भाषा तक...

इलाहाबाद के कवि हरीशचंद्र पांडे जब इस कविता को लिख रहे थे, तब ‘यमुना के अंतिम चरणों’ के साक्षी मल्‍लाहों को उन्‍होंने ‘धारा के विपरीत’ तैरता देख लिया था। कवि को जो सहज दिख जाता है, सरकारें उसे बहुत बाद में महसूस कर पाती हैं। आज बनारस से लेकर प्रयागराज तक यही हो रहा है। इस महीने की शुरुआत में बनारस के मल्‍लाहों ने खुद अपनी नावें बांध दीं और साफ कह दिया कि अगर नदी के पानी में नाव नहीं चलेगी, तो क्रूज भी नहीं चलेगा और वाटर टैक्‍सी भी नहीं। गंगा-यमुना के किनारे बसने वाले ये मल्‍लाह आज खुद अपना पिंडदान करने की तैयारी कर रहे हैं। उन्‍हें इसके लिए मजबूर किया है उन सरकारों ने, जो नदी को मुनाफे का स्रोत समझती हैं जबकि नदी के पुश्‍तैनी इन बेटों को उसका दुश्‍मन।


बनारस: बंधी हुई नौकाएं और सिमटती हुई नदी, फोटो: अभिषेक श्रीवास्तव

ऐसा नहीं कि मल्‍लाही भाषा की आवाज कहीं पहुंच नहीं रही। उनकी आवाज बेशक पिछले कुछ वर्षों में मजबूत हुई है, तभी प्रशासन को उनसे निपटने के रास्‍ते आसानी से नहीं मिल रहे। खासकर उत्तर-प्रदेश को देखें, तो यहां की राजनीति में निषादों का प्रतिनिधित्व लगातार बढ़ा है। राजनीति में हिस्‍सेदारी बढ़ने के साथ विडम्‍बना यह है कि दूसरी ओर अपने परंपरागत पेशे से मल्‍लाहों-निषादों की दूरी बढ़ती जा रही है। आज मल्‍लाहों को धारा के विपरीत तैरने को मजबूर होना पड़ा है। वे आंदोलन कर रहे हैं, हड़ताल कर रहे हैं, रोजी-रोटी बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। जिन्‍होंने कभी भगवान राम को नदी पार करवाई थी, उनकी जिंदगी की नाव खुद मंझधार में अटक गई है। 

सवाल यह है कि यदि किसी समुदाय की उसके परम्परागत पेशे से दूरी बढ़ती है, तो इसका बाकी समाज के लिए क्‍या कोई मतलब बनता है? समाज पर क्या कोई प्रभाव पड़ता है? अपने कुदरती पेशे से कट जाना क्‍या सिर्फ उस समुदाय के लिए ही चिंता का कारण होना चाहिए या पूरे समाज के ताने-बाने के साथ इसका कोई लेना देना है? क्‍या मल्‍लाहों का सवाल सिर्फ उन्‍हीं का है, या नदी का भी है और नदियों के किनारे बसने वाली समूची सभ्‍यताओं का सवाल है?  

जिस तरह निषाद की कल्पना नाव से अलग नहीं की जा सकती है उसी तरह रेल के आने से पूर्व व्यापार व यातायात की कल्पना भी नाव के बगैर सम्भव नहीं थी। आखिर जिस नाव और नाविक का आधुनिकता के विकास के साथ इतना अन्योन्य रिश्ता था वे आज किस हालात का सामना कर रहे हैं? नदी, नाव, निषाद, मछली, बालू, आस्था और पर्यटन के केंद्र में पर्दे के पीछे बैठा नाव बनाने वाला एक कारीगर भी होता है। जिस तरह बढ़ई, कुम्हार, लोहार अपने पारंपरिक पेशे से दूर होते गए हैं, क्‍या वही हाल निषाद समुदाय के नाव बनाने वाले कारीगरों का भी हो जाएगा?

फिर नाव कौन बनाएगा? क्या वाकई नदियों में नावों की जगह क्रूज और स्‍टीमर ले लेंगे, जैसा बनारस में हो रहा है? नदियों से नाव और निषाद यदि बेदखल हुए तो नदियों पर क्या असर पड़ेगा?

नदी और निषाद

निषाद जाति का वर्णन उत्तर-वैदिक साहित्य से लेकर लोकप्रिय मिथकों और कथाओं में मिलता है। निषाद समुदाय शुरुआत से ही उत्पादन के कार्यों से जुड़ा रहा है और इसलिए अर्थव्यवस्था के विकास में भी उसकी अहम भूमिका रही है। ब्रिटिश उपनिवेश के आगमन के बाद क्रिमिनल ट्राइब एक्ट-1871 के तहत निषादों को आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया गया। इन्हें जन्म से अपराधी कहा गया और इनके कहीं भी आने-जाने की मनाही थी।

आजादी के बाद इस श्रेणी से जब ऐसे 150 से अधिक समुदायों को निकालने की प्रक्रिया शुरू हुई तो वे विमुक्त समाज कहे गए। तरह-तरह के भेदभावपूर्ण नियम-कायदा और कानून का सामना करते हुए निषाद समुदाय आज यूपी और बिहार सहित कुछ अन्‍य जगहों पर राजनीतिक ताकत बनकर उभरा है जहां वह मोलभाव करने की स्थिति में है, हालांकि पिछले कुछ साल में पैदा हुई इस राजनीतिक चेतना व तरह-तरह की गोलबंदियों से निषाद समुदाय को कितना लाभ मिला, यह अलग से शोध का विषय है।

निषाद समुदाय दावा करता है कि उसने ही भगवान राम को पार लगाया। यह कहते हुए निषाद समुदाय यह कहने की कोशिश करता है कि वह राम का एकमात्र अनन्य भक्त है। संगम में नाव चलाने वाले कल्लू निषाद (40) नदी की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, “भगवान ने शुरू से यही (नदी) दिया है कि पानी में रहो, पानी का जो है वही खाओ। भगवान राम ने ब्राहम्णों को भी गले नहीं लगाया। सिर्फ दो लोगों को गले लगाया, एक हनुमान जी को दूसरा निषाद को।

वर्तमान राजनीतिक परिदृष्य में जब राम एक ताकतवर राजनीतिक प्रतीक बन चुके हों तब कल्लू निषाद की बात को सिर्फ सरपट कह दी गई बात भर नहीं मान लेना चाहिए। 


इलाहाबाद के घाट पर सवारी के इंतजार में एक नाविकफोटो: गौरव गुलमोहर

उत्तर-प्रदेश के प्रयागराज (इलाहाबाद) में छोटी-बड़ी कुल बत्तीस नदियां हैं। इसमें गंगा, यमुना और टोंस महत्वपूर्ण नदियां हैं। इन सभी नदियों के किनारे निषादों की विशाल आबादी निवास करती है। उत्तर प्रदेश में मल्लाह समुदाय की कुल आबादी लगभग 13 फीसदी है। निषाद जाति करीब बीस लोकसभा सीटों को प्रभावित करती है। इस समुदाय की उपजातियों में निषाद, बिंद, मल्लाह, केवट, कश्यप, धुरिया, रैकवार, धीमर, मांझी, सैनी, बाथम आदि आती हैं। सभी जातियां अपने जातीय विभाजन के अनुरूप नदी के कामों से जुड़ी हैं।

सभी का जीवन पूरी तरह नदियों पर निर्भर है। ये नदियों में मछली मार कर, नाव चला कर, बालू निकाल कर, कछारों में सब्जी पैदा कर और गोताखोरी कर जीवनयापन करते हैं। पिछले कुछ वर्षों से बदली आर्थिक, सामाजिक और  राजनीतिक व्यवस्था में निषाद समाज के पारंपरिक काम का दायरा संकुचित होता गया है। इसके नौजवान नदियों में मछली मारने, बालू निकालने, नाव चलाने या गोताखोरी के काम से दूर होते जा रहे हैं। वे बाजार में अन्य अपारंपरिक कामों को करने के कौशल सीख रहे हैं।

नदियों से बालू निकालने का काम निषाद समुदाय का होता था लेकिन उत्तर प्रदेश में बालू (मोरंग) निषादों के पारंपरिक पेशे और जीवनयापन के माध्यम से कहीं अधिक पावर और पैसा हासिल करने का माध्यम बन चुका है। इसके लिए सामाजिक कार्यकर्ता लौटनराम निषाद पूर्व सरकारों को जिम्मेवार मानते हैं।

लौटनराम निषाद कहते हैं, ‘’कांग्रेस के शासनकाल में जब हेमवती नंदन बहुगुणा मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने पट्टा प्रणाली के तहत बालू-मोरंग खनन, मत्स्य पालन के पेशों को मत्स्यजीवी सहकारी समितियों और स्थायी मछुआरा जातियों को देने का शासनादेश जारी किया। बाद में वीपी सिंह ने भी इस शासनादेश को अग्रेतर किया। समस्या तब पैदा हुई जब जून-1995 में सपा-बसपा का गठबंधन टूटा और मायावती जी मुख्यमंत्री बनीं। उन्होंने इस शासनादेश में संशोधन करते हुए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों व अन्य पिछड़े वर्ग की जातियों को हिस्सेदार बना दिया। जब कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने तब उन्होंने पूर्ण रूप से इन पेशों को खत्म करके सार्वजनिक कर दिया। सार्वजनिक तौर पर जब नीलामी होने लगी तब परम्परागत पेशे से जुड़ी मछुआरा जातियां अपने परम्परागत अधिकार से पूर्णत: वंचित हो गईं।‘’

इससे बालू खनन प्रक्रिया असमान हो गई और देखते ही देखते निषाद समुदाय बालू के काम से बेदखल होता गया। इससे बालू में लगी नावों की आवश्यकता भी कम होने लगी, हालांकि आज भी जहां मशीनों का प्रयोग नहीं हो रहा है वहां 35 फुट की बड़ी नाव से बालू निकालने का काम हो रहा है। 

इसी तरह नाव चलाने वाले नाविकों को पर्यटकों और तीर्थयात्रियों के रहमोकरम पर निर्भर रहना पड़ता है। जब से नदियों पर पुलों की संख्या बढ़ना शुरू हुई तबसे नौकाफेरी घाटों की संख्या में बेतहाशा कमी आई है। उसी तरह नावों की संख्या में भी कमी देखने को मिलती है।

नदियों पर आवागमन के लिए बने पुलों का निषाद समुदाय पर प्रभाव के ऊपर अध्ययन कर रहे शोधार्थी गोविंद निषाद से नावों के कम होते महत्व के विषय में जानने की मैंने कोशिश की। गोविंद कहते हैं, “पुल बनने के बाद अचानक से तो नहीं लेकिन नावों का महत्व धीरे-धीरे कम होता गया। इलाहाबाद में जहां पहले हजारों नावें कारोबार में संलग्न थीं, वहीं सन् 1880 तक उनकी संख्या घटकर 300 के आस-पास हो गई। एक समय बाद नदीय परिवहन बिल्कुल बंद हो गया।

वे बताते हैं, “नदीय परिवहन, रेल परिवहन से प्रतिस्थापित हो गया। इस प्रतिस्थापन का सीधा प्रभाव नाव निर्माण पर पड़ा क्योंकि अब नाव की आवश्यकता कम होती गई। नदीय परिवहन का महत्व जैसे-जैसे कम होता गया, वैसे-वैसे निषादों का भी नदियों से विस्थापन हुआ। वह रोजगार के अन्य साधनों की तलाश में नदी के अन्य स्त्रोतों और नदी के ऊपर अवसर की तलाश में गया।

एक कला कैसे लुप्‍त होती है

मल्‍लाह केवल नाव चलाते नहीं, उन्‍हें बनाते भी हैं। नाव बनाना निषादों का पारंपरिक काम है। पीढ़ी दर पीढ़ी यह कला निषाद समुदाय में स्थानांतरित होती रही है। नाव बनाने का काम सिखाने के लिए कोई स्कूल या कॉलेज नहीं होते हैं बल्कि निषाद के बच्चे नदियों की कछारों में बड़े-बुजुर्ग कारीगरों को देखते-देखते नाव बनाना सीख जाते हैं- जैसे वे पानी में तैरना, चप्पू चलाना और नदी की गहरी तली तक डुबकी लगाना सीख जाते हैं और उसे जीवनयापन का जरिया बना लेते हैं।

उत्तर प्रदेश में नाव बनाने के काम में अन्य समुदायों के लोग न के बराबर हैं। नाव बनाना कुशल कारीगरी के साथ ही एक कला भी है। नाव बनाना एक जटिल गणित भी है, जिसे सीखना अन्य समुदायों के लिए टेढ़ी खीर है। नाव बनाने के लिए कैंची, सनाप, सुम्मी, छेनी, रुखानी, कचक, हथौड़ी, आरी, बसुला, चपटा लोहा, जमूरा, रंदा, रेती, शिकंजा, बरमा, फुटा जैसे औजारों की आवश्यकता पड़ती है। नदियों की बदलती भौगोलिक स्थिति के अनुरूप ही नाव बनाने की तकनीक भी बदलती रहती है।

आगरा, कानपुर और इलाहाबाद में एकमुखी नाव बनती है जिसे लोहे की टीन और साखू, बबूर या सागौन की लकड़ी से बनाया जाता है। यह मछली की आकृति के जैसी होती है। इलाहाबाद से आगे बढ़ने पर बनारस, बिहार और पश्चिम बंगाल तक दोमुखी नाव पूरी लकड़ी की बनाई जाती है, जिसे डोंगी या सुर्री कहा जाता है। डोंगी शंकु की तरह होती है।

बनारस, बिहार और पश्चिम बंगाल के अलावा किसी भी नदी, बांध या तालाब में दोमुखी नाव नहीं चलती है। दोमुखी नाव को बनाने में एक मुखी नाव की अपेक्षाकृत अधिक समय और धन की जरूरत पड़ती है।


सभी तस्वीरें: गौरव गुलमोहर


नाविक राकेश निषाद बताते हैं, “सरयू और गंगा के मिलने से बनारस में बहाव तेज हो जाता है इसलिए वहां लकड़ी की दोमुखी नाव चलती है। यदि वहां चद्दर की एक मुखी नाव चलेगी और तेज पानी के बहाव के साथ कोई पत्थर नाव से टकरा जाएगा तो चद्दर फट जाएगी और नाव में पानी भर जाएगा, नाव डूब जाएगी। इसलिए तेज बहाव वाली जगहों पर लकड़ी की नावों को चलाया जाता है।

इलाहाबाद में फिलहाल कुल 25 से 30 नाव कारीगर बचे हैं। निषाद कारीगरों की मानें तो कुछ साल पहले तक इलाहाबाद में नाव बनाने वाले कारीगरों की संख्या सौ के ऊपर थी, हालांकि नाव बनाने वाले कारीगरों का कोई औपचारिक संगठन न होने के कारण इनका कोई आधिकारिक आंकड़ा ठीक-ठीक पता कर पाना सम्भव नहीं है। जो कारीगर हैं भी, अब वे इलाहाबाद में काम करना पसंद नहीं करते। वे अन्य राज्यों में नाव बनाने के लिए जाते हैं। 

इलाहाबाद के बचे-खुचे नौका कारीगरों में एक लाजे निषाद हैं। चालीस साल के लाजे पंद्रह साल की उम्र से ही नाव बनाने का काम कर रहे हैं। वे कहते हैं कि इस काम में न सम्मान है और न ही पैसा है। लाजे कहते हैं, “यह काम हमने किसी स्कूल या कॉलेज में नहीं सीखा, हमारे मामा ने हमें नाव बनाने का काम सिखाया था, लेकिन इस काम में न आमदनी है और न ही इज्जत-सम्मान है।

लगभग सभी नाव बनाने वाले कारीगर निराश हैं। वे अपने बच्चों को नाव बनाने की कला नहीं सिखाना चाहते हैं। दो-चार साल बाद एक भी नौका कारीगर अगर इलाहाबाद या बनारस में न बचे, तो कोई अचरज की बात नहीं होनी चाहिए क्‍योंकि मौजूदा पीढ़ी ही अपने काम से विमुख हो रही है।


लाजे निषाद, फोटो: गौरव गुलमोहर

मैं अब इलाहाबाद में नाव नहीं बनाता। बारिश से पहले गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में ठेकेदार बांध और मछलीपालन के लिए नाव बनवाते हैं। वे हमें यहां से अधिक मजदूरी देते हैं। हम वहां ठेके पर नाव बनाने के लिए जाते हैं। हम नहीं चाहते मेरा बच्चा नाव बनाना सीखे।

लाजे निषाद


इस मोहभंग की एक वजह यह भी है कि नाव बनाना घाटे का सौदा हो चुका है क्‍योंकि पिछले कुछ वर्षों में निषादों की आमदनी अप्रत्याशित रूप से घटी है। वे अपने पारंपरिक पेशे को छोड़कर रिक्शा चलाने, सब्जी बेचने, मजदूरी करने और अन्य प्रदेशों में जाकर फेरी लगाने का काम कर रहे हैं।

एकमुखी 14 फुट नाव बनवाने में लगभग 40 हजार रुपये का खर्चा आता है। 20 फुट की नाव में लागत लगभग 80 हजार रुपये और 35 फुट नाव बनवाने में लगभग एक लाख 20 हजार रुपये का खर्च आता है। इतनी बड़ी पूंजी लगा पाना निषाद नाविकों के लिए मुश्किल है।

नदी से आमदनी कम होने के सवाल पर नाविक गुलाब निषाद कहते हैं, “हम सवारी ढोएं घाट से तब दादागीरी, बालू का काम करें तो वहां भी दादागीरी। निषाद समाज के नब्बे फीसदी लोग नदी के सहारे जी रहे हैं लेकिन अब दिक्‍कत आ रही है। हम नून रोटी खाकर अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं ताकि उन्हें दो जून की रोटी सुकून से मिल सके।

कारीगर राजू निषाद बताते हैं, “इस साल सिर्फ दो नई नाव इलाहाबाद संगम क्षेत्र में बनी हैं। महंगाई अधिक होने के कारण कोई नई नाव बनवाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। कोई अपनी पत्नी का गहना गिरवी रख कर बनवा रहा है और समूह से कर्ज लेकर नाव बनवा रहा है।


असल में अब नाव में उतनी आमदनी नहीं बची कि लोग लागत भी निकाल सकें। लोग सिर्फ पुरानी नावों की मरम्‍मत करवा रहे हैं जिससे हमारी रोजी-रोटी चल जाती है।

राजू निषाद

फोटो: गौरव गुलमोहर

बेदखली का सिलसिला

नदियों से निषादों की बेदखली कोई एक दिन में घटने वाली चीज नहीं है, बल्कि यह अलग-अलग सरकारों और सामाजिक व्यवस्थाओं द्वारा पैदा की गई परिस्थितियों के कारण हुआ है। उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से लेकर कुमारी मायावती तक ने नदियों को मत्स्य खेती और शिकार-माही के लिए नीलाम करने का शासनादेश जारी किया। हर बार निषाद समुदाय बेदखली के खिलाफ संगठित हुआ और सरकारों को अपना फैसला वापस लेना पड़ा।

निषाद नेता वर्तमान की भाजपा सरकार पर निषादों को नदियों से बेदखल करने का आरोप लगाते रहते हैं। लौटनराम निषाद भाजपा को निषादों की बदहाली का असली कारण मानते हैं।

लौटनराम कहते हैं, “निषाद समुदाय बिना लगान दिए जायद की फसलें तरबूज, खरबूज, खीरा, ककड़ी, लौकी, नेनुआ, कुम्हड़ा गंगा-यमुना की कछार में पैदा करता था, लेकिन आज उनसे सामंती समुदाय के लोग लंबी लगान की वसूली कर रहे हैं। वर्तमान सरकार की गलत नीतियों के कारण निषाद समुदाय संक्रमण के दौर से गुजर रहा है।

वे कहते हैं, “भारतीय जनता पार्टी की सरकार निषाद जातियों को निषादराज और राम की मित्रता का हवाला देकर वोट तो ले लेती है, लेकिन जब-जब भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनी है यह निषाद समुदाय के परंपरागत पेशों और उनके वंशानुगत अधिकारों को छीन कर उन्हें बदहाली और भुखमरी की स्थिति में पहुंचाने का काम किया है।

इस साल सिर्फ दो नाव संगम क्षेत्र में बनी हैं, उनमें से एक । फोटो: गौरव गुलमोहर

दिलचस्‍प यह है कि इलाहाबाद के करछना से विधायक पीयूष रंजन निषाद खुद इसी समुदाय से आते हैं और सत्‍ताधारी पार्टी भाजपा से भी हैं। उनसे मछुआरों की बदहाली का कारण पूछे जाने पर वे एक मंजे हुए राजनीतिक की तरह पूर्व की यूपीए सरकार और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती को दोषी ठहरा देते हैं।

पीयूष कहते हैं, “एनजीटी का जब गठन हुआ तब यूपीए की सरकार थी, एनजीटी ने ऐसा आदेश दिया जिससे निषाद समुदाय को उसके पुश्तैनी व्यवसाय से वंचित किया गया। मायावती की सरकार ने भी निषाद समुदाय को मिलने वाले खनन के पट्टा सिस्टम को सामान्य कर दिया। इसी वजह से निषाद समुदाय भुखमरी की कगार पर है।

मां और बेटे का रिश्‍ता

समाजविज्ञानी और पर्यावरण के जानकार समुदाय और संसाधन को अलग करके देखने के पक्ष में नहीं हैं। वे मानते हैं कि संसाधन की रक्षा तभी हो सकेगी जब समुदाय की रक्षा होगी।

लौटनराम कहते हैं, “निषाद मछुआरा समुदाय नदी को मां का दर्जा देते हैं। निषाद सावन में नदियों की धूम-धाम से पूजा करते हैं। वे मानते हैं कि यह मछलियों का प्रजनन काल होता है इसमें वे मत्स्य शिकार से परहेज करते हैं। ऐसे समय में शिकार करने से मछलियों के छोटे बच्चे मर जाएंगे। जलीय पर्यावरण के लिए यह उपयुक्त माना जाता है। नीलामी प्रथा ने इस व्यवस्था को तोड़ दिया। अब तो अन्य लोगों की तरह ही निषाद समुदाय के लोग भी सावन में मत्स्य शिकार करने लगे हैं।

एक नाविक की समूची गृहस्थी नदी के किनारे ही बसती है फोटो: अभिषेक श्रीवास्तव

इतिहासकार रमाशंकर सिंह, जिन्होंने अभी हाल ही में ‘नदी पुत्र’ नामक किताब लिखी है, लौटनराम की कही बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, “सावन-भादो में मछलियां नदियों के किनारे अंडे देती हैं, वहां पर वे बच्चे के रूप में बढ़ते हैं। नदियों के किनारे से निकलते हुए पतले जलीय रास्ते मछलियों को छोटी नदियों, कभी-कभी तालाबों तक ले जाते हैं।  बालू निकालने वाली मशीनें इस सबको बुरी तरह नष्ट कर देती हैं और इससे मछलियों का पूरा प्रजनन चक्र प्रभावित होने लगता है। मशीन मछली और मनुष्य दोनों के लिए खतरनाक चीज है। वास्तव में निषाद समुदाय नदी की गतिकी, उसका स्वास्थ्य और भविष्य बेहतर तरीके से जानता है। वह नदी का मित्र है। उसे सरकारी नीतियों में जगह देनी चाहिए। सरकार ऐसा करे तो नदी, मछली और निषाद सबके लिए अच्छी बात होगी।

रमाशंकर कहते हैं, “नदी और मनुष्य के शरीर में एक समानता यह होती है कि मनुष्य का शरीर छोटी-मोटी दिक्कत को स्वयं दूर कर लेता है। नदी भी यही करती है। जब नदी से बालू को फावड़े या बांस के लग्‍घों से, नदी के बीच या किनारे प्लेटफॉर्म बनाकर निकाला जाता है, तब नदी में कोई विशेष समस्या पैदा नहीं होती लेकिन जब वहां मशीन लगा कर बालू निकाला जाने लागता है तो इस नुकसान की भरपाई नदी नहीं कर पाती है, तब वहां धंसान पैदा होने लगती है।”

संयोग नहीं कि हरीशचंद्र पांडे अपनी कविता ‘यमुना इलाहाबाद में, संगम होती हुई’ में थोड़ा और बारीक कातते हुए शरीर के भीतर फैले नसों के जाल को यमुना से निकाली गई नहरें बताते हैं।

रमाशंकर, निषाद और नदियों के रिश्‍ते पर कहते हैं, “जैसे पर्वतों के बचे रहने के लिए पर्वतवासी जरूरी हैं, जंगलों के बचे रहने के लिए वनवासी जरूरी हैं, उसी तरह नदी के बचे रहने के लिए निषाद समुदाय जरूरी है। कारण यह नहीं है कि नदियों के बचे रहने के लिए निषाद जरूरी हैं, दरसल नदियों के किनारे निषाद हैं- यह इस बात का प्रमाण है कि वहां नदी है।”


नाव और नाविक का होना ही नदी के होने का प्रमाण हैफोटो: गौरव गुलमोहर

एक इतिहासकार जो बात 2023 में कह रहा है, कवि इसी बात को बरसों पहले कह चुका है:

मल्लाह ही हैं वे साक्ष्य जो कह सकते हैं  
कि हमने यमुना को उसके अंतिम चरण में देखा है  
वही कह सकते हैं हमने यमुना को संगम होते देखा है  
वही कह सकते हैं कि सभ्यताएं संगमों का इतिहास हैं  
अकेले-अकेले का खेल नहीं...।

ये बात सरकारों के कान में न तब पहुंची थी, न अब पहुंच रही है। कवि, मल्‍लाह, समाजशास्‍त्री और इतिहासकार सब अलग-अलग भाषाओं लेकिन एक स्‍वर में बोल रहे हैं, सब धारा के विपरीत तैर रहे हैं, लेकिन अकेले-अकेले के खेल में ‘’पानी एक हो गया है भाषाएं ठिठक गई हैं…’’। 


(शीर्षक हरीशचंद्र पांडे की कविता से प्रेरित)


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