RSS@100 : संविधान की छाया में चक्रव्यूह… संघ अब राजकीय नीति है, नारा नहीं!

RSS 100 years celebration in Nagpur
RSS 100 years celebration in Nagpur
राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ सौ साल का हो गया। ठीक उसी दिन, जब महात्‍मा गांधी की जयन्‍ती थी और दशहरा भी था। बीते लोकसभा चुनाव के बाद वाले एकाध महीने छोड़ दें, तो सौवें साल में संघ-शीर्ष तकरीबन शांत मुद्रा में ही रहा। यह मुद्रा विजयादशमी के एक दिन पहले वाकई राजकीय मुद्रा में तब्‍दील हो गई। गांधी-हत्‍या के बाद जिसे खोटा माना गया था, संघ का वह सिक्‍का 77 साल बाद चल निकला। भारतीय राष्‍ट्र-राज्‍य, लोकतंत्र, संविधान और सत्ताधारी दल के लिए इसके क्‍या निहितार्थ हो सकते हैं? पहले भी संघ पर यहां लिखने वाले व्‍यालोक ताजा संदर्भ में एक बार फिर रोशनी डाल रहे हैं

विजयादशमी, 2 अक्‍टूबर 2025 की सुबह जब सरसंघचालक अपने पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार स्वयंसेवकों को उद्बोधित करने पहुँचे, तब इन पंक्तियों के लेखक को पिछले वर्ष की विजयादशमी याद आ गयी। तब RSS यानि राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ अपने 100वें वर्ष में प्रवेश तो कर ही चुका था, लेकिन देश के राजनीतिक परिवेश में चल रहा संघ-विमर्श कुछ विवादी-अपवादी बयानों के चलते अलग ही दिशा में मुड़ा हुआ था।

याद करें, तो संघ-प्रमुख ने उससे पहले प्रतिनिधि-सभा में अंतर्मंथन की बात कह दी थी; नरेंद्र मोदीनीत भारतीय जनता पार्टी लोकसभा चुनावों में ‘अबकी बार, 400 पार’ का नारा देकर 240 पर सिमट चुकी थी और हवाओं में कयास लगाए जा रहे थे कि अब भाजपा और संघ का क्या होगा; लोकसभा चुनाव में भाजपा के तथाकथित राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा यह वक्तव्य दे चुके थे कि पूत के पाँव पालने से निकल चुके हैं यानी भाजपा अब अपना खयाल रखने में सक्षम है; कई लोग भाजपा की लोकसभा चुनाव में हार(?) के लिए संघ के स्वयंसेवकों की उदासीनता को जिम्मेदार ठहरा चुके थे; और भाजपा-संघ संबंधों पर मर्सिया और तबर्रा पढ़ने वाले भी ऊबचूब हो रहे थे।

बीते एक साल में गंगा और यमुना में बहुत गटर बहे। फिर, बीते दो दिनों में दो भाषण हुए- विजयादशमी के अवसर पर संघ-प्रमुख भागवत का, और उससे एक दिन पहले संघ के 100 वर्षों पर स्मृति-सिक्का जारी करने के दौरान (पूर्ण बहुमत से चुने गए) भारत के पहले पूर्णकालिक प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी का! दोनों की देहभाषा देखने लायक थी। भागवत काफी उत्फुल्ल, अपने चिरपरिचित गांभीर्य में मूँछों से मुस्कुराते हुए दिखे, जबकि प्रधानसेवक (जैसा कि प्रधानमंत्री खुद को कहते हैं) की आँखें और उनका चेहरा एक ऐसे बेटे का था जिसने अपने पिता के खिलाफ विद्रोह करने का सोचा तो था, लेकिन आखिरकार घर लौट आया है और अब पिता की विरासत को पूरी दुनिया के साथ बाँटने की कोशिश कर रहा है।


Narendra Modi launching postal ticket and coin on commemoration of 100 years of RSS

प्रधानमंत्री मोदी ने आरएसएस के 100 वर्ष पूरे होने पर 100 रुपये का स्मृति-सिक्का जारी करते हुए जो भाषण दिया, वह संघ को ‘संस्थागत सम्मान’ देने का प्रयास था। उन्होंने संघ को ‘भारत की आत्मा, सामाजिक सेवा का प्रतीक, और राष्ट्र निर्माण की धुरी’ बताया। मोदी का यह वक्तव्य संघ को ‘राजनीतिक विमर्श में केंद्र में स्थापित’ करता है। यह एक ‘संस्थागत पुनर्स्थापन’ है, जिसमें भाजपा अब संघ से दूरी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक समावेश का प्रदर्शन करती है। यह भाषण संघ को राज्य की छाया से निकालकर मंच पर लाने का प्रयास था।

मोदी का भाषण शायद उस चूक को ठीक करने का प्रयास भी था जो उन्होंने जेपी नड्डा के मुँह से वह (कु)ख्यात बयान दिलाकर कर दी थी, जिसमें भाजपा को संघ से स्वायत्त और खुदमुख्‍तार बता दिया गया था। इसके साथ ही, बड़े दिनों बाद मोदी पाँच-छह साल पहले वाली अपनी त्वरा, अपनी रौ में दिखे, जो शायद अपनी घर वापसी का असर था। भले ही उनकी आँखों में थकान थी और चेहरा निरुत्साह, लेकिन उनके वाक्यों ने वह असर जरूर किया जिससे इस देश के हरेक स्वयंसेवक को यह उत्साह मिला होगा कि अब नीति और नीयत के एक होने का समय आ गया है।

मोहन भागवत ने नागपुर में संघ के शताब्दी समारोह में जो भाषण दिया, वह ‘राष्ट्र की सुरक्षा, सामाजिक समरसता और वैचारिक दृढ़ता’ का घोष था। भागवत का भाषण संघ को ‘सुरक्षा नीति और सामाजिक समरसता’ के केंद्र में रखता है। इसमें संघ केवल सांस्कृतिक संगठन नहीं, बल्कि ‘राष्ट्र के नीति-निर्माण में भागीदार’ के रूप में प्रस्तुत होता है। यह भाषण संघ की रणनीतिक भूमिका को पुनर्परिभाषित करता है और एक दिन पहले दिए मोदी के भाषण से निकले संदेश को अभिपुष्‍ट करता है।

जब प्रधानमंत्री मोदी ने संघ के शताब्दी वर्ष पर 100 रुपये का स्मृति-सिक्का जारी किया, तो वह केवल एक औपचारिकता नहीं निभा रहे थे। वह एक संकेत दे रहे थे कि अब संघ केवल छाया नहीं, बल्कि मुद्रा है। यह सिक्का केवल धातु नहीं, बल्कि आधिकारिक रूप से संघ की विचारधारा की राजकीय वैधता है। यह वह क्षण था जब भारतीय राज्य ने संघ को केवल स्वीकार नहीं किया, बल्कि उसका उत्सव मनाया।

मोदी ने उस दिन संघ को भारत की आत्मा कहा। उन्होंने स्वयंसेवकों को निस्वार्थ सेवक बताया, जो आपदा में राहत देते हैं, समाज में समरसता लाते हैं, और राष्ट्र को दिशा देते हैं। यह प्रशंसा केवल भावनात्मक नहीं थी, यह रणनीतिक थी। यह वह भाषण था जिसमें भाजपा ने संघ को मंच पर आमंत्रित किया और कहा- अब तुम पीछे नहीं, साथ हो।

दूसरी ओर, मोहन भागवत का नागपुर भाषण एक घोषणापत्र था। उन्होंने जब पहलगाम की घटना का जिक्र किया, तो वह केवल दुख नहीं था, उनकी चेतावनी थी। भागवत ने कहा- ‘’यह हमला केवल आतंक नहीं था, यह धार्मिक चयन था’’, और फिर उन्होंने जोड़ा- ‘’सरकार ने जवाब दिया, सेना ने तैयारी दिखाई, और समाज ने एकता दिखाई’’। यह वाक्य नहीं, यह सत्ता का संतुलन था।

यहीं पर आकर पिछले एक साल का डाँवाडोल राजनीतिक मंथन एक वर्तुलाकार ले लेता है।

भारतीय राजनीति में कुछ रिश्ते ऐसे हैं जो जितने स्पष्ट दिखते हैं, उतने ही धुंधले भी होते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी का संबंध ऐसा ही एक द्वैध है- जहाँ एक ओर वैचारिक सामंजस्य की बात होती है, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक दूरी बनाए रखने की रणनीति भी चलती रहती है।

हालिया दिनों को छोड़ दें तो संघ हमेशा खुद को सांस्कृतिक संगठन बताता रहा है और भाजपा में अपने लोगों को ‘लोन’ पर देने की बात करता रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के हालिया भाषणों ने एक बार फिर उस प्रश्न को जीवंत कर दिया है, जिसे भारतीय राजनीति दशकों से टालती रही है- क्या भाजपा और संघ का रिश्ता केवल वैचारिक है, या यह सत्ता-संरचना का एक रणनीतिक समन्वय है?



संघ और भाजपा का रिश्ता वैसा तो नहीं ही है जैसा हमारे अखबारों में दिखता है। यह कोई वैचारिक सहोदरता नहीं, बल्कि सत्ता का चक्रव्यूह है जिसमें एक दिशा देता है, तो दूसरा गति। संघ मंच के पीछे खड़ा नहीं है। यह समझ गलत है। संघ तो मंच की रचना करता है। भाजपा केवल अभिनेता नहीं है। वह संघ की पटकथा का पात्र है।

हेडगेवार ने 1925 में जब संघ की नींव रखी, तब वह केवल संगठन नहीं बना रहे थे। वह एक वैचारिक भूगोल रच रहे थे। मुंजे की सैन्य कल्पना, गोलवलकर की सांस्कृतिक कठोरता, और देवरस की राजनीतिक चतुराई, तीनों ने मिलकर एक ऐसा ढांचा खड़ा किया जो दिखता तो स्वयंसेवक जैसा है, लेकिन सोचता सत्ता की तरह है। इसीलिए संघ का लक्ष्य कभी भी केवल सेवा नहीं रहा। उसका अंतिम उद्देश्य है भारतीय मानस पर नियंत्रण।

इसके लिए वह पाठ्यक्रम बदलना चाहता है, इतिहास की अपनी व्याख्या का पुनर्लेखन करना चाहता है, और समाज की आचार-नीति को बहुसंख्यकता से जोड़ना चाहता है। इसीलिए वह चुनाव तो नहीं लड़ता, लेकिन हर चुनाव पर उसकी छाया होती है। वह सरकार नहीं बनाता, लेकिन हर सरकार में उसकी गूंज होती है।

राम मंदिर आंदोलन ने संघ को वैचारिक ऑक्सीजन दी। भाजपा ने उसे वोट में बदला। संघ ने संस्कार में। मोदी युग में यह रिश्ता और पेचीदा हो गया। मोदी एक प्रचारक थे, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने संघ से एक प्रदर्श दूरी बनाई। यह दूरी वैसी ही है जैसे मंच पर अभिनेता और निर्देशक की होती है, जहां एक बोलता है और दूसरा निर्देश देता है।

अब, जब संघ अपने शताब्दी वर्ष को पार कर चुका है और भाजपा तीसरी बार सत्ता में है, तो यह सवाल फिर से उठता है- क्या संघ अब भी केवल विचारधारा का स्रोत भर है या वह सत्ता का सह-नियंता बन चुका है?

ठीक, यही वो समय है जब भाजपा और संघ को दूर से देखने वालों को समझना होगा कि अब नीति और नीयत एक है। संघ और भाजपा अब दो नहीं रहे, वे एकमेक हैं।

प्रधानमंत्री ने अपना भाषण भारत सरकार के संस्कृति-मंत्रालय के अधिकृत मंच से दिया। वह देश के प्रधानमंत्री और “हिंदू” होने का फर्क पहले ही मिटा चुके थे, जो इस देश में अब तक स्थापित सेकुलर, प्रगतिशील मान्यताओं की आँखों की किरकिरी भी है। अब उन्होंने “प्रधानमंत्री” और “प्रचारक” होने के झीने से परदे को भी नोंच फेंका है। बायीं तरफ या बीच वाले जो अलमबरदार स्वाति नक्षत्र में मुँह खोले सीप की तरह टकटकी लगाए सत्ता की मोती चुगने और भाजपा को सत्ता से बेदखल करने का हसीन सपना बुन रहे थे, उनके सारे ख्वाब गोया एक झटके में मिट्टी में मिल गए।  


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अगले दिन भागवत ने कहा कि देश को अब और सजग रहना होगा। उन्होंने सुरक्षा नीति, सामाजिक समरसता और वैचारिक दृढ़ता को एक साथ जोड़ दिया। यह भाषण वह क्षण था जब संघ वैश्विक अतिथियों के समक्ष उद्घोष कर रहा था कि ‘’हम केवल विचार नहीं, नीति हैं’’।

मोदी और भागवत के भाषणों में एक अदृश्य, किंतु अद्भुत समन्वय था। दोनों ने संघ को राष्ट्र-निर्माण की धुरी बताया। मोदी ने उसे सम्मान दिया, भागवत ने उसे दिशा दी। मोदी ने उसे मुद्रा दी, भागवत ने उसे मंत्र दिया। यह समन्वय केवल वैचारिक नहीं था, यह सत्ता-संरचना का पुनर्स्थापन था। भाषणों की यह जोड़ी एक नई राजनीतिक संरचना की नींव रखती है- जहाँ विचारधारा और सत्ता एक ही रथ पर सवार हैं। मोदी सारथी हैं, भागवत शंखध्वनि। भाजपा रथ है, संघ उसका चक्र।

संघ अब केवल विचारों का वितरक नहीं, नीतियों का निर्माता है। यानी, वह अब केवल शाखा में लाठी घुमाने वाला स्वयंसेवक नहीं, बल्कि मंत्रालयों में फाइलें घुमाने वाला निर्णायक है। भागवत का भाषण इस बात का संकेत है कि संघ अब सुरक्षा नीति, सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक दिशा के प्रश्नों पर केवल टिप्पणी नहीं, सक्रिय हस्तक्षेप करता है।

इन दो भाषणों की रोशनी में संघ की नई भूमिका अब तीन स्तरों पर स्पष्ट है: (क) नीति निर्माण में प्रत्यक्ष भागीदारी, यानी संघ अब शिक्षा नीति, इतिहास लेखन, और सुरक्षा रणनीति में प्रत्यक्ष रूप से शामिल है। वह केवल सुझाव नहीं देता, वह दिशा तय करता है; (ख) संस्थागत वैधता का विस्तार, यानी मोदी द्वारा स्मृति सिक्का जारी करना संघ को भारतीय राज्य की स्वीकृति देने का प्रतीक था। यह संकेत था कि संघ अब केवल एक सामाजिक संगठन नहीं, बल्कि राष्ट्र की संस्थागत संरचना का हिस्सा है; और (ग) वैचारिक समन्वय का सार्वजनिक प्रदर्शन- जब मोदी और भागवत दोनों ने संघ को राष्ट्र-निर्माण की धुरी बताया। यह सार्वजनिक प्रदर्शन अब केवल भाजपा के भीतर नहीं, बल्कि पूरे शासन-तंत्र में संघ की भूमिका को वैधता देता है।

यह पुनर्परिभाषा केवल भाषणों तक सीमित नहीं है। यह एक दीर्घकालिक रणनीति है जिसमें संघ और भाजपा दोनों अपने-अपने क्षेत्रों में कार्य करते हुए एक साझा वैचारिक और रणनीतिक लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। यह लक्ष्य है भारतीय मानस पर नियंत्रण, सांस्कृतिक पुनर्जागरण, और सत्ता के माध्यम से विचारधारा का प्रसार।

इसलिए संघ-भाजपा का रिश्ता अब केवल चुनावी सहयोग तक सीमित नहीं, वह दीर्घकालिक सत्ता-संरचना के उद्देश्‍य से है। यह कोई गठबंधन नहीं, बल्कि एक वैचारिक वास्तुशिल्प है- जिसमें संघ नींव है, भाजपा दीवार है, और सत्ता छत।

संघ ने कभी सत्ता की लालसा नहीं जताई, लेकिन उसने सत्ता की दिशा हमेशा तय की। वह नीतियों को प्रभावित करता है, मंत्रियों को प्रशिक्षित करता है, और विचारधारा को शासन में घोलता है। भाजपा इस विचारधारा को राजनीतिक भाषा में अनुवाद करती है- वोट, वादे और दृष्टि के माध्यम से। यह समन्वय अब केवल वैचारिक नहीं, वह संस्थागत है। संघ के आनुषंगिक संगठन- विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, वनवासी कल्याण आश्रम, संस्कृति भारती- सभी अब शासन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सक्रिय हैं। यह कोई छाया सरकार नहीं, बल्कि एक बहुस्तरीय वैचारिक नेटवर्क है।

मोदी सरकार की नीतियों में भी संघ की छवि स्पष्ट दिखती है: शिक्षा नीति में संस्कार और परंपरा का जोर, इतिहास लेखन में पुनर्पाठ और पुनरुत्थान, संस्कृति मंत्रालय में वैदिक पुनरागमन की योजना, सुरक्षा नीति में धार्मिक पहचान की भूमिका। यह सब केवल संयोग नहीं है। यह एक रणनीतिक पुनर्परिभाषा है जिसमें लोकतंत्र को बहुसंख्यक की आचार-नीति से जोड़ा जा रहा है। यह वह क्षण है जहाँ संविधान की व्याख्या अब केवल विधि नहीं, विचारधारा से प्रभावित हो रही है।

संघ का सबसे गहरा हस्तक्षेप वहां होता है जहाँ विचार स्थायी होते हैं- शिक्षा, संस्कृति और इतिहास। वह चुनावी घोषणापत्र नहीं लिखता, लेकिन पाठ्यक्रम तय करता है। वह नारे नहीं गढ़ता, लेकिन पीढ़ियों की स्मृति रचता है। संघ जानता है कि सत्ता क्षणिक है, लेकिन संस्कृति स्थायी। इसलिए वह पाठ्यपुस्तकों में प्रवेश करता है, पाठशालाओं में शाखा लगाता है, और विश्वविद्यालयों में वैचारिक पुनर्रचना करता है। वह इतिहास को पुनर्लेखित करता है- जहाँ अकबर की जगह महाराणा आता है, और मुगल की जगह मौर्य।

संघ की सांस्कृतिक रणनीति देश के भीतर तीन स्तरों पर काम करने लगी है:

एनसीईआरटी की किताबों में बदलाव, वैदिक गणित का प्रचार, और संस्कृत को अनिवार्य बनाने की कोशिश— यह सब केवल शैक्षणिक सुधार नहीं, वैचारिक पुनर्रचना है। यह वह प्रयास है जिसमें इतिहास को गौरव से, विज्ञान को परंपरा से, और समाजशास्त्र को धर्म से जोड़ा जाता है।

आइआइटी, आइआइएम, और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में संघ से जुड़े शिक्षकों और प्रशासकों की नियुक्ति अब सामान्य बात है। संघ के आनुषंगिक संगठन जैसे ‘शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास’ अब नीति-निर्माण में भागीदार हैं। यह केवल प्रशासनिक नियुक्तियाँ नहीं, यह वैचारिक घुसपैठ के साधन हैं।

संघ अब केवल दीपावली और होली नहीं मनाता, वह ‘गुरु पूर्णिमा’, ‘संस्कार सप्ताह’, और ‘भारतीय नववर्ष’ को राष्ट्रीय मंच पर लाता है। यह उत्सव नहीं, स्मृति निर्माण है जिसमें भारतीयता को संघ की परिभाषा में ढाला जाता है। यह सब मिलकर एक ऐसा मानस रचता है जिसमें राष्ट्र की कल्पना संघ के चश्मे से होती है; जहाँ भारत केवल भूगोल नहीं, वह संस्कृति है; जहाँ नागरिक केवल मतदाता नहीं, वह स्वयंसेवक है; जहाँ संविधान केवल विधि नहीं, वह परंपरा है। इसलिए संघ खुद अब केवल विचार नहीं, वह स्मृति है। वह अब केवल संगठन नहीं, वह संस्कार है। वह अब केवल शाखा नहीं, वह पाठ्यक्रम है।

यह दीर्घकालिक रणनीति अब केवल भारत तक सीमित नहीं है। वह अब संघ-पर्याय भारतीयता को वैश्विक मंच पर स्थापित करना चाहता है- संस्कृति के माध्यम से, प्रवासी नेटवर्क के जरिये, और विचारधारा के विस्तार द्वारा। यह कोई सांस्कृतिक भ्रमण नहीं, बल्कि रणनीतिक प्रसार है।

संघ जानता है कि भारत की सीमाओं से बाहर भी एक भारत है- प्रवासी भारतीयों के रूप में। वह अब न्यू जर्सी, लंदन, सिडनी और टोरंटो में शाखाएँ लगाता है। वह वहाँ दीपावली नहीं मनाता, वह भारतीयता का पुनर्पाठ करता है। संघ के आनुषंगिक संगठन जैसे विश्व हिंदू परिषद, हिंदू स्वयंसेवक संघ, और सेवा इंटरनेशनल अब विदेश में सक्रिय हैं। वे मंदिरों के माध्यम से सांस्कृतिक केंद्र बनाते हैं और प्रवासी युवाओं को भारतीयता की संघ-परिभाषा सिखाते हैं। यह केवल धर्म नहीं, यह विचारधारा का निर्यात है। संघ अब संयुक्त राष्ट्र, विश्व सांस्कृतिक सम्मेलन, और प्रवासी भारतीय दिवस जैसे मंचों पर अपनी छवि प्रस्तुत करता है। वह योग, आयुर्वेद और संस्कृत को वैश्विक ब्रांड बनाता है, लेकिन इन सबके पीछे उसकी वैचारिक छाया होती है। यह ब्रांडिंग नहीं, यह वैचारिक कूटनीति है।

संघ की परिभाषा में भारतीयता अब केवल नागरिकता नहीं, वह संस्कृति है। वह कहता है- तुम जहाँ भी हो, अगर तुम भारतीय मूल के हो, तो तुम्हारा कर्तव्य है भारत की संस्कृति को जीवित रखना। यह कर्तव्य केवल भावनात्मक नहीं, वह राजनीतिक है। मोदी इस वैश्विक रणनीति के सबसे प्रभावशाली वाहक और ब्रांड-एंबैसडर हैं।

इस परिवर्तन को समझने के लिए थोड़ा इतिहास की तरफ लौटना होगा। यह देखना होगा कि भाजपा और भाजपा के सर्वाधिक प्रभावशाली नेता और संघ के बीच के ये समीकरण आखिर यहाँ तक कैसे और क्यों पहुँचे हैं

आखिर, संघ जितना प्रभावशाली है उतना ही विवादास्पद भी। उसकी आलोचना केवल वैचारिक नहीं, ऐतिहासिक है। उसके ऊपर स्वतंत्रता आंदोलन में अनुपस्थित रहने का आरोप है, वह महात्‍मा गाँधी की हत्या के बाद प्रतिबंधित हुआ और आज भी कई लोग उसे लोकतंत्र के लिए खतरा मानते हैं। एक बड़ा वर्ग रहा है जो किसी के ‘संघी’ मात्र होने से उसकी मनुष्यता का निषेध करता रहा है; एक बड़ा वर्ग रहा है जो सिक्कों के जारी होने और भागवत के भाषण के बाद सदमे में आ गया होगा; लेकिन इस विरोध के बावजूद संघ की स्वीकार्यता बढ़ी है। यह विरोध और वैधता का द्वंद्व है जिसमें आलोचना सत्ता से टकराती है और सत्ता आलोचना को आत्मसात कर लेती है।


हिन्दुत्व के कल्पना-लोक में स्त्री और RSS के लिए उसके अतीत से कुछ सवाल


वामपंथी बुद्धिजीवी, दलित चिंतक, और अल्पसंख्यक संगठन संघ को सांस्कृतिक वर्चस्व का प्रतीक मानते हैं। वे कहते हैं- संघ बहुसंख्यकवाद को लोकतंत्र की जगह बैठाना चाहता है। संघ की ‘एक राष्ट्र, एक संस्कृति’ की अवधारणा को वे विविधता के विरुद्ध मानते हैं। कांग्रेस, वाम दल, और क्षेत्रीय दल संघ को निशाना बनाते हैं। वे उसे संविधान-विरोधी, अल्पसंख्यक-विरोधी, और लोकतंत्र के लिए खतरा बताते रहे हैं।

इसमें कुछ बातें सही हैं और कुछ अर्धसत्‍य। जो सही हैं, वे आरोप की शक्‍ल में कारगर नहीं हो पाती हैं क्‍योंकि वे बातें तो संघ खुद कहता और मानता रहा है। जो बातें अर्धसत्‍य हैं और संघ की आलोचना का बायस बनती हैं, वह आलोचना अब आलोचकों को चुनावी लाभ नहीं दे रही क्योंकि संघ की छवि अब केवल एक गैर-सरकारी संगठन की नहीं रही। उसकी छाया राष्ट्र-राज्‍य को अपनी जद में ले चुकी है।

वह इस हद तक, कि संघ अब केवल शाखा नहीं है वह नीति है; वह अब केवल स्वयंसेवक नहीं वह सांसद है; वह अब केवल विचार नहीं वह विधेयक है; और यह स्वीकार्यता केवल दस साल की सत्ता या सौ साल के जीवन के कारण नहीं आई, बल्कि समाज में उसकी पैठ के कारण है। संघ अब गाँवों में है, शहरों में है, विश्वविद्यालयों में है, और सोशल मीडिया पर भी है। वह अब केवल शाखा में लाठी नहीं घुमाता, वह ट्विटर पर ट्रेंड भी चलाता है।

संघ के विरोध और उसकी वैधता का द्वंद्व ही लोकतंत्र की नई परिभाषा रच रहा है। यहाँ विरोध केवल नैतिक मुद्रा है जबकि वैधता सत्ता की मुद्रा। संघ इस द्वंद्व को सहता नहीं, वह उसे दिशा देता है। संघ अब केवल विवाद नहीं, वह व्यवस्था है। वह अब केवल आलोचना का विषय नहीं, वह नीति का स्रोत है। वह अब केवल विरोध का कारण नहीं, वह वैधता का प्रतीक है।

संघ-भाजपा संबंध अब किसी रहस्य की तरह नहीं बचे हैं। वे अब सार्वजनिक हैं, संस्थागत हैं, और रणनीतिक हैं। मोदी और भागवत के भाषणों ने जो कहा, वह केवल शब्द नहीं थे- वे सत्ता की स्क्रिप्ट थे।

देखना होगा कि दोनों के संबंध की यह पुनर्परिभाषा भारतीय लोकतंत्र को किस दिशा में ले जाती है। क्या सत्ता और विचारधारा का यह समन्वय एक स्थायी और स्थिर संरचना बना पाएगा? क्या संघ की भूमिका अब संवैधानिक संस्थाओं में और प्रत्‍यक्ष व स्‍पष्‍ट परिलक्षित होगी? क्या यह समन्वय भारतीय राजनीति को एक नई वैचारिक स्थिरता देगा या यह सत्ता के केंद्रीकरण की ओर ले जाएगा?

इन प्रश्नों के उत्तर भविष्य में मिलेंगे, लेकिन इतना तो तय है कि संघ अब केवल छाया नहीं, वह मंच है। वह केवल मार्गदर्शक नहीं, वह निर्णायक है। वह अब केवल विचार नहीं, वह सत्ता है। और भाजपा? वह अब केवल राजनीतिक दल नहीं, वह संघ की रणनीतिक भुजा है और मोदी अब केवल प्रधानमंत्री नहीं, वह संघ की वैचारिक मुद्रा हैं। भागवत अब केवल सरसंघचालक नहीं, वह राष्ट्र-नीति के शिल्पकार हैं।

इसलिए, 2 अक्‍टूबर 2025 की तारीख से संघ-भाजपा संबंध विश्लेषण से बहुत आगे बढ़कर अब सार्वजनिक घोषणा बन चुके हैं।



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