कई बार इस बात का आजीवन अफसोस रह जाता है कि एक पत्रकार होने के नाते आपको किसी ऐसे शख्स से मात्र एक सवाल पूछने का मौका मिला जिससे आप आगे कभी नहीं मिलने वाले, और अपनी सहज मूर्खता में आप उस मौके को गंवा देते हैं। ‘’इस बार नोबेल मिला तो लेंगे?’’- यह विशुद्ध पत्रकारीय लेकिन निरर्थक सवाल मैंने न्गुगी [Ngugi wa Thiong’o] से पूछा था। जाहिर है, जैसा सवाल था वैसा ही जवाब भी। उन्होंने कहा था, ”क्या आप चाहते हैं कि मैं कहूं नहीं लूंगा?”
बीते 28 मई को गुजरे वंचित जन के सबसे बड़े और सच्चे वैश्विक लेखकों में से एक न्गुगी वा थ्योंगो से वह मेरा पहला और आखिरी सीधा संवाद था। उससे पहले भी हमने बहुत सी बातें की थीं, लेकिन समूह में- हिंदीवालों का होने के नाते जिसके लिए उतना ही समय आरक्षित किया गया था जितना अंग्रेजी के लेखक-प्रकाशक जरूरी समझते होंगे। यह 2018 की बात है जब न्गुगी पूरे 22 साल बाद भारत आए थे।
बीते दशकों में न्गुगी को हिंदी के पाठकों ने आनंद स्वरूप वर्मा के माध्यम से जाना, जिन्होंने सिलसिलेवार अफ्रीकी लेखकों के लिखे का अनुवाद कर के उन्हें पहली बार हिंदी में लाने का काम किया। उनके आगे यह काम कौन करेगा, यह सवाल अटका पड़ा है क्योंकि वर्मा जी बीते डेढ़ महीने से अस्पताल में गंभीर हालत में भर्ती हैं। हिंदी की दुनिया में लेखक और उसके अनुवादक दोनों की स्थिति तकरीबन बराबर उपेक्षा भरी दिखती है। चार दिन बाद भी न्गुगी की मौत पर गूगल केवल तीन समाचार हिंदी में दिखा रहा है जबकि हिंदी का व्यापक पाठकीय समाज अपने एक ऐसे पत्रकार, लेखक, संपादक व अनुवादक की बीमारी से गाफिल है जिसने न सिर्फ अफ्रीकी, बल्कि नेपाली, भूटानी, लातिन अमरीकी और चीनी-तिब्बती साहित्य को हिंदी में लाने का विपुल काम किया है।
दिल्ली में न्गुगी, फरवरी 2018
हिंदी के लेखक-पाठक समाज की स्थिति कुछ साल पहले भी इससे कोई बेहतर नहीं थी, लेकिन दिल्ली के एक सीमित बौद्धिक हलके में बहुत दिनों बाद किसी शख्स को लेकर न्यूनतम दिलचस्पी और हलचल बेशक दिखी थी जब मशहूर अफ्रीकी लेखक और बुद्धिजीवी न्गुगी वा थ्योंगो यहां आए थे। वह 21 फरवरी का खिला हुआ वसंती दिन था, जब न्गुगी से हिंदी के कुछ चुनिंदा लेखकों और पत्रकारों को मुलाकात का दुर्लभ मौका मिला। न्गुगी को भारत लाने वाले कलकत्ता के प्रकाशक सीगल पब्लिकेशन की ओर से दिन में 11 बजे के बाद का वक्त एक संक्षिप्त मुलाकात के लिए तय किया गया था।

दिल्ली आने वाले विदेशी लेखकों को बंधक बनाकर रखने की कुलीन बौद्धिक परंपरा का वह ताजा उदाहरण था जहां लेखक को न्योता देने वाले उस पर अपना कॉपीराइट मान बैठते हैं। बिलकुल इसी अंदाज़ में हमारा स्वागत इंडिया हैबिटैट सेंटर की छत पर हुआ था। उस वक्त न्गुगी बीबीसी को इंटरव्यू दे रहे थे और उनके हैंडलर यानी सीगल के प्रकाशक अचानक जुटे दर्जन भर हिंदीवालों को देखकर थोड़ा असहज हो उठे थे। वे बार-बार कह रहे थे कि आप लोग बाद में आइए।
दरअसल, मुलाकात सत्र का संयोजन न्गुगी को भारत लाने वाले सीगल प्रकाशन के नवीन किशोर को करना था। कवि मंगलेश डबराल के माध्यम से न्गुगी से मुलाकात के लिए कुछ वक्त की गुजारिश प्रकाशक से की गई थी, जिसके जवाब में कहा गया था कि प्रतिनिधिमंडल में पंद्रह से ज्यादा लोग नहीं हो सकते। ऐसा लोकतंत्र भारत में ही हो सकता है। बहरहाल, जब हिंदी के वरिष्ठ लेखक पंकज बिष्ट सहित आनंद स्वरूप वर्मा 11 बजे के आसपास न्गुगी से मिलने हैबिटैट सेंटर पहुंचे तो उनसे घंटा भर और इंतजार करने को कहा गया।
न्गुगी 11 बजे से पहले बीबीसी के पत्रकार को अपना इंटरव्यू दे रहे थे। पत्रकार उनसे भारत के बारे में, सोशल मीडिया के बारे में सवाल पूछ रहा था। सवालों का अंत इस सवाल से हुआ कि आपको हिंदुस्तानी खाने में क्या पसंद है। न्गुगी ने इसका जवाब दिया- परांठा। वे इंटरव्यू से उठे तो आनंद स्वरूप वर्मा उनसे मिलने गए और इसके बाद धीरे-धीरे तब तक पहुंचे हिंदी के लेखकों-पत्रकारों से उनकी एक अनौपचारिक भेंट हो गई। ऐसा लगा कि अब बैठकी हो सकेगी, लेकिन अचानक सुधन्वा देशपांडे आए और उन्हें इंटरव्यू करने के लिए फिर से कोने में उठा ले गए।
सुधन्वा के इंटरव्यू के बाद ही हिंदी के लेखक न्गुगी के साथ बैठ सके। मुलाकात की समय सीमा तय किए जाने के कारण न्गुगी से लेखकों की खास बात नहीं हो सकी। मंगलेश जी ने सबका स्वागत किया और कुछ देर आनंद स्वरूप वर्मा ने न्गुगी के काम के बारे में बताया, कि कैसे और क्यों वे जेम्स न्गुगी से न्गुगी वा थ्योंगो बने। फिर न्गुगी ने करीब पंद्रह मिनट तक अपने काम के बारे में बताया। न्गुगी उस समय 80 साल के हो रहे थे और उनकी आंख से कम दिख रहा था क्योंकि एक ऑपरेशन के दौरान उन्हें सुइयां चुभोई गई थीं। इसके कारण थोड़ी देर एकाग्र रहने के बाद उन्हें कुछ देर का अवकाश लेना पड़ रहा था।
सवाल पूछने वाले
न्गुगी वा थ्योंगो को औपनिवेशीकरण पर उनके बौद्धिक काम के लिए जाना जाता है। न्गुगी को 2016 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिलते-मिलते रह गया था, जिसके विरोध में बाद में कुछ तीखी प्रतिक्रियाएं भी देखने में आई थीं। अपने क्रांतिकारी विचारों के लिए उन्हें केनिया से 22 साल का लंबा निर्वासन झेलना पड़ा था।
दिल्ली का तो हम देख ही रहे थे जहां उनसे मिलने दर्जन भर लोग पहुंचे थे, लेकिन न्गुगी को सुनने के लिए सामान्यत: दुनिया भर में लोग उमड़ते रहे हैं। फ्रांत्ज़ फेनन की मार्क्सवादी परंपरा के बुद्धिजीवी न्गुगी दिल्ली आने से पहले अपनी किताब के अनुवाद के लोकार्पण के सिलिसिले में हैदराबाद गए थे। उनकी पुस्तक ”ड्रीम्स इन अ टाइम ऑफ वॉर” का तेलुगु संस्करण वहां लोकार्पित किया गया था जिसका अनुवाद उस समय जेल में बंद दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जीएन साईबाबा ने किया था। अब साईबाबा भी नहीं हैं, वे जेल से छूटने के बाद ज्यादा दिन नहीं टिक पाए थे।
न्गुगी पहली बार साईबाबा और क्रांतिकारी कवि वरवरा राव के संपर्क से ही 1996 में भारत आए थे। उस वक्त तक हिंदी में न्गुगी को जानने वाले नहीं होते थे। आज हिंदी का पाठक यदि न्गुगी के नाम और काम से परिचित है तो उसका श्रेय उनका पहली बार हिंदी में अनुवाद करने वाले पत्रकार आनंद स्वरूप वर्मा को जाता है। उन्हीं के माध्यम से 2018 की वह मुलाकात भी मुमकिन हो सकी थी, जिसमें कवि मंगलेश डबराल ने अहम भूमिका निभाई थी।


आनंद स्वरूप वर्मा नब्बे के दशक के अंत में जब अफ्रीका गए थे, तो वहां से लौटने पर अफ्रीकी साहित्य पर उन्होंने प्रचुर काम किया। उससे पहले हालांकि न्गुगी की ख्याति एक ऐसी घटना से हुई थी जिसका उदाहरण समकालीन दुनिया में नहीं मिलता। उनके एक उपन्यास के किरदार के खिलाफ ही सरकार ने गिरफ्तारी का वारंट निकाल दिया था। कोई औपन्यासिक किरदार इतना सजीव हो जाए कि सरकार उससे डरने लगे, यह लेखक की लोकप्रियता और समाज पर उसकी पकड़ का जबरदस्त साक्ष्य है। आनंद स्वरूप वर्मा ने इस उपन्यास के बारे में बहुत विस्तार से लिखा है।
न्गुगी का यह उपन्यास ‘मातीगारी’ 1986 में गिकुयू भाषा में प्रकाशित हुआ था। यहां यह जानना जरूरी है कि 1982 और 1986 के बीच केन्या में अनेक लेखकों और बुद्धिजीवियों को या तो जेल में डाल दिया गया था या उन्हें इस बात के लिए मजबूर कर दिया गया था कि वे देश छोड़कर चले जाएं। दमन का स्वरूप ऐसा था कि छात्रों और अध्यापकों के बीच चल रहे विचार-विमर्श की भी डैनियल अरप मोई की सरकार की खुफिया एजेंसियां निगरानी करती थीं।
‘मातीगारी’ का नायक मातीगारी मा न्जीरूंगी (जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘वह देशभक्त जिसने गोलियां झेली हों’) अपने दुश्मनों– एक गोरे सेटलर और उसके दलाल एक काले केन्याई का सफाया करने के बाद वापस अपने गांव लौटता है। आजादी मिलने की जानकारी पाने के बाद उसने अपने हथियार हमेशा के लिए रख दिए थे और सुख-शांति की जिंदगी जीने के इरादे से गांव में रहने का फैसला किया था। उसे यह देखकर बहुत बेचैनी होती है कि कहने के लिए केन्या को आजादी तो मिल गई लेकिन कुछ सतही तब्दीलियों के अलावा देश में कुछ भी नहीं बदला। देश की हालत देखकर वह लगभग अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में देशभर में घूमता है और लोगों से सच्चाई तथा न्याय के बारे में सवाल पूछता है।
नाटकीय तत्वों से भरपूर और व्यंजनापूर्ण शैली में लिखे गए इस उपन्यास में मातीगारी देश के विभिन्न तबकों–राजनेताओं, छात्रों-अध्यापकों, पादरियों आदि से सवाल पूछता है। वह बसों में, ट्रेनों में, होटलों में, चर्च में हर जगह सत्य ओर न्याय की तलाश करते हुए सवाल पूछता रहता है। दिलचस्प है कि जिस लेखक की ख्याति उसके सवाल पूछने वाले किरदार से बनी, उस लेखक से सवाल पूछने का हमें वक्त ही नहीं दिया गया।
महज तीन-चार सवाल लिए गए। पत्रकार राजेश जोशी और पंकज बिष्ट ने भाषा और संस्कृति से जुड़े सवाल पूछे। प्रश्न सत्र शुरू होने पर न्गुगी से पहला सवाल पूछे जाते ही सुधन्वा देशपांडे कमरे में सरकारी अधिसूचना की तरह प्रकट हुए, कि वक्त खत्म हो रहा है। सभा का संचालन कर रहे मंगलेश डबराल ने इसको भांप लिया और पहले ही सबको समय के प्रति आगाह करते हुए ज्यादा सवाल नहीं लिए। फिर भी अंत तक सुधन्वा इस भाव में वहां डटे रहे गोया लेखक का कहीं अपहरण न हो जाए। आखिर विदेशी मामला जो था!
मातीगारी: वह किरदार जिससे डर गई सरकार
बहरहाल, वापस मातीगारी के सवाल पर आते हैं। आगे की कहानी आनंद स्वरूप वर्मा के शब्दों में है जो पूर्व-प्रकाशित है। न्गुगी का यह उपन्यास तीन भागों में है। बीच-बीच में उस अनाम देश के रेडियो वॉयस ऑफ ट्रुथ से खबरें प्रसारित होती रहती हैं। उन खबरों में सरकारी नीतियों का प्रायः गुणगान होता है और बताया जाता है कि किस तरह देश में विकास को बाधा पहुंचाने वाली ताकतें सक्रिय हो रही हैं।
मातीगारी एक देशभक्त है जिसका काफी समय जंगलों में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के खिलाफ लड़ाई में बीता है। यह खबर सुनकर कि देश अब आजाद हो गया, वह वापस लौटता है और अपनी एके-47 राइफल तथा सारे हथियार एक पेड़ के नीचे जमीन में गाड़ देता है और कमर में शांति की पेटी बांध लेता है। वह संकल्प करता है कि अब समस्याओं का समाधान शांतिपूर्ण तरीके से करेगा, लेकिन देश की हालत देखकर वह बेचैन है कि अब भी सारी संपदा विदेशी मालिकों के हाथ में ही केंद्रित है और इस काम में उनकी मदद के लिए काली चमड़ी वाले कुछ देशी दलाल पैदा हो गए हैं जो हर क्षेत्र में सक्रिय हैं। लोग सत्ता के भय से ग्रस्त हैं। उसे हर तरफ अन्याय दिखाई देता है और वह सत्य और न्याय की खोज में भटकता रहता है। उसकी इस तलाश में बहुत सारी घटनाएं होती हैं जिनसे वह इस नतीजे पर पहुंचता है कि ‘पीड़ितों के लिए न्याय लोगों की संगठित सशस्त्र शक्ति से ही मिलता है।’

उपन्यास के तीसरे भाग में आजादी से उसका मोहभंग एक विस्फोटक रूप ले लेता है। एक अध्यापक से बातचीत में वह कहता है कि “जिस देश में बहुत अधिक भय होता है, वह देश दुखों का घर बन जाता है। पापात्मा को शांत करने के लिए यदि बलि दी जाय तो वो शांत नहीं होती बल्कि इससे उसकी भूख और लालच और बढ़ जाती है…।”
उसके सवालों का जवाब चर्च का पादरी भी नहीं दे पाता, जिससे वह पूछता है कि अगर भगवान है तो इतना अन्याय क्यों है? उपन्यास के अंत में वह तय करता है कि उसे दूसरी आजादी के लिए एक बार फिर हथियारों की पेटी बांधनी पड़ेगी और जंगल की ओर लौटना पड़ेगा। अपने साथी मुरिउकी और गुथेरा से वह कहता हैः
मेरी एक बात सुनो, चाहे वे हमें जेल में डालें, पकड़े या मार दें, वे हम मेहनत करने वालों को उनके खिलाफ लड़ने से कभी नहीं रोक सकते जो केवल हमारी मेहनत पर पलते हैं। उत्पादकों और परजीवियों के बीच कभी भी शांति, एकता या प्यार नहीं हो सकता। कभी नहीं। मान लो अगर हमारे बुजुर्ग ऐसे ही अंधे, बहरे और बेजुबान होते तो आज हम कहां होते? कल, हां कल तक मुझे यह विश्वास था कि अगर मैं शांति की पेटी बांध लूं तो मैं इस देश में सत्य और न्याय प्राप्त करने के काबिल हो जाऊंगा क्योंकि यह कहा जाता है कि सत्य और न्याय किसी भी सशस्त्र बल से कहीं अधिक ताकतवर होते हैं; कि बातचीत और शांतिपूर्ण ढंग से परास्त किया गया दुश्मन कभी लौटकर वापस नहीं आता। लेकिन इस तरह की सोच के कारण मेरा क्या हश्र हुआ? पहले जेल में और फिर मानसिक रोगियों के अस्पताल में। अगर तुम दोनों न होते तो मैं आज कहां होता? अभी भी जेल में, या मानसिक रोगियों के अस्पताल में होता। पिछली रात से मैंने अब एक नया पाठ सीखा है। दुश्मन को सिर्फ शब्दों के द्वारा नहीं भगाया जा सकता– इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपका तर्क कितना मजबूत है। और न ही केवल हथियार के द्वारा ही दुश्मन को भगाया जा सकता है। लेकिन सशस्त्र बल के साथ अगर सत्य और न्याय के शब्द भी हों तो निश्चित रूप से दुश्मन को हराया जा सकता है। जब न्याय और शक्ति एक ही तरफ हों तब कौन दुश्मन ठहर सकता है? शिकारी जानवरों द्वारा शासित बीहड़ में, या चोरों, कातिलों और डाकुओं द्वारा चलाए जा रहे बाजार में, उत्पीड़ित लोगों को केवल सशस्त्र एकता से ही न्याय मिल सकता है।
न्गुगी ने अपने इस उपन्यास में भ्रष्ट सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए सशस्त्र संघर्ष पर जोर दिया है। चर्च के पादरी के साथ मातीगारी का जो संवाद होता है उससे धर्म और न्याय-अन्याय के पहलुओं पर एक सार्थक बहस सामने आती है।
इस उपन्यास को केन्या में बहुत प्रचार मिला और जिन लोगों ने भी इसे पढ़ा वे इसके बारे में एक दूसरे से चर्चा करने लगे और उन्हीं सवालों को दोहराने लगे जिन्हें मातीगारी लोगों से पूछता था। हालत यह हो गई कि मातीगारी को लोग औपन्यासिक चरित्र न मानकर वास्तविक चरित्र मानने लगे। यहां तक कि तत्कालीन राष्ट्रपति अरप मोई के गृह मंत्रालय ने मातीगारी की गिरफ्तारी का आदेश जारी कर दिया। पुलिस को जब पता चला कि मातीगारी महज उपन्यास का एक पात्र है तो उसकी बौखलाहट और भी ज्यादा बढ़ गई। नतीजतन फरवरी 1987 में ‘मातीगारी’ की प्रतियां न केवल दुकानों और गोदामों से बल्कि लोगों के घरों पर छापे डालकर भी जब्त की गई। उसका अंग्रेजी अनुवाद केन्या से बाहर काफी पढ़ा गया।
किसी उत्तर औपनिवेशिक अथवा नवऔपनिवेशिक राज्य में सवाल पूछने वाले किसी व्यक्ति को किन विषम स्थितियों का सामना करना पड़ता है, इसका सर्वोत्तम उदाहरण यह उपन्यास है। उससे पहले भी 1977 में न्गुगी को अपने जिस नाटक के मंचन के कारण जेल जाना पड़ा और सरकारी दमन का सामना करना पड़ा था, वह भी गिकुयू भाषा में लिखा गया था। उस नाटक का भी बाद में ‘आइ विल मैरी वेन आइ वांट’ नाम से अंग्रेजी में अनुवाद हुआ।
अपने नाटक और उपन्यास के लिए 1977 में जिस समय न्गुगी को गिरफ्तार किया गया, डैनियल अरप मोई देश के रक्षा मंत्री और जोमो केन्याटा केन्या के राष्ट्रपति थे। जोमो केन्याटा की एक जुझारू राष्ट्रवादी नेता की छवि थी लेकिन सत्ता में आने के बाद केन्याटा का चरित्र कैसे बदला इसका उदाहरण न केवल न्गुगी की गिरफ्तारी में बल्कि बेशुमार दमनात्मक कार्रवाइयों में देखा जा सकता है।
जो भी हो ‘मातीगारी’ ने केन्या की जनता को जागरूक बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इससे बड़ी बात क्या होगी कि उपन्यास के किसी पात्र से राज्य इस हद तक डर जाय कि उसकी गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दे।
खून की पंखुड़ियां
उन्हीं दिनों उनका उपन्यास ‘पेटल्स ऑफ ब्लड’ भी प्रकाशित हुआ था जिसमें केन्या के नए शासकों की तीखी आलोचना थी। संयोग है कि फरवरी 2018 में जब हम न्गुगी से मिले, उससे ठीक पहले ही आनंद स्वरूप वर्मा ने इसका अनुवाद किया था। गार्गी प्रकाशन से छपे उस अनुवाद ”खून की पंखुड़ियां” की प्रति वर्मा जी ने न्गुगी को अपने हाथों से भेंट की।

इस अनुवाद की भूमिका में आनंद स्वरूप वर्मा लिखते हैं:
‘’‘पेटल्स ऑफ ब्लड’ का प्रकाशन 1977 में हुआ था। उपन्यास के केंद्र में चार प्रमुख पात्र- मुनीरा, करेगा, वान्जा और अब्दुल्ला हैं। देश के दो बड़े व्यापारियों और एक शिक्षाविद की हत्या के इर्द-गिर्द पूरी कहानी घूमती है। मुनीरा एक स्कूल टीचर है जो अपने संपन्न मां-बाप से अलग होकर इलमोरोग नामक एक छोटे कस्बे में बच्चों को पढ़ाता है। अब्दुल्ला एक दुकानदार है जो किसी जमाने में माऊ माऊ आंदोलन का योद्धा था और संघर्ष में अपना एक पैर गंवा चुका था। वान्जा एक बारमेड है जो बाद में वेश्या हो जाती है। करेगा एक उत्साही नौजवान है जो शुरू में मुनीरा के स्कूल में पढ़ाने का काम करता है और फिर आगे चलकर मजदूरों को संगठित करने में लग जाता है। किमेरिया, चुई और नदेरी वा रेरा सत्ता से जुड़े हुए लोग हैं जिन्होंने आजादी की लड़ाई में कभी हिस्सा नहीं लिया लेकिन नए केन्या का सारा लाभ वे उठा रहे हैं। समूचा उपन्यास नवउपनिवेशवाद की चपेट में पड़े केन्या की एक दर्दनाक तस्वीर पेश करता है।
न्गुगी के अन्य उपन्यासों की तरह इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में भी माऊ माऊ आंदोलन है जो मूलतः किसान आंदोलन था और जिसने अंग्रेजों को केन्या छोड़ने के लिए विवश किया था। एक इंटरव्यू में न्गुगी ने बताया था कि ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने इस आंदोलन का न केवल अपने हथियारों से दमन किया बल्कि इसके खिलाफ उन्होंने भाषा के हथियार का भी इस्तेमाल किया। न्गुगी का कहना है कि ‘‘अंग्रेजों ने इस आंदोलन का नाम माऊ माऊ दिया क्योंकि इस शब्द का कोई अर्थ ही नहीं है। इस नामकरण के साथ वे इस आंदोलन को भी एक अर्थहीन आंदोलन बतलाना चाहते थे। इस आंदोलन से जुड़े योद्धा अपने आंदोलन को ‘भूमि और मुक्ति सेना’ कहते थे लेकिन अगर इस नाम को प्रचारित किया जाता तो इससे आंदोलन की अर्थवत्ता प्रकट होती।’ इस आंदोलन में न्गुगी के एक भाई की भी जान गई थी और उनकी मां को भी तीन महीनों तक जेल में रहना पड़ा था।‘’
इस उपन्यास से पहले न्गुगी के तीन उपन्यास ‘वीप नॉट चाइल्ड’, ‘ए रीवर बिट्वीन’ और ‘ए ग्रेन ऑफ व्हीट’ प्रकाशित हो चुके थे और इन पर लेखक के रूप में ‘जेम्स न्गुगी’ छपा था। न्गुगी का कहना है कि जिन दिनों वह प्राइमरी स्कूल में थे और उनके मां-बाप ने उन्हें ईसाई धर्म में दीक्षित किया, उनका नाम जेम्स न्गुगी रखा गया। जब उन्होंने यह महसूस किया कि यह तो उपनिवेश का एक बोझ है, उन्होंने अपने नाम में से ‘जेम्स’ हटा दिया। लेखन के क्रम में ही जब उन्हें यह आभास हुआ कि उनकी अंग्रेजी में लिखी हुई पुस्तकें अफ्रीकी जनता के किसी काम की नहीं हैं तो फिर उन्होंने अंग्रेजी में लिखना बंद कर दिया और अपनी स्थानीय गिकुयू भाषा में लिखने लगे। ‘पेटल्स ऑफ ब्लड’ अंग्रेजी में लिखा गया उनका आखिरी उपन्यास था। इसके बाद उनकी जो भी पुस्तकें दुनिया के सामने आईं वे मूलतः गिकुयू में लिखी गई हैं और फिर उनका अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है।
दिलचस्प बात यह रही कि न्गुगी से मिलने गए तकरीबन सभी लेखक-पत्रकारों ने ‘’पेटल्स ऑफ ब्लड’’ के अनुवाद ”खून की पंखुडि़यां” पर ही न्गुगी के दस्तखत लिए। पुस्तक के प्रकाशक दिगंबर भी मौके पर मौजूद थे। फिर एक मौके पर जब न्गुगी किताबों पर दस्तखत कर के उठे थे और खड़े-खड़े हमसे बाते कर ही रहे थे, कि आयोजक आए और बोले, ‘अब न्गुगी के खाना खाने का वक्त हो गया है। इन्हें जाना होगा।” तभी उनके जाते-जाते मैंने अपना सवाल पूछा था- इस बार नोबेल मिला तो लेंगे?

मैकाले का भारत, मिशेल का केन्या
बीते वर्षों न्गुगी को लगातार नोबेल पुरस्कार की दौड़ में बताया जाता रहा है लेकिन उन्हें यह पुरस्कार नहीं मिल सका। वे नोबेल सम्मान के सर्वाधिक उपयुक्त पात्र माने जाते रहे जो 2016 में उन्हें मिलते-मिलते रह गया था।
न्गुगी के निधन पर अंग्रेजी में आए दर्जनों लेखों में इस बात का लगातार जिक्र है कि कैसे उन्हें नोबेल नहीं मिला। किसी ने भी इस बात का खुलकर जिक्र या स्वीकार नहीं किया है कि न्गुगी द्वारा उपनिवेशवादियों की भाषा को ठुकराकर अपनी मूल भाषा में लिखने का फैसला ही शायद उन्हें नोबेल न मिलने का कारण रहा होगा। उपनिवेश की राजनीति और भाषा का कितना करीबी संबंध है, इसे हम अपने देश में हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी के समानांतर सफर से समझ सकते हैं।
इस संदर्भ में आनंद स्वरूप वर्मा द्वारा लिखी ‘खून की पंखुड़ियां’ की भूमिका का यह अंश पढ़ा जाना चाहिए:
‘’1999 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय में दिए एक भाषण में न्गुगी ने भारत को अंग्रेजों की सामाजिक प्रयोगशाला बताते हुए कहा कि इस प्रयोगशाला से निकले नतीजों का उन्होंने अन्य उपनिवेशों में निर्यात किया। इस संदर्भ में वह मैकाले द्वारा शुरू की गयी शिक्षा पद्धति का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि इसका मकसद‘ व्यक्तियों का एक ऐसा समूह पैदा करना था जो रंग-रूप में तो भारतीय हो लेकिन अपनी रुचियों, विचारों, नैतिक मूल्यों और मेधा में अंग्रेज हो।’ इसके ठीक 87 वर्ष बाद केन्या के तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर सर फिलिप मिशेल ने मैकाले की इन्हीं नीतियों का अनुसरण किया। उन्होंने माऊ माऊ छापामार सेना के विरुद्ध सशस्त्रा अभियान को मजबूती देने के लिए एक नैतिक अभियान चलाने के रूप में अफ्रीकी शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी भाषा के प्रभुत्व की नीति तैयार की और उन्होंने देखा कि इस नयी भाषा की शिक्षा से एक ऐसे ‘सभ्य राज्य’ का निर्माण हो सकेगा ‘जिसमें सभी मूल्य और मानक वहीं होंगे जो ब्रिटेन के हैं, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की, चाहे उसका मूल कुछ भी हो, दिलचस्पी होगी और वह इसका एक अंग होगा।
मैकाले और मिशेल की समानता को दिखाते हुए न्गुगी ने टिप्पणी की है– ‘‘दोनों मामलों में यानी 19वीं शताब्दी के मैकाले के भारत में और 20वीं शताब्दी के मिशेल के केन्या में संदर्भ औपनिवेशिक था और लक्ष्य बहुत स्पष्ट थे। जिस प्रकार सैनिक क्षेत्र में औपनिवेशिक शक्तियों ने एक देशज सेना का निर्माण किया था जिसे उन्होंने शेष जनता से अलग-थलग कर दिया था और जो उन्हीं ताकतों का साथ दे रही थीं जिन्होंने उन्हें गुलाम बनाया था, उसी प्रकार मस्तिष्क के क्षेत्र में भी किया गया–शासित लोगों के बीच से एक बौद्धिक सेना का निर्माण जो आम लोगों से अलग-थलग हो और शासकों की मदद करे। आप खुद के लिए न हो कर दूसरे के लिए होने की अवस्था में पहुंच जायं और इस प्रकार अपने खुद के अस्तित्व के खिलाफ खड़े हो जायं।
न्गुगी वा थ्योंगो के लेखों और उपन्यासों को पढ़ते समय ऐसा नहीं लगता कि आप केन्या के बारे में पढ़ रहे हैं। उनकी स्थापनाएं न केवल केन्या पर बल्कि भारत जैसे तीसरी दुनिया के किसी भी देश पर सटीक बैठती हैं जहां का शासक वर्ग आज अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व व्यापार संगठन तथा इनके द्वारा पोषित बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों देश को गिरवी रखने में तनिक भी संकोच नहीं कर रहा है, जहां एक खास तरह का फासीवाद सिर उठा रहा है और जहां एक ऐसी संस्कृति को प्रश्रय दिया जा रहा है जो हमारी प्रतिरोध क्षमता को पूरी तरह नष्ट कर दे।‘’

शायद इसीलिए, जो लोग भाषा और उपनिवेशवाद के संदर्भ में अपने समाज और देश के लिए न्गुगी का महत्व समझ रहे थे वे उनसे मिलने बड़ी शिद्दत से पहुंचे थे। गलत सवाल पूछने का निजी अफसोस एक तरफ, लेकिन हम सबका सामूहिक अफसोस यह रह गया कि विश्व के महानतम क्रांतिकारी लेखकों में से एक, उत्पीड़ित मानवता की मुक्ति के विचारक, न्गुगी वा थ्योंगो उस दिन दिल्ली के ऐसे प्रकाशक-वणिक गिरोह तक सीमित होकर रह गए जिसके ककहरे में वर्ग-संघर्ष एक विलुप्त भाषा का पद बन चुका है।
एक वक्त को तो लग रहा था कि न्गुगी वा थ्योंगो के चाहने वालों को उनसे मिलने का मौका ही नहीं मिल पाएगा। मुलाकात तो हुई, लेकिन संवाद नहीं हो सका। जो नहीं मिल सके, वे तो अफसोस में थे ही लेकिन जो मिलने गए, उन्हें दर्शन और दस्तखत के अलावा कुछ खास हाथ नहीं लगा। यहीं दिल्ली में बुद्धिजीवी तारिक अली रहे हों या गायत्री स्पीवाक या फिर एजाज़ अहमद और स्लावोइ जीजेक, इन सबका भारत आना कभी भी हिंदी के लेखकों-पाठकों के लिए सुखद नहीं रहा है जबकि हिंदी के बौद्धिक समाज को ऐसे विचारकों की सबसे ज्यादा जरूरत है।
और अफसोस…
इंडिया हैबिटैट सेंटर से लौटते वक्त मंगलेश जी कह रहे थे कि इस देश में उपनिवेशों के बहुस्तर हैं। यह देश कितनी बार कितनों की कॉलोनी बन चुका है। बात-बात में सवाल आया कि आखिर किस-किस कॉलोनी से लड़ा जाए? हवा में उछला वह सवाल अब तक कायम है।
सात साल हो गए, इस बीच मंगलेश डबराल भी नहीं रहे। न्गुगी वा थ्योंगो के अनुवादक साईबाबा जेल में कुछ वर्ष बिताकर आखिरकार गुजर ही गए। आनंद स्वरूप वर्मा अस्वस्थ चल रहे हैं। ‘मातीगारी’ जैसे न्गुगी के अद्भुत किरदार को जमीन पर जिंदा रखने वाले वे तमाम लोग जिन्होंने आजादी से मोहभंग के चलते दूसरी आजादी के लिए कमर पर हथियारों की पेटी बांधी थी, अब सफाये के ‘कगार’ पर हैं।
दिल्ली में न्गुगी से हुई उस संक्षिप्त मुलाकात के बाद बस इतना बदला है कि अब इन जघन्यताओं पर पढ़ा-लिखा समाज चुप रहता है। सोचिए, अगर न्गुगी को नोबेल मिल गया होता तो भारत में क्या तब भी उनके राजनीतिक विचारों की ऐसी उपेक्षा संभव हो पाती? तब तो लोगों को खोज-खोज कर न्गुगी को हिंदी में पढ़ना पड़ता, अंग्रेजी में पढ़ना पड़ता। उनके किरदारों पर, विचारों पर बात करनी पड़ती। तुलनाएं होतीं- सरकारों की, जनता की, उसके आंदोलनों की!
न्गुगी के जाने के बाद अब लगता है कि मेरा सवाल उतना भी गलत नहीं था। उनके जवाब से निकला आशय भी गलत नहीं था। उन्हें मिलता, तो वे जरूर नोबेल पुरस्कार लेते। वे लेते, तो ‘मातीगारी’ जंगलों से निकलकर शायद दिल्ली पहुंच पाता। शायद कुछ टूटता, शायद कुछ और बनता। मेरा अफसोस भी शायद इसी का है कि ऐसा नहीं हुआ, यह नहीं कि मैंने कोई महान सवाल नहीं पूछा।
(सभी तस्वीरें अभिषेक श्रीवास्तव और विष्णु शर्मा की खींची हुई हैं)