लोकसभा की 543 सीटों में से बनारस इकलौती है जहां की स्थिति और संभावित परिणाम का विश्लेषण करना जितना ज्यादा आसान है उतना ही ज्यादा कठिन भी है। दोनों के कारण समान हैं। आसान इसलिए है क्योंकि वहां से दो बार के सांसद और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही लड़ रहे हैं। कठिन इसलिए है क्योंकि यहां ‘मोदी की जीत’ के आगे चौथा शब्द कह पाना व्यर्थ की कवायद जान पड़ती है। फिर सवाल है कि बनारस पर अगर बात करनी हो तो कोई कैसे करे, क्या कहे?
यह संशय नया नहीं है। राहुल गांधी और अखिलेश यादव को भी यही सवाल मथ रहा होगा, भले उनके बनारसी प्रत्याशी अजय राय का दिमाग इस मामले में एकदम साफ हो। बनारस पर बात करना पहले भी कभी आसान नहीं रहा। जहां ज्ञान की खोज कबीर की देह पर गुरु रामानंद के पैर पड़ जाने जैसी कोई क्रिया होती हो, वहां सायास कुछ भी नहीं मिलता, निरायास सब कुछ मिल जाता है। यहां बहसें हर ओर हैं, लेकिन बात को पकड़ना मुश्किल है। बात, कही भी जा सकती है। बात, अनकही भी होती है। तत्व, कही-अनकही के बीच कहीं छुपा होता है।
बात मार्च 2014 की है। तब बनारस में सर्वत्र धूल उड़ रही थी। गोया चारों दिशाओं से घोड़ों पर सवार कोई आक्रान्ता अपनी फौज लेकर काशी फतह करने आ रहा हो। उसी बीच किसी दोपहर मणिकर्णिका घाट को उतरने वाली सीढ़ियों से ठीक पहले गली में चाय के एक ठीहे पर पांच नौजवान अख़बार के पन्ने पलट रहे थे। दिन के दो बजे थे। एक के बाद एक शवों की आमद के बीच एक नौजवान अचानक पास में गुमसुम बैठे अधेड़ उम्र के एक शख्स को संबोधित करता है, ”गुरुजी, ई देखा, का छपल हव। मगरमच्छ से खेलते थे बाल नरेंद्र!” अधेड़ व्यक्ति किसी अदृश्य भार को गरदन से झटकते हुए काफी मेहनत से सिर को उठाकर प्रतिक्रिया देता है, ”मगरमच्छ से खेला, शेर से खेला, सियार से खेला, बाकी आदमी से मत खेला।”
![Posters in Pakkamahal, Varanasi](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/IMG_20180811_134904-1024x576.jpg)
वो दिन और आज का दिन, देश के प्रधानमंत्री की बनारस से दोहरी सांसदी यहां के आदमी के साथ हुए खेल का एक खण्डकाव्य है। यहीं से 2024 के आम चुनाव में बनारस पर बात करने का सूत्र भी निकलता है। यह बात पूरी प्रामाणिकता के साथ वही कर सकता है जिसने बनारस को उसकी गलियों में दस साल टूटते-बिखरते, फैलते-सिमटते, झटकते-कराहते देखा हो।
जादू और प्रतिरोध: 2014-17
बनारस के आदमी के साथ हुए खेल को गुणवत्ता, तीव्रता और प्रभाव के आधार पर दो कालखण्ड में बांटा जा सकता है- पहला, 2014 से 2017 के बीच और दूसरा, 2018 से अब तक। करीब चार साल की पहली अवधि महज बनारसियों का पानी नापने के लिए थी, जिसकी आहटें 2017 के विधानसभा चुनाव तक घिसटती चली आईं। फिर भारतीय जनता पार्टी की सरकार सूबे में आई और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने। वह साल भ्रम, व्यवस्था और प्रबंधन में बीता। जनवरी 2018 से खेल का दूसरा अध्याय शुरू हुआ, जो मुसलसल जारी है।
लगातार बारह साल तक अपने विरोधियों की सार्वजनिक निंदा और आलोचना झेलने के बाद 16 मई, 2014 को नरेंद्र मोदी ने बनारस जीता और प्रधानमंत्री बने। ठीक एक पखवाड़े बाद बनारस के लोगों का भी बारह साल पुराना एक संघर्ष कामयाब आया जब राजातालाब स्थित मेहंदीगंज का कोका कोला प्लांट प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आदेश पर बंद कर दिया गया। यह वह समय था जब कुछ लोगों की चुनावी खुमारी नहीं उतरी थी, तो कुछ और लोग नतीजों की सरसामी से उबरने के बाद ताजादम होकर नए संघर्षों के लिए बनारस में खड़े हो रहे थे।
स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त, 2014) को जब प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से ‘मेड इन इंडिया’ का नारा उछालकर विदेशी कंपनियों को भारत में न्यौता, उसी महीने के अंत में उन्होंने बनारस के लोगों को पहला सपना भी दिखाया- ‘काशी को क्योटो’ बनाने का सपना। कोका कोला को बनारस से भगाने का जोश इस सपने के आगे मुंह ताकता रह गया।
अगस्त 2014 के अंत में जापान की यात्रा के दौरान मोदी ने वाराणसी-क्योटो पार्टनर सिटि के एमओयू पर दस्तखत किए। काशी को क्योटो बनाने के लिए 11 सदस्यों की एक स्टीयरिंग कमेटी बनाई गई। काशी में चर्चा और जमीन का बाजार एक साथ गरम हो गया। सबकी उम्मीदें जग गईं। पांडेपुर से बाबतपुर तक प्रॉपर्टी डीलर कुकुरमुत्ते की तरह उग आए। उधर जापान की जनता मोदी के विरोध में उतर आई क्योंकि उनकी यह यात्रा एक नाभिकीय समझौता करने के उद्देश्य से थी।
जापान के फुकुशिमा से युकिको ताकाहाशी नाम की एक महिला ने भारत के प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा- ‘’मुझे लगता है कि भारत एक बेहद संस्कृति-संपन्न देश रहा है। नाभिकीय ऊर्जा इस संस्कृति को तबाह कर देगी। क्यों? क्योंकि यह लोगों की जिंदगियों को बरबाद कर देती है, जिसका संस्कृति के साथ चोली-दामन का साथ होता है। फुकुशिमा में बिल्कुल यही तो हुआ है और मैं उसकी गवाह हूं।‘’
काशी की संस्कृति और लोगों के साथ क्या हुआ, यह काफी बाद की बात है लेकिन ‘काशी को क्योटो’ बनाने में पहली दरार सामने आ चुकी थी- काशी तो उम्मीद से थी, लेकिन क्योटो नाराज। सबसे ज्यादा उम्मीद नौजवानों को थी, जिनके ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’ के सहारे मोदी सत्ता में आए थे। ये नौजवान अकेले बनारस के नहीं थे, उसके आसपास के दर्जनों जिलों और बिहार के भी थे। इन सबकी इकलौती शरणस्थली बरसों से काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) रहा है। लिहाजा, बीएचयू एक ऐसी उर्वर और बहुफसली जमीन थी जहां से पूरब के कम से कम दो राज्यों को तो एक साथ संबोधित किया ही जा सकता था। उस पर से संयोग यह हुआ कि ‘काशी से क्योटो’ वाली परियोजना का क्रियान्वयन केंद्र भी बीएचयू ही बना।
इसीलिए मई 2014 से 2017 के अंत तक बनारस में जो कुछ भी अहम हुआ, सब कुछ बीएचयू के इर्द-गिर्द सीमित रहा या कहें सीमित दिखाया जाता रहा जबकि परिधि पर जो घट रहा था वह नजरों से ओझल रहा।
मसलन, फरवरी 2015 में जब पहली बार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के विरोध में किसान-मजदूर दिल्ली के संसद मार्ग पर हजारों की संख्या में जुटे, तब बनारस से आया किसानों का एक जत्था इस बात की गवाही दे रहा था कि काशी की परिधि पर कुछ घट रहा है। ये किसान वरुणापार हरहुआ के थे और रिंग रोड के लिए जमीनें अधिग्रहित किए जाने से पीड़ित थे। विडम्बना यह है कि काशी के भीतर यानी गंगा और वरुणा नदी के बीच रह रहा आदमी वरुणापार वालों के संकट से पूरी तरह अनजान था।
बनारस बाहर के लोगों में दो कारणों से जाना जाता है- एक बीएचयू और दूसरा यहां गंगा किनारे के घाट, यानी पक्कामहाल का क्षेत्र। वरुणापार के क्षेत्र का हमेशा ही शहर से सांस्कृतिक कटाव रहा है। एक जमाने में लोग उस इलाके में तांगा लेकर ‘बहरी अलंग’ के लिए जाया करते थे। अंग्रेजों ने 17 अगस्त, 1781 को काशी की जनता की बगावत के कारण ही अपना प्रशासनिक तंत्र वरुणापार स्थापित किया था। उसे आज सिकरौल के नाम से जाना जाता है। आज का सिकरौल वास्तव में अंग्रेजी का ‘सिक रोल’ था। यहां बीमार अंग्रेज सिपाहियों और अफसरों के स्वास्थ्य-लाभ के लिए एक अस्पताल हुआ करता था। बनारसियों ने कालान्तर में इसे सिकरौल बना डाला।
इस सिकरौल के बनने की वजह थी ‘बनारस विद्रोह’, जिसमें तीन अंग्रेज और दो सौ सैनिक मारे गए थे। 1857 के गदर से यह बहुत पहले की बात है, जिसे सामान्यत: स्कूली पाठ्यक्रम में नहीं पढ़ाया जाता। इसी बगावत के बाद राजा चेतसिंह ग्वालियर भाग गए थे। आज भी वहां चेतसिंह के नाम पर एक गली है। बहरहाल, बाद में आजाद भारत का स्थानीय प्रशासनिक तंत्र भी वरुणापार ही स्थापित हुआ। यहीं सर्किट हाउस है, कचहरी है और कलेक्टरेट भी है।
स्वतंत्रता-पूर्व और स्वात्रंत्योत्तर, दोनों प्रशासनिक अमले का एक जगह होना संयोग भी हो सकता है, लेकिन यह ऐतिहासिक तथ्य है कि वरुणापार के क्षेत्रों का हमेशा शहर से कटाव रहा है। इसलिए वहां हो रहा घटनाक्रम शहरवासियों के मानस में नहीं रहता। 2014 के बाद शहर की घटनाओं का केंद्र जब बीएचयू बना, उसी के समानांतर शहर के बाहर जमीनों का अधिग्रहण, खरीद-फरोख्त और बाजार परवान चढ़ा। बीएचयू में पहला विवादास्पद आयोजन जून 2015 में राजनीतिशास्त्र विभाग में एसआइओ (जमात-ए-इस्लामी की संस्था) के सहयोग से हुआ जहां संघ और मुस्लिम राष्ट्रीय मंच के नेता इंद्रेश कुमार बुलाए गए। उधर, वाराणसी विकास प्राधिकरण ने अपना दायरा बढ़ाकर शहर से 16 किलोमीटर दूर चौबेपुर तक कर डाला।
मोदी के सांसद चुने जाने के साल डेढ़ साल बाद की तस्वीर कुछ ऐसी थी कि बनारस के अखबारों के शुरुआती तीन-चार पन्ने रियल एस्टेट के विज्ञापनों से पटते जा रहे थे; भीतर के पन्नों में हत्या, पीट कर मार डालने, खुदकुशी, फांसी लगाने जैसी खबरें बढ़ती जा रही थीं। एक नई बात हुई थी- बनारस में अवसाद-जनित हत्याएं शुरू हो गई थीं। डीजल इंजन कारखाने में अवसादग्रस्त एक इंजीनियर ने अपनी बेटी सहित खुद को अगस्त 2015 में मार डाला। ऐसा बनारस में पहले नहीं सुना गया था। इसके बावजूद, प्रतिरोध भी जारी था। उसी महीने बीएचयू के सिंहद्वार पर 40 निष्कासित संविदाकर्मी धरने पर बैठ गए थे।
![Contract workers protest outside BHU, Varanasi](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/dharna-1024x680.jpg)
![Contract workers protest outside BHU, Varanasi](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/DSC04883-1024x680.jpg)
परिसर के भीतर छात्रसंघ की कब्र पर नए किस्म की राजनीतिक फसल आकार ले रही थी। हर नौजवान सीधे दलीय राजनीति से खुद को जोड़ कर देख रहा था। उधर तत्कालीन वाइस चांसलर गिरीश चंद्र त्रिपाठी धड़ाधड़ नियुक्तियां किए जा रहे थे। ट्रॉमा सेंटर में राजस्थान के एक ही कॉलेज से पढ़े 160 लोगों को भर्ती कर लिया गया था। मेडिकल संस्थान आइएमएस में पैसे लेकर नियुक्तियां की गई थीं। भूगोल विभाग के सबसे काबिल और जानकार प्रोफेसर को इसलिए डेलिगेशन में क्योटो नहीं भेजा गया क्योंकि वे बनारस की भूगर्भीय प्लेटों का हवाला देकर मेट्रो रेल परियोजना पर सवाल उठा रहे थे। यह सब कुछ हलके-फुलके ही सही, स्थानीय अखबारों में रिपोर्ट हो रहा था क्योंकि यहां बीएचयू बाकायदा एक अहम बीट है।
विश्वविद्यालय और वरुणापार के बीच बसा बाकी शहर अब भी मंत्रबिद्ध किसी चमत्कार की उम्मीद में था। कोई मेट्रो ट्रेन का सपना देख रहा है, कोई विधायक बनने का ख्वाब देख रहा है तो कोई हिंदी का पुरस्कृत कवि बनने का सपना संजोये है। किसी को उम्मीद है कि सरकार बदलने के बाद उसके बेटा-बेटी को सरकारी नौकरी मिल जाएगी। किसी को लगता है कि सिर्फ राष्ट्रवाद, गणवेश, संघ आदि शब्दों को दुहराकर वैतरणी पार लग जाएगी। 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी के आइटी सेल का काम देख चुके बीएचयू के छात्र रहे आदित्य ने तब मुझसे एक बड़ी बात कही थी, ‘’सब जान रहे हैं कि बस बनारस का पाला छू लो, चरण स्पर्श करो और काम में लग जाओ। कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा। आज आपको कुछ करना-करवाना है तो बस बनारस आने की जरूरत है। रास्ता अपने आप बन जाएगा।”
2015 के अगस्त में हुए इस संवाद को हम बनारस के आदमी की नीयत को परखने की कसौटी भी मान सकते हैं। अगर सिर्फ बनारस का जाप करने से लोगों का जीवन पार लग रहा था, तो जाहिर है कि बनारस के बनारस बने रहने में उनकी कोई खास दिलचस्पी नहीं रही होगी।
शायद इसीलिए उस समय जब नाव से शव ले जाने का नया चलन बनारस में आया तो लोग चुप मार गए। जब रक्षाबंधन पर मोदी के नाम का ‘सुरक्षा बंधन’ यानी ‘मोदी राखी’ मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की औरतों ने पुरुषों को बांधी, तो अखबारों ने उनकी पहचान छुपाते हुए इसे साम्प्रदायिक सौहार्द कह कर स्वागत किया।
उस समय एक शाम भूंजा खाते और टहलते हुए कवि ज्ञानेंद्रपति की मुझसे कही पंक्तियां बदलते हुए शहर पर सटीक बैठ रही थीं, ‘’बनारस स्वस्थ नहीं है। स्वस्थ का मतलब होता है स्व में स्थित। बनारस स्व में स्थित नहीं है। पहले वह स्वस्थ नहीं था तो बीमार भी नहीं था। अब ऐसा नहीं है। पिछले एक साल से ऐसी स्थिति है।‘’
![Picture of a BJP counter on Rakshabandhan festival in 2015, Varanasi](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/rakhi-1024x680.jpg)
![A local newspaper clipping on Rakshabandhan in Varanasi](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/modi-rakhi.png)
यह अस्वस्थता 2017 के विधानसभा चुनाव की दौड़ में बहुत तेजी से उभर कर सतह पर आ गई। जैसे शरीर में गर्मी ज्यादा हो जाने से चेचक के फफोले देह पर उभर आते हैं।
2016 के सावन में विश्व हिंदू परिषद ने आधिकारिक रूप से काँवड़ियों के लिए शहर में प्रबंध किया। परिषद के बड़े-बड़े होर्डिंग पूरे शहर में लगाए गए। उधर बीएचयू में संघ के पथसंचलन की तस्वीरें मीडिया में आईं और उस पर बवाल कटा। प्रतिक्रिया में यह दलील दी गई कि ऐसा तो पहले भी होता था। फिर बीएचयू के संस्थापक महामना मदन मोहन मालवीय पर एक नई बहस खड़ी हो गई।
उस बीच ऐसा पहली बार देखा गया कि बाबा विश्वनाथ को जल चढ़ाने के लिए दूर-दूर से शहर में आने वाले काँवड़ियों के हाथों में भाजपा के झंडे थे और उनके ट्रक-ट्रैक्टरों पर डीजे बज रहा था। पूरा शहर किचकिच हो गया था। इस चक्कर में पूरे सावन के दौरान हर सोमवार को शहर के स्कूल बंद रखे गए। यह भी पहली बार हुआ था।
नवंबर की एक शाम अचानक घोषित की गई नोटबंदी से माहौल भले कुछ दिन अफरा-तफरी का रहा, लेकिन विधानसभा चुनाव की जमीन जो गर्मियों में पककर तैयार हो चुकी थी उसमें सावन ने भगवा बीज रोप दिए थे। दिलचस्प है कि 2017 के विधानसभा चुनाव तक ‘काशी को क्योटो’ बनाने वाली प्रस्तावित परियोजनाएं मूर्त रूप से शहर में कहीं नहीं दिखीं। बस उम्मीद ही बनी रही कि कुछ होगा। इसलिए जादू का असर अब भी कायम था। इसके अलावा हालांकि बहुत कुछ ऐसा हुआ जिसने ‘काशी को क्योटो’ बनाने की मानसिक जमीन तैयार कर दी थी।
यह परियोजना योगी आदित्यनाथ के सत्ता संभालने के बाद जमीन पर उतरनी थी, लेकिन चुनाव के ठीक बाद सितंबर 2017 में बीएचयू में भड़का छात्राओं का आंदोलन एक विक्षेप की तरह आया। सरकार इसके लिए तैयार नहीं थी। दिल्ली तक पहुंच चुके इस आंदोलन से सरकार को निपटने में महीनों लग गए। बीएचयू के छात्र आंदोलन की धमक ऐसी थी इसके हल्ले में बीएचयू की ही एक और अहम और त्रासद घटना दबकर रह गई। इसे बनारस के ही पत्रकार शिव दास ने बहुत तफसील से रिपोर्ट किया था।
याद करिए, यह 2017 के अगस्त की बात है जब गोरखपुर के बाबा राघव दास (बीआरडी) चिकित्सालय में सौ से ज्यादा बच्चों की ऑक्सीजन न मिलने से मौत हुई थी। यह राष्ट्रीय घटना थी। इससे ठीक दो महीने पहले बीएचयू के सर सुंदरलाल अस्पताल के सर्जरी वार्ड में भी ऐसी ही तीन मौतें हुई थीं, लेकिन यह बात ज्यादा खुलकर बाहर नहीं आ सकी। शिव दास की रिपोर्ट में सामने आया था कि अस्पताल में जब मौतें हुईं, उस वक्त ठेके पर सर सुन्दरलाल चिकित्सालय में मेडिकल ऑक्सीजन गैस, नाइट्रस ऑक्साइड गैस और कॉर्बन डाइ ऑक्साइड गैस की आपूर्ति इलाहाबाद उत्तरी विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा विधायक हर्षवर्धन वाजपेयी की कंपनी ‘पैररहट इंडस्ट्रियल इंटरप्राइजेज प्राइवेट लिमिटेड’ कर रही थी। वाजपेयी कंपनी के प्रबंध निदेशक हैं।
मरीजों की मौत की वजहों में नाइट्रस ऑक्साइड एक प्रमुख कारक था। अस्पताल के तत्कालीन चिकित्सा अधीक्षक डॉ. ओपी उपाध्याय का पत्र और बीएचयू के सूचना एवं जन संपर्क कार्यालय की ओर से 8 जून, 2017 को जारी प्रेस विज्ञप्ति ने इसकी पुष्टि की थी। कहानी बहुत जटिल थी और भाजपा विधायक की कंपनी से जुड़ी थी, लेकिन जब यह सामने आई उस वक्त बीआरडी कॉलेज में हुई मौतों और छात्राओं के आंदोलन की सुर्खियां मीडिया में हावी थीं। इसलिए इस पर किसी ने कान नहीं दिया। आज यह कहानी कहीं नहीं मिलेगी क्योंकि इसे छापने वाली वेबसाइट मीडियाविजिल बंद हो चुकी है। इसलिए यहां दर्ज करना जरूरी था, ताकि सनद रहे।
भाजपा विधायक का तो कुछ नहीं बिगड़ा, लेकिन बीएचयू के छात्रों को आंदोलन की सजा अंतत: 2018 की मई में यानी आठ माह बाद मिली। तब तक बनारस का पक्कामहाल यानी गंगा के किनारे वाला घाट का इलाका सुलग चुका था। बीएचयू का पानी नापा जा चुका था और शहरी सीमा के बाहर किसानों की आंखों का पानी मुआवजा लेकर सूख चुका था। उनके देखते-देखते बहुफसली जमीनों पर लखटकिया अपार्टमेंट उग आए थे।
आंदोलन, हताशा और विध्वंस: 2018 से आगे
बीएचयू के छात्र आंदोलन की चिंगारी अभी बुझी नहीं थी, कि जनवरी 2018 के अंत में एक सुबह शहर के प्रसिद्ध खेल पत्रकार पद्मपति शर्मा के घर कुछ सरकारी अफसर आ धमके। जनवरी तक पक्कामहाल में कोई नहीं जानता था कि क्या होने वाला है। पद्मपति शर्मा ने 30 जनवरी को जब फेसबुक पर घबराये हुए स्वर में एक पोस्ट लिखी, तब बात फैली। उन्होंने प्रशासन को खुदकशी की धमकी जारी की थी।
विश्वेश्वर पहाड़ी पर शर्मा जिस मकान में रहते थे, वह 175 साल पुराना था। वाराणसी विकास प्राधिकरण से कुछ लोग उनके यहां 29 जनवरी को सर्वे करने आए थे। तब उन्हें पता चला कि यूपी सरकार बरसों पुराना ‘गंगा दर्शन’ प्रोजेक्ट दोबारा शुरू करने जा रही है जिसमें काशी विश्वनाथ मंदिर को गंगाजी से जोड़ा जाना है और इस चक्कर में उनका घर तोड़ा जा सकता है। बाद में सामने आया कि आधे किलोमीटर के दायरे में करीब दो सौ मकानों और इतने ही विग्रहों को तोड़ा जाएगा। इसके बाद पूरे इलाके को चौरस कर के ‘काशी विश्वनाथ कॉरीडोर’ बनाया जाएगा।
‘काशी को क्योटो’ बनाने का असली राज अब जाकर खुला था। आनन-फानन में धरोहर बचाओ समिति बनाई गई। महीने भर के भीतर इलाके की पैमाइश अफसरों ने कर ली। फरवरी में विध्वंस का पहला अध्याय शुरू हुआ। पहले दुर्मुख विनायक मंदिर तोड़ा गया। फिर भारत माता मंदिर को तोड़ा गया। मंडन मिश्र का प्राचीन घर तोड़ दिया गया जिन्होंने शंकराचार्य से काशी में शास्त्रार्थ किया था। इसके बाद संघर्ष समिति ने नारा दिया, ‘जिंदगी से दूर होंगे, विश्वनाथ से नहीं। जान देंगे, घर नहीं।‘ बैठकें शुरू हुईं। हस्ताक्षर अभियान चला। ज्ञान और ध्यान की आंच से सदियों पक कर खड़ी रहीं पक्कामहाल की दीवारों पर इंकलाबी पोस्टर चिपकाए गए।
![Swami Awimukteshwaranand and Vishwambhar Nath Mishra in deliberation over save temple movement in Varanasi, 2018](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/31957521_802242733302882_5310676591343304704_n.jpg)
![Office of Manndir Bachao Andolan](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/IMG_20180811_134909.jpg)
कायदे से देखें, तो 1781 के ‘बनारस विद्रोह’ के बाद बाद काशी की गलियां 3 अप्रैल, 2018 को दूसरी बार किसी आंदोलन का गवाह बनीं जब (वर्तमान में शंकराचार्य बन चुके) स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद के नेतृत्व में धरोहर और मंदिर बचाने का एक विशाल जुलूस निकला। 7 अप्रैल, 2018 को घाट से लगी गलियों में व्यापार की ऐतिहासिक बंदी हुई। व्यापारियों के आंदोलन में कूदने के बाद ही स्थानीय अखबारों ने इस बारे में छापना भी शुरू किया। आंदोलन में लोग जुड़ते गए। कांग्रेस के अजय राय से लेकर भाजपा और संघ के पुराने लोग जो सीधे प्रभावित हो रहे थे, आंदोलन में आ गए। काशी के डोमराजा ने भी समर्थन दे दिया। इस बीच गुपचुप तरीके से प्रशासन लोगों को डराता-धमकाता रहा, सौदेबाजी करता रहा।
उस दौरान मेरा लगातार बनारस जाना हुआ। संयोग ही रहा कि जब-जब नरेंद्र मोदी 2014 के बाद बनारस गए, मैं वहां मौजूद था। मेरे बचपन के दोस्त और सहपाठी जो अब शहर में रहकर व्यापार कर रहे हैं, उनकी समझ बहुत साफ दिखती थी। वे मानते थे कि आंदोलन से कुछ नहीं निकलेगा और लोग सब कूछ बेचबाचकर, जो भी मिले ले देकर सुरक्षित ठिकानों की ओर निकल लेंगे। विजय ने तभी कहा था, ‘’शहर इतना फैल गया है, यहां लोगों के पास गाड़ी खड़ी करने की जगह नहीं है। बताओ, कोई कैसे रहेगा। हम लोग ही स्कूटी लेकर चलते हैं तब भी जाम में फंसे रहते हैं। फिर गली में रहने वाला आदमी क्यों नहीं बाहर निकलना चाहेगा?”
पक्कामहाल के पतन से पहले 15 मई को कैंट स्टेशन के पास एक निर्माणाधीन फ्लाईओवर की बीम गिर गई। आधिकारिक रूप से 18 लोग मारे गए, हालांकि स्थानीय लोगों के अनुसार संख्या ज्यादा थी। वीडियो वायरल हुआ कि पोस्टमॉर्टम के लिए सरकारीकर्मी मृतकों के परिजनों से तीन सौ रुपये रिश्वत मांग रहे थे। पूरे देश ने बनते हुए क्योटो का यह हादसा देखा। कैमूर के लोकगायक ओमप्रकाश दीवाना का बनारस फ्लाइओवर हादसा वाला बिरहा सुनकर सहेड़ी से लेकर देवकली तक गाजीपुर के लोग चीत्कार उठे, लेकिन इन सब से निर्लिप्त अविनाशी राष्ट्रऋषि सीधे सितम्बर में अपना जन्मदिन मनाने अपने संसदीय क्षेत्र पहुंचे।
इसके बाद की कहानी इतिहास है। प्रधानमंत्री के दौरे के दसेक दिन बाद अचानक शहर में जैसे भूचाल आ गया। एक-एक कर के नक्शे से सैकड़ों बरस पुरानी गलियां ही मिटा दी गईं। आधा किलोमीटर चौड़ाई और इससे ज्यादा लंबाई में पक्कामहाल के एक हिस्से को फुटबॉल का मैदान बना दिया गया। कारमाइकल लाइब्रेरी, वृद्धाश्रम, अनंत भवन, पंडित कमलापति त्रिपाठी की पुरानी कोठी, गोयनका छात्रास सहित 300 से अधिक घरों और मंदिरों को मलबे में तब्दील कर दिया गया। लाहौरी टोला, सरस्वती फाटक, ललिता गली, मलिन बस्ती, सब बेनिशान इतिहास हो गए।
एक सुबह खंडहर के बीच सबसे आखिरी बचे बाशिंदों में संघ के पुराने प्रचारक मुन्ना मारवाड़ी बैठे हुए दिखे। वे निर्वात में गुम थे। आवाज बैठी जा रही थी, लेकिन वे हटने को तैयार नहीं थे। उनका दुख अपार था। बात करते-करते वे बस रोये नहीं। अंतत: उन्हें प्रशासन ने हटा दिया। सब तोड़-ताड़ दिया। विस्थापन के बाद उनसे मिलने मंड़ुवाडीह वाले घर मैं गया था। वह घर जिंदगी की अस्त-व्यस्तता का जीता-जागता उदाहरण था। घर में एक कुर्सी तक नहीं थी। मुन्नाजी ज्यादा दिन नहीं जी सके। शायद डेढ़-दो साल। मंड़ुवाडीह की गलियों में गुमनामी में गुजर गए। बनारसियों ने मंड़ुवाडीह स्टेशन का नाम ‘बनारस’ रखे जाने के लिए चलाए गए ‘संघर्ष’ का जश्न मनाकर अपना दिल बहला लिया। बाद में यही हाल मंडन मिश्र के वंशज व्यास जी का हुआ।
धरोहर बचाओ समिति के अधिकतर लोगों ने अपने घर को बेचकर प्रशासन से समझौता कर लिया। प्रधानमंत्री का जन्मदिन इस शहर ने क्या मनाया, एक झटके में आंदोलन बिखर गया। विध्वंस से गर्दो-गुबार ऐसा उठा कि बनारस की हवा जहरीली हो गई और नवंबर, 2018 में पीएम स्तर (पार्टिकुलेट मैटर/सूक्ष्म धूलकण) चार सौ तक पहुंच गया। शहरी विकास मंत्रालय की रिपोर्ट में स्वच्छता के मामले में बनारस शहर 29 से 70वें पायदान पर सरक चुका था। इसी जहरीली हवा में 2019 का लोकसभा चुनाव होना बदा था, जब बेहतर कीचड़ में बेहतर कमल खिला और भाजपा तीन सौ सीटें पार कर गई। क्या ही विडम्बना है कि मौजूदा चुनाव में पीएम ने 400 का स्तर पार कर जाने का नारा दे डाला है।
विध्वंस के कुछ दृश्य, बनारस 2018
![A broken Nandi statue inside rubble on the Ghats of Varanasi](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/nandi-1024x768.jpg)
![](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/FB_IMG_1553481170275-1024x627.jpg)
![](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/IMG20190307083106-1024x512.jpg)
![](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/IMG20190307082952-1024x413.jpg)
उससे पहले हालांकि शहर में एक और बवाल हुआ था, जब दिसंबर में नगवा के पास सैकड़ों की संख्या में कूड़े में फेंके हुए शिवलिंग लोगों को दिखे। कुछ सुधी लोगों ने कूड़े में अनाथ पड़े विग्रहों के वीडियो बनाकर डाले तो प्रशासन उनके पीछे पड़ गया। बाद में प्रशासन ने खंडन भी जारी कर दिया। शिवलिंगों को नगर निगम के वाहनों में भरकर जाने कहां ले जाया गया। उधर काशी विश्वनाथ के ‘सुगम दर्शन’ के लिए 300 रुपये का टिकट लगा दिया गया, तो गंगा में क्रूज चलाने की घोषणा पर मल्लाहों ने आंदोलन छेड़ दिया।
इसी पृष्ठभूमि में ऐलान हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 8 मार्च, 2019 को काशी विश्वनाथ कॉरीडोर का उद्घाटन करने बनारस आएंगे। मैं हफ्ते भर पहले शहर पहुंच चुका था। अपनी आंखों के सामने हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की शक्ल ले चुके पक्काप्पा को बड़े-बड़े बिलबोर्ड और होर्डिंगों से पाटे जाते देख रहा था। चौक पर काशी विश्वनाथ के दर्शन के लिए एक विशाल द्वार खड़ा हो चुका था जहां से ज्ञानवापी मस्जिद बमुश्किल ही नजर आती थी। उसे विकास से घेर दिया गया था।
![Initial view of Ganga from the rubble of Pakkamahal in Varanasi, 2019](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/ganga-768x1024.jpg)
वह सुबह ललिता घाट और जलासेन घाट पर रहने वाले दलितों के लिए कैद लेकर आई थी। अपने परिवार का पीढ़ियों पुराना मकान ध्वस्त होता देखने के लिए इटली के मिलान से आए विवेक और उनके दोस्त मलबे पर बैठे गांजा फूंक रहे थे। वे और उनकी मां प्रधानमंत्री से मिलकर अपना हाल बताना चाहते थे, लेकिन पुलिस ने पूरी मलिन बस्ती को ही बंधक बना लिया था। जब तक मोदी शहर से लौट नहीं गए, वहां किसी को जाने नहीं दिया गया। बहुत जल्द वहां के लोगों को वरुणापार कादीपुर की अम्बेडकर बस्ती में विस्थापित कर दिया गया। अगले छह महीने तक मेरे पास विवेक की मां का फोन आता रहा। विवेक मिलान लौट चुका था।
विवेक जैसे लड़के अब बनारस के घाटों पर कम दिखते हैं। एक समय था जब बनारस के बलिष्ठ घाटिया लड़कों से विदेशी औरतों को प्रेम हो जाता था। विवेक उन्हीं में एक था। उसे इटली की एक लड़की से प्यार हो गया था। दोनों ने दस महीने पहले शादी कर ली थी। लड़की उसे इटली के अपने गांव ले गई थी। वहां उसके पास करने को कुछ नहीं था, तो उसने एसी बनाने का काम सीखा। वह रोज मिलान के उस गांव से शहर जाकर एसी बनाता था और दोनों खुशी-खुशी मेहनत मजूरी कर के साथ रहते थे। जब मां का फोन विवेक के पास आया, कि घर तोड़ा जा रहा है तो उसने सीधे बनारस की फ्लाइट पकड़ ली। वह नहीं जानता था कि उसके आने से कुछ नहीं बदलने वाला क्योंकि उससे पहले ही विकास बनारस पहुंच चुका था। विकास ने शहर का विवेक हर लिया था।
लोकसभा चुनाव 2019 आया। मोदी फिर से जीत कर बनारस के सांसद और प्रधानमंत्री बने। एक फौजी तेजबहादुर यादव का नामांकन खारिज किया गया। स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का परचा भी खारिज हो गया। वे कचहरी पर ही धरणे पर बैठ गए। कहते हैं इसे बाकायदा खारिज करवाया गया। दिल्ली में जब बदलावपसंद लोग तेजबहादुर के लिए संजीदा हो रहे थे, काशी के सर्राफा व्यापारी मसूद अजहर को ग्लोबल टेरररिस्ट का दरजा दिए जाने का जश्न मना रहे थे जबकि अपने केजरीवाल पार्ट टू के लिए मूलगादी कबीर मठ में एक बार फिर से सांस्कृतिक प्रतिरोध की खातिर जुटने की तैयारी कर चुके बनारस के बुद्धिजीवी परचा खारिज होने के बाद कार्यक्रम रद्द कर के आसमान तक रहे थे।
तेजबहादुर की ही तर्ज पर इस चुनाव में कॉमेडियन श्याम रंगीला के साथ भी बनारस में व्यवहार हुआ है। बहरहाल, अजय राय अब भी डटे थे, केजरीवाल 2014 के बाद इस शहर में दिखे ही नहीं थे, लेकिन मोदी की जीत अपरिहार्य थी। इस बीच बनारस के साधु संतों ने एक अद्भुत काम किया। वे खुद अपने हाथ में फावड़ा लेकर असि नदी का कचरा साफ करने में जुट गए। कौन नहीं जानता कि वाराणसी में ‘असि’ दरअसल उसी नदी से आता है जो बरसों से नाला बनी हुई है। साधुओं ने इस बार नाले को वापस नदी बनाने की ठानी तो असि की आंख भर आई। असि ने बनारस के सांसद नरेंद्र मोदी को अपने एक दूत के माध्यम से एक खुला पत्र भेजा जिसे सांध्य दैनिक काशीवार्ता ने छापा।
कचरा तो बढ़ता गया, कम नहीं हुआ। अब काशी के मलबे पर केवल क्योटो की सजावट होना बाकी थी। बीएचयू से लेकर वरुणापार और पक्कामहाल तक आंदोलनों का पानी न सिर्फ नापा जा चुका था, उसे सुखा भी दिया गया था। जो घाटिया कहीं और चले गए थे, वे इतिहास हो गए। जो बच रहे हैं, वे तब से चुप हैं।
2014 से 2019 तक जो कुछ भी बनारस में विकास के नाम पर हुआ, उसका असर 2020 के बाद दिखा। गंगाजी घाटों की सीढ़ियाँ छोड़ कर जाने लगीं। जितना मलबा गंगा में फेंका गया, उसके कारण लॉकडाउन में गंगा का पानी हरा हो गया। उस पर काई जम गई। बुजुर्ग बताते हैं कि यह भी पहली बार हुआ। शहर में एक लड़की को सांड़ ने मार डाला, तो सांड़ों के खिलाफ आंदोलन हुआ। यह भी पहली बार हो रहा था उस शहर में, जिसे रांड़ सांड़ सीढ़ी संन्यासी मिलकर बनाते रहे हैं। जब प्रशासन द्वारा शहर से सांड़ों को निर्वासित कर के सरहदों के बाहर छोड़ दिया गया, तो आंदोलन करने वाले कुछ बोल नहीं पाए। प्रधानमंत्री मोदी के एक दौरे से पहले कुछ कुत्तों को भी इंजेक्शन देकर नगर निगम ने मार डाला।
एक मिथकीय दौर था जब शिव ने अपने गणवेशों, भूत-प्रेतों, देवियों और देवों और इस शहर में एक-एक कर भेजकर राजा दिवोदास के अहंकार को चकनाचूर किया था और काशी को अविमुक्त बनाया था। काल का पहिया 2020 में उलटा घूम चुका था। नया राजा शिव के नंदी को शिव की प्रजा के कहने पर निर्वासित कर चुका था। केवल शिवभक्तों के निर्वासन की देरी थी। नागरिकता कानून में संशोधन विरोधी आंदोलन ने इसे भी मुमकिन बना डाला।
इस आंदोलन में दर्जनों लोगों के ऊपर एफआइआर हुई, नौजवानों और युवतियों को जेल में रखा गया। लोगों को उनके घरों में नजरबंद किया गया। बगावत में उतरे पंडितों को सड़क पर आकर पूजा करनी पड़ी। अलग-अलग कारणों से नए सिरे से आंदोलित हुआ पूरा शहर अचानक भभक कर फिर से बुझ गया। यह सब कुछ अखबारों में छपा। जिसने पढ़ा और जिसने नहीं, सब चुप रहे।
कोरोना-काल: अंतिम आजमाइश
मार्च 2020 में एक वायरस आया। अचानक लॉकडाउन लगा। इस दौरान की दो अहम घटनाएं उल्लेखनीय हैं। लॉकडाउन के शुरुआती हफ्ते में दो पत्रकारों ने कोइरीपुर के मुसहरों के अंकरी घास (जंगली घास) खाने की खबर को प्रकाशित किया और उनकी भुखमरी की ओर प्रशासन का ध्यान आकृष्ट किया। इसका नतीजा यह हुआ कि पत्रकारों को जिला प्रशासन से नोटिस मिल गया।
जिलाधिकारी कौशलराज शर्मा ने अपने बेटे के साथ वही जंगली खास खाते हुए एक फोटो फेसबुक पर डालकर यह साबित करने की कोशिश की कि वह खाने योग्य चीज है यानी भुखमरी की बात झूठी थी और प्रशासन को जानबूझ कर बदनाम किया गया है। इस पर काफी प्रतिक्रयाएं देश भर से आईं, लेकिन हो-हल्ले के बीच लॉकडाउन में एक प्रतिभाशाली युवा पत्रकार रिजवाना तबस्सुम ने शहर में खुदकशी कर ली और इस त्रासदी पर शहर की आंखें नम नहीं हुईं।
रिजवाना तमाम समस्याओं के अलावा बुनकरों की बदहाली पर लगातार लिखती थी। वह उन्हीं के बीच रहती थी। लॉकडाउन में मुसहरों के साथ बुनकरों की भुखमरी का मसला भी उठा। पहले पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने बुनकरों की भुखमरी पर बयान दिया। उसके बाद दस दिन में बनारस से दो पत्र बुनकरों की बदहाली के सम्बंध में भेजे गए। सबसे पहले 15 अप्रैल, 2020 को जिला खाद्य सुरक्षा सतर्कता समिति के सदस्य और मानवाधिकार जन निगरानी समिति के प्रमुख डॉ. लेनिन ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को बजरडीहा के आठ परिवारों के सम्बंध में एक पत्र लिखा, जो भुखमरी की कगार पर थे।
इसके सप्ताह भर बाद बुनकर दस्तकार अधिकार मंच के अध्यक्ष इदरीस अंसारी ने बनारस के सांसद और प्रधानमंत्री को ख़त लिखकर करघों को खेले जाने और बुनकरों की आर्थिक मदद करने की गुहार लगाई। जब इस पर सुनवाई नहीं हुई, तब कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने ट्वीट किया और मुफ्ती-ए-बनारस ने अपने सांसद और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से बिजली दर की पुरानी व्यवस्था बहाल करने की मांग करते हुए एक अपील जारी की।
मुसहरों और बुनकरों की भुखमरी कोरोना के दौर में बनारस के लोगों के लिए सवाल ही नहीं बन पाई। यहां-वहां से बनारस आ रही ट्रेनों के डिब्बों से प्रवासी मजदूरों की लाशें निकलीं, लेकिन इस पर भी कोई हलचल नहीं हुई। लॉकडाउन खुला, तो महात्मा गांधी के नाम पर चलाए जा रहे स्वच्छ भारत मिशन के तहत बनारस में राष्ट्रपिता से जुड़े महत्वपूर्ण स्मृतिस्थल गांधी चौरा को विकास के बुलडोजर ने ढहा दिया। नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या के बाद उनके अंतिम संस्कार के पश्चात उनकी अस्थियों को विसर्जन के लिए बनारस लाकर जनसामान्य के दर्शन के लिए बेनियाबाग मैदान में रखा गया था। बाद में स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर राजगोपालाचारी के हाथों इसी जगह पर गांधी चौरा की नींव रखी गई थी।
इतना ही नहीं, जब गांधी चौरा को तोड़ा गया उसी समय राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय और संस्कार भारती ने संयुक्त रूप से बनारस रंग महोत्सव 2021 का आयोजन किया, जिसमें ‘गोडसे’ नाम का एक नाटक खेला जाना तय था। इस पर विवाद हो गया। बाद में नाटक को वापस लेना पड़ा।
संयोग नहीं है कि लॉकडाउन के पहले हफ्ते में ही उत्तर प्रदेश में 6079 एफआइआर दर्ज हुईं और इसमें बीस हजार के आसपास व्यक्तियों को आरोपित बनाया गया। कोरोना की आड़ में दमन की विराटता को समझने के लिए बस इतना जान लें कि 2020 में लॉकडाउन के पहले महीने में उत्तर प्रदेश में 19448 एफआइआर दर्ज की गईं और 60,258 व्यक्तियों पर आइपीसी की धारा 188 व महामारी अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज किया गया (बार एंड बेंच, 17 अप्रैल 2020)। हालत यह हो गई थी कि इतनी भारी संख्या में दर्ज की गई एफआइआर को खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका लगानी पड़ गई।
2020 और 2021 के लॉकडाउन में यानी मोटे तौर पर दो साल के भीतर जितने पत्रकारों को महामारी अधिनियम के तहत नोटिस पकड़ाये गए या जिनका उत्पीड़न हुआ है उसकी गिनती व्यावहारिक तौर पर नामुमकिन है। जिन पत्रकारों की मौत महामारी से हुई, उसमें लचर चिकित्सा व्यवस्था और राजकीय कुप्रबंधन का योगदान रहा। लखनऊ में अकेले अप्रैल 2021 में वेंटिलेटर न मिल पाने से आधा दर्जन पत्रकारों की मौत हो गई थी (पायनियर, 23 अप्रैल 2021)। इनमें वरिष्ठ पत्रकार विनय श्रीवास्तव की मौत पर तो काफी चर्चा हुई थी जो अपनी अंतिम सांस तक मुख्यमंत्री और अफसरों को ट्वीट करते रहे। कोविड से उत्तर प्रदेश में पहली दर्ज मौत आगरा के पत्रकार पंकज कुलश्रेष्ठ की थी। रिजवाना की खुदकशी इसके ठीक बाद हुई थी।
कोरोनाकाल में उत्तर प्रदेश पत्रकारों की कत्लगाह में तब्दील होता दिखा। यह वही अवधि है जब तमाम बुनियादी संवैधानिक अधिकारों को लॉकडाउन के साये में ताखे पर रख दिया गया। इसे 2014 से तब तक चली प्रक्रिया के आलोक में ही देखा जाना होगा। पहले छात्रों को शांत करवाया गया। फिर शहरवासियों, मल्लाहों, किसानों आदि से प्रशासन निपटा। अंत में पेशेवर अभिव्यक्ति के सहारे इनके दुख-दर्द को सामने लाने वालों की जबान बंद की गई। रातोंरात घाटों की दीवारों पर रहस्यमय पोस्टर उभर आए जिनमें हिन्दू के अलावा दूसरे धर्म के लोगों का प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया और शहर में चूं तक नहीं हुई। ध्यान दें, तो 2020 के बाद बनारस का बचा-खुचा मीडिया भी समाज के बारे में बोलना बंद कर चुका था।
![Posters prohibiting non-Hindus entry on Ghats in Varanasi](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/ghat-poster-1024x512.jpg)
इसीलिए कोरोनाकाल के बाद बनारस से दमन की घटनाएं आम हो गईं लेकिन उनकी रिपोर्टिंग बंद हो गई। किसान आंदोलन के दौरान किसानों के ट्रैक्टर मार्च से पहले सरकार ने बनारस के 6500 ट्रैक्टर मालिकों को नोटिस भेजा, तो बीते तीन साल के दौरान हर बार प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा के दौरान कुछ चुनिंदा व्यक्तियों को शांतिभंग की आशंका में नोटिस थमाया जाने लगा। इसे वहां के मीडिया में ‘न्यू नॉर्मल’ मान कर उपेक्षित किया गया। बीएचयू में ‘कम्युनिस्टों का प्रवेश वर्जित है’ लिखे पोस्टर चिपकाए गए, तो बनारस के राजघाट पर गांधीवादी संस्थान सर्व सेवा संघ पर कब्जे का नया संघर्ष शुरू हुआ। शहर के भीतर गांधी चौरा तोड़े जाने के बाद अब शहर की चौहद्दी से गांधी का प्रतीक हटाने की बारी थी।
यह उद्यम पिछले साल ही पूरा हुआ। सर्व सेवा संघ और रेलवे के बीच जमीन के मालिकाने का पुराना विवाद था। इस मामले में डीएम ने रेलवे के हक में फैसला सुनाया। रातोरात परिसर खाली करवाया गया, उस पर ताला जड़ा गया, और विरोध करने वाले गांधीवादियों को हिरासत में ले लिया गया। गदर से पचहत्तर साल पहले अंग्रेजों के खिलाफ गदर काटने वाले मलंग बनारसियों का यह शहर दूसरे गांधी प्रतीक की हत्या पर चुप रहा।
विसर्जन
बीते दस साल में ‘काशी को क्योटो’ बनाने का सुनियोजित अभियान नरेंद्र मोदी की सांसदी में कुछ इस तरह से चलाया गया है। बनारस की बची-खुची सफाई जी-20 के लिए सुंदरीकरण के नाम पर कर दी गई। यह खण्डकाव्य पढ़ने में लंबा लगे पर बनारस की तबाही का गुटका संस्करण है, संपूर्ण नहीं। दिन-ब-दिन अगर दस साल का हिसाब लिखना हो तो दस किताबें बन जाएं। वरिष्ठ पत्रकार सुरेश प्रताप ने केवल पक्कामहाल की तबाही की साल भर की अपनी दैनिक डायरी को जोड़ के ‘उड़ता बनारस’ नाम की पौने पांच सौ पन्ने की एक किताब लिख डाली है।
बनारस हालांकि अब वाकई बदला हुआ दिखता है। कुछ घाटों को समूल ही बेच दिया गया है, जैसे अहिल्याबाई घाट। गंगा के पार रेती पर छह किलोमीटर लंबी एक नहर तीन साल पहले करोड़ों की लागत से बनाई गई थी, जो अब बह चुकी है। गुजरात के व्यापारियों ने एक टेंट सिटी उस पार रेती पर बनाई है। इनमें एक टेंट सिटी चलाने वाली वह कंपनी है जिसने कच्छ के धौलीविरा में नाजुक पर्यावरणीय क्षेत्र में भी तंबू गाड़ रखे हैं।
बनारस में पहली बार
![Letter written by residents of Ahilyabai Ghat, Varanasi](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/ahilyabai-768x1024.jpeg)
![Fungus on Ganga water in Varanasi](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/kaai-1024x768.jpg)
![A canal built on sand in Varanasi](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/nahar.jpg)
शहर में बीते दो-तीन साल में दर्जनों नाइट बार और सेल्फी प्वाइंट उग आए हैं। रात में घाटों पर टहलना अब पहले की तरह सहज नहीं रह गया है, लेकिन देर रात बार में नाचने की पूरी छूट है। सिगरा के एक बार में चप्पल या सैंडिल पहनकर जाने वालों की एंट्री नहीं है। महमूरगंज की एक इमारत की छत पर स्थित एक बार में अकेले नहीं घुसने देते। जोड़ी होनी चाहिए। ऐय्याशी के लिए महानगरों वाले सारे नियम-कायदे यहां सख्ती से लागू किए जा रहे हैं। क्योटो तो नहीं, पर बनारस के भीतर एक मिनि बंबई जरूर उग आई है।
बाकी बनारस, जो कभी भी शहर नहीं था लेकिन पांच हजार साल से मुसलसल जिंदा था, अब अपने ऊपर ढहाए गए कहर के मलबे में अपने ही निशान ढूंढ रहा है। बनारस के आदमी के साथ 2014 में शुरू हुआ खेल अब लगभग पूरा हो चुका है। लोगों के सिर से भले अब पहले वाला जादू उतर चुका हो, लेकिन इस बार उनके मुखर स्वर में किसी हारी हुई लड़ाई की खोखली अनुगूंज सुनाई देती है। जयशंकर प्रसाद के ‘काशी के गुंडे’ की छाती में खोखल है। खोखल में विकास का मवाद भर चुका है।
खेल की शुरुआत में दस बरस पहले मणिकर्णिका पर औचक मिले उस अधेड़ शख्स की बात फिर से मुझे याद आती है। अखबार पढ़ रहे लड़के जब ”हर हर मोदी” का नारा लगा रहे थे, तो उनकी ओर कातर निगाहों से देखते हुए उसने एक शेर पढ़ा था, ”चुप हूं कि पहरेदार लुटेरों के साथ है, रोता हूं इसलिए क्योंकि घर की बात है।”
यह रोना आज का नहीं, बहुत प्राचीन है। राजा दिवोदास ने केवल शिव को इस शहर में बसने दिया था, इंद्र को पराजित कर के बाकी देवताओं को काशी से खदेड़ दिया था। बदले में काशी के लोगों ने क्या किया? मीरघाट की गली में दिवोदासेश्वर महादेव का एक मंदिर बनवा दिया। दिवोदास के गुरु शुक्राचार्य का भी मंदिर बनवा दिया। आज भी दोनों में पूजा होती है। मूल कहानी इन मंदिरों के नीचे इतिहास के मलबे में दबी है। ठीक वैसे ही, जैसे 2014 के पहले की काशी ‘क्योटो’ के नीचे कराह रही है। शायद पचासेक साल में इस पर कोई बात करने वाला भी न बचे।
नीचे के चित्र से कथा का विसर्जन करते हैं…
![A toilet at Chowk, Varanasi](https://followupstories.com/wp-content/uploads/2024/05/modi-1024x669.jpg)
सभी तस्वीरें और वीडियो अलग-अलग समय पर पिछले दस वर्षों के दौरान लिए गए हैं। कुछ तस्वीरें वरिष्ठ पत्रकार सुरेश प्रताप के फ़ेसबुक से साभार प्रकाशित हैं।