मणिपुर: पचहत्तर दिन बाद लीक हुआ वीडियो घटना के वक्त दबा कैसे रह गया?

मणिपुर में हिंसा भड़कने के ठीक बाद दो कुकी महिलाओं का गैंगरेप और निर्वस्‍त्र परेड हुआ था, जिसका वीडियो ढाई महीने बाद लीक हुआ। तब तक सरकारी आंकड़े के मुताबिक डेढ़ सौ लोग मारे जा चुके थे। इसके बावजूद देश की संवेदना नहीं जगी थी। सवाल उठता है कि जब घटना की जानकारी मणिपुर में आम थी, तो वह मई में ही खबर क्‍यों नहीं बन सकी? मणिपुर से लौटकर आए रोहिण कुमार की श्रृंखला की दूसरी कड़ी

संसद का मानसून सत्र शुरू होने से ठीक पहले संसद के बाहर रस्मी तौर पर प्रेस को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने ‘मणिपुर’ का ज़िक्र किया। संदर्भ था 21 वर्षीय एक कुकी महिला के निर्वस्‍त्र परेड कराए जाने का 48 घंटे पहले वायरल हुआ वीडियो और उसके साथ किया गया गैंगरेप। पहली बार एक वीडियो न सिर्फ प्रधानमंत्री के “व्याकुल और विचलित” होने का सबब बना, बल्कि सोशल मीडिया पर मौजूद कुछ संवेदनशील लोगों को भी अचानक चिंता हुई, कि– ‘अरे, मणिपुर में यह क्या हो रहा है!

महज दो संसदीय सीट वाले उत्‍तर-पूर्व के इस राज्‍य को अपने प्रति ‘मेनलैंड’ की संवेदनाएं जगाने में लगभग पौने तीन महीने लग गए जबकि कथित हादसा 4 मई को हुआ था। 

इसी जुलाई में, कई साल पहले, मणिपुर में ही, एक अनूठा प्रदर्शन हुआ था। उन्नीस साल पहले 2004 में अधेड़ उम्र की बारह महिलाओं ने इंफाल में कांगला किले में स्थित असम राइफल्स के मुख्यालय के बाहर निर्वस्‍त्र होकर विरोध प्रदर्शन किया था। उनके हाथों में बैनर थे। उन पर “Indian Army Rape Us” और “Take Our Flesh” लिखा था। यह विरोध प्रदर्शन उस वक्त उन महिलाओं की हताशा का प्रदर्शन तो था ही, साथ ही सेना को चुनौती भी थी। प्रदर्शन का उद्देश्य था सुरक्षा बलों के कथित अत्याचारों की ओर देश का ध्यान आकर्षित करना।


इंफाल में कांगला किले में स्थित असम राइफल्स के मुख्यालय के बाहर निर्वस्‍त्र विरोध प्रदर्शन, 2004

उस वक्‍त 32 साल की एक महिला का यौन उत्‍पीड़न करने के बाद सुरक्षाबलों ने उसे गोली मार दी थी। तब मणिपुर में सशस्‍त्र बल विशेष सुरक्षा अधिनियम (आफ्सपा) को लेकर गंभीर सवाल उठे थे। संघर्ष करने वाली महिलाएं मणिपुर की महिलाओं के संगठन माइरा पाइबिस के बैनर तले इकट्ठा हुई थीं। ये सभी मैतेयी औरतों थीं। अपनी ऐतिहासिक भूख हड़ताल के लिए दुनिया भर में विख्यात इरोम चानू शर्मिला इन्हीं प्रदर्शनों से उभरी थीं। उनका गांधीवादी संघर्ष वर्षों तक आफ्सपा के विरोध में चला। वे महिलाओं के सम्मान के लिए लड़ी थीं।

मैतेयी और कुकी समुदाय के बीच युद्ध क्षेत्र बन चुके मणिपुर में आज बुनियादी फर्क बस इतना है कि इस बार पीड़ित महिलाएं कुकी समुदाय की हैं और बर्बरता का आरोप सुरक्षाबलों के बजाय मैतेयी समुदाय पर है- उन मैतेयी महिलाओं पर, जिन्होंने कभी अपनी आबरू की लड़ाई लड़ी थी। आज वे महिलाएं बाद में हैं, पहले मैतेयी हैं। आज इनका पक्ष मैतेयी मर्दों का पक्ष है। आज वे आरोपितों के पक्ष में रैलियां निकाल रही हैं।

यह बात अलग है कि शर्मिला अब भी नहीं बदली हैं। अपना लंबा अनशन खत्‍म होने पर वे चुनाव लड़ी थीं। हार गई थीं। इसके बाद शर्मिला बेंगलूरू चली गईं। वहां वे विवाहित जीवन जी रही हैं, लेकिन उन्‍होंने अपनी वैचारिक जमीन नहीं छोड़ी है। कुकी औरतों के खिलाफ जुल्‍म का खुली जबान से विरोध किया है। हम नहीं जानते कि वे मणिपुर में होतीं तब भी क्‍या यही कहतीं!

ऐसा पहली बार नहीं है कि रेप और यौन हिंसा को युद्ध में हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया हो। चाहे वह बंटवारे के वक्त का हिंदुस्तान हो या भारत के राष्ट्र-राज्य बन जाने के पश्चात दक्षिण कश्मीर का कुनान पोश्पोरा– हिंसा-प्रतिहिंसा की राजनीति ने महिलाओं के शरीर के हवाले से ही अपने पैर पसारे हैं।

एक खबर, जो होल्ड रह गई!

मुझे ठीक से याद नहीं वो 8 मई थी या 9 मई, उस दिन मैं किसी काम में उलझा था। मणिपुर के कांगकोकपी से एक कॉल आई। कॉल करने वाले ने बताया कि दो कुकी महिलाओं का रेप हुआ है। उनमें से एक महिला गर्भवती है। उसके कपड़े उतारकर उसे गांव में घुमाया गया है। उसने बताया कि मैतेयी लिपुन और अरामबाई तेंगुल नाम के दो संगठनों के लोग इसमें शामिल हैं।

मैतेयी लिपुन और अरामबाई तेंगुल दोनों ही मैतेयी समुदाय के हथियारबंद समूह हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जो रिश्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बजरंग दल का भारतीय जनता पार्टी के साथ है, वही रिश्ता मैतेयी लिपुन और अरामबाई तेंगुल का मणिपुर में भाजपा और खासकर ‘मैतेयी’ मुख्यमंत्री एन. बिरेन सिंह के साथ है। घोषित तौर पर ये ‘अराजनीतिक’ और ‘सांस्कृतिक’ संगठन हैं, लेकिन ये उतने ही सांस्‍कृतिक हैं जितना आरएसएस है। मणिपुर में जारी हिंसा में अगर इन संगठनों की भूमिका निष्पक्षता से जांची जाए, तो अद्भुत परिणाम मिलने के निन्यान्बे फीसदी आसार हैं।

कुछ मौकों पर तो मैंने खुद अरामबाई तेंगुल के लड़कों को काले लिबास में तांडव करते देखा है। वेस्ट इंफाल में एक मैतेयी लड़के की मौत के बाद सांत्वना देने पहुंचे अरामबाई तेंगुल के इन लड़कों ने एक ‘ट्राइबल’ (कुकी) चिन्हित दुकान को आग लगा दी थी।

इस बार हालांकि मेरे पास अपने सोर्स और पूर्वोत्तर में साथी पत्रकारों के अलावा सूचना प्राप्त करने का कोई तरीका था नहीं, और इंटरनेट की सेवा बंद की जा चुकी थी।



एक टकरावग्रस्त इलाके से रेप और नग्न परेड जैसी सूचना की पुष्टि के लिए कम से कम परिवार या उसके परिजनों से में किसी से भी संपर्क होना जरूरी था। मैंने अपने जानने वाले से कहा कि वह कम से कम कोई ऐसा प्रत्यक्षदर्शी ढूंढे जो इस घटना की पुष्टि कर सके, कोई शिकायत या एफ़आइआर की कॉपी मिल जाए, या घटना पर कोई स्थानीय नेता या मंत्री बयान देने को तैयार हो। कहने का मतलब कि इस घटना की पुष्टि के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं था।

एक अतिरिक्त चुनौती थी किसी संपादक को कनविंस करने की। दिल्ली के जनपक्षधर मीडिया संस्थानों के साथ काम करने का अनुभव यह है कि वे दिखते तो चमकीले सेब की तरह हैं लेकिन उनमें रासायनिक खाद की मात्रा इतनी अधिक होती है कि आपकी सेहत बिगाड़ दे। फिर भी, घटना के चार-पांच दिन बाद जब इस बारे में मिन का फोन आया था, तभी मैंने दो-तीन संस्थानों के संपादकों को हालात का जायजा दे दिया था और अनुरोध किया था वे मणिपुर पर ध्यान दें। एक ने जब कहा, “वी विल लुक इन्‍टु दिस’’ (हम इसे देखेंगे), तो मैंने उन्हें अपनी ओर से कहा कि अगर उन्हें वहां से किसी भी तरह की सूचना या जानकारी प्राप्त करने की जरूरत महसूस हो, तो मैं कुछ जरूरी संपर्क भी साझा कर दूंगा। उन्होंने बहुत ध्यान दिया नहीं।

महीने भर बाद विपक्ष और खासकर कांग्रेस के शोर मचाने के बाद इन संस्थानों में मणिपुर को लेकर हरकत शुरू हुई, हालांकि एक सच यह है कि मोटे तौर पर पाठकों के चंदे से चल रहे ऐसे संस्थान भाजपा-शासित राज्यों पर खबर करने से बचते हैं- वहां और भी, जहां सवाल नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर उठते हों। अगस्त 2023 तक अनगिनत उदाहरण हैं कि सरकार किस तरह से रिपोर्टरों और संस्थानों को तंग करती है। टैक्स के नोटिस से लेकर फर्जी केस तक। इतने कैलकुलेशन और दिस-दैट के बीच मैंने स्टोरी आइडिया को होल्ड करना ही मुनासिब समझा।

फिर भी, अपने स्‍तर पर तीन-चार दिन ग्राउंड पर बहुत मेहनत के बाद मेरे सोर्स ने बताया कि इस घटना पर कोई भी ऑन रिकॉर्ड बात करने को तैयार नहीं है, “कुकी समुदाय के बुजुर्ग चाहते हैं कि यह घटना बाहर न जाए। चूंकि पीड़िता कुकी है, कुकी समुदाय की ‘इज्जत’ चली जाएगी। वे इसका ‘बदला’ मैतेयी समुदाय से लेंगे लेकिन ‘वीरता’ से।”

जाहिर है, अंदाजे से कह सकता हूं कि यही स्थिति दूसरे पत्रकारों की भी रही होगी जिन्‍हें 4 मई के गैंगरेप की खबर तो तभी हो चुकी थी लेकिन वीडियो लीक होने से पहले वे इसे उन्‍हीं कारणों से सामने नहीं ला सके, जो मेरी राह में बाधा थे। इसलिए वीडियो लीक होने की टाइमिंग के पीछे की कॉन्‍सपिरेसी थियरी उतनी मजबूत नहीं दिखती। दरअसल, स्थितियां ही नहीं थीं उस खबर को उसी वक्‍त करने की।

हिन्दू बनाम ईसाई का नैरेटिव

दिल्ली के साउथ एक्स में रह कर सिविल सेवाओं की तैयारी करने वाले एक कुकी लड़के ने मुझसे कहा, “महिला की इज्‍जत उछालकर जंग जीतने की तरकीब कायरों की होती है। हम कुकी लोग वीरों के वंशज हैं। मैतेयी आतंकवादियों से डटकर लड़ेंगे, जरूरत पड़ी तो मैं भी अपने लोगों को बचाने के लिए वॉलंटियर करने जाऊंगा।

उस लड़के ने अपने फोन में मुझे कई ऐसे वीडियो दिखाए जिसमें कथित तौर पर मैतेयी भीड़ कुकी गांवों को आग लगा रही थी। इंफाल में एक शॉपिंग कॉम्पलेक्स में लूट मचा रही थी। एक वीडियो उसने और दिखाया जिसका जिक्र मैं समझता हूं भारत के वर्तमान राजनीतिक संदर्भ में काफी अहम है: वीडियो में कथित तौर एक मैतेयी पुरोहित दिख रहा है। वह एक थैली से हिंदू देवियों की पोस्टर और प्रतिमाएं निकालता है। अपनी भाषा में कुछ कहता है जिसका लब्बोलुआब यह है कि हम सनामही हैं, देवी-देवताओं में यकीन नहीं करते। अगले ही पल वह उन प्रतिमाओं और तस्वीरों पर चप्पल चलाने लगता है।

लगभग एक मिनट के इस वीडियो में हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुंचाने लायक पर्याप्त कॉन्टेंट था। इसके वायरल करवाने की वजह भी यही थी। सोशल मीडिया पर जब ‘डबल इंजन’ सरकार घिरने लगी थी तो दक्षिणपंथी ‘कॉन्टेंट क्रिएटर्स’ (ट्रॉल्स) ने मणिपुर की जनजातीय हिंसा पर हिंदू बनाम ईसाई का नैरेटिव चलाना शुरू किया। उनके हिसाब से यहां हिंदू माने मैतेयी और ईसाई माने कुकी। हर बार की भांति इस बार भी दक्षिपंथियों का वही तरीका रहा– हिंदुओं को विक्टिम बनाओ और ‘हिंदू हृदय सम्राट’ को बचाओ! खालिस्तान समर्थक कट्टरपंथी अमृतपाल सिंह के वक्त भी उन्होंने सिखों को हिंदुओं के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश की थी। मणिपुर में वे मैतेयी को हिंदू बताकर शेष भारत में हिंदुओं को लामबंद करने की कोशिश में लग गए। 

‘मेनलैंड इंडिया’ में जनजातीय हिंसा के धार्मिक ध्रुवीकरण ने कुकी रणनीतिज्ञों को सकते में डाल दिया। उन्होंने अपने नेटवर्क में मैतेयी पुरोहित वाली वीडियो शेयर करना शुरू कर दिया। ‘मेनलैंड इंडियन्स’ को वे यह बताने में लग गए कि जिसे आप ‘अपना’ मान रहे हो, वह आपके देवी-देवताओं की कद्र नहीं करता। मैतेयी हिंदू होंगे लेकिन ‘आपसे’ अलग।

साथ ही कुकी समुदाय के लोग भारतीय सेना से संबंधित कई वीडियो शेयर करने लगे। उन वीडियो में “माइरा पाइबिस” को सेना का रास्ता रोकते दिखाया गया था। वे सेना के कॉम्बिंग ऑपरेशन में बाधा डाल रही थीं। कुकी समुदाय इससे ‘मेनलैंड हिंदुओं’ के अंदर राष्ट्रवादी चेतना कुरेदने की कोशिश कर रहा था।

‘हिन्दू जागा’, लेकिन पचहत्तर दिन बाद!

कुकी महिला का नग्न परेड और गैंगरेप हुआ था 4 मई को। एफआइआर दर्ज़ हुई 18 मई को। चौदह दिन मतलब दो सप्ताह बाद मणिपुर पुलिस से केस दर्ज किया। एफआइआर के मुताबिक महिला को उसके पिता और भाई के सामने निर्वस्‍त्र किया गया। पिता और भाई अपनी बेटी-बहन को बचाने की कोशिश करते रहे, पर भीड़ ने उन्हें पीट-पीट कर मार डाला। महिला का पास के मैदान में गैंगरेप किया गया।

इंडियन ट्राइब्ल लीडर फोरम (आअटीएलएफ) के मुताबिक मैतेयी औरतों का संगठन माइरा पाइबिस भी भीड़ का हिस्सा था और महिला का गैंगरेप मैतेयी महिलाओं की आंखों के सामने ही हुआ था। यह संगठन मैतेयी मर्दों को रेप करने के लिए उकसाता रहा था।

मामला 21 जून को मजिस्ट्रेट के पास पहुंचा, मतलब एफआइआर दर्ज होने के एक महीना तीन दिन बाद। पीड़िता ने प्रेस को बताया कि पुलिस के सामने ही वारदात हुई। मदद की गुहार के बावजूद पुलिस ने उसे भीड़ के हवाले कर दिया। वीडियो वायरल होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार को तलब किया। पूछा कि एफआइआर दर्ज करने में इतनी देरी क्यों हुई। साथ ही कोर्ट ने कहा कि मामले की जांच स्पेशल इनवेस्टिगेशन टीम (एसआइटी) द्वारा करवाई जाए। इस पर पीड़ित महिला का पक्ष रखते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह ने कहा कि जांच समिति में महिला जज, नागरिक संगठनों के प्रतिनिधि भी शामिल किए जाएं। कोर्ट को राज्‍य सरकार ने सूचित किया कि अभी तक लगभग छह हज़ार एफआइआर दर्ज की जा चुकी है।

दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि भारत के प्रधानमंत्री मणिपुर की ‘एक’ घटना से आहत हुए ही थे कि बीरेन सिंह ने प्रेस को बयान दे दिया, “ऐसे सैकड़ों मामले हैं इसीलिए इंटरनेट बंद किया है हमने।” मुख्यमंत्री का हिंसा शुरू होने के लगभग पौने तीन महीने बाद इस तरह का बयान देना अपने आप में कानून व्यवस्था के हालात को बयां कर रहा था।

भारतीय मीडिया अगर सरकार की चरणवंदना में शरीक न होता, तो सवाल पूछे जाते कि राज्य और केंद्र के बीच ऐसा कौन सा तालमेल है कि लॉ एंड ऑडर खस्ताहाल है? मसलन, मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री को ब्रीफ नहीं कर रहे क्या? मुख्यमंत्री से राज्य नहीं संभल रहा है, ये तो स्पष्ट है, ऐसे में उनका इस्तीफा न लिए जाने की कौन सी मजबूरी है? इसके बजाय सारा मीडिया मजा प्रधान प्रजातंत्र उत्तर प्रदेश के एक लप्पूझन्ना आशिक की पाकिस्तानी माशूका की प्रेम कहानी में मगन रहा। नोएडा से उपजा लोकतंत्र का चौथा खंबा पाकिस्तानी प्रेमिका सीमा हैदर की प्रेम पर क्लास ले रहा था।

जब मणिपुर का वीडियो वायरल होने से ‘डबल इंजन’ की सरकार घिरने लगी, तो चैनलों ने एक और जोर की कोशिश की मुद्दे को भटकाने की। पिछले नौ वर्षों में जो हिंदू-मुस्लिन जनमानस उन्होंने तैयार किया है, उन्होंने उसकी परीक्षा ली- जो अभी तक भारत की भौजाई थी, अब उसका आइएसआइ एंग्ल खोज निकाला गया। सचिन और सीमा के प्यार के हर पहलू को रिपोर्ट कर रही एंकराओं ने सीमा के सीमा पार होने की साजिशों की पड़ताल शुरू कर दी। एक हिंदू मर्द के पाकिस्तानी पराक्रम पर गदगद  जनता को सीमा के पांच पासपोर्ट की कहानी बताई जाने लगी। मुंबई पुलिस को धमकी भरे कॉल भी आ गए। कॉलर ने ‘उर्दू’ में धमकी दी कि अगर सीमा हैदर को वापस पाकिस्तान नहीं भेजा गया तो भारत में 26/11 जैसे हमले होंगे! मज़ा प्रधान देश के मासूम और हंसमुख नागरिकों के आगे भारत और पाकिस्तान की एजेंसियां हंसी का पात्र बना दी गईं। मणिपुर इस बस के बीच नजरों से ओझल रखा गया, जहां खुद भाजपा के विधायकों की जान पर बन आई थी।

भाजपा विधायक और आदिवासी मामलों के पूर्व मंत्री वुंगाज़ीन वाल्ते पर 4 मई को ही इंफाल में जानलेवा हमला हुआ था। वे कुकी-जो समुदाय से आते हैं। उन्हें इलाज के लिए दिल्ली एयरलिफ्ट करवाना पड़ा। उनके बेटे जोसेफ वाल्ते ने मुझे बताया कि उनके पिता के चेहरे की हड्डियां टूट गई हैं। उन पर हमला करने वाले लोग मैतेयी थे। जोसेफ ने जोर देकर कहा कि जिस भाजपा को उसके पिता ने वर्षों तक सींचा, उस पार्टी के एक भी सदस्य ने उनका हालचाल नहीं पूछा। केंद्र सरकार से भी किसी ने संपर्क नहीं किया। दिल्‍ली में कोई मीडिया वाला देखने नहीं पहुंचा।

बावजूद इसके, विपक्ष का दबाव कम नहीं हुआ। सोशल मीडिया पर गुस्से की आंच में कमी नहीं आई। भले ही 75 दिन लग गए, पर भारत का ‘हिंदू’ जागा!

न्यू नॉर्मल

घटना के लगभग तीन महीने बाद पुलिस ने पीड़ित महिला का बयान दर्ज करना शुरू किया है। वायरल वीडियो के बाद उपजे रोष ने अन्य महिलाओं को भी अपनी आपबीती सुनाने और केस दर्ज करवाने को प्रेरित किया।

यह भारत की नई, किंतु स्वीकृत राजनीति की तसदीक ही है कि प्रधानमंत्री मणिपुर के खूनी संघर्ष पर ढाई महीने चुप रह सकने की छूट ले सके। केवल एक घटना, और उसके भी कुछ हिस्से का जिक्र करते हुए उन्होंने कांग्रेस-शासित छत्तीसगढ़ और राजस्थान में महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने का आश्वासन दे डाला। यह बताता है कि देश की राजनीति ने ‘दंगों’ और ‘मर्डर’ में अंतर करना छोड़ दिया है!


मणिपुर से लौट कर आए रोहिण कुमार की यह रिपोर्ट शृंखला की दूसरी कड़ी है, पहली कड़ी के लिए यहां क्लिक करें या नीचे पढ़ेंशृंखला जारी है

 आग लगाने की तैयारी तो पहले से थी, 3 मई की रैली होती या नहीं…


More from रोहिण कुमार

लद्दाख: संस्‍कृति के खोल में अधूरी ‘आजादी’ का सरकारी जश्‍न

बौद्ध बहुल लद्दाख ने कभी मुस्लिम बहुल जम्‍मू और कश्‍मीर से आजादी...
Read More

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *