तानाशाही सत्ताओं से कैसे न पेश आएं? केन सारो-वीवा की शहादत के तीसवें साल में एक जिंदा सबक

Ken Saro-Viva
Ken Saro-Viva
एक लेखक अपने लोगों और अपने जल, जंगल, जमीन को बचाने के लिए फांसी पर झूल गया था, यह बात आभासी दुनिया के बाशिंदों को शायद मिथकीय जान पड़े। महज तीन दशक पहले दस नवंबर, 1995 को केन सारो-वीवा एक तानाशाह के हाथों शहीद हुए थे। बिलकुल उसी दिन, जब दशकों बाद जेल से आजाद हुए नेल्‍सन मंडेला बतौर राष्‍ट्रपति अपने पहले अंतरराष्‍ट्रीय सम्‍मेलन में भाग ले रहे थे। मुक्तिकामी संघर्षों की धरती अफ्रीका के इतिहास का यह अहम प्रसंग हमारी आज की दुनिया के लिए क्‍यों प्रासंगिक है? केन सारो-वीवा की हत्‍या के एक दशक बाद उनके गांव-शहर होकर आए वरिष्‍ठ पत्रकार आनंद स्‍वरूप वर्मा ने इसे अपनी पुस्‍तक में दर्ज किया है। आज केन सारो-वीवा को याद करते हुए उन्‍हीं की कलम से यह कहानी

Book on Ken Saro-Viva by Anand Swaroop Verma

2004 में मुझे सीएसडीएस (सेंटर फॉर दि स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज) की फेलोशिप पर नाइजीरिया जाने का अवसर मिला। वहाँ मुझे ‘जनतंत्र के विकास में बुद्धिजीवियों की भूमिका’ पर अध्ययन करना था। सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद अक्टूबर 2004 में मैं नाइजीरिया के लिए रवाना हो गया। मुझे एक विशेष सुविधा और दी गयी कि मैं अगल-बगल के दो अन्य देशों में भी जा सकता हूं और इसके लिए मैंने घाना और इथियोपिया को चुना। घाना का चुनाव करने के पीछे मेरे दिमाग में क्वामे न्क्रूमा के बारे में अध्ययन करना था और इरीट्रिया की जनता के मुक्ति आंदोलन की जानकारी के आधार पर मैंने इथियोपिया का चुनाव किया। अपने नाइजीरिया प्रवास के दौरान मैं इथियोपिया तो नहीं जा सका लेकिन घाना जाकर मैंने न्क्रूमा के बारे में कुछ दुर्लभ जानकारियां जुटायीं।

नाइजीरिया रवाना होने से पूर्व ही मैंने मन ही मन यह कार्यक्रम बनाया था कि केन सारो-वीवा के गांव जाऊंगा और ओगोनीलैंड के लोगों की दुर्दशा देखूंगा जिससे बेचैन होकर एक संपन्न परिवार में जन्मे इस लेखक ने संघर्ष का रास्ता चुना और फांसी के फंदे पर झूल गया। केन सारो-वीवा को उनके आठ साथियों सहित 10 नवंबर 1995 को फांसी दी गयी थी और यह एक इत्तफाक था कि 10 नवंबर को मुझे नाइजीरिया में रहना था। मुझे लगा कि मुझे यह देखने का मौका मिलेगा कि इतने वर्षों बाद भी लोग अपने इस प्रिय लेखक के संघर्षों को किस तरह याद करते हैं।

केनुले बीसन सारो-वीवा का जन्म नाइजर डेल्टा के बोरी नामक गांव में 10 अक्टूबर 1941 को हुआ था। नाइजर डेल्टा के इस इलाके में खाना जनजाति के लोग रहते हैं और यहां का प्रशासन बोलगा (बोरी लोकल गवर्नमेंट एरिया ऑफ रीवर्स स्टेट ऑफ नाइजीरिया) के तहत आता है। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उमुआहिआ में हुई और बाद में उन्होंने यूनीवर्सिटी कॉलेज ऑफ इबादान में उच्च शिक्षा प्राप्त की। 1985 में उन्होंने ‘सांग्स इन ए टाइम्स ऑफ वॉर’ और ‘सोजाब्वाय’ (सोल्जर ब्वाय) लिखा और 1986 में ‘ए  फॉरेस्ट ऑफ फ्लावर्स’ नाम से उनका कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ। यद्यपि वह एक अच्छे नाटककार बनना चाहते थे लेकिन शुरुआती ख्याति उन्हें कहानियों और उपन्यासों से मिली। बिआफ्रा युद्ध के समय वह बोनी प्रांत के संघीय प्रशासक थे और बाद में (1968-73) वह रीवर्स स्टेट गवर्नमेंट के सिविल कमिश्नर बन गए। बिआफ्रा युद्ध के समय उन्होंने संघीय सरकार का पक्ष लिया था।

नाइजीरिया में मेरे रहने की व्यवस्था वहां के प्रमुख व्यावसायिक शहर लेगोस में थी जो किसी जमाने में नाइजीरिया की राजधानी हुआ करता था। दिसंबर 1991 में नयी राजधानी अबूजा बनने के बाद लेगोस प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र बन कर रह गया। केन सारो-वीवा की गतिविधियों का मुख्य केन्द्र पोर्ट हरकोर्ट था जो नाइजीरिया के प्रमुख शहरों में से एक है। लेगोस से पोर्ट हरकोर्ट की दूरी विमान से तकरीबन सवा घंटे में तय की जाती है। उनके गांव बोरी जाने के लिए भी इस शहर से ही गुजरना पड़ता है। पोर्ट-हरकोर्ट से ओगोनीलैंड की दूरी लगभग 50 किलोमीटर है। पोर्ट हरकोर्ट के जिस होटल में मैं ठहरा हुआ था उसके एक वेटर से यूं ही बातचीत में जानना चाहा कि केन सारो-वीवा को मृत्युदंड क्यों दिया गया। इस वेटर को उस आंदोलन के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी तो नहीं थी लेकिन इतना पता था कि बड़ी-बड़ी तेल कंपनियों के इशारे पर सानी अबाचा की सैनिक सरकार ने उन्हें मृत्युदंड दिया था। उसका यह भी कहना था कि यहां की सारी सरकारें अमेरिका के इशारे पर चलती हैं और केन सारो-वीवा जिस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे उसे अमेरिका पसंद नहीं करता था।

पोर्ट हरकोर्ट पहुंचने के दूसरे ही दिन मैंने मोसोप (मूवमेंट फार दि सर्वाइवल ऑफ दि ओगोनी पीपुल) नामक संगठन के दफ्तर जाकर उनके नेताओं से बातचीत की। मोसोप की स्थापना केन सारो-वीवा ने की थी। उस समय इस संगठन के अध्यक्ष लेडम मिटी थे जिनका मैंने लंबा इंटरव्यू किया। लेडम मिटी भी केन सारो-वीवा के अंतिम दिनों में जेल में उनके साथ ही बंद थे और उनसे बातचीत करने से सारो-वीवा की सोच और उनकी योजनाओं की अच्छी जानकारी प्राप्त हुई। अंतर्राष्ट्रीय तेल कंपनी ‘शेल’ के खिलाफ मोसोप के नेतृत्व में ओगोनी की जनता के संघर्ष के दौरान चार लोगों की हत्या हुई थी और इस हत्या के आरोप में ही आठ लोगों को गिरफ्तार किया गया। जिस दिन यह वारदात हुई केन सारो-वीवा घटनास्थल से काफी दूर थे जहां उनकी एक सभा चल रही थी। इस बात को सभी लोग जानते थे क्योंकि उनकी सभा की खबर अखबारों में छपी थी। फिर भी ‘शेल’ के इशारे पर इस हत्याकांड में सारो-वीवा को फंसाया गया और कहा गया कि जो कुछ हुआ वह एक षडयंत्र का हिस्सा था जिसे केन सारो-वीवा ने तैयार किया था। इस प्रकार उन्हें इस घटना का मुख्य अभियुक्त बना दिया गया। देश के अंदर उन दिनों इब्राहिम बबंगिडा की सैनिक सरकार थी और इस सरकार के अंतर्गत चलने वाली अदालत ने फैसला लिया था जिसके खिलाफ कहीं भी अपील नहीं की जा सकती थी। इब्राहिम बबंगिडा का तख्ता पलट कर एक अन्य तानाशाह सानी अबाचा सत्ता में आया और इसने आते ही सबसे पहले केन सारो-वीवा और उनके आठ साथियों को फांसी पर लटका दिया।



केन सारो-वीवा की प्रारंभिक शिक्षा पोर्ट हरकोर्ट में हुई थी और उच्च शिक्षा के लिए उन्हें लंदन भेजा गया था। ओगोनीलैंड का कोई युवक अगर लंदन जाकर शिक्षा प्राप्त कर रहा हो तो जाहिर है कि वह असाधारण रूप से संपन्न होगा। मुझे बताया गया कि सारो-वीवा के परिवार के पास काफी जमीन और संपत्ति है और उनके पिता ‘चीफ’ के पद को सुशोभित करते हैं। आधुनिक अफ्रीका में अब ‘चीफ’ की वह हैसियत नहीं रही जो सदियों से चली आ रही थी तो भी बुनियादी तौर पर कबीलाई समाज होने के नाते भले ही आज चीफ के पास कोई वैधानिक अधिकार न हो लेकिन उसे अभी भी अपनी जनता के बीच पहले जैसा ही सम्मान प्राप्त है। वह आज भी इलाके के झगड़ों का निपटारा करता है और उसके फैसले कानूनी तौर पर तो नहीं पर नैतिक तौर पर लोगों के लिए बाध्यकारी होते हैं।

मोसोप के पदाधिकारियों के साथ बातचीत में अपना परिचय देते हुए मैंने बताया कि केन सारो-वीवा के कार्यों में मेरी बहुत दिलचस्पी है और मैं उनके गांव जाना चाहता हूं।

मैंने सारो-वीवा की कुछ पुस्तकों का उल्लेख किया जिन्हें मैं पढ़ चुका था और बताया कि जेल में लिखी उनकी पुस्तक ‘ए मंथ ऐंड ए डे’ के कुछ अंशों का मैं अनुवाद भी कर चुका हूं। कुछ वर्ष पूर्व मैंने सारो-वीवा की ‘ओगोनी’ शीर्षक कविता का अनुवाद किया था जो ‘वर्तमान साहित्य’ में प्रकाशित हुई थी। मैंने उसका उल्लेख किया। 1998 में एआईपीआरएफ (ऑल इंडिया पीपुल्स रेजिस्टेंस फोरम) ने एक सम्मेलन किया था जिसमें केन सारो-वीवा और उनके द्वारा ‘शेल’ के खिलाफ चलाए गए आंदोलन से संबंधित कई आकर्षक पोस्टर और बैनर लगाए गए थे। एक सभा कक्ष के प्रवेश द्वार पर भी बैनर लगा था जिस पर अंग्रेजी में लिखा था ‘केन सारो-वीवा हॉल’। मैंने उस अवसर की तस्वीरें ‘मोसोप’ के लोगों को दिखायी। ‘मोसोप’ के पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं के चेहरों के भाव देखकर मुझे बहुत हैरानी हुई। उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि नाइजीरिया से हजारों किलोमीटर दूर एशिया के किसी देश में कुछ लोग उनके नेता के प्रति इतना सम्मान भाव रखते हैं।

यही वजह है कि जब मैंने सारो-वीवा के गांव जाने और उनके पिता से मिलने की इच्छा जाहिर की तो वे बहुत खुश हुए और उन्होंने कहा कि वे इसकी सारी व्यवस्था कर देंगे। उन्होंने अपने एक कार्यकर्ता पीटर को इसकी जिम्मेदारी सौंप दी। इसकी मुख्य वजह यह थी कि पीटर अच्छी अंग्रेजी बोल लेता था और साथ ही उसे वहां की स्थानीय भाषा का भी ज्ञान था। इसके अलावा वह ओगोनीलैंड से भी पूरी तरह वाकिफ था। मेरे लिए यह बहुत अच्छा था क्योंकि पीटर की मदद से मैं स्थानीय लोगों से बातचीत कर काफी कुछ जानकारी हासिल कर सकता था।

पोर्ट हरकोर्ट से सारो-वीवा के गांव के लिए हमलोग एक कार से रवाना हुए। दूरी को देखते हुए एक घंटे के अंदर वहां पहुंचा जा सकता था लेकिन सड़क की हालत ऐसी थी कि दो घंटे से भी अधिक का समय लगा। दक्षिण नाइजीरिया के पूर्वी नाइजर डेल्टा क्षेत्र का यह इलाका था। इसी इलाके के लगभग एक हजार वर्ग किलोमीटर में ओगोनी जातीय समूह के लोग रहते हैं। सड़क के दोनों तरफ जहां-तहां खजूर के पेड़ दिखायी दे रहे थे लेकिन आम तौर पर जमीन का बंजरपन साफ तौर पर समझ में आ रहा था। जगह-जगह तेल की पाइप लाइनें नजर आ रही थीं जो काफी दूर तक चली गयी थीं। इन पाइपों से रिस कर बाहर आने वाले तेल की वजह से ही यहां की सारी खेती बर्बाद हो गयी, नदियों और तालाबों में मछलियां मर गयीं और बरसात के दिनों में आकाश से एसिड रेन का कहर यहां के लोगों को झेलना पड़ा। ओगोनी के इलाके के लोगों की समूची अर्थव्यवस्था मुख्य रूप से खेती बाड़ी और मछली पालन पर ही निर्भर थी लेकिन तेल उद्योग ने सब कुछ बर्बाद कर दिया। 1958 में यहां तेल की निकासी का काम ‘शेल’ कंपनी ने शुरू किया जिसका नाम उस समय ‘शेल-बीपी’ था। उस समय इस कंपनी ने विशाल मशीनें मंगाई, इन मशीनों के लिए सड़कों का निर्माण किया और तेल की खुदाई शुरू कर दी। इसका नतीजा यह हुआ कि यहां के लोग एक ऐसे खतरनाक पर्यावरणीय युद्ध की चपेट में आ गए ‘जिसमें न तो एक बूंद खून बहता है, न किसी की हड्डी टूटती है और न किसी को अपंग किया जाता है। फिर भी लोग लगातार मरते रहते हैं। पुरुषों-महिलाओं और बच्चों की जिंदगी खतरे में पड़ी रहती है। पौधों, वन्य जंतुओं और मछलियों का विनाश हो जाता है। हवा और पानी में जहर घोल दिया जाता है और अंततः यहां की धरती धीरे-धीरे किसी काम की नहीं रह जाती।


Oil Spills in Niger Delta against which Ken Saro-Viva revolted
नाइजर डेल्टा में तेल पाइपलाइन से हुए रिसाव के कारण 2004 में लगी आग का एक दृश्य

आज ओगोनी का समूचा क्षेत्र एक बंजर का रूप ले चुका है… बदकिस्मती से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अभी तक इस गैर परंपरागत युद्ध की गंभीरता को पूरी तरह नहीं समझ सका है। शेल जैसी बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियां इन भोले-भाले और छोटे ओगोनी समुदाय से तीस अरब डॉलर ले जा चुकी हैं और बदले में इन्हें अपमान और मौत मिली है। यह समूची मानवता के साथ विश्वासघात है।’1 1967 से 1970 तक नाइजीरिया गणराज्य बिआफ्रा युद्ध की चपेट में था। उन्हीं दिनों ‘शेल’ कंपनी में एक भीषण विस्फोट हुआ था जिसके फलस्वरूप आसपास के तमाम गांवों में तेल फैल गया। उस समय सारी फसल बर्बाद हो गयी और नदियों तथा तालाबों में इतना प्रदूषण हुआ कि सभी मछलियां मर गयीं। हवा के साथ लोगों के फेफड़ों में तेल और गैस का प्रदूषण पहुंच गया। जब ये बातें बर्दाश्त से बाहर हो गयीं तब अहिंसात्मक आंदोलनों की शुरुआत हुई। उस समय शेल कंपनी ने ओगोनी के लोगों को राहत पहुंचाने के लिए 275 डॉलर खर्च किए। यह राशि इतनी कम थी कि इसे किसी भी हालत में मुआवजा नहीं कहा जा सकता। धीरे-धीरे समूचा नाइजर डेल्टा पृथ्वी के सर्वाधिक प्रदूषित क्षेत्रों में शामिल हो गया। उन्हीं दिनों केन सारो-वीवा ने ओगोनी के लोगों को संगठित करना शुरू किया और ‘मोसोप’ के गठन के साथ उन्होंने 1990 के दशक में इस आंदोलन को एक नयी ऊंचाई तक पहुंचाया।

शेल कंपनी ने हमेशा यह दावा किया कि पाइपों से जो तेल रिस का बाहर आता है उसकी वे सफाई कर देते हैं, लेकिन सफाई का जो वे तरीका अपनाते हैं उससे नयी मुसीबतें पैदा होती हैं। वे खेतों में बह रहे कच्चे तेल को जलाते हैं जिसकी वजह से मीलों तक एक मोटी पपड़ी मिट्टी के सतह पर जम जाती है। हालांकि शेल कंपनी दुनिया के 28 देशों में तेल निकालने का काम करती है और इस प्रक्रिया में तेल का रिसाव भी होता है लेकिन इस रिसाव का अकेले 40 प्रतिशत नाइजर डेल्टा में ही होता है। 1976 से 1991 के बीच नाइजर डेल्टा में तेल रिसाव की 2976 घटनाएं सामने आयीं। वर्ल्ड बैंक की एक जांच रिपोर्ट से पता चलता है कि ओगोनी लैंड में जो हाइड्रो कार्बन प्रदूषण है वह अमेरिकी मानदंडों द्वारा निर्धारित मात्रा से 60 गुना ज्यादा है। 1997 में ‘प्रोजेक्ट अंडर ग्राउंड’ सर्वेक्षण के तहत पाया गया कि ओगोनी के गांवों में जल स्रोतों में हाइड्रोकॉर्बन की जो मात्रा है वह यूरोप के जल स्रोतों में मौजूद मात्रा से 360 गुना ज्यादा है। इस इलाके में घूमने पर किसी को भी जगह-जगह आकाश में पाइपों से निकलती हुई आग की लपटें दिखायी दे सकती हैं जिसकी वजह से समूचा वातावरण जहरीला हो चुका है। इस कारण लोग न केवल दमा तथा स्वास्थ्य संबंधी अन्य बीमारियों से ग्रस्त हैं बल्कि पेट की बीमारियों और कैंसर तक का प्रभाव इस तेल उद्योग की वजह से है।

शेल कंपनी और नाइजीरिया सरकार दोनों का यह मानना है कि डेल्टा क्षेत्र में सेना पर होने वाले खर्च में शेल का महत्वपूर्ण योगदान है। 1990 में ओगोनी से 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित उमेचम गांव में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाकर पुलिस ने 80 लोगों की जानें लीं, अनेक मकानों को नष्ट किया और फसलों को बर्बाद किया। शेल ने यह स्वीकार किया है कि कुछ गांवों में जाने के लिए दो बार उसने सेना को पैसे दिए। 1993 में एक गांव के खेतों से पाइपलाइन बिछायी जा रही थी और इसके विरोध में जुटे किसानों पर सेना ने गोली चलायी और बाद में उसी वर्ष कोरो पोरो नामक गांव के प्रदर्शनकारियों को शांत करने के लिए बल प्रयोग किया गया। शेल ने यह स्वीकार किया है कि उनकी पाइपलाइनों तथा अन्य संयंत्रों की रक्षा के लिए नाइजीरिया की सेना के जिन जवानों को तैनात किया जाता है उसके पैसे भी कंपनी देती है। आगोनीलैंड रीवर्स स्टेट के अधीन आता है और यहां की आंतरिक सुरक्षा के लिए बनाए गए टास्क फोर्स के खर्च का एक हिस्सा शेल कंपनी देती है।

पीटर के साथ जिस समय मैं केन सारो-वीवा के पैतृक मकान पर पहुंचा, दिन के दो बज चुके थे। चारों तरफ ज्यादा चहल-पहल नहीं थी और अनेक छोटे-छोटे कच्चे मकानों से थोड़ा अलग हटकर यह एक दोमंजिला पक्का मकान था जो इस बात का आभास देता था कि यह किसी समृद्ध व्यक्ति का आवास है। मकान की मुख्य इमारत के अगल-बगल दोनों तरफ एक दूसरे से जुड़े छोटे-छोटे मकानों की श्रृंखला थी जो सारो-वीवा के परिवार की ही संपत्ति थी। मुख्य द्वार पर दो व्यक्ति मिले जिनसे हमने केन सारो-वीवा के पिता जिम बीसन वीवा से मिलने की इच्छा जाहिर की। उन लोगों ने बताया कि जिम वीवा खाना खाने के बाद सो रहे हैं और शाम के पांच बजे से पहले उनसे मिलना संभव नहीं है। हम बहुत मायूस हो गए क्योंकि हमने चार बजे तक वहां से वापस होने का कार्यक्रम बनाया था। रास्ते में बोरी में हम थोड़ा समय रुक कर मोसोप के कार्यकर्ताओं से भी वहां के दफ्तर में मिलना चाहते थे। जिम वीवा को आम तौर पर लोग ‘पा-वीवा’ कहते हैं। हमने उन दोनों व्यक्तियों से अनुरोध किया कि अगर संभव हो तो पा-वीवा तक वे संदेश पहुंचा दें कि काफी दूर इंडिया से एक पत्रकार आए हैं जो मिलना चाहते हैं। हमें पता था कि पा-वीवा की उम्र लगभग 100 वर्ष हो चुकी है और उनके दिन के आराम में खलल डालना उचित नहीं होगा। लेकिन हमारी भी मजबूरी थी और हमने बहुत संकोच के साथ अपना संदेश भेजने की गुजारिश की। उन दोनों में से एक व्यक्ति ने कहा कि वह कोशिश करेगा और मकान के अंदर चला गया। हम लोग बाहर प्रतीक्षा करते रहे। थोड़ी देर बाद उसने आकर खबर दी कि हम लोग ऊपर उनके कक्ष में बैठकर इंतजार कर लें और वह आधा घंटा के अंदर हमसे मिलने पहुंच जाएंगे।


Anand Swaroop Verma with the father of Ken Saro-Viva
केन सारो वीवा के पिता (पा-वीवा) के साथ आनंद स्वरूप वर्मा

हम लोग ऊपर की मंजिल में एक बड़े से ड्राइंग रूम में पहुंचा दिए गए। मैंने देखा कि एक बड़ी शानदार राज सिंहासन जैसी अलंकृत कुर्सी रखी हुई है और दोनों तरफ कुछ सोफे पड़े हैं। उस विशाल हॉलनुमा कक्ष में सादगी और भव्यता दोनों एक साथ दिखायी दे रही थी। हमारे बैठने के बाद हमें कोई शीतल पेय पेश किया गया और हम पा-वीवा का इंतजार करते रहे। थोड़ी देर बाद एक लंबे चमकदार चोगे में थोड़ा झुके हुए और हाथ में अत्यंत अलंकृत सुनहरी मूठ वाली छड़ी लिए अंदर के कमरे से पा-वीवा निकले और उन्होंने हंसकर हमारे अभिवादन को स्वीकार किया। उम्र के लिहाज से वह अत्यंत चुस्त लगे और आगे बढ़कर उन्होंने हमें बैठने का इशारा किया और खुद भी सोफे की ओर बढ़े। उन्होंने इस बात पर बहुत खुशी जतायी कि मैं भारत से आया हूं और खास तौर पर उनसे मिलने के लिए उनके गांव तक पहुंच गया हूं। वह अपेक्षाकृत धीमी आवाज में लेकिन बहुत स्पष्ट उच्चारण के साथ अंग्रेजी में बात कर रहे थे। अपनी जवानी के दिनों में उन्होंने फॉरेस्ट रेंजर सहित कई नौकरियां कीं और बाद में पॉम ऑयल तथा अन्य सामानों के व्यापार में लग गए। जिन दिनों मैं उनसे मिला उस समय वह बानी के ‘काउंसिल ऑफ चीफ्स’ के चेयरमैन थे और ‘मोसोप’ के संरक्षक भी थे। उनकी कई शादियां हुई थीं और उनकी पत्नी जेसिका, जो केन सारो-वीवा की मां थीं, दो वर्ष पूर्व ही गुजर गयी थीं।

मैं यह तय करके गया था कि उनका लंबा इंटरव्यू लूंगा लेकिन उनसे मिलने के बाद लगा कि लंबी बातचीत करके उन्हें थका देना किसी भी हालत में उचित नहीं है। बावजूद इसके मैंने अपना टेप रेकॉर्डर ऑन कर लिया और उनसे बहुत अनौपचारिक ढंग से बातचीत शुरू की। मैंने ओगोनी के इलाके के बारे में जानना चाहा कि केन सारो-वीवा की शहादत के बाद यहां क्या फर्क पड़ा है। जवाब में उन्होंने बताया कि हालात पहले से भी बदतर हुए हैं लेकिन इन हालात को बदलने की और संघर्ष करने की जनता की ऊर्जा में कई गुना वृद्धि हुई है। हालांकि 1998 में सैनिक तानाशाह सानी अबाचा की मौत हो गयी और इसके एक डेढ़ वर्ष बाद नाइजीरिया में एक जनतांत्रिक सरकार का गठन हुआ लेकिन अबाचा के कुशासन से पैदा समस्याओं पर पा-वीवा बड़ी तल्खी से बात करते रहे और अपने पुत्र के साहस की प्रशंसा की जिसने हालात को बदलने के लिए अपनी जान दे दी।

बातचीत करते हुए पा-वीवा बहुत दृढ़ दिखायी दिए लेकिन जब उन्होंने अपने दोनों हाथों से मेरा हाथ पकड़ कर कहा कि ‘यह पहला मौका है जब भारत से कोई व्यक्ति इस गांव तक पहुंचा हो’, तो वे भावुक हो गए। मैंने उन्हें बताया कि किस तरह भारत के बौद्धिक समुदाय में केन सारो-वीवा के प्रति सम्मान का भाव है और उन्होंने किस तरह ओगोनी जनता पर बहुराष्ट्रीय तेल कंपनियों द्वारा किए जा रहे जुल्म के खिलाफ आवाज उठायी। पा-वीवा ने बड़ी मजबूती के साथ विश्वास व्यक्त किया कि अन्याय के खिलाफ ओगोनी ही नहीं बल्कि नाइजीरिया की जनता एक दिन जरूर विजयी होगी। पा-वीवा ने अपनी बातचीत में बताया था कि हुक्मरानों की मानसिकता में अभी कोई तब्दीली नहीं आयी है लेकिन वह आएगी जरूर। केन सारो-वीवा के संघर्षों का ही यह नतीजा है कि आज समूचे नाइजीरिया में आम लोगों के मन में यह सवाल पैदा हो रहा है कि देश पर उनकी सरकार का नियंत्रण है या बहुराष्ट्रीय कंपनियों का। लोग देख रहे हैं कि सरकार पर तेल कंपनियों का जबर्दस्त प्रभाव है।

नाइजीरिया सरकार को राजस्व की जो प्राप्ति होती है उसका 80 प्रतिशत हिस्सा सीधे तौर पर तेल की आय से होता है और इसमें से भी आधा से भी अधिक भाग शेल कंपनी से मिलता है। इस धनराशि का एक बहुत बड़ा हिस्सा रिश्वत और चोरी के रूप में सैनिक जनरलों की जेब में जाता है। 1991 में 12 बिलियन डालर की राशि का हिसाब ही नहीं मिला कि यह पैसा किन लोगों की जेब में गया है। स्थानीय सरकारें इस सच्चाई को स्वीकार करती हैं। तेल कंपनियां इलाके के प्रभावशाली अधिकारियों को इस बात के लिए घूस देती हैं कि कंपनियों के खिलाफ कोई कार्रवाई न हो। इसे देखते हुए नाइजीरिया के सैनिक शासकों का स्वार्थ बहुत स्पष्ट रूप में उजागर हो जाता हैः यथास्थिति बनाए रहो, शेल की मनमर्जी के अनुसार गांव वालों के खेतों को नष्ट होने दो, लोगों की आवाज बंद करने के लिए हर तरीके का इस्तेमाल करो और पर्यावरण तथा आम आदमी की जिंदगी को शेल द्वारा नष्ट किए जाने का पर्दाफाश करने वाली ताकतों का दमन करो। देशज आबादी और पर्यावरण पर निरंतर हो रहे जुल्म के खिलाफ अहिंसक प्रतिरोध का दमन करने में नाइजीरिया की सैनिक सरकार और शेल दोनों मिलकर समान रूप से अपनी भूमिका निभाती हैं। एक के बाद एक सरकारें आती गयीं और सबने यही रुख अख्तियार किया। उन्हें पता है कि ओगोनी में हो रही इस तबाही के खिलाफ स्थानीय तौर पर जागरूकता पैदा करने और अंतर्राष्ट्रीय तौर पर दबाव का निर्माण करने वाली ताकतों को अगर खुली छूट मिल गयी तो यह खुद तानाशाहों के लिए बहुत आत्मघाती होगा। सेना ने यह सुनिश्चित कर लिया है कि अगर उसे सत्ता में बने रहना है तो डेल्टा क्षेत्र से तेल से होने वाली आय पर किसी तरह की आंच नहीं आनी चाहिए।

‘मोसोप’ ने सबसे बड़ी कार्रवाई 4 जनवरी 1993 को उस समय की जब उसने 3 लाख लोगों का एक विशाल शांतिपूर्ण प्रदर्शन आयोजित किया। 1993 में मोसोप के लगातार विरोध के बाद शेल ने ओगोनीलैंड से तेल निकालने का काम बंद कर दिया। लेकिन नाइजर डेल्टा में अन्य स्थानों से तेल निकालने का काम जारी है जिसकी वजह से पाइपलाइनों से तेल का रिसाव अभी भी ओगोनी के इलाके को पूरी तरह प्रभावित कर रहा है। इतने बड़े पैमाने पर ओगोनी की जनता का प्रतिरोध के लिए इकट्ठा होना प्रदर्शित करता है कि वे लोग परिवर्तन के कितने इच्छुक हैं। ‘मोसोप’ के अंतर्गत तकरीबन ओगोनी के 10 समूह काम करते हैं। मोसोप की लोकप्रियता से घबरा कर सरकार ने किसी भी तरह के आंदोलन को उनके शुरुआती दौर में ही दमन करने की नीति बना ली थी। फिलहाल नाइजर डेल्टा में अनेक ऐसे समूह हैं जो जनता और प्रभावित तबकों को संगठित करने में लगे हुए हैं। इनमें दो समूहों का उल्लेख जरूरी है। एक है ‘एनवार्यनमेंटल राइट्स ऐक्शन’ (ईआरए) और दूसरा है ‘नाइजर डेल्टा ह्यूमन ऐंड एनवार्यनमेंटल रेस्कू आर्गेनाइजेशन’ (एचईआरओ)। 1996 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार शेल ने यह स्वीकार किया था कि ओगोनीलैंड और वहां की जनता के क्रियाकलापों की जासूसी करने और उन पर दमन ढाने के लिए उसने नाइजीरिया की सेना को नियमित तौर पर पैसे दिए हैं।2

नवंबर 2004 के पहले हफ्ते में पा-वीवा से मेरी यह अविस्मरणीय भेंट हुई थी। भारत लौटने के बाद 1 अप्रैल 2005 को खबर मिली कि 101 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। केन सारो-वीवा की शहादत के आज 29 वर्ष बाद भी उन स्थितियों में कोई तब्दीली नहीं आई जिनकी वजह से ओगोनी के लोगों को सारी दुर्दशा झेलनी पड़ी थी। बेशक, एक फर्क आया है और वह यह है कि वर्षों के दमन के बाद लोगों ने एक बार फिर हिम्मत जुटा ली है और आम जनता के बीच एक चेतना पैदा हुई है जिसके लिए सारो-वीवा और उनके साथियों ने कुर्बानी दी। 28 अगस्त 2008 को ओगोनी के बोडो क्रीक इलाके में बहुत बड़े पैमाने पर तेल का रिसाव हुआ। उस वर्ष नवंबर में इस कंपनी ने, जिसने अब अपना नाम शेल पेट्रोलियम डेवलपमेंट कंपनी रख दिया है, पाइप लाइनों की मरम्मत की लेकिन रिसाव की वजह से जो बर्बादी हुई उसकी कोई भरपाई नहीं की। 2009 में एक बार फिर इसी तरह की घटना हुई। शेल के खिलाफ बोडो समुदाय के 15 हजार लोगों की ओर से लंदन स्थित एक कानूनी फर्म ‘ले-डे’ ने शेल पर मुकदमा कर दिया। कंपनी ने प्रस्ताव रखा कि वह समझौते के रूप में 5 करोड़ 10 लाख डालर की राशि देने को तैयार है जिसे बोडो समुदाय के वकीलों ने ‘अपमानजनक’ कहा है। इस राशि से किसी भी हालत में उस नुकसान की भरपाई नहीं हो सकती जो बोडो समुदाय के लोगों ने झेला है।

केन सारो-वीवा ने 1990 में ओगोनी बिल ऑफ राइट्स (ओबीआर) की घोषणा की और भविष्य के अपने संघर्ष के लिए इसी को आधार बनाया। वैसे तो उनकी लड़ाई नाइजीरिया के एक बहुत छोटे जातीय समूह के लिए थी लेकिन इस लड़ाई के पीछे उनका विजन बहुत व्यापक था।

नाइजीरिया जैसे संघीय गणराज्य में हाउसा-फुलानी, योरुबा, इबो और इजा जैसे गिने-चुने बड़े जातीय समूहों को छोड़ दें तो शेष अत्यंत बुरी स्थिति में हैं और इन ‘शेष’ की संख्या भी तकरीबन 250 है। केन सारो-वीवा की सोच यह थी कि अगर ओगोनी जनता को न्याय दिलाया जा सका तो एक बड़ी लड़ाई के लिए आधार तैयार होगा और देश की तमाम अल्पसंख्यक जनजातियां इस योग्य हो सकेंगी कि सत्ता के निर्णय में वे अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सकें। ओबीआर के बाद जितने भी संवाददाता सम्मेलन उन्होंने किए या जो भी लेख लिखे उससे साफ पता चलता है कि उनकी यह लड़ाई केवल ओगोनी के लिए नहीं थी। वह ओगोनी की लड़ाई को एक मॉडल बनाना चाहते थे।


Book on Ken Saro-Viva by his son Ken Viva
केन सारो वीवा के पुत्र केन वीवा (दिवंगत) की लिखी किताब

एक जगह उन्होंने लिखा है कि ‘यह नाइजीरिया के लिए या यूं कहें कि अफ्रीका के लिए कितना शानदार होगा अगर महाद्वीप के सभी जनजातीय समूह इसी तरह अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करें। अगर ऐसा हो सका तो हम अपेक्षाकृत ज्यादा जनतांत्रिक व्यवस्था की दिशा में बढ़ सकेंगे, हम उन तानाशाही प्रणालियों से दूर जा सकेंगे जिन्होंने इस महाद्वीप को बर्बाद कर दिया है और शायद हम 1884 के बर्लिन समझौते को विफल करते हुए अपने समाज को एक नया रूप दे सकेंगे जिसमें सभी स्तरों पर इस तरह का शोषण नहीं होगा जो आज इस महाद्वीप में व्याप्त है।’3

नाइजीरिया के मौजूदा हालात से वह बहुत क्षुब्ध रहते थे। अपनी गिरफ्तारी का विवरण लिखते समय एक जगह उन्होंने कहा है कि ‘अन्याय इस देश में वैसे ही घात लगाए बैठा होता है जैसे कोई चीता अपने शिकार पर घात लगाए हो। जाहिल विदूषकों की मेहरबानी पर जिन्दगी गुजारने से ज्यादा अपमानजनक भला और क्या हो सकता है। इससे ज्यादा दर्दनाक क्या होगा जब आप देखते हैं कि राजसत्ता आपको धूल के बराबर समझती है।’4

शेल के खिलाफ ओगोनी के लोगों को न्याय दिलाने की लड़ाई शुरू करने का फैसला जिस समय केन सारो-वीवा ने लिया, देश और विदेश में एक लेखक के रूप में उन्हें काफी ख्याति प्राप्त हो चुकी थी। 1985 में नाइजीरिया के टेलीविजन पर उनके द्वारा लिखित और निर्मित धारावाहिक ‘बासी ऐंड कंपनी’ को लगभग वैसी ही लोकप्रियता मिली थी जैसी किसी जमाने में भारत में मनोहर श्याम जोशी के धारावाहिक ‘हमलोग’ को। ‘बासी ऐंड कंपनी’ को लोग ‘मिस्टर बी’ के नाम से भी जानते थे और 1985 से 1990 तक यह धारावाहिक नाइजीरिया के दर्शकों के बीच अपनी लोकप्रियता का रिकॉर्ड बना रहा था। एक अनुमान के अनुसार लोकप्रियता के उत्कर्ष के दिनों में इसे देखने वालों की संख्या तीन करोड़ से भी ज्यादा थी। वैसे, इस धारावाहिक से पहले सारो-वीवा के दो उपन्यास ‘सांग्स इन ए टाइम ऑफ वार’ और ‘सोजाब्वाय’ प्रकाशित हो चुके थे और साहित्य जगत में इन दोनों उपन्यासों की काफी चर्चा भी हुई थी। उन्होंने उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक यानी साहित्य की लगभग हर विधा का इस्तेमाल किया लेकिन एक नाटककार के रूप में ही उनकी प्रमुख पहचान बनी। खुद केन सारो-वीवा अपने को एक जनपक्षीय पत्रकार मानते थे और कुछ अखबारों में उनके नियमित स्तंभ प्रकाशित होते थे। उनके पास अपार पैतृक संपत्ति थी। लेकिन इसके अलावा वह खुद भी एक सफल व्यवसायी थे।

एक ऐसा व्यक्ति जिसके पास अच्छी खासी पैतृक संपत्ति हो, जिसने कभी गरीबी का एहसास न किया हो और जो सरकार में उच्च पदों पर रहने के साथ-साथ खुद अपनी लेखकीय प्रतिभा की वजह से पर्याप्त ख्याति अर्जित कर चुका हो उसे हाशिए पर पड़े लोगों की इतनी चिंता क्यों हो रही थी कि उसने अपना सारा जीवन ही उनकी मुक्ति के लिए न्यौछावर कर दिया! बहुतों के लिए यह एक जटिल सवाल हो सकता है लेकिन मुझे लगता है कि लेखन की तरफ उनके झुकाव ने उन्हें एक बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा दी और उनकी संवेदनाओं को धारदार बनाया। चूंकि वह सरकार में भी रह चुके थे इसलिए तीसरी दुनिया के देशों में, जहां सत्ता हस्तांतरण के फलस्वरूप आजादी का भ्रम खड़ा किया गया हो, अच्छी तरह समझते थे कि औपचारिक तौर पर उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद भी किस तरह वही प्रवृत्तियां देशी शासकों के अंदर काम करती हैं।

एक जगह अपने देश की जनता की मनःस्थिति का वर्णन करते हुए वह लिखते हैं कि ‘ऐसा लगता था कि जैसे वे सोते में चुपचाप अपने अंत की ओर बढ़ते चले जा रहे हों- बिना यह महसूस किए कि आंतरिक उपनिवेशवाद किस तरह उनकी जिन्दगी को तबाह करता जा रहा है। शायद मेरे कंधे पर यह जिम्मेदारी आ पड़ी थी कि मैं उन्हें 100 वर्षों की नींद से जगाऊं और मैंने इस जिम्मेदारी को पूरी तरह कुबूल कर लिया था। क्या वह संघर्ष की राह में पड़ने वाली मुसीबतों का मुकाबला कर सकेंगे?5 उन्होंने अपने देश की जनता को इस नींद से जगाने का मुहिम शुरू किया लेकिन उन्हें पता था कि नाइजीरिया का इतिहास सैनिक तानाशाहों की क्रूरताओं से भरा पड़ा है। शायद यही वजह है कि उन्होंने अहिसंक संघर्ष का रास्ता चुना। उनके समूचे राजनीतिक लेखन में जहां भी अन्याय के खिलाफ एकजुट होने और मजबूती के साथ प्रतिरोध करने की बात है, उन सभी स्थलों में वे यह बताना नहीं भूलते कि संघर्ष का तरीका अहिंसक होगा।


Ken Saro wiwa last Interview before been Arrested by Nigeria government 1995.. Most watch 😢😢😢😢😢

Posted by Ogoniflavour on Wednesday, November 2, 2022

अपनी जेल डायरी में उन्होंने एक जगह लिखा है कि ‘यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि हमने अहिंसक संघर्ष का रास्ता चुना। हमारे विरोधियों ने हिंसा का रास्ता चुना और हम चाहें भी तो उनके अखाड़े में उन्हें पराजित नहीं कर सकते। अहिंसक संघर्ष कमजोर लोगों को वह ताकत देता है जो उन्हें अन्य तरीकों से हासिल नहीं हो सकता। इस तरह के संघर्ष में आत्मा की आवाज महत्वपूर्ण हो जाती है और कोई भी बंदूक उसे खामोश नहीं कर सकती। हालांकि मुझे यह भी पता है कि कभी-कभी सशस्त्र संघर्ष के मुकाबले अहिंसक संघर्ष में मौतें ज्यादा होती हैं। और यह बात हमेशा एक चिंता पैदा करती है। ओगोनी लोग संघर्ष की मुश्किलों को झेल पाएंगे या नहीं, यह कह पाना अभी कठिन है। फिर भी अगर वे इसमें समर्थ हो सके तो अफ्रीकी महाद्वीप में और लोगों के लिए शांतिपूर्ण संघर्ष का रास्ता तैयार होगा। इसलिए इसे किसी भी हालत में कम करके नहीं देखा जाना चाहिए।’6

एक बार लंदन में वहां के साहित्यकारों और पत्रकारों के बीच वार्ता के दौरान केन सारो-वीवा ने कहा था कि यूरोप के लेखकों के विपरीत अफ्रीका के लेखकों को केवल मनोरंजन के लिए नहीं लिखना चाहिए। अगर वे अपने लेखन के जरिए जनता को उद्वेलित कर सकते हैं तो अपनी इस क्षमता को उन्हें सामाजिक बदलाव की शक्तियों को गोलबंद करने में लगाना चाहिए। इस अर्थ में अगर देखें तो एक बुद्धिजीवी की या किसी लेखक की भूमिका को लेकर उनके अंदर काफी स्पष्टता थी।

1992 में लेगोस की एक सभा में, जिसमें उनकी कुछ किताबों का लोकार्पण हो रहा था, उन्होंने साहित्य और राजनीति के संबंधों तथा सामाजिक बदलाव के संघर्ष में लेखकों की भूमिका पर बहुत विस्तार के साथ कुछ बातें कहीं। उन्होंने कहा था:

मेरा यह शुरू से ही मानना था कि नाइजीरिया में जो नाजुक हालत है उसमें साहित्य को राजनीति से अलग नहीं रखा जा सकता। बेशक, साहित्य ऐसा होना चाहिए जो राजनीति में हस्तक्षेप करते हुए समाज की सेवा कर सके और लेखकों को केवल अपने को या दूसरों को आनंदित करने के लिए ही नहीं बल्कि समाज को आलोचनात्मक ढंग से देखने के लिए लेखन करना चाहिए। उन्हें सक्रिय हस्तक्षेप वाली भूमिका निभानी चाहिए। अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि अफ्रीकी देशों की सरकारें प्रायः यह सोच कर लेखकों की उपेक्षा करती हैं कि देश के अंदर पढ़ने-लिखने वालों की तादाद बहुत कम है और जो लोग पढ़ सकते हैं उनके पास इतनी फुर्सत कहां है कि वे परीक्षा में पास होने के लिए जरूरी साहित्य के अलावा और कुछ पढ़ने में अपना समय व्यय करें। इसलिए लेखक को एक सक्रिय बुद्धिजीवी की भूमिका में होना चाहिए… उसे जनसंगठनों में भाग लेना चाहिए। उसे जनता के साथ सीधा संबंध स्थापित करना चाहिए और अफ्रीकी साहित्य की ताकत का, इस साहित्य की वाक्पटुता का सहारा लेना चाहिए। इसकी वजह यह है कि शब्दों में बहुत ताकत होती है और जब इन्हें आम बोलचाल की भाषा में व्यक्त किया जाता है तो इनकी ताकत और भी ज्यादा बढ़ जाती है। यही वजह है कि जन संगठनों में भाग लेने वाला लेखक उस लेखक के मुकाबले, जो साहित्य में कोई चमत्कार करने की प्रतीक्षा में है अपने संदेश को ज्यादा कारगर ढंग से लोगों तक पहुंचा पाता है। इसके साथ एक समस्या जरूर है–इस तरह के लेखक को अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है क्योंकि राजनीति की मांगों के आगे उसके भ्रष्ट होने का खतरा हमेशा बना रहता है। उसके सामने अनिवार्य तौर पर संघर्ष की स्थिति पैदा होगी लेकिन इस स्थिति का लाभ उसे अपने लेखन को और बेहतर बनाने के लिए करना चाहिए। एक लेखक के रूप में हम अच्छे से अच्छे विषय पर लिख सकते हैं जिनका हमें प्रत्यक्ष अनुभव होता है, हम जो सुनते हैं उसे बेहतर ढंग से व्यक्त कर सकते हैं और हमारी कल्पनाशीलता औरों के मुकाबले ज्यादा प्रखर होती है। शायद यही कारण है कि नाइजीरिया के सबसे अच्छे लेखकों ने खुद को ‘राजनीति’ के साथ घनिष्ठ रूप से जोड़ा है। इस मामले में नाइजीरिया के नोबल पुरस्कार विजेता वोले सोयिंका जबर्दस्त उदाहरण हैं। यहां तक कि आम तौर पर शांत और समझदार माने जाने वाले चीनुआ एचेबे को इस बात के लिए मजबूर होना पड़ा कि ‘सुसंस्कृत मूल्यों के शुद्धिकरण’ का आवाहन करने के लिए वह किसी राजनीतिक दल का सहारा लें। इसी प्रकार नाइजीरिया के कवि क्रिस्टोफर ओकिग्बो ने बिआफ्रा के पृथकतावादी युद्ध में संघर्ष करते हुए अपनी जान दी। उपन्यासकार फेस्टस इआयी मजदूर संगठनों से जुड़े रहे और हाल ही में उन्होंने कैम्पेन फॉर डेमोक्रेसी नामक संगठन से खुद को संबद्ध किया। इन सारी बातों से मेरी कही गयी बातें साबित होती हैं कि नाइजीरिया जैसी नाजुक स्थिति में देश को बर्बाद करने वाले और जनता को अमानवीय बनाने वाले गुंडे राजनीतिज्ञों को चुपचाप बैठ कर देखना और उनके दस्तावेज तैयार करना काफी नहीं है… इसका मतलब यह नहीं कि मैं उन लोगों को कोई महत्व नहीं दे रहा हूं जो महज लिखते हैं और स्थितियों पर अपनी पैनी नजर रखते हैं। मैं तो महज अपने देश की सामाजिक स्थिति पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा हूं जो किसी भी लेखक को करना चाहिए7

जिन दिनों वह अखबारों के लिए नियमित स्तंभ लिखते थे, एक उच्च पुलिस अधिकारी ने उनके लेखन पर संकेत करते हुए उन्हें दोस्ताना सलाह दी कि वह थोड़ा संभल कर लिखें क्योंकि वह जो कुछ लिख रहे हैं उससे उनके सामने दिक्कत पैदा हो सकती है। उस अधिकारी ने कहा कि व्यक्तिगत तौर पर वह खुद ऐसा नहीं चाहता लेकिन उनका लेखन उन्हें (सारो-वीवा को) जेल पहुंचा सकता है। इसके जवाब में सारो-वीवा ने उनको भरोसा दिलाते हुए कहा कि ‘मैं जो कुछ लिखता हूं बहुत सोच समझ कर लिखता हूं और उसकी सारी जिम्मेदारी भी लेता हूं। अब इसके बाद उस लेखन का जो भी नतीजा मुझे भुगतना पड़े मैं स्वीकार करूंगा।’ सारो-वीवा ने उस अधिकारी से कहा कि ‘अगर कोई लेखक अपने लेखन की वजह से गिरफ्तार होता है तो उसे और भी ताकत मिलती है।’

यह भी एक विडंबना ही है कि गांधी हों या मार्टिन लूथर किंग या केन सारो-वीवा, जिन लोगों ने अहिंसक संघर्ष के जरिए अपने मकसद को हासिल करने की लड़ाई आगे बढ़ाई उनका अंत बेहद हिंसक तरीके से हुआ।

11 फरवरी 1990 को 27 वर्ष कुछ महीने जेल में बिताने के बाद नेल्सन मंडेला रिहा हुए। सारी दुनिया के लिए यह एक बहुत बड़ी घटना थी। इससे पहले जब भी दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार ने उनके सामने रिहाई का प्रस्ताव रखा तो प्रस्ताव के साथ कुछ शर्तें जुड़ी रहती थीं और मंडेला ने बहुत दृढ़ता के साथ किसी भी शर्त को मानने से इनकार किया। जाहिर सी बात है कि उनकी रिहाई से लोगों को यह आभास हुआ होगा कि इस बार भी उन्होंने किसी शर्त को स्वीकार नहीं किया होगा और यह बिना शर्त रिहाई है। समय गुजरने के साथ और पश्चिमी देशों के प्रति मंडेला के अति उदार रवैये की वजह से धीरे-धीरे लोगों के अंदर संदेह पनपने लगा और उनकी मृत्यु तक यह संदेह बना रहा कि कुछ पश्चिमी देश और दक्षिण अफ्रीकी सरकार के बीच किसी गुप्त समझौते के तहत ही मंडेला की रिहाई संभव हो सकी।

लेकिन नेल्सन मंडेला एक महानायक की छवि के साथ सारी दुनिया का भ्रमण कर रहे थे और जिस देश में भी वह जाते थे, उनका अभूतपूर्व स्वागत होता था। इसी दौरान नवंबर 1995 में न्यूजीलैंड की राजधानी ऑकलैंड में राष्ट्रमंडल देशों का सम्मेलन होना था और पहली बार किसी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में नेल्सन मंडेला को भाग लेना था। इस सम्मेलन से कुछ ही दिन पूर्व नाइजीरिया के सैनिक तानाशाह सानी अबाचा की सरकार द्वारा गठित सैनिक ट्रिब्यूनल ने केन सारो-वीवा और उनके आठ साथियों को मौत की सजा की पुष्टि की थी। सारी दुनिया से लोग अपील कर रहे थे कि मृत्युदंड न दिया जाय। बहुत नाजुक घड़ी में राष्ट्रमंडल देशों का यह सम्मेलन होने जा रहा था जिसमें अफ्रीकी देशों का उल्लेखनीय प्रतिनिधित्व था। इससे पहले जुलाई 1995 में नाइजीरिया के सैनिक ट्रिब्यूनल ने सरकार के खिलाफ विद्रोह के आरोप में 14 अन्य लोगों को भी मौत की सजा सुनायी थी और 11 लोगों को आजीवन कारावास की सजा दी थी। आजीवन कारावास की सजा पाने वालों में भूतपूर्व राष्ट्रपति ओलूसेगुन ओबसांजो भी थे। इस फैसले के खिलाफ ‘आर्गेनाइजेशन ऑफ अफ्रीकन यूनिटी’ (ओएयू) के महासचिव सलीम अहमद सलीम ने सार्वजनिक तौर पर इसका विरोध करते हुए नाइजीरिया सरकार तक अपनी चिंता प्रेषित कर दी थी। नामीबिया के राष्ट्रपति साम नुजोमा ने सानी अबाचा को एक पत्र लिखा जिसमें आगाह किया गया था कि अगर सैनिक ट्रिब्यूनल के फैसले पर अमल किया गया तो नाइजीरिया अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में अलग-थलग पड़ जाएगा। दक्षिण अफ्रीका इस घटनाक्रम पर खामोश रहा।

नेल्सन मंडेला ने अपने उपराष्ट्रपति थाबो म्बेकी को नाइजीरिया की राजधानी अबूजा भेजा ताकि वह सजायाफ्ता लोगों के लिए क्षमादान की अपील कर सकें। थाबो म्बेकी के साथ उप विदेशमंत्री अजीज पहाद भी साथ गए थे। ध्यान देने की बात है कि खुद नाइजीरिया के विपक्षी नेता बेको रेन्सम कुटी ने बहुत तीखे शब्दों में अबाचा सरकार की भर्त्सना की थी और कहा था कि कि ‘आज समूची राष्ट्रीय संपदा पर उन्हीं तत्वों का कब्जा हो चुका है जो हिंसा के साधनों को नियंत्रित करते हैं और जो अपने हर विरोधी का बर्बरता के साथ दमन करते हैं। नाइजीरिया आज संभवतः दुनिया का सबसे घृणित उदाहरण पेश कर रहा है।’ नाइजीरिया की सैनिक सरकार की बर्बरता और उद्दंडता बढ़ती जा रही थी लेकिन नाइजीरिया के प्रति अपनी नीति में दक्षिण अफ्रीका ने कोई परिवर्तन नहीं किया। उन दिनों नेल्सन मंडेला की सरकार में विदेश मंत्री के पद पर अल्फ्रेड न्जो थे जो अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और रंगभेद विरोधी संघर्ष के एक प्रमुख व्यक्ति थे। उन्होंने नाइजीरिया के खिलाफ ‘शांत कूटनीति’ का पालन किया था। उनका मानना था कि नाइजीरिया को समझा-बुझा कर रास्ते पर लाया जा सकता है और साथ ही उनका यह भी कहना था कि नाइजीरिया में राजनीतिक स्थिरता बहुत जरूरी है।


Nelson Mandela's constructive engagement with a dictator resulted in the hanging of Ken Saro-Viva

उपरोक्त पृष्ठभूमि में राष्ट्रमंडल देशों के राज्याध्यक्षों का सम्मेलन आयोजित हुआ था। उस समय तक अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के नेतृत्व वाली नेल्सन मंडेला की सरकार ने नाइजीरिया के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध लगाए जाने की मांग का बड़े जोरदार ढंग से विरोध किया था। मंडेला के समर्थकों का कहना था कि नाइजीरिया के खिलाफ जोर-जबर्दस्ती वाली रणनीति की बजाय अगर समझाने-बुझाने का तरीका अपनाया जाय तो ज्यादा फायदा होगा। यह रणनीति इतनी बुरी तरह मंडेला पर हावी हो गयी थी कि जब सानी अबाचा की सरकार ने शिखर सम्मेलन के दौरान ही केन सारो-वीवा और आठ लोगों को फांसी देने की अपनी मंशा व्यक्त की तो भी मंडेला ने अबाचा सरकार की भर्त्सना नहीं की। ‘मनी वेब’ नामक पत्रिका में प्रकाशित जेम्स माइबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार मंडेला ने कहा- ‘मुझे पूरा विश्वास है कि नाइजीरिया के नेताओं के साथ संपर्क बनाए रखते हुए उन्हें अगर समझाया-बुझाया जाय तो वे हमारी बात मान लेंगे। अगर इससे काम नहीं चलेगा तो और विकल्पों पर विचार किया जा सकता है… मैं उन (ओगोनी के) लोगों की जान बचाने का इच्छुक हूं और चाहता हूं कि नाइजीरिया में जनतंत्र की दिशा में बढ़ने की प्रक्रिया तेज हो।’ जिम्बाब्वे के राष्ट्रपति रॉबर्ट मुगाबे ने मंडेला के विचारों से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए कहा कि नाइजीरिया के खिलाफ न केवल आर्थिक प्रतिबंध लागू होने चाहिए बल्कि हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि क्यों न उसे राष्ट्रमंडल देशों के संगठन से अस्थायी तौर पर निष्कासित कर दिया जाय।

केन सारो-वीवा ने जेल से अपने बेटे केन वीवा (जो लंदन में पत्रकार थे और 2016 में जिनका निधन हो गया) को संदेश भेजकर कहा कि वह राष्ट्रमंडल देशों के सम्मेलन के समय खुद ऑकलैंड जाए और विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों से बातचीत करे। केन वीवा ने ऑकलैंड में मंडेला से मिलने की कोशिश भी की। सानी अबाचा के प्रति मंडेला के रवैये की आलोचना करते हुए अनेक खेमों ने इसकी तुलना अमेरिका और ब्रिटेन द्वारा नस्लवादी दक्षिण अफ्रीका के प्रति अपनायी गयी ‘कांस्ट्रक्टिव एंगेजमेंट’ से की। केन सारो-वीवा के मुकदमे से संबद्ध एक वकील ने मंडेला की तीखी आलोचना करते हुए कहा कि अबाचा के प्रति जिस तरह का उदार रवैया वह प्रदर्शित कर रहे हैं, अगर दुनिया के लोगों ने दक्षिण अफ्रीका की गोरी सरकार के प्रति इसी तरह की उदारता दिखायी होती तो मंडेला आज यहां उपस्थित होने के लिए जीवित नहीं बचे होते।

नाइजीरिया के प्रति नर्म रुख अपनाने के पीछे अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के पास कई तर्क थे। पहला तो यह कि वे नाइजीरिया सरकार पर इतना दबाव नहीं डालना चाहते थे कि उसका असर उल्टा हो। इसीलिए उन्होंने शांत कूटनीति का सहारा लिया था। दूसरे, उसका यह कहना था कि दक्षिण अफ्रीका की दिलचस्पी इस मुद्दे को लेकर प्रशंसा बटोरने की नहीं बल्कि समस्या को हल करने की है। तीसरा तर्क खुद नेल्सन मंडेला की ओर से आया था कि ‘हमारे संघर्ष के दौरान नाइजीरिया ने बहुत उदार रवैया अपनाया था।’ उनकी इस दलील पर नाइजीरिया के प्रतिष्ठित लेखक और नोबेल पुरस्कार विजेता वोले सोयिंका ने अक्टूबर 1995 में कहा कि उन्हें इस बात पर आश्चर्य होता है कि मंडेला ने एक दमनकारी राज्य और जनता के बीच फर्क क्यों नहीं किया। यह सही है कि सार्वजनिक तौर पर नाइजीरिया की आलोचना इसलिए नहीं की जा रही है क्योंकि उन्होंने रंगभेद के खिलाफ जो रुख अख्तियार किया था उसका उन पर एक कर्ज है, ‘लेकिन कैसे वे इतने नादान हो सकते हैं कि यह फर्क न कर सकें कि उन पर यह कर्ज जनता का है न कि उस सरकार का जो उसी जनता का दमन कर रही हो।’

“दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने नाइजीरिया की समस्याओं के समाधान में मध्यस्थ की भूमिका निभाने का तय किया था। दक्षिण अफ्रीका के उपविदेशमंत्री अजीज पहद ने कहा कि इस सिलसिले में दक्षिण अफ्रीका के सामने तीन प्रमुख लक्ष्य हैं: चीफ मसूद अबिओला को जेल से रिहा कराना, जनतांत्रिक प्रक्रिया को बढ़ावा देना और केन सारो-वीवा तथा ओगोनी के अन्य आठ बंदियों को मृत्युदंड से बचाना। दक्षिण अफ्रीका ने इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए शांत कूटनीति का सहारा लिया। दोनों देशों के नेताओं का एक दूसरे के यहां आना जाना हुआ। दक्षिण अफ्रीका के उपराष्ट्रपति थाबो म्बेकी नाइजीरिया गये और नाइजीरिया के शक्तिशाली विदेशमंत्री चीफ टोम इकिमी दक्षिण अफ्रीका की यात्रा पर आये।”8 शायद यही वजह है कि न्यूजीलैंड की राजधानी ऑकलैंड पहुंचने पर जब पत्रकारों ने नेल्सन मंडेला से केन सारो-वीवा के बारे में सवाल पूछते हुए नाइजीरिया के खिलाफ कोई कड़ा कदम उठाने की मंशा जानना चाहा तो मंडेला का सीधा जवाब था कि ‘मैं नहीं समझता हूं कि मैं अभी की स्थिति में आर्थिक प्रतिबंध पर जोर दूंगा। अगर समझाने बुझाने से काम नहीं चला तो अन्य विकल्पों के लिए हमारे पास पर्याप्त समय है।’

जेम्स बारबर ने अपने ऊपर उल्लिखित लेख में ये भी बताया कि नाइजीरिया के मामले में दो नोबल पुरस्कार विजेताओं नाइजीरिया के वोले सोयिंका और दक्षिण अफ्रीका के ऑर्कबिशप डेस्मंड टूटू ने मंडेला से कहा कि उन्हें हर हाल में इस मामले में नेतृत्व करना चाहिए। यह उनका कर्तव्य है। सोयिंका ने तो यह भी कहा कि अगर मंडेला यह कह दें कि मैं उस कमरे में बैठूंगा भी नहीं जिसमें सानी अबाचा या उनका कोई प्रतिनिधि होगा तो सारा मामला हल हो सकता है।


Nobel winner writer Wole Soyinka was against Mandela's policy towards Sani Abacha
  • नेल्सन मंडेला के बारे में नाइजीरिया के प्रतिष्ठित लेखक और नोबेल पुरस्कार विजेता वोले सोयिंका

केन सारो-वीवा के पुत्र केन वीवा ने अपनी पुस्तक ‘इन दि शैडो ऑफ ए सेंट’9 (एक संत की छाया में) में 8 और 9 नवंबर 1995 को ऑकलैंड में राष्ट्रमंडल देशों के सम्मेलन स्थल पर चल रही चहल पहल का जो वर्णन किया है उससे एक बहुत दर्दनाक तस्वीर उभरती है। केन वीवा जेल से अपने पिता के निर्देश पर ऑकलैंड पहुंचे थे ताकि वहां मौजूद विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों से और खासतौर पर मंडेला से मिलकर अपने पिता को बचाने की अंतिम कोशिश कर सकें। न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री रिचार्ड बेले से बड़ी मुश्किल से महज तीन मिनट की बातचीत का समय मिला और साथ में यह भी हिदायत थी कि इस बातचीत की जानकारी वह किसी भी हालत में मीडिया को नहीं देंगे। उस तीन मिनट में उन्होंने प्रधानमंत्री को बताया कि सानी अबाचा की सरकार केन सारो-वीवा और अन्य आठ लोगों को मौत के घाट उतारने पर आमादा है जिसे प्रधानमंत्री ने शांत भाव से सुना और बस सुना ही। मंडेला से तो शायद उनकी मुलाकात भी नहीं हो पायी।

नौ नवंबर को नाइजीरिया के सैनिक ट्रिब्यूनल ने जब मौत की सजा की अंतिम तौर पर पुष्टि कर दी और यह तय हो गया कि अब अंतिम घड़ी आ गयी है तो केन वीवा के एक मित्र ने रात में दो बजे शिकागो से फोन करके उनको कहा कि वह किसी भी तरह मंडेला से मुलाकात करें क्योंकि अब बिलकुल समय नहीं है। रात भर केन वीवा कभी इस राजनेता से तो कभी उस राजनेता से गुहार करते रहे कि वे लोग सानी अबाचा से संपर्क करें और उन्हें रोकें। ऑकलैंड में सानी अबाचा ने जान-बूझ कर अपनी जगह अपने विदेश मंत्री को भेजा था। अंततः सारी कोशिशें बेकार गयीं और 10 नवंबर को जिस समय शिखर सम्मेलन शुरू ही हुआ था, कि दिन के 11 बजे केन सारो-वीवा और उनके साथियों को मौत के घाट उतार दिया गया।

वोले सोयिंका ने दक्षिण अफ्रीका पर ‘तुष्टिकरण’ की नीति अपनाने का जो आरोप लगाया था वह सही साबित हो गया। सोयिंका ने ही यह भी आरोप लगाया था कि दक्षिण अफ्रीका ‘कांस्ट्रक्टिव इनगेजमेंट’ की उसी नीति का पालन कर रहा है जिसका किसी जमाने में अमेरिका और ब्रिटेन के रोनाल्ड रेगन और मारग्रेट थैचर नस्लवादी दक्षिण अफ्रीका के प्रति कर रहे थे। शायद इससे ज्यादा अपमानजनक स्थिति का सामना नेल्सन मंडेला को अपने समूचे जीवनकाल में कभी न करना पड़ा हो कि जिस अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में वह पहली बार भाग ले रहे हों उसी सम्मेलन के उद्घाटन के दौरान ही एक ऐसे राजनीतिक बंदी को फांसी दे दी गयी हो जिसके बारे में वह निश्चिंत थे कि सानी अबाचा की सरकार अभी ऐसा नहीं करेगी।

राजनीति में किन विवशताओं की वजह से राजनेताओं के समक्ष ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है यह समझना मेरे लिए प्रायः एक जटिल सवाल रहा है। किन स्वार्थों के कारण गांधी ने लॉर्ड इरविन के साथ बातचीत में भगत सिंह और उनके साथियों को दी गयी मौत की सजा माफ करने की बात नहीं कही? आखिर वह कौन सी मजबूरी थी कि नेल्सन मंडेला अपने महामानव वाले व्यक्तित्व का दबाव एक सैनिक तानाशाह पर डालने से परहेज करते रहे?

केन सारो-वीवा और उनके साथियों की मौत के बाद नाइजीरिया में बड़ी तीखी प्रतिक्रिया हुई। अबाचा की सरकार ने मसूद अबिओला और ओबसांजो जैसे लोगों को भी जेल में डाल रखा था जबकि ये लोग ‘अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस’ के घोर समर्थक और रंगभेद नीति के प्रबल विरोधी थे। मंडेला को यह तथ्य क्यों नहीं दिखाई दिया?


The execution of Ken Saro-Viva was simultaneous with the Commonwealth Summit in Auckland, 1995

इस घटना के लगभग 6 वर्ष बाद जनवरी 2001 में लेगोस से प्रकाशित ‘दि न्यूज’ में पत्रकार टायो ओडुन्लामी ने एक खबर दी कि 1994 में दक्षिण अफ्रीका के चुनाव के दौरान मंडेला के चुनाव अभियान के लिए सानी अबाचा ने लाखों डालर की सहायता की थी। जुलाई 2000 में अबाचा के घनिष्ठ सहयोगी अबू बकर अतीकू बाबुडू ने मुकदमे के दौरान एक हलफनामे में कहा था कि नाइजीरिया के राजकोष से अरबों डालर गायब किये जाने का जो आरोप है उसका एक हिस्सा ‘1994 के चुनाव में राष्ट्रपति मंडेला को दिया गया था और यह तकरीबन पांच करोड़ अमेरिकी डालर था’।10

वैसे, अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस ने भी यह स्वीकार किया था कि उसके चुनाव अभियान का सारा खर्च विदेशी स्रोतों से मिले अनुदानों से वहन किया गया था। अप्रैल 1999 में मंडेला ने जोहॉनसबर्ग में खुद यह स्वीकार किया था कि इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुहार्तो ने अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस को कुल मिलाकर 6 करोड़ डालर की सहायता की थी।11 यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि सुहार्तो के शासनकाल में इंडोनेशिया में मानव अधिकारों का कितना जबर्दस्त उल्लंघन हुआ था लेकिन उसी सुहार्तो को दक्षिण अफ्रीका की यात्रा के दौरान 21 तोपों की सलामी दी गयी और ‘दि ऑर्डर ऑफ गुड होप’ नामक उपाधि से नवाजा गया।

मार्च, 2002 में ताइपेई से प्रकाशित पत्रिका ‘नेक्स्ट’ ने रहस्योद्घाटन किया कि ताइवान ने जून 1994 में गुप्त रूप से अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस को एक करोड़ डालर दिए थे। कूटनीतिक सूत्रों का हवाला देते हुए इस पत्रिका ने बताया कि नेल्सन मंडेला के राष्ट्रपति बनने के बाद अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस ने ताइवान के राष्ट्रपति से संपर्क किया और यह प्रस्ताव रखा कि अगर चुनाव के दौरान चढ़े कर्ज को चुकता करने के लिए ताइवान दो करोड़ डालर की सहायता कर सके तो हम ताइवान के साथ अभी एक से दो वर्षों तक अपना राजनयिक संबंध बरकरार रख सकते हैं। दोनों पक्षों के बीच बातचीत हुई और एक करोड़ दस लाख डालर पर एक समझौता हुआ।

केन सारो-वीवा की इस न्यायिक हत्या के बाद मंडेला ने सानी अबाचा की जितनी कड़े शब्दों में भर्त्सना की, वह भी बेमिसाल है लेकिन इन सबके बावजूद उन पर यह कलंक तो लगा ही रहा कि उन्होंने ओगोनी के जननायकों की जान बचाने में कोई भूमिका नहीं अदा की।


1. ए मंथ ऐंड ए डे- ए डिटेंशन डायरी, केन सारो-वीवा, पेंग्विन बुक्स, 2005
2. ब्लड ऐंड ऑयलः ए स्पेशल रिपोर्ट, न्यूयार्क टाइम्स
3. ए मंथ ऐंड ए डे- ए डिटेंशन डायरी, केन सारो-वीवा, पेंग्विन बुक्स, 2005
4. वही
5. वही
6. वही
7. वही
8. दि साउथ अफ्रीकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स की बुलेटिन इंटरनेशनल पॉलिसी अपडेट के 1997 के सं. 5 में जेम्स बारबर का लेख।
9. इन दि शैडो ऑफ ए सेण्टः ए संस जर्नी टु अंडरस्टैंड हिज फादर्स लिगेसी, केन वीवा, स्पेक्ट्रम बुक्स लिमिटेड, इबादान, नाइजीरिया, 2000
10. मंडेला ऐंड अबाचाः हाउ नॉट टु डील विद डिक्टेटर्स, जेम्स मायबर्ग
11. वही


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