थोड़ी देर पहले गुजरी बारिश के बाद फैली उमस और पसरे चँहटे के बीच ओसारे की कच्ची जमीन पर तीन साल की बच्ची की लाश शॉल में लिपटी पड़ी थी। उसे मरे हुए छह घंटे से ज्यादा हो चुके थे। लाश के एक ओर डरे-सहमे बैठे मां-बाप को बच्ची के नाना का इंतजार था, जो भदोही के सुरियावां से यहां आने को निकल चुके थे।
यह 29 अगस्त की शाम पांच बजे का वक्त था, जब प्रयागराज के अरवांसी गांव की मुसहर बस्ती में हम मातमपुरसी के लिए पहुंचे थे। परिवार बेहद खौफ में था। घर के अधेड़ मुखिया पुन्नवासी को छोड़कर उसका हर सदस्य कुपोषित और कृशकाय दिखता था। हफ्ते भर में यह परिवार के दूसरे बच्चे की मौत है। क्या बीमारी थी बिटिया को? पूछने पर मां शर्मीला बुदबुदाती है, “हमार देवता बिगड़ गए।”
पुन्नवासी और शर्मीला की बिटिया दो दिन पहले अचानक बीमार पड़ी थी। उसे दस्त हो रहे थे। वे उसे लेकर ओझाई कराने गए थे, लेकिन रास्ते में ही बच्ची खत्म हो गई। हमारे साथ मौजूद गांव की आशाकर्मी रेनुबाला की तरफ इशारा करते हुए शर्मीला कहती हैं, ‘’दीदी दवा दी थीं, लेकिन मैंने नहीं पिलाया।‘’ लेकिन दवा तो आपकी बच्ची की जान बचाने के लिए ही दी गई थी? इस पर वे कहती हैं, “सही कहत हया साहेब, हमार लोगन के दिमागै नाही काम किहेस।”
दो दिन पहले स्वास्थ्य विभाग की टीम गांव में आई थी। उस वक्त परिवार बच्ची को लेकर झाड़-फूंक करवाने कहीं गया हुआ था। यह बताते हुए रेनुबाला चूल्हे के पास फेंकी हुई दवाई और ओआरएस के पैकेट दिखाती हैं, ‘’वो देखिए, ये सब हम इनको कल देकर गए थे लेकिन इन लोगों ने बच्ची को नहीं पिलाया। कल जब हमने इनसे पूछा कि बच्ची बीमार है आपकी, तो इन लोगों ने झूठ बोला कि बीमार नहीं है, पहले थी पर अब ठीक हो गई है। फिर भी मैंने जबरदस्ती ओरआरएस दे दिया। इऩ लोगों ने नहीं पिलाया, न ही दवा खिलाई।‘’
सस्ती जिंदगियां
पूरे देश में 31 अगस्त को हमेशा की तरह विमुक्त जाति दिवस मनाया गया। लखनऊ में हुए एक सरकारी कार्यक्रम में जब विमुक्त जातियों के कल्याण के दावे किए जा रहे थे, उस वक्त मुसहरों और सहरियाओं की उल्टी-दस्त जैसी मामूली बीमारियों से मौत हो रही थी। मौत का कारण हर जगह तकरीबन एक-सा था, लेकिन बीमारी पर परिवारों की प्रतिक्रियाएं अलग-अलग थीं।
अगस्त के तीसरे हफ्ते में पुन्नवासी के बड़े भाई दिनेश कुमार की तीन महीने की बेटी चांदनी की मौत हुई। उसे भी उल्टी हो रही थी। परिवार के मुताबिक बच्ची को सुखवा रोग भी था। घरवाले उसको झड़वाने-फुंकवाने के लिए किसी सोखा के पास ले गए थे। अरवांसी से सटे अगरापट्टी गांव की मुसहर बस्ती में भी एक सप्ताह के भीतर तीन बच्चों की डायरिया से मौत हुई है। यहां रहने वाले सुरेंद्र कुमार के बेटे साहिल की तबीयत अचानक बिगड़ी। उसे उल्टी-दस्त शुरू हो गए और दो दिन में ही मौत हो गई। वह नौ साल का था। इसके बाद मनोज कुमार की दो साल की बेटी प्रीति और राममूर्ति के दो साल के बेटे अंकित की मौत उल्टी-दस्त से हुई।
अगस्त के तीसरे हफ्ते में ही प्रयागराज की कोरांव तहसील के लोड़ियारी गांव में पन्नालाल की पत्नी राजकुमारी की डायरिया से मौत हुई। मुसहर बस्ती के दस अन्य लोग डायरिया से ग्रस्त मिले। इसी तहसील के डीही गांव के मुसहर बस्ती में भी आधा दर्ज़न से अधिक लोग डायरिया से ग्रस्त पाए गए।
अगस्त के पहले सप्ताह में डायरिया ने प्रयागराज की हँड़िया तहसील में कहर ढहाया। उतरांव थाना के भदवा गांव में एक हफ्ते के भीतर रविशंकर की बेटी संजना (3), रोहित का बेटा दिवाकर (10), चन्नर मुसहर की पत्नी नीता (55), पुरुषोत्तम की पत्नी मटुरी देवी (70), और वीरेंद्र मुसहर (35) की मौत डायरिया से हुई। वीरेंद्र को उल्टी-दस्त होने के बाद 6 अगस्त को परिजन सीएचसी सैदाबाज लेकर भागे, लेकिन अस्पताल के गेट पर ही उनकी मौत हो गई। इसके बाद वीरेंद्र के बेटे चंचल (3) और बेटी नंदिनी की हालत बिगड़ने पर उन्हें स्वरूपरानी जिला अस्पताल, प्रयागराज रेफर किया गया।
मौतें केवल मुसहर समुदाय में ही नहीं हुई हैं। ललितपुर जिले में आदिवासी सहरिया समुदाय के नौ लोगों की दस्त से मौत हुई है। इन मौतों पर ललितपुर के सीएमओ डॉक्टर इम्तियाज खान का बयान आया था, “सहरिया समुदाय के लोग गंदगी में रहते हैं, इसलिए मर रहे हैं।”
ये मौतें पहली बार हो रही हैं, ऐसा भी नहीं है। बातचीत में पता चला कि पिछले साल इसी सीजन में पुन्नवासी-शर्मीला की एक और बेटी चल बसी थी। उसे भी यही सब तकलीफ हुई थी। परिवार को तभी से लग रहा था कि उनके देवता नाराज हो गए हैं, इसलिए उनके बच्चे मर रहे हैं। बच्ची के नाना का इंतजार भी इसीलिए किया जा रहा था कि उसको दफनाने से पहले वे अपने देवता की पूजा कर लें ताकि परिवार में और बच्चों की मौत न होने पाए।
ऐसा भी नहीं है कि मौतों की वजह मरीज को दवा न देना या केवल झाड़-फूंक है। पुन्नवासी के पास एक मोबाइल था, जिसे उन्होंने अपनी बच्ची को पानी चढ़वाने के लिए 600 रुपये में बेच दिया था। बनथरा में कोई डॉक्टर है, उसी के पास पानी चढ़वाने के लिए वे बच्ची को लेकर गए थे। बस दिक्कत यह थी कि किसी ने उनसे ऐसा करने को कहा नहीं था, उन्होंने खुद से सोचा कि पानी चढ़ाने ने बच्ची ठीक हो जाएगी। वे कहते हैं, ‘’डॉक्टर ने कोशिश किया लेकिन शरीर में पनियै नाही चढ़ा।‘’
आशाकर्मी का कहना है कि 27 अगस्त को जब डॉक्टरों की जांच टीम अरवांसी पहुंची थी तब पुन्नवासी की बच्ची खेल रही थी। वे बताती हैं, ‘’हमने कहा कि जिन लोगों को थोड़ा सी भी शंका हो दवा ले लो। ये लोग दवा लिए भी। बच्ची उसी रात बीमार हुई और ये लोग सुबह लेकर गए। हमने एक दिन पहले इनसे पूछा कि कौन बच्ची बीमार है तो ये लोग इनकार करते रहे। ये लोग बीमार होते हैं तो बीमारी छुपाते हैं।‘’
क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ता धर्मेंद्र यादव भी हमारे साथ अरवांसी और अगरापट्टी गए थे। वे आशंका जता रहे थे कि मीडिया में खबर आने के बाद या मामला हाइलाइट हो जाने के बाद हो सकता है कि मुसहर बस्ती के लोगों को उनके गांवों से भगा ही दिया जाए। यादव की आशंका को तब बल मिला जब हफ्ते भर बाद खबर आई कि पुन्नवासी का परिवार भी गांव से जा चुका है। पुन्नवासी चार भाई हैं। बच्ची की मौत के बाद पुन्नवासी के अन्य बच्चों को फूलपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले जाया गया था। अस्पताल से निकलकर वे सीधे अपने ससुराल सुरियावां चले गए। उनका कहना है कि जब तक बच्चे ठीक नहीं हो जाते, तब तक वे वहीं रहेंगे। उनके बाकी भाई कहां गए, इसकी खबर नहीं मिली।
Posted by Sushil Manav on Thursday, August 29, 2024
उसी दिन अरवांसी के बाद हम अगरापट्टी गए थे। जिनके बेटे साहिल की डायरिया से मौत हुई थी, उन सुरेंद्र कुमार के घर पर ताला लगा हुआ था। पड़ोसियो ने बताया था कि परिवार कहीं चला गया है। कहां गया है, इस पर गांव के लोगों का कहना है कि ‘’इन लोगों’’ को कोई एक दर-ठिकाना नहीं है, ये तो आते-जाते रहते हैं। इस किस्म की रहस्यमय; दिखने वाली बातों के पीछे कुछ गहरी सच्चाइयां छुपी हैं।
व्यवस्था का अविश्वास
प्रयागराज-गोरखपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर वरुणा नदी पार करते ही एक पक्की सड़क दायीं ओर फूटकर निकलती है। सड़क के इस पार अगरापट्टी और सड़क के उस पार अरवांसी गांव है। दोनों गांवों को मिलाकर कुल डेढ़-दो सौ परिवार मुसहर समुदाय के होंगे। इन्हें वनवासी भी कहा जाता है। इसी सड़क के मुहाने पर सन्त निरंकारी सत्संग भवन स्थित है जहां हर शुक्रवार दोपहर 12 से 2 बजे के बीच सत्संग होता है।
दोनों गांवों के अधिकांश मुसहर अशिक्षित हैं। मां-बाप अशिक्षित हैं तो बच्चे भी शिक्षा से वंचित रह जा रहे हैं। अरवांसी की आशाकर्मी रेनुबाला दलित समुदाय से आती हैं और पांचों आशाकर्मियों में सबसे ज्यादा सक्रिय हैं। वे लोगों को हिदायत देती हैं कि नल का पानी उबालकर ठंडा करके पीयो लेकिन लोग बहुत लापरवाही करते हैं। वे कहती हैं, ‘’जैसे किसी वनवासी महिला से बात कर रही हूं और ठीक तभी उनकी बच्ची लैट्रिन कर दी और मैं उनसे कहती हूं कि पहले लैट्रिन साफ करो या इसे राख से ढंक दो और साबुन से हाथ धुलकर ही खाना पानी दो बच्चों को। इस बात से वो लोग चिढ़ जाते हैं और कहते हैं- तू आय गउ तो दुनिया भरे के कनून बतावै।”
अरवांसी में घुसते ही कई लोगों ने हमें घेर लिया था। एक बुजुर्ग कह रहे थे कि जो दवा लोगों को दी गई है उसी से लोगों की मौत हो रही है। दवा से उनका मतलब स्वास्थ्य विभाग की टीम की बांटी दवाइयों, ओरआएस के पैकेट और क्लोरीन की टैबलेट से है।
आशाकर्मी रेनुबाला बताती हैं कि सुबह वह इन लोगों से फूलपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र चलने को बोली थीं और एंबुलेंस लेकर आने को भी उनसे कहा था, लेकिन लोगों ने साफ मना कर दिया कि वे नहीं जाएंगे। फूलपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के अधीक्षक नीरज पटेल अरवांसी और अगरापट्टी की मुसहर बस्ती में डायरिया फैलने की मुख्य वजह दूषित पेयजल और गंदगी को बताते हैं। उन्होंने दावा किया कि डायरिया फैलने की जानकारी मिलने के बाद स्वास्थ्य विभाग की टीम पूरे सप्ताह हर दिन संबंधित गांव गई और वहां संक्रमित लोगों की जांच करके उन्हें दवाइयां दी गई हैं। मुसहर बस्ती में क्लोरीन की गोलियां भी बांटी गई थीं।
Posted by Sushil Manav on Thursday, August 29, 2024
इसी गांव की दस्त से पीड़ित एक औरत रिंकी, बुढ़िया किनारा के मंगला मेडिकल स्टोर से दवा लेकर आई हैं। आलम यह है कि यहां के लोगों को मेडिकल स्टोर पर तो भरोसा है लेकिन सरकारी अस्पतालों पर भरोसा नहीं है। नगीना को 15 दिनों से बुखार था। वे बिस्तर पर पड़ी थीं। दवा के लिए क्यों नहीं जा रहीं, पूछने पर कहती हैं कि अब आराम है। इसी घर की एक बूढ़ी औरत कहती हैं, ‘’हम सरकारी अस्पताल में नहीं जाएंगे। वहां मरीज की ठीक से देखभाल नहीं करते हैं। जाते ही भगा देते हैं, कहते हैं इलाहाबाद लेकर जाओ।‘’
पक्का मकान बनने से पहले डबलू वहीं पर झोपड़ी में रहते थे। गर्मी का दिन था, आंधी आई तो पूरा घर जलकर खाक हो गया। आग में उनकी ज़मीन का कागज भी जल गया। उनका दावा है कि वे यहां पीढि़यों से रहते आए हैं, लेकिन पांडेयपुर गांव के ब्राह्मण मुसहरों को उनकी जमीन से बेदख़ल करना चाहते हैं। अगरापट्टी की मुसहर बस्ती के लोग भी यही शिकायत करते हैं। वे कहते हैं कि पांडेयपुरवा गांव का कोटेदार उन लोगों को यह कहकर राशन नहीं देता वे लोग इस गांव के निवासी नहीं हैं।
झांकने तक नहीं आए प्रधान
अगरापट्टी के ग्राम प्रधान धीरेंद्र सिंह और ग्राम पंचायत अधिकारी राम बाबू को बहुत पहले गांव में डायरिया फैलने की जानकारी दी गई थी, बावजूद इसके मुसहर बस्ती में कोई नहीं पहुंचा। जब चार बच्चे मर गए और एक दर्जन से अधिक लोगों को उल्टी-दस्त चालू हो गई, तब स्वास्थ्य विभाग की टीम में भगदड़ मची। यह बताते हुए इस गांव की मुसहर बस्ती में रहने वाले अरुण कहते हैं, ‘’मुसहर बस्ती में तीन लोगों की मौत होने के बाद डॉक्टर आए, पत्रकार आए, लेकिन इसी गांव का प्रधान टोली में झांकने तक नहीं आया।‘’
अगरापट्टी गांव की मुसहर बस्ती गड़ही-गड़हों और ताल-तलैयों के बीच बसी है। गड़ही के ठीक किनारे लोगों के कच्चे घर हैं। किसी-किसी के पास प्रधानमंत्री आवास योजना वाला मकान भी है। सड़क के दोनों किनारों की मिट्टी को खोदकर पटरी पर फेंके जाने के चलते सड़क के किनारे भी पानी भरा हुआ है। इन बस्तियों में पानी की निकासी के लिए नाली का निर्माण नहीं हुआ है।
अगरापट्टी और अरवांसी दोनों गांवों की मुसहर बस्ती में एक भी सरकारी नल या हैंडपम्प नहीं लगा है। मुसहर बस्ती में लोगों ने अपने निजी पैसे से छह नंबर मार्का हैंडपम्प लगवा रखा है। अमूमन लोगों ने कच्चे घर की दीवार खड़ी करने के लिए घर के नज़दीक से, एक ही जगह से, मिट्टी खोदकर निकाल ली जिसके चलते जगह-जगह छोटी-बड़ी गड़ही और ताल-तलैये बन गए। इन्हीं गड़हों के बगल में इन लोगों ने हैंडपम्प की बोरिंग करवा ली है ताकि जो भी पानी नहाने या कपड़ा-बर्तन धोते समय बहे वो इन्हीं गड़हों में बह के जाए। बारिश का दूषित पानी इन्हीं गड़हों में इकट्ठा हो गया, जो वापस हैंडपम्प में से होकर लोगों के शरीर में जा रहा है और इन्हें मार रहा है।
अरुण बताते हैं कि टंकी वाले पानी की सप्लाई दोनो गांवों में है, लेकिन केवल मुसहर बस्ती में कनेक्शन नहीं है। उन लोगों ने ग्राम प्रधान से बात की थी लेकिन उसने पानी का कनेक्शन नहीं लगवाया। अरुण के पिता बताते हैं कि वे लोग कई बार प्रधान से गड़हों को पाटने के लिए बोल चुके हैं लेकिन वे सुनते नहीं हैं।
सुनवाई की दिक्कत केवल अगरापट्टी के ग्राम प्रधान तक सीमित नहीं है। पिछड़ी जाति से आने वाले इन्द्रराज सिंह अरवांसी के प्रधान हैं। लोग बताते हैं कि प्रधान एक बार भी मुसहरों के दरवाजे पर नहीं आए। यह उपेक्षा ग्राम प्रधान से आगे जाती है। अरवांसी और अगरापट्टी को मिलाकर कुल पांव आशा वर्कर, चार आंगनवाड़ी केंद्र और एक एएनएम हैं। इनमें केवल एक आशाकर्मी दलित है, बाक़ी या तो सामान्य वर्ग से हैं या पिछड़ा वर्ग से। दलित वर्ग से आने वाली रेनुबाला को छोड़कर अन्य कोई भी आशाकर्मी, आंगनवाड़ी या एएऩएम मुसहर बस्ती में क़दम ही नहीं धरते हैं। जब कोई जांच या लिस्ट बनानी होती है ये तभी आते हैं। यही हाल सफाईकर्मियों का है। दोनों ही गांवों में सफाईकर्मियों की तैनाती है लेकिन वे भी मुसहरों को अछूत मानते हैं।
मुसहरों के प्रति यह व्यवस्थागत उदासीनता बिलकुल सामने से ही उनकी जीवन-स्थितियों में दिख जाती है। अगरापट्टी की मुसहर बस्ती में छोटे-बड़े मिलाकर कोई 50 से अधिक बच्चे होंगे। यहां हम 29 अगस्त की शाम सात बजे पहुंचे थे। दस साल तक के बच्चों के देह पर कपड़े नहीं थे। मर्द भी अधनंगे ही थे। उनकी औरतें बताती हैं कि उन्हें या उनके बच्चों को पोषाहार नहीं दिया जाता, मांगने जाओ तो कहते हैं कि ‘’तुम लोगों का नाम रजिस्टर में, लिस्ट में नहीं है’’।
एक औरत मिट्टी के चूल्हे पर जस्ते का पतीला चढ़ाकर रात के खाने का इंतजाम कर रही थी और बच्चे को दूध भी पिला रही थी। उसने बीच में टोका, ‘’जिन लोगों का नाम सूची में होता भी है उन्हें ही कौन सा मिल जाता है? हर महीने तो बहाना बनाते हैं कि इस महीने नहीं आया, अगले महीने आएगा।‘’ उनका घर आंगनवाड़ी केंद्र के ठीक सामने है, जिसका उसी शाम रंगरोगन किया गया है। बच्चों को वहां क्यों नहीं भेजती पढ़ने के लिए? इस सवाल के जवाब में कई औरतें एक साथ बोल उठती हैं। सबका एक ही कहना है, “आंगनवाड़ी वाली मैडम बाभन हयीं। उनका हमरे लरिकन बच्चन से घिन आवत हा, बास आवत है साहेब।”
पुन्नवासी के छोटे भाई डबलू कहते हैं, “जब शौचालय ही नहीं मिलेगा तो लोग कहां जाएंगे? सड़क पर, खेतबारी में ही बैठेंगे न? जब सफाईकर्मी नहीं आएगा साफ करने, सफाई नहीं होगी तो गंदगी में ही तो रहेंगे न?“
यही हाल अरवांसी का है। ममता मिश्रा वहां की आंगनवाड़ी वर्कर हैं, लेकिन वे मुसहर बस्ती में पढ़ाने नहीं जाती हैं। अरवांसी की एक महिला कहती हैं कि जो कुछ भी मिलता है बच्चों को बांटने के लिए वो सब ‘’आंगनवाड़ी मैडम ब्लैक कर देती हैं’’। उनके मुताबिक मिश्रा वहां दो-तीन महीने पर कभी आती हैं, तो बस रजिस्टर में सबका नाम नोट करने के लिए। आशाकर्मी रेनुबाला बताती हैं कि पूरी मुसहर बस्ती में सिर्फ़ रिंकी के दो बच्चे स्कूल जाते हैं। सरकारी स्कूल एक किलोमीटर दूर है।
उपेक्षा और धारणा के बीच
मुसहरों के प्रति दूसरी जातियों की नफरत और व्यवस्था के अंगों के प्रति मुसहरों के अविश्वास का एक लंबा सामाजिक इतिहास है, जो अंग्रेजी राज तक जाता है जब मुसहरों सहित सैकड़ों घुमंतू जातियों और जनजातियों को जरायमपेशा या आपराधिक घोषित कर दिया गया था। 31 अगस्त, 1952 को कोई दो सौ जनजातियों को इस सूची से बाहर निकालते हुए भारत सरकार ने अंग्रेजों का काला कानून तो खत्म कर दिया, लेकिन इन जातियों के प्रति लंबे दौर में कायम हुई सामाजिक धारणा तथा व्यवस्थागत उपेक्षा के चलते इन जातियों की अपराधों में संलिप्तता का चलन आज भी कायम है, जो पुलिस-प्रशासन की प्रतिक्रियाओं में भी दिखता है।
पिछले साल अगस्त में प्रयागराज के थरवईं थानाक्षेत्र के हेतापट्टी में एक चौकीदार की हत्या, डकैती और नाबालिग से गैंगरेप के मामले में बद्दीक मारवाड़ी घुमंतू गैंग के एक परिवार के नौ लोगों को पकड़ा गया था। इसमें पांच औरतें भी शामिल थीं। इसी तरह 16 अप्रैल, 2022 को जिले के नवाबगंज क्षेत्र के खागलपुर गांव में राहुल तिवारी समेत उनके परिवार के पांच लोगों की हत्या कर दी गई थी, जिसके आरोप में घुमंतू समुदाय के लोगों को गिरफ्तार किया गया था। नवंबर 2021 में गोहरी फाफामऊ में एक परिवार के चार लोगों की हत्या और 22 अप्रैल को फाफामऊ के खेवराजपुर गांव में एक परिवार के पांच लोगों की हत्या और गैंगरेप के मामले में बिहार के नबला खरवार गैंग के 31 लोगों को पकड़ा गया था। दोनो ही मामलों में तीन महिलाओं के साथ गैंगरेप किया गया था। बाद में गिरफ्तार व्यक्तियों की डीएनए सैंपल जांच नेगेटिव आने के बाद पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठे थे।
जिले में इस तरह की आपराधिक घटनाओं ने घुमंतू समुदाय के लोगों के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। एक ओर जहां समाज के लोग उऩ्हें शक से देखते हैं वहीं कहीं भी कुछ होने पर पुलिस सबसे पहले घुमंतू समुदाय के डेरों पर छापा मारकर उन्हें ही प्रताड़ित करती है। जो केस पुलिस नहीं हल कर पाती है उनमें भारी जनदबाव और राजनीतिक दबाव के चलते घुमंतुओं को बलि का बकरा बना दिया जाता है।
कौन हैं विमुक्त जन? प्रोफेसर गणेश देवी का व्याख्यान, जनवादी लेखक संघ, इलाहाबाद, 2020
Posted by जनवादी लेखक संघ, इलाहाबाद on Thursday, July 9, 2020
उत्तर प्रदेश में मुसहर आबादी का केवल 8.4 प्रतिशत ही रहता है, वह भी मुख्य तौर पर प्रयागराज, चंदौली, वाराणसी, जौनपुर, कुशीनगर जिलों में। खानाबदोश जिंदगी और अशिक्षा के चलते इस जाति के अधिकांश लोग भूमि-स्वामित्व से वंचित हैं। पुराने समय में ये लोग खाली पड़ी ग्राम समाज की ज़मीन या किसी की बाग में डेरा डालकर रह लेते थे। अमूमन उत्तर प्रदेश के हर गांव में या चार-छह गांवों के एक पुरवें में कम से कम एक मुसहर परिवार ज़रूर रहता था। बिल्कुल उसी तरह जैसे हर गांव में एक घर नाऊ और एक घर कहार का ज़रूर होता था।
आज से करीब 20-25 साल पहले तक मुसहर जाति के लोग पारम्परिक तौर पर गांवों में होने वाले शादी-विवाह, मरनी-करनी आदि के लिए महुआ और टेसू के पत्तों से दोना-पत्तल बनाकर देते थे और पांत उठने के बाद जूठे पत्तलों को उठाकर उऩ्हें फेंकने का काम करते थे। हमेशा तो काज-परोजन नहीं होता था, इसलिए ये पेट भरने के लिए खेतों की मेंड़ों में पाये जाने वाले मूस (चूहे) पर बहुत हद तक निर्भर थे। वे चूहों को पकड़कर ले जाते और भूनकर खाते थे। मूस का आहार करने का कारण ही इनका नाम मुसहर पड़ा।
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दोना-पत्तल बनाने के अलावा इनका दूसरा पारम्परिक काम लकड़ी काटकर बाजार में बेचना था, लेकिन तकनीकी ने इनसे इनका पारंपरिक काम छीन लिया जिसके चलते इनके सामने अपने अस्तित्व को बचाने के लिए लगातार संघर्ष करना पड़ रहा है। अमूमन सरकारी योजनाओं और नीतियों को हाशिये के ऐसे ही समुदायों को ध्यान में रखकर या उनको लक्ष्य करके बनाया जाता है। अपवादों को छोड़ दें, तो अधिकांश सवर्ण जातियों और राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक तौर पर संपन्न कुछ जातियों को इन योजनाओं की बहुत जरूरत नहीं होती है। विडम्बना यह है कि सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी उन्हीं जातियों के लोगों को दे दी जाती है जिन्हें उनकी जरूरत नहीं होती, चाहे वे आंगनवाड़ी वर्कर हों, आशाकर्मी हो या रोजगार सेवक।
इस संदर्भ में धर्मेंद्र यादव कहते हैं कि हो सकता है कि इन पदों के लिए जरूरी शैक्षणिक अर्हता हाशिये के समाज के लोग न पूरा कर पाते हों, फिर भी कोशिश यही होनी चाहिए कि ट्रेनिंग और औपचारिक शिक्षा देकर हाशिये के समाज के लोगों को इन योजनाओं का दायित्व अपने समुदायों तक पहुंचाने का जिम्मा दिया जाय वरना जातिगत गैर-बराबरी के चलते वही होगा जो अरवांसी और अगरापट्टी के मुसहरों के साथ देखने को मिल रहा है- “आंगनवाड़ी मुसहरों के दरवाजे पर कदम नहीं धरेंगी और पोषाहार मुसहर के बच्चों के बजाय ग्राम प्रधान की भैंस फांकेगी“!
धर्मेंद्र की यह सदिच्छा दूर की कौड़ी लगती है जब हम पाते हैं कि इन समुदायों की आवाजों को सामने लाना ही कितना मुश्किल काम है। समाज ही नहीं, फेसबुक भी ऐसे समुदायों की आवाज को ‘अश्लील’ और ‘समुदाय-विरोधी’ कहता है। मुसहर बस्ती के लोगों से बातचीत और वहां के हालात को हम जब सोशल मीडिया पर लाइव कर रहे थे, उसके एक घंटे के भीतर ही फेसबुक ने ‘न्यूडिटी’ का हवाला देते हुए पहले तो वीडियो को हटा दिया, फिर अगले 24 घंटे के लिए हमारे एकाउंट को ‘सामुदायिक मानकों’ के विरुद्ध बताकर ब्लॉक कर दिया।
बहरहाल, बच्ची की मौत के बीस दिन बाद पुन्नवासी और शर्मीला का परिवार अभी तक अपने गांव नहीं लौटा है। पुन्नवासी के पिता समेत उनके चार भाइयों का पूरा कुनबा बीबी-बच्चों समेत लापता है। उनके घरों में ताला बंद है।
सभी तस्वीरें और वीडियो : सुशील मानव