पोप फ्रांसिस ने पोप के पद को बहुत प्रगाढ़ तरीकों से दोबारा परिभाषित किया था। कैथोलिक चर्च का शीर्ष धमार्चार्य होने के नाते उन्होंने औरतों और एलजीबीटीक्यू+ समुदायों के लिए उसे समावेशी बनाने पर काम किया। लैटिन अमेरिकी पादरी होने के नाते वे समूचे दक्षिणी गोलार्द्ध की आवाज बने और असीसी के संत फ्रांसिस से अपना नाम और प्रेरणा लेकर उन्होंने खुद को गरीबों और वंचितों के रहनुमा के तौर पर दुनिया के सामने पेश किया।
बारह साल तक पोप के पद पर फ्रांसिस के कार्यकाल के दौरान सबसे चौंकाने वाला और प्राय: नजरअंदाज किया गया एक पक्ष आर्थिक दृष्टा के रूप में उनके उभार का है। जिस दुनिया में अर्थशास्त्र के ऊपर बाजार, मॉडल और मेट्रिक्स का कब्जा हो, वहां फ्रांसिस ने एक बिलकुल अलग ही कसौटी पर जोर दिया: नैतिक कसौटी।
अपने कार्यकाल के दौरान फ्रांसिस ने वर्तमान में प्रचलित आर्थिक रूढि़वाद की प्रस्थानाओं को लगातार चुनौती दी। उन्होंने 2013 में एक उपदेश दिया था इवैंजेली गॉडियम, जिसमें मौजूदा आर्थिक व्यवस्था को कड़ी लताड़ लगाते हुए उन्होंने इसे ‘’बहिष्कार और असमानता की अर्थव्यवस्था’’ का नाम दिया था, एक ऐसी व्यवस्था जो उनके अनुसार ‘’मार’’ देती है।
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फ्रांसिस ने हालांकि पूंजीवाद के कई आलोचकों की तरह उसे सिरे से नकार देने का कोई आह्वान नहीं किया, बल्कि उन्होंने कहीं ज्यादा व्यावहारिक नजरिया अपनाते हुए अर्थशास्त्र के चिंतकों से आग्रह किया कि वे कहीं ज्यादा गहरे और बुनियादी सवाल उठाएं। जैसे, हमें किस किस्म के बाजार चाहिए? कौन उस पर राज करेगा और किस उद्देश्य से? वे न सिर्फ हमारी आर्थिक नीतियों पर दोबारा विचार करने का आह्वान कर रहे थे, बल्कि उन प्राथमिकताओं पर भी जो उन नीतियों को आकार देती हैं।
उन्होंने 2015 में एक परिपत्र जारी किया लॉडेटो सी, जिसमें एक कदम आगे जाते हुए वे पारिस्थितिकी और आर्थिकी पर अपनी आलोचनाओं को एक समग्र नैतिक दृष्टिकोण के भीतर मिलाते हैं। उसमें उन्होंने दलील दी थी कि जलवायु का पतन महज कोई नकारात्मक बाहरी चीज नहीं है जिसे प्रबंधित किया जाना है; यह उस अर्थव्यवस्था का अपरिहार्य परिणाम है जो प्रकृति को माल समझती है और गरीबों को हाशिये पर डालती है। इस चश्मे से देखने पर अर्थशास्त्र और पारिस्थितिकी दो अलहदा अकादमिक क्षेत्र नहीं दिखते, बल्कि नैतिक जिम्मेदारी के आपस में गुंथे हुए विषय हैं। उन्होंने परचे में लिखा, ‘’वे तमाम गरीब लोग जिनके साथ बुरा व्यवहार कर के उन्हें अकेला छोड़ दिया गया है, उनमें यह धरती सबसे गरीब प्राणी है।‘’
फ्रांसिस ने 2020 में हुए इकोनॉमी ऑफ फ्रांसेस्को सम्मेलन में युवा अर्थशास्त्रियों और उद्यमियों को इकट्ठा किया था और उन्हें एक ऐसी नई अर्थव्यवस्था पर विचार करने को कहा जिसकी जड़ें एकजुटता, न्याय और पारिस्थितिकीय दायित्व में हों। उनका संदेश बहुत स्पष्ट था: अब पुरानी व्यवस्था पर पैबंद लगाने से काम नहीं चलने वाला, एक नैतिक पुनर्स्थापना की जरूरत है।
फ्रांसिस के विचार उन नवक्लासिकी प्रस्थापनाओं के एकदम उलट खड़े दिखते हैं जो लंबे समय से आर्थिक नीति-निर्माण को निर्देशित-संचालित करती आ रही हैं। नवक्लासिकी अर्थशास्त्री मनुष्य को अलगाव में पड़ी एक ऐसी इकाई की तरह देखते हैं जिसके निर्णय पूरी तरह अपनी निजी उपयोगिता को अधिकतम बनाने पर टिके हैं, बिना दूसरों की परवाह या कल्याण की चिंता किए हुए। ये अर्थशास्त्री बाजार को ऐसी प्रणाली के रूप में देखते हैं जो मोटे तौर से खुद को खुद ही से दुरुस्त कर सकती है। पर्यावरणीय नुकसानों को वे ज्यादा से ज्यादा ऐसी तकनीकी समस्या मानते हैं जो अन्यथा एक सक्षम तंत्र के हाशिये पर पड़ी कोई चीज है।
ऐसे में फ्रांसिस कहीं ज्यादा प्रबल खतरे की पहचान करते हैं। उनके मुताबिक अर्थशास्त्र मनुष्य की समृद्धि को आगे बढ़ाने का अब औजार नहीं रह गया है बल्कि एक ऐसी विचारधारा बन चुका है जो एकजुटता को घिस-घिस कर खत्म कर रहा है और लोगों में उदासीनता को बढ़ावा दे रहा है। धर्मशास्त्रीय मुहावरे में कहें, तो फ्रांसिस जिस चीज को पहचान रहे थे वह महज अक्षमता या असंतुलन नहीं था बल्कि ‘पाप’ था- संरचनागत पाप, जो उन व्यवस्थाओं में घुसा हुआ है जिन्हें हम स्वाभाविक मानकर चलते हैं।
फ्रांसिस की आलोचना इतनी सटीक और चौंकाने वाली इसलिए है क्योंकि वह अर्थशास्त्र के तकनीकी पंडों-पुरोहितों वाले अकादमिक जगत से बाहर के आदमी हैं। बेशक, फ्रांसिस टैक्स दरों में कमी या कार्बन मूल्यांकन प्रणाली जैसी कोई चीज प्रस्तावित नहीं कर रहे थे, पर वे अर्थशास्त्र को नैतिकता की दार्शनिक बुनियाद की तरफ खींच रहे थे। साथ में खुद को उस मानवतावादी परंपरा के अंश के रूप में देख रहे थे जिसकी जड़ें आर्थिक विचार के इतिहास में बहुत गहरे तक जाती हैं। उसी परंपरा के वाहकों में एक हैं नोबेल विजेता अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिगलिज़, जिन्होंने यह उजागर किया है कि कैसे सूचना की असमानताएं बाजार की सक्षमता को विकृत करती है। उसी परंपरा में अमर्त्य सेन आते हैं जिनकी दलील है कि विकास ऐसा होना चाहिए जो इंसान की क्षमताओं को बढ़ाए, जीडीपी को नहीं। उसी परंपरा में डानी रोड्रिक भी आते हैं जो बाजारों के लोकतांत्रिक प्रशासन के हिसाब से दोबारा गढ़ने के पैरोकार हैं। थॉमस पिकेटी भी उसी परंपरा के अर्थशास्त्री हैं, जिन्होंने धन-संपदा के केंद्रीकरण की संरचनागत गति को अपने अध्ययनों में तार-तार कर के रख दिया है।
यहां तक कि एडम स्मिथ- जिन्हें मोटे तौर से मुक्त बाजार का जनक माना जाता है- उन्हें भी फ्रांसिस के विचारों में अपने विचारों की अनुगूंज सुनाई देगी। अपनी 1759 में आई पुस्तक द थ्योरी ऑफ मोरल सेंटिमेंट्स में स्मिथ ने चेताया था कि आर्थिक जीवन की जड़ें सहानुभूति, न्याय और नागरिक विश्वास की कसौटियों में होनी चाहिए।
एक नैतिक अर्थव्यवस्था की तलाश हमें अर्थशास्त्री सैमुएल बाउल्स जैसे विद्वानों के काम में भी दिखती है, जो तर्क देते हैं कि अगर संस्थाएं और प्रेरणाएं सुनियोजित हों तो वे समाज-अनुकूल व्यवहार को प्रोत्साहित कर सकती हैं। फर्क यह है कि बाउल्स जहां अर्थशास्त्र को एक आचार व्यवस्था मानते हैं जिसे दोबारा गढ़ा जाना है, वहीं फ्रांसिस उसे एक नैतिक व्यवस्था मानते हैं जिसे पापमोचन की जरूरत है।
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भ्रमित नैतिकता और खंडित नागरिकता के इस दौर में
नवक्लासिकी अर्थशास्त्रियों से उलट, फ्रांसिस केवल सामाजिक सहकार को बढ़ावा देने के प्रति चिंतित नहीं थे बल्कि वे लोगों की आत्मा को गढ़ने के लिए भी चिंतित थे। उनके विचार में बाजार की सफलता दांव पर नहीं लगी थी, बल्कि इंसानी प्रतिष्ठा, एकजुटता और खुद इंसान की रचना और इनका वजूद दांव पर लगा हुआ था। यह नैतिकता के लिए नैतिकता यानी कोरी नैतिकता का मसला नहीं है, बल्कि इस बात की तसदीक है कि आर्थिक जीवन हमेशा ही अपने साथ कुछ नैतिक चुनावों को लेकर आता है, भले ही हम उसे स्वीकार करें या न करें।
हर बजट, टैक्स संबंधी नीतियां और व्यापार के नियम व तंत्र कुछ न कुछ मूल्यों की झलक तो देते ही हैं। फ्रांसिस उन मूल्यों को अदृश्य बने रहने देने के खिलाफ थे। इस किस्म के हस्तक्षेप पर कुछ अर्थशास्त्रियों के बाल खड़े हो जाते हैं और वे इस बात पर जोर देते हैं कि कठोर चुनाव करने में अर्थव्यवस्थाओं की असली ताकत उनकी मूल्य-तटस्थता और तर्कसंगतता की कसौटी में निहित होती है, भावना में नहीं। यह दलील ही अपने आप में यथास्थिति पर सवाल करने के बजाय उसे बचाने वाला पक्ष चुनने की झलक देती है। यहां फ्रांसिस का हस्तक्षेप इस हकीकत को उजागर करता है कि तटस्थता वाला अर्थशास्त्रियों का दावा वास्तव में नैतिक जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने का एक रूप है, और कुछ नहीं।
खासकर एक ऐसे वक्त में जब अर्थशास्त्र के नवक्लासिकी मॉडल मनुष्यता के सामने मौजूद खतरों- जैसे, भयंकर असमानता, जलवायु संकट, राजनीतिक उथल-पुथल, और भीड़तंत्र के उभार- को न तो कायदे से समझा पा रहे हैं और न ही उनकी रोकथाम कर पा रहे हैं, फ्रांसिस का संदेश बहुत जरूरी लगता है। उनका संदेश हमारी नाकाम होती जा रही अर्थव्यवस्थाओं को भीतर से खाये जा रहे रोगों को सीधे संबोधित करता है। उन्होंने स्प्रेडशीट या रिग्रेशन टेबल जैसे सांख्यिकीय औजारों के माध्यम से अपना वैकल्पिक आर्थिक मॉडल सामने नहीं रखा था (जो कि आम तौर से ऐसी आर्थिक भाषा में बात करते हैं जिससे आम आदमी एकदम कट जाता है), लेकिन वे कुछ ज्यादा समझ में आने वाली एक स्वाभाविक चीज हमें देकर गए हैं: नैतिक कल्पना की क्षमता।
सबसे अहम बात यह है कि फ्रांसिस अर्थशास्त्र के दुश्मन नहीं थे। वे उसके संरक्षक थे, जो उसके अभ्यासियों को उनका भूला हुआ कर्तव्य याद दिला रहे थे- लोकमंगल के लिए काम करना। बेहतर हो कि अर्थशास्त्री लोग उनके संदेश को सुनें और बरतें। अगर 2000 साल पुरानी कैथोलिक चर्च जैसी एक संस्था खुद को बदल सकती है, तो एक आर्थिक सहमति क्यों नहीं टूट सकती जिसे प्रचलन में आए महज कुछ दशक हुए हैं।
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