बेहमई : इंसाफ या 43 साल के शोक का हास्‍यास्‍पद अंत?

Behmai police check post that was established post massacre in 1981
Behmai police check post that was established post massacre in 1981
पचहत्‍तर साल के लोकतंत्र में तैंतालीस साल पुराने एक मुकदमे में एक फैसला आया है। मुकदमे में दोनों पक्ष के ज्‍यादातर लोग सिधार चुके हैं। कानपुर के पास बेहमई गांव में बीस लोगों की सामूहिक हत्‍या के आरोप में जिस इकलौते शख्‍स को सजा हुई, वह अस्‍सी साल का है। तीन पीढ़ियां जब अपने पितरों का शोक मनाते गुजर चुकी हैं, तो न्‍याय ऐसा मिला है जिसके जोर से एक पतंग भी न उड़ पाए। कोर्ट ऑर्डर की प्रति भी यहां पहुंचेगी कि नहीं, शक है क्‍योंकि इस गांव में एक अदद सड़क नहीं है। बेहमई से लौटकर नीतू सिंह की फॉलो-अप रिपोर्ट

चौदह फरवरी को जब इस देश में मधुमास उतरता है, यहां का एक गांव अपने पितरों के आदिम शोक में डूब जाता है। बेहमई ने 1980 में अंतिम वसंत देखा था। अगला वसंत आने की तैयारी में ही था कि गोलियां चल गईं। कतार में खड़ा कर के बीस लोग मौत के घाट उतार दिए गए। वो दिन और आज का दिन, बेहमई के शहीद स्‍मारक पर उजड़ चुके परिवारों की शोकसभाएं होती हैं जब लखनऊ के बेगम हजरत महल पार्क में प्रेमी युगल परिवार बसाने के ख्‍वाब बुनते हैं।

बीते बुधवार की दोपहर करीब तीन बज रहे थे। हर साल की तरह बेहमई के लोग शहीद स्मारक स्थल पर शोकसभा में बैठे थे कि बाबू सिंह चंदेल के फोन की घंटी बज उठी। स्‍थानीय संस्‍कृति में तकरीबन परंपरा की शक्‍ल ले चुका शोक अचानक जश्‍न में तब्‍दील हो गया।


Martyrs monument in memory of Behmail massacre victimes awaited justice for 43 years
बेहमई का शहीद स्मारक

बाबू सिंह चंदेल ने पलट कर तुरंत मुझे फोन लगाया और बोले, ‘’हम लोग हर साल 14 फरवरी को बहुत गम में रहते हैं। हमारे चाचा-भाई सब इस दिन मौत के घाट उतारे गए थे। हमें कोर्ट से करीब तीन बजे फोन आया कि फैसला आ गया है। बहुत आश्चर्य हुआ मुझे कि 43 साल बाद आज उसी दिन फैसला आया जिस दिन घटना घटी थी। हमारा मनोबल भी बहुत डाउन हुआ कि 43 साल बाद फैसला आया, वो भी अस्‍सी साल के एक आदमी को आजीवन कारावास। इस फैसले का क्या मतलब?’’

एक बार को समझने में दिक्‍कत हुई कि इस फैसले पर तत्‍काल क्‍या प्रतिक्रिया दी जाय। बिलकुल यही हाल बेहमई के लोगों का भी था। फैसला आने के बाद गांव में खुशी और गम दोनों का मिलाजुला माहौल रहा। लोगों ने स्मारक स्थल पर दोबारा मोमबत्ती जलाई, फिर मिठाई बांटकर खुशी भी मनाई, लेकिन उनमें फैसले से नाखुशी का मलाल भी था।

वह कानपुर देहात जिले के माती कोर्ट से सरकारी वकील के सहयोगी (एडीजीसी) आशीष तिवारी का फोन था। उन्‍होंने बाबू सिंह को सूचना दी थी कि बेहमई हत्याकांड में फैसला आ गया है। अपर जिला जज डकैती, कानपुर देहात अमित मालवीय ने दो जिंदा आरोपियों में एक श्याम बाबू केवट को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है जबकि दूसरे आरोपी विश्वनाथ को दोषमुक्त करार दिया है।

अजीब विडम्‍बना है कि बीस लोगों की सामूहिक हत्‍या के जिस मुकदमे में फैसले का बरसों से पूरा गांव इंतजार कर रहा था, उसे उसी दिन आना था जब फूलन देवी ने बेहमई हत्याकांड को अंजाम दिया था। यूपी के कानपुर देहात जिला मुख्यालय से करीब 50 किलोमीटर दूर यमुना किनारे बसा राजपुर ब्लॉक का बेहमई गांव देश-दुनिया में उस वक्‍त चर्चा में आया जब दस्यु सुन्दरी के नाम से मशहूर फूलन देवी के गिरोह ने 20 लोगों को गोलियों से भून दिया था।

जिस जगह पर डकैतों ने 20 लोगों की गोली मारकर हत्या की थी उसी जगह पर गांव के लोगों ने शहीद स्मारक स्थल बनाकर मरे हुए 20 लोगों का नाम, उम्र, गांव का नाम, पिता का नाम समेत घटना की तारीख, सन् और दिन का भी उल्लेख किया है। आज भी इस स्मारक की गांव के लोग पूजा करके अपनों को याद करते हैं।

इस हत्याकांड में बाबू सिंह चन्देल के पिता और दो चाचाओं की भी हत्या हुई थी। जब इनके पिता की हत्या हुई थी उस वक्‍त इनकी उम्र महज पांच साल थी और ये अपने पिता की गोद में थे। डकैत इनके पिता की गोद से इन्हें उतारकर उस दिन ले गए थे। उसके बाद उनकी गोली मारकर हत्या कर दी थी।



बाबू सिंह कहते हैं, “कोर्ट और राजनीति के चक्कर में बहुत गलत हुआ। क्या इतने बड़े जुर्म की सजा 43 साल बाद सिर्फ एक व्यक्ति को आजीवन कारावास काफी है? मैं फिर भी अदालत का आभार प्रकट करता हूं। हमारे गांव के लोगों ने तो इस मामले में फैसले की उम्मीद तब छोड़ दी थी जब हमें पता चला था कि इस केस की केस डायरी ही गायब है। एक व्यक्ति को ही सही सजा दे दी यही बहुत है, पर हम लोग खुश नहीं हैं क्योंकि हमारे लोगों की मौत की कीमत एक 80 साल के व्यक्ति को आजीवन कारावास की सजा लगाई गई।

सवाल सिर्फ फैसले में ऐतिहासिक देरी और इकलौते बुजुर्ग को आजीवन कारावास का नहीं है। आजाद भारत में बेहमई एक दाग है जिससे यहां के लोगों की नियति ऐसी बंध चुकी है कि यहां के बच्‍चे अपने गांव का नाम लेने से हिचकते हैं।

बाबू सिंह कहते हैं, ‘’इस घटना की वजह से हमारा गांव विकास में पचास साल पीछे चला गया। हम या हमारे बच्चे जब भी कहीं बाहर जाते हैं और अपने गांव का नाम जब बेहमई बताते हैं तो हमें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। हम लोग आदिवासियों जैसा जीवन जीने को मजबूर हैं। आज भी जब कभी रात में उस घटना के बारे में सोचते हैं तो सिहर उठते हैं। जिस फूलनदेवी ने 20 लोगों को दिनदहाड़े गोली से उड़ा दिया उसे जिताकर सांसद बना दिया गया और हम लोगों को एक सड़क तक नहीं मिल पाई।

बाबू सिंह की बात में सच्‍चाई है। महज छह महीने पहले बेहमई की देखी तस्‍वीर अब भी मेरे जेहन में ताजा है। फैसला आने से कुछ समय पहले मैं बेहमई गांव से लौटकर आई हूं। मात्र सवा छह सौ वोटिंग वाला यह गांव ठाकुर बहुल है। यहां के लोग आज भी मुख्य सड़क से नहीं जुड़ पाए हैं। सरकारी योजनाएं बीहड़ के इस गांव में पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देती हैं। घटना के वक्‍त ही इस गांव में पुलिस चौकी बना दी गई थी, इसके अलावा यहां विकास के नाम पर योजनाएं न के बराबर पहुंची हैं। इसे लेकर यहां के लोगों में काफी नाराजगी और सरकार से शिकायत है।

मेरी मुलाकात 54 वर्षीय मुन्नी देवी से हुई। बेहमई कांड के समय मुन्नी की उम्र 11 साल थी। तब इनकी शादी के बमुश्किल चार महीने ही हुए थे, इनका गौना तक नहीं हुआ था कि इन्हें अपने पति की मौत की खबर मिली।

अपने पति की तस्वीर को दिखाते हुए वे कहती हैं, “इनकी उम्र 13 साल थी। ये उस दिन स्कूल से पढ़कर आए थे। गोरु को सानी चारा कर रहे थे तभी इन्हें डाकू पकड़कर ले गए और गोली से मार दिया। हमने शादी में तो शक्ल भी नहीं देखी थी। मरने के बाद पहली बार मुंह देखा।


Munni Devi of Behmai has nothing to get out of this delayed justice
बेहमई कांड के समय मुन्नी की उम्र 11 साल थी

मुन्नी जिस ठाकुर बिरादरी से ताल्लुक रखती हैं उस वक्‍त उस जाति में पुनर्विवाह का चलन नहीं था। मुन्नी ने अपना पूरा जीवन ससुराल में बिना पति, बिना सास-ससुर के जेठ और देवर के मकान में ही रहकर गुजार दिया है।

मुन्नी रोते हुए कहती हैं, “अगर एक लड़की होती तो भी ये जीवन आसानी से उसी से दुख सुख की बात करके काट लेती। मायके में माता-पिता नहीं, ससुराल में सास-ससुर और पति नहीं। आप समझ सकती हैं कि एक 11 साल की लड़की ने कैसे 43 साल ससुराल में दूसरों की गुलामी करके काटे होंगे।

कुछ साल पहले से मुन्नी को विधवा पेंशन तो मिलने लगी है, लेकिन इनके पास अपने खुद का घर नहीं हैं। जो इनकी खेती है वो बहुत बीहड़ इलाके में है। गांव में जिसे कोई बटाई पर भी नहीं लेता है। राशन कार्ड पर मिलने वाला राशन तो इन्हें मिलता है, लेकिन आमदनी का कोई और सहारा नहीं है। बढ़ती उम्र के साथ इनके पैर में बात लग गया है जिसकी वजह से इन्हें चलने में काफी दिक्कत होती है।

बातचीत में ये मीडिया से भी अपनी नाराजगी जाहिर कर देती हैं, “इतने साल में न जाने कितने लोग आए। एक सरकारी कालोनी आज तक नहीं मिली। सबने आकर फोटो उतारी लेकिन हमारे जीवन में कुछ नहीं बदला। यादें और ताजा हो जाती हैं। हम नहीं चाहते कि अब कोई भी हमारी फोटो उतारे। जब कुछ सुनवाई नहीं होनी तो दर्द कुरेदने से क्या फायदा?’’

उस दिन मुन्‍नी को यह नहीं पता था कि तकरीबन साढ़े बयालीस साल तक चली सुनवाई अपने अंजाम तक पहुंचने वाली है, लेकिन उन्‍हें इस बात का जरूर अंदाजा था कि फैसला आ भी गया तो उनका कुछ फायदा नहीं होने वाला। आज जब फैसला आ चुका है तो मुन्‍नी के हाथ में कुछ नहीं है, न उनकी जिंदगी पर इस फैसले का कोई फर्क पड़ने वाला है।  

वे कहती हैं, “मेरा तो सब कुछ उसी दिन खत्म हो गया था। जवानी में तो दूसरों का काम करके गुजर बसर हो गई लेकिन बुढ़ापा काटना मुश्किल है। कम से कम सरकार को इतना तो कर ही देना चाहिए कि हमें एक सरकारी कालोनी दे दे और इतना पैसा पेंशन में मिलने लगे कि दो वक्‍त की रोटी खा सकें। बाकी इतने साल बाद फैसले से हमें क्या फायदा होगा।



इसी गांव में एक और मुन्नी देवी हैं। उम्र पैंतालीस साल है। घटना के वक्‍त डेढ़ साल की थीं। इनके पिता की भी इस घटना में हत्या हुई थी। वे कहती हैं, “मुझे अपने पिता की शक्ल भी याद नहीं। हम चार बहनें थीं। मेरी सबसे बड़ी बहन सात साल की थी। मैं तीसरे नम्बर की डेढ़ साल की और सबसे छोटी बहन सात महीने की थी। उस दिन हमारा घर बन रहा था। डकैत हमारे पापा, चाचा और तीन मजदूरों को लेकर गई और सबको गोली से मार दिया।

मुन्नी बताती हैं, “इतने दिनों में जो इस मामले में लड़ रहे थे और जिनसे लड़ रहे थे दोनों ही पक्ष के ज्यादातर लोग मर गए। अब फैसला आने का कोई मतलब ही नहीं। उस वक्‍त  जिन लोगों को मारा गया था उनके परिवार के भरण-पोषण के लिए कम से कम सरकार को कुछ तो मदद करनी चाहिए थी, पर कुछ नहीं हुआ। अभी एक आदमी मरता है तो सरकार सात लाख रूपये तक दे देती है। हमें तो सात रूपया भी नसीब नहीं हुआ। इस घटना में केवल हमारे पापा नहीं मरे, बल्कि हमारी कई पीढ़ियां मर गईं क्योंकि हम लोग कभी स्कूल ही नहीं जा पाए। यहां का विकास तो आप देख ही रही हैं। गांव में सड़क तक नहीं है। बाकी चीजें तो छोड़ ही दीजिए।

काफी पहले बेहमई को एक पुल देकर सड़क से जोड़ने की बात हुई थी। पुल तो गांव से डेढ़-दो किलोमीटर दूर बन रहा है, लेकिन गांव के लोग वहां तक पहुंचेंगे कैसे क्योंकि वहां तक जाने का गांव से रास्ता ही नहीं है। अगर डेढ़ किलोमीटर ही सड़क बन जाए तो भी यहां के लोग सड़क से जुड़ सकते हैं। 

गांव के ही 65 वर्षीय उदयवीर सिंह कहते हैं, “घटना के बाद मृतकों के परिजनों को नौकरी देने की बात भी कही गई थी लेकिन आज तक 20 लोगों की मौत पर सिर्फ तीन लोगों को ही नौकरी मिल सकी है। इस केस में छह मुख्य गवाह थे जिसमें पांच लोग मर गए। अंतिम गवाह वकील सिंह ही बचे हैं।



बेहमई के चर्चित हत्याकांड में फैसला तब आया जब इस मामले से जुड़े ज्यादातर आरोपियों की मौत हो चुकी है। इनमें किसी की मौत हत्या, पुलिस मुठभेड़ या फिर स्वाभाविक रूप से हुई।

इतना ही नहीं, इस मामले के मुख्य वादी 72 वर्षीय राजाराम सिंह की 13 दिसंबर 2020 को मौत हो गई। ये इस केस के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बेहमई हत्याकांड की एफआइआर थाने में दर्ज कराई थी। इस हत्याकांड में इनके परिवार के सात लोगों की हत्या हुई थी। तब इन्होंने घटनास्थल से समय महज 100 मीटर की दूरी पर झाड़ियों के पीछे छिपकर अपनी जान बचाई थी। राजाराम सिंह ने सिकंदरा थाने में डकैत फूलन देवी, पोसा, भीखा, विश्वनाथ, श्याम बाबू मल्लाह, मान सिंह समेत 35 डकैतों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया था।

राजाराम सिंह के भतीजे बाबू सिंह कहते हैं, “मेरे चाचा ने 39 साल तक केस लड़ने में जी जान लगा दिया, लेकिन उनके जिंदा रहते फैसला नहीं आया। एक लंबे संघर्ष के बाद 13 दिसंबर 2020 को उनकी मौत हो गई। समय और पैसा दोनों की ही इस मामले में बहुत बर्बादी हुई, लेकिन नतीजा बेहद निराशजनक रहा।

बेहमई मामले में कोर्ट का फैसला आने के बाद गांव के लोगों का कहना है कि अभी तीन लोग जमानत पर बाहर हैं जिसमें डाकू मानसिंह भी है। वे पूछते हैं कि उन्हें सजा क्यों नहीं मिली?

इस सवाल के जवाब में माती कोर्ट के एडीजीसी आशीष तिवारी ने फॉलोअप स्‍टोरीज को फोन पर बताया, “इस मामले में दो आरोपी ही बचे थे, जिसमें श्यामबाबू को सजा हुई जबकि विश्वनाथ और पुतानी जिनको पहले ही किशोर घोषि‍त कर दिया गया था उन्हें संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया गया। मानसिंह के बारे में कोई जानकारी नहीं है।



सरकारी वकील राजू पोरवाल ने बताया कि आरोपी श्याम बाबू की इस समय करीब 80 साल उम्र है जिसे कोर्ट ने दोषी मानते हुए उम्र कैद की सजा सुनाई दूसरे आरोपी विश्वनाथ (55 वर्ष) को बरी किया गया क्योंकि इन्होंने 2015 में क्लेम किया था कि जिस वक्‍त यह घटना हुई थी तब इनकी उम्र महज 15 साल थी।

श्यामबाबू को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है, साथ ही 50 हजार रुपये का अर्थदंड लगाया गया है। अर्थदंड की अदायगी न करने पर छह माह के अतिरिक्त कारावास की सजा तय है।

पोरवाल ने बताया, “इस मामले में 43 साल पहले मूल रूप से प्रथम सूचना के अनुसार गिरोह के चार डकैतों समेत 35 से 36 लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ था। इस केस में एक लम्बी प्रक्रिया के बाद 24 अगस्त 2012 में जीवित बचे पांच लोगों के विरुद्ध चार्जशीट दायर की गई, जिन्होंने ट्रायल को फेस किया। तीन की मृत्यु हो गई। दो ही आरोपी जीवित बचे।

फूलन देवी जब महज 16 साल की थीं उस वक्‍त उन्हें बेहमई गांव में डकैत लालाराम और श्रीराम ने एक कमरे में कई दिनों तक बंद रखा था। इस दौरान फूलन देवी के साथ गांव के कई लोगों ने कई दिनों तक गैंगरेप किया था। इसका विरोध करने पर उसके साथ मारपीट की जाती और जातिसूचक गाली दी जाती थी। फूलन देवी इनके चंगुल से बमुश्किल भाग पाई थी।

अपने ऊपर हुए अत्याचारों का बदला लेने के लिए फूलनदेवी बीहड़ में जाकर डकैतों के सम्पर्क में आकर दस्यु सुंदरी के नाम से मशहूर हुई। फूलनदेवी ने अपने ऊपर हुए जुल्म का बदला लेने के लिए 14 फरवरी 1981 को अपने गिरोह के साथ बेहमई गांव में धावा बोल दिया और 20 लोगों को एक कतार में खड़ा करके नारे लगाते हुए गोली चला दी।



गांव के लोग हालांकि आज भी फूलन देवी के आरोपों को निराधार बताते हैं। गांव के एक बुजुर्ग व्यक्ति करीब 82 वर्षीय धर्मसिंह कहते हैं, “फूलन 50 लोगों के झुण्ड के साथ चलती थी। उसके साथ भला कोई कुछ कैसे कर सकता था। उस समय यहां डकैतों के गुट हुआ करते थे। फूलन देवी का अलग गुट, लालाराम श्रीराम का अलग गुट। दोनों में आपसी विवाद बौर रंजिश थी जिसका शिकार हमारा गांव हो गया। उसने हमारे गांव को इसलिए टार्गेट किया क्योंकि यह ठाकुर बहुल था। बेहमई बीहड़ का बहुत पिछड़ा गांव है। यहां उस समय बहुत डाकू आते थे। जो खाना मांगता था देना पड़ता था। न दो तो मार सहो।

धर्मसिंह बताते हैं, “फूलन को लगता था कि हम लोग लालाराम श्रीराम गैंग को सपोर्ट करते हैं, लेकिन हमारी मजबूरी थी। भैंस का दूध निकालते थे, तो डकैत पूरा दूध ले जाते थे। पचासों लोगों का खाना बनाना पड़ता था। उस समय के 10-15 साल बहुत मुश्किल से इसी डर में और गुलामी में गुजरे। हमारा छोटा गांव है। उस घटना में लगभग हर घर से कोई न कोई मरा था। पूरा गांव उजड़ गया था। सिर्फ बुड्ढे दिखते थे। नए लड़के तो बचे ही नहीं थे। जब से ये नई पीढ़ी आई है तब से इन्हें देखकर तसल्ली होती है नहीं तो पूरा गांव वीरान हो गया था। पर हमारी इस पीड़ा को कौन समझेगा?” 

इसी गांव के राजेश सिंह उस दौर में डकैतों के आतंक के बारे में बताते हैं, “पुलिस डकैतों से मिली हुई थी। अगर डकैतों को हम लोग खाना न दें तो पुलिस हम पर लाठियां बरसाती थी। दिनभर भैस चराते थे। जब भैंस दुहने का समय होता, चार डकैत आसपास खड़े हो जाते और पूरा दूध लेकर चले जाते। हमारे बच्चों तक को दूध नहीं मिलता था। इतना बीहड़ में गांव था कि इस गांव की कभी किसी ने सुध ही नहीं ली। हम लोग घटना के बाद महीनों खेत में छुपकर रहे। आप समझ लीजिए घटना के बाद 20-25 दिन नरक में गुजरे।” 



बेहमई हत्याकांड में घायल हुए अपने पिता के बारे में 37 वर्षीय वीर सिंह बताते हैं, “मेरे पिता को दो गोलियां लगी थीं। खैर, उनका इलाज चला और वो बच गए, लेकिन हमारे 25 साल के चाचा उस दिन स्कूल से पढ़ाकर लौटे थे और उनकी हत्या कर दी गई थी। ‘फूलन देवी की जय, चंडी देवी की जय’ के नारे लगाकर एक के बाद एक गोलियां चला दी थीं। जो लोग हिल-डुल रहे थे उनको उठाकर गोली मार दी। इतनी बड़ी घटना का जजमेंट तो तत्काल आना चाहिए था। इस मामले का फैसला आने में इतना वक्‍त कैसे लगा मुझे यह बात समझ नहीं आई। क्या 43 साल तक इस मामले को टालना चाहिए था? अब इस फैसले का मतलब क्या है?

बेहमई के लोग फूलन देवी पर बनाई शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन की भी निंदा करते हैं। ग्रामीणों का कहना है कि वे लोग कभी गांव आए नहीं, उनसे घटना के बारे में पूछा नहीं, गांव में फिल्म शूट भी नहीं हुई। वे कहते हैं कि सिर्फ पैसे की वजह से झूठी और मनगढ़ंत फिल्म बनाई गई है।

राजेश सिंह कहते हैं, ‘’जब से यह बैंडिट क्वीन फिल्म बनी तब से तो और बेइज्जती झेलनी पड़ती है।‘’

बेहमई कांड के बाद पुलिस फूलन देवी को कभी गिरफ्तार नहीं कर पाई। फूलन देवी ने मध्य प्रदेश पुलिस के सामने 1983 में अपनी कुछ शर्तों के साथ आत्मसमर्पण कर दिया था। फूलन देवी ने पुलिस के सामने यह शर्त रखी थी कि उनके गैंग के किसी व्यक्ति को फांसी न दी जाए, उनके पिता की जमीन वापस की जाए, उनके भाई-बहनों को सरकारी नौकरी दी जाए। सरकार ने फूलन देवी की ये शर्ते मान ली थीं।


फूलन का मुजरिम राजपूत नायक शेर सिंह राणा और बेहमई हत्याकांड की मुजरिम बहुजन नायिका फूलन देवी

फूलन देवी लगभग 12 साल जेल में रहने के बाद रिहा हुईं। उन्हें 1996 में समाजवादी पार्टी से टिकट मिला जिससे वे मिर्जापुर से लोकसभा चुनाव लड़ीं, दो बार सांसद बनीं और सांसद रहने के दौरान ही 25 जुलाई 2001 में शेर सिंह राणा ने उनकी सरेआम हत्या कर दी। दो दशक के अंतराल पर घटने वाले दो हत्‍याकांडों के रास्‍ते इतिहास ने फूलन और राणा दोनों को अपने-अपने तबके के लोगों का नायक बना दिया। इस तरह इतिहास ने खुद को दुहराया।

लेकिन हूबहू नहीं! फर्क यह है कि बीस लोगों की हत्‍या करने वाली फूलन अपने पीछे छोड़ गईं बेहमई नाम की एक अंतहीन त्रासदी, तो फूलन की हत्‍या के जुर्म में उम्रकैद की सजा के बावजूद आठ साल से जमानत पर राजनीति कर रहे राणा ने जीते जी न्‍याय का खुलेआम मजाक बना डाला। उसी न्‍याय ने अब बेहमई की त्रासदी को तमाशे में बदल दिया है। एक लंबी शोकसभा का ऐसा हास्‍यास्‍पद अंत भारतीय न्‍यायपालिका द्वारा खुद पर की गई याद रखी जाने लायक टिप्‍पणी है।  


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