कुम्भ-2025: एक अपराधी की सरकारी प्रेरक-कथा में छुपी मल्लाहों की सामूहिक व्यथा

A Boatman at Sangam
A Boatman at Sangam
कुम्‍भ के दौरान एक नाविक की पैंतालीस दिन में हुई तीस करोड़ रुपये की कमाई वाला यूपी के मुख्‍यमंत्री का असेंबली में दिया बयान इलाहाबाद के मल्‍लाहों के गले की फांस बन गया है। डेढ़ महीने के कुम्‍भ में बमुश्किल औसतन बीस-पचीस हजार रुपया कमा पाने वाले अधिसंख्‍य नाविक प्रशासन और ठेकेदारों के आपराधिक गठजोड़ तले दम तोड़ रहे हैं, जिसने नदी पर आश्रित समुदाय की आजीविका के सारे स्रोत ठेके पर उठा दिए हैं। कुम्‍भ के आयोजन के नाम पर इस बार जो कुछ भी हुआ है, पिंटू महारा उस मॉडल को समझने का प्रतीक है। संगम से सुशील मानव की फॉलो-अप रिपोर्ट

रविवार नौ मार्च, दोपहर का समय। संगम घाट पर एक श्रद्धालु एक नाविक से पूछता है- संगम नहावन घाट तक चलना है, आठ सवारी है, कितना लोगे? नाविक बोलता है- 1200 रुपये साहब! नीली टी-शर्ट वाला गोरा-चिट्टा ग्राहक एकदम से तनकर कहता है- कुम्भ में तुम लोगों ने 30-35 करोड़ रुपये कमाए हैं। क्या करोगे इतना पैसा? कहां लेकर जाओगे? युवा मल्लाह जवाब देता है- जिसने कमाया है उसने, हमने नहीं कमाया

सूबे के मुख्यमंत्री ने जब से विधानसभा में कुम्‍भ के दौरान डेढ़ महीने में एक नाविक की तीस करोड़ कमाई वाला बयान दिया है तब से घाट पर नाविकों और नहावन के लिए प्रयागराज आने वाले लोगों के बीच कुछ इसी तरह की रस्साकशी चल रही है। लोग हर नाविक, हर मल्लाह को लुटेरा मानने लगे हैं। मल्लाह समुदाय के नाविकों, चौंधियारों और खेवा देने वालों में सरकार और मेला प्रशासन के प्रति बहुत गुस्सा है। उनका आरोप है कि कुम्भ के दौरान उन्हें कमाने-खाने नहीं दिया गया और नदी में नाव चलाने के सदियों के पारंपरिक अधिकार से वंचित कर दिया गया।


संगम पर दम तोड़ रहा है नाव, नदी और नाविक का रिश्ता


ग्राहक की बातों से खिन्न एक युवा नाविक प्रतिकार में कहता है- “एक हिस्ट्रीशीटर गैंगस्टर की वसूली और दूसरों की हकमारी को मुख्यमंत्री ने मल्लाहों की कमाई बता दिया, लेकिन उसका नाम नहीं लिया। आखिर नाम क्यों नहीं लिया?  क्योंकि उनको भी यह बात अच्‍छे से पता है कि अगर हिस्ट्रीशीटर का नाम ले लिया तो फंस जाएंगे। लेकिन उसकी एक नाव से कितनी आमदनी हुई इसका हिसाब योगी जी को पता है। और क्यों नहीं पता होगा? उसकी तमाम नावों से रात में पैसे बोरों में भर-भर कर ले जाए जाते थे। उस वक्‍त गिनने की फ़ुर्सत किसे थी। जरूर पिंटू महरा के पैसे सरकार और प्रशासन ने ही बैठकर गिने होंगे।‘’  

छतनाग निवासी राज कुमार कश्यप के पास अपनी एक छोटी नाव है। वे बताते हैं कि कुम्भ के दौरान झूंसी और छतनाग क्षेत्र में नाव ही नहीं लगाने दी गई। कुम्भ के दौरान पुलिसवाले उधर गश्त देते थे कि झूंसी और छतनाग से कोई नाव न चले। दारागंज निवासी मंगल निषाद और राजेश निषाद घाट पर रहकर खेवा देने का काम करते हैं। वे बताते हैं कि झूंसी और छतनाग में 200 से अधिक नावें हैं जिन पर दो- ढाई हज़ार लोगों को रोजी-रोटी निर्भर है। इन घाटों पर गैंगवालों का एकाधिकार था।



प्रशासन द्वारा ऐसा क्यों किया जा रहा था? इसके जवाब में मंगल निषाद बताते हैं कि गैंगवालों ने पुलिस के बड़े अधिकारियों को पैसा देकर सबकी नावें बंद करवाई थीं ताकि जो भी श्रद्धालु बाहर से आएं वे संगम घाट या अरैल घाट से ही नावों पर बैठकर नहाने जाएं। राजेश निषाद कहते हैं, ‘’आप पूंजी के दम पर सैंकड़ों नई नावें बनवाकर दरिया पर उतार सकत हो, लेकिन इन नावों को चलाने के लिए हुनरमंद लोग कहां से लाओगे? ये तो ऐसा हुनर है कि जिसे आप रातोंरात या कुछ हफ्तों-महीनों में नहीं सीख सकते। पिंटू महरा की नई नावों पर हुनरमंद लोगों की आपूर्ति के लिए तमाम नावों को चलने ही नहीं दिया गया। इस तरह हजारों लोग बेरोजगार हो गए। फिर उन लोगों को 300 से 400 रुपये की दिहाड़ी पर नाव चलाने के काम पर रख लिया गया। बकिया, यात्रियों से पैसा बटोरने के लिए उनके लोग नाव पर रहते थे।‘’

संगम की बीच धारा में नहावन घाट लगाने वाले गोताखोर रूप चंद कलंदर बताते हैं कि कुल मिलाकर कुम्भ में 80 घाट हैं जिसमें 25-26 मुख्‍य घाटों पर गुंडों-माफियाओं का कब्‍जा है। पिंटू महरा के अलावा, गगन छगन, अंगद, पंकज, मूलचंद्र, बाँके, अशोक, लवकुश की नावें लगी हुई थीं। ये सब राजनीतिक रूप से संरक्षि‍त लोग हैं। छगन की पत्नी कांग्रेस पार्टी के टिकट पर सभासद रह चुकी हैं। पिंटू महरा को जहां भाजपा नेता अशोक वाजपेयी का परिवार संरक्षण देता है, वहीं बर्रू बाँके के लड़कों को कांग्रेस नेता अनुग्रह नारायण सिंह का संरक्षण हासिल है। कलंदर बताते हैं कि ये लोग पिछली दो पीढ़ियों से न तो नाव चलाते हैं, न गोताखोरी करते हैं, न खेवा देते हैं। बावजूद इसके इन लोगों ने पुलिस और सरकार की मदद से नदी पर कब्जा कर रखा है। ये पांच-छह परिवार आपस में रिश्तेदार भी हैं।

अरैल के वीआइपी घाट, बोट क्लब तक केवल इन्‍हीं परिवारों की नावें चली हैं। प्रशासन ने तमाम घाटों पर क़ब्जा करके रखा ताकि सामान्य मल्लाहों की नावें न लगने पाएं। खेवादार बताते हैं कि इन परि‍वारों से अलग कोई नाव अगर चली भी तो उस पर पुलिस की निगरानी रहती थी। पुलिस के लिए काम करने वाले कुछ लोग घाट पर वापस आते ही नाविकों से पूछते थे कि कितने की सवारी लेकर गया था। इस तरह कुम्भ के दौरान एक सामान्य नाव वाले से 10-20 हजार रुपये की वसूली की गई।



नाविक समुदाय संगठन के कार्यकारिणी सदस्य विशम्भर पटेल बताते हैं कि नदी में कम से कम पांच हजार नावें हैं, लेकिन मेला प्रशासन ने इन्हें कुम्भ में चलने नहीं दिया। पटेल बताते हैं कि नाव खेने वालों की आजीविका परंपरागत रूप से समुदाय की आपसी समझ और साझा सरोकारों पर टिकी रही है। अपने-अपने हुनर के अनुसार यहां सबके काम बंटे थे। लोग काम सीखते और अपने अगुवा की देखरेख में आजीविका कमाते थे। सरकार-प्रशासन और अपराध के गठजोड़ ने जब से इसमें पैसा कमाने का रास्ता तलाशा, तब से चीजें बिगड़ने लगीं।

वे कहते हैं, ‘’पिछले 15 वर्षों में कुम्‍भ का आयोजन ज्यादा कुरूप हुआ है। दरिया से बालू खनन में मिलने वाली चीज की बाजार में कीमत लगती है, लेकिन नाव चलाना तो सेवाकार्य है। इन लोगों को डराकर, इनसे वसूली करके, इनके खून-पसीने की कमाई पर गैंगस्टर जोंक की तरह पलना शुरू हुए। आज वे इतने ताक़तवर बना दिए गए हैं कि खुद अपनी नावें लगाकर इन लोगों की नावों को ही दरिया से बाहर कर दिया।‘’  

रूपचंद कलंदर की अगुवाई में चौंधियार यूनियन और इलाहाबाद नाविक यूनियन ने 22 दिसंबर, 2023 को पुलिस कमिश्नर को एक मांगपत्र दिया था और बताया था कि किस तरह से वहां पर ज्‍यादती हो रही है। वे बताते हैं कि 11 जनवरी को उन्‍होंने अनशन किया और मुख्य सचिव, गृहसचिव, सबको मांगपत्र भेजा लेकिन मेला प्रशासन ने मुनाफे में हिस्सेदारी के लिए मल्लाहों का जीवन छिन्न-भिन्न कर दिया, उन्हें रोजी-रोटी से महरूम कर डाला।


Letter from Boatmen Unionn to administration against contract system

पहले संगम किनारे मल्लाहों, नाविकों और खेवादारों के बैठने की अपनी जगह हुआ करती थी। पहलवान घाट, पाकड़ घाट, बरगदहिया घाट, राम घाट, माली घाट, धुस्सा घाट, ऐसे कई नामी घाट थे जहां मेले में मल्लाह बैठा करते थे। मेले में नोज घाट पर बाकायदा मल्लाहों के बैठने-उठने के लिए टेंट अलॉट किया जाता था। मल्‍लाहों के अलावा नाविक यूनियन के लोग भी वहां बैठते थे। विशम्भर पटेल और बबलू निषाद बताते हैं कि कभी पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह भी पहलवान घाट पर नाविक यूनियन की बैठक में शामिल हुए थे। प्रशासन ने मल्लाहों की बैठकी के करीब 16-17 घाटों को खत्म करके मल्लाहों के ठीहे को ही ध्वस्त कर दिया।

मल्‍लाह समुदाय के लोग ही घाटों पर पूजा-सामग्री भी मुहैया करवाते थे। नाविकों के अलावा ऐसी छिटपुट बिक्री करने वाले भी घाटों के स्‍वाभाविक हिस्सेदार रहे हैं। नाविक संदीप नीबी बताते हैं कि इस कुम्भ में मल्लाहों के समूचे समुदाय को ही हतोत्साहित किया गया और प्रशासन ने घाटों से उनकी हकदारी छीन ली। वे बताते हैं, ‘’हम लोग प्रशासन से चर्चा करना चाहते थे कि वह हमें जगह दे, व्यवस्थित जगह दे, पर हमारी सुनवाई ही नहीं हुई।‘’ वे बताते हैं क‍ि नाविकों के हितों और अधिकारों की बात उठाने वाले नवयुग चौंधियार युवक संघ, इलाहाबाद और इलाहाबाद नाविक यूनियन जैसे संगठनों से पुलिस ने कोई बात ही नहीं की।

कलंदर कहते हैं, ‘’आपको अगर मल्लाहों पर, नाववालों पर, दरिया पर रोटी कमाने वालों पर बात करनी है तो पहले इस समाज को, यहां कि लोकतांत्रिक कार्यपद्धति को समझना होगा। एक नाव के पीछे पांच-दस परिवारों की रोजी-रोटी चलती है। इसमें कोई मालिक-नौकर वाला रिश्ता नहीं होता है।‘’



इस व्‍यवस्‍था को समझाते हुए विशम्भर पटेल बताते हैं कि नदी और इसके किनारों पर मल्लाहों के लिए कई तरह के काम होते हैं। नाव चलाने वाला नाविक होता है। एक बड़ी नाव को कम से कम दो लोग मिलकर चलाते हैं। फिर चौंधियार या गोताख़ोर होते हैं। ये लोग नहावन घाट पर जहां नाव बांधी जाती है वहां नाव पर रहते हैं और किसी दुर्घटना की स्थिति में या नहाते समय किसी के साथ हादसे होने पर गोता लगाकर उनकी जान बचाते हैं। साथ ही लोग गंगा में डुबकी लगाकर पैसा, नारियल आदि निकालकर अपनी आजीविका चलाते हैं। तीसरे होते हैं खेवा देने वाले खेवादार। ये लोग नदी किनारे सवारियां लाकर नावों में बैठाते हैं। यहां अगर कोई व्यक्ति एक सवारी लाकर बैठा रहा है और दूसरा कह दे रहा है कि मैंने भेजा है तो वह भी कमाई में हिस्सेदार है। इस तरह एक नाव की कमाई में कई अलग-अलग तरह के लोग हिस्सेदार होते हैं।

नहावन घाटों के नावों पर पंडे अपना तामझाम लेकर बैठते हैं। वे भी इसी से कमाई करते हैं। फिर माला, फूल, नारियल बेचने वाले हैं जो इस कमाई के हिस्सेदार हैं। यानी यदि एक नाव से एक बार में एक हजार रुपये की कमाई हो रही है तो वह पांच-सात लोगों में बंटेगी। इसके अलावा, संकट बढ़ने के चलते मल्लाहों की औरतें घरों से निकलकर सामान बेचने की छोटी-मोटी दुकानें लगाती हैं संगम के किनारे। यानी नदी की कार्य-संस्कृति सामूहिक भागीदारी से होने वाली आमदनी में सामूहिक हिस्सेदारी की रही है। काम और आय में भागीदारी और हिस्सेदारी की इसी सामूहिक व्यवस्था को ठेकेदारी व्यवस्था में तब्दील करके उसे एक हिस्ट्रीशीटर के हवाले कर दिया गया है।  

जीवंतता और कभी हार न मानने, समर्पण न करने की जिद के चलते ही अंग्रेजों द्वारा निषाद समुदाय को अपराधी समुदाय के तौर पर चिह्नित किया गया था। इस कुम्भ में दो सौ लोगों की जान बचाने वाले कलंदर नवयुग चौंधियार संघ के अध्यक्ष हैं। वे कहते हैं, ‘’लहरों और तेज हवाओं में डगमगाती नाव को खेने वाले, गोता लगाकर दूसरों की जान बचाने वाले, हम लोग मौत से नहीं डरते।‘’ कलंदर के पिता देश के मशहूर गोताख़ोर रहे हैं। फिलहाल कुल रजिस्टर्ड गोताखोर या चौंधियार 138 हैं।

छतनाग निवासी सत्येन्द्र और बबलू मिलकर नाव चलाते हैं। बबलू बताते हैं कि इस साल उऩ दोनों ने मिलकर दो दर्जन लोगों की जान बचाई, लेकिन कभी किसी से उसके बदले कुछ नहीं मांगा। अपनी खुशी से जिसने जो दे दिया वही लेकर संतोष किया। बबलू को मेले के बाद सामान्य समय में दिन भर में दो-तीन सौ रुपये की आमदनी हो पाती है। सत्येन्द्र की पत्नी घर पर ही सिलाई का काम करती हैं, तो थोड़ा आर्थिक सहयोग मिल जाता है।



बबलू बताते हैं कि एक छोटी नाव बनवाने की लागत लगभग डेढ़ लाख रुपये और एक बड़ी नाव बनवाने की लागत ढाई लाख रुपये होती है। नावों के लिए बैंक आदि से या कोई लोन नहीं मिलता है, न ही कोई सरकारी मदद मिलती है। बबलू की पत्नी गृहिणी हैं, बेटा आइटीआइ कर रहा है। कलंदर बताते हैं, ‘’हम लोगों ने एक बड़ी नाव से पूरे 45 दिन के कुम्भ के दौरान डेढ़ लाख रुपये कमाये हैं। एक नाव में पांच लोग काम करते हैं। तो ये पांच परिवारों के पांच लोगों की डेढ़ महीने की आमदनी है।‘’

घटती आमदनी और ठेकेदारी व्‍यवस्‍था के चलते खत्‍म हो रही सहकारिता के चलते अब बबलू और सत्येन्द्र दोनों ही नहीं चाहते कि उनके बच्चे इस पेशे में आएं।

नाविक यूनियन के लोग बताते हैं कि कुम्भ की तैयारियों के दौरान ही ये बातें सरकार और प्रशासन के स्‍तर पर फैलाई गईं कि कुम्भ में हर काम की तरह नावें भी ठेकेदारी व्यवस्था के अंतर्गत चलाई जाएंगी। मल्लाह समुदाय ने कुम्भ से पहले ही इसका विरोध शुरू कर दिया था। इन लोगों ने एक दिन का सामूहिक विरोध प्रदर्शन करके प्रशासन को ज्ञापन भी सौंपा था।


Letter from Boatmen Union

यहां अधिकांश नाववालों के पास एक से ज्‍यादा नाव नहीं है। नाविक बताते हैं कि यदि पांच हजार लोगों की नावें चलतीं तो आपको पांच हजार लोगों से हिस्सा मांगने में या मुनाफा बांटने में प्रशासन को दिक्कत होती लेकिन यदि एक व्यक्ति या पांच-छह व्यक्तियों की ही नावें चलें तो आसानी से मुनाफे का बंटवारा संभव था। मुनाफाखोरी के चलते ही सामूहिक व्‍यवस्‍था को ठेकेदारी में बदल दिया गया।

तमाम मल्लाह और नाविक यूनियन के लोग बताते हैं कि महरा परिवार के पास नावें नहीं हुआ करती थीं। वे लोग केवल नावों से वसूली करते थे। इस कुम्भ तैयारी के दौरान महरा परिवार ने पचास से अधिक नई नावें बनवाईं। उनके रिश्तेदार प्रतिद्वंदियों ने भी इसी दौरान दर्जनों नई नावें बनवाईं। आम मल्लाहों ने नई नावें नहीं बनवाईं। नाविकों का मानना है कि इसका सीधा सा मतलब है कि महरा परिवार को शासन-प्रशासन ने आश्वासन दिया होगा कि कुम्भ में सिर्फ़ उऩ्हीं की नावें चलेंगी।

इस कुम्‍भ में उसने किला घाट, वीवीआइपी घाट, बोट क्लब और अरैल समेत अन्य घाटों पर अपनी नई नावें उतार दीं। मल्लाहों का आरोप है कि खुद पुलिसकर्मी इस बार कुम्‍भ में खेवादार का काम करते दिखे। घाट तक कारों से पहुंचने वाले वीआइपी यात्रियों को पुलिसवाले खुद ले जाकर महरा की नावों में बैठा रहे थे। मल्लाहों के आरोप की पुष्टि ख़ुद पिंटू महरा की मां शुक्लावती देवी के बयानों से भी होती है। शुक्लावती देवी का कहना है उनके पास पहले सिर्फ तीन-चार नावें थीं। सितंबर 2024 में 70 नई नावें और सात मोटरबोट खरीदी गईं। उनमें से साठ नावें महरा के साथियों और कुनबे के लोगों की हैं, हालांकि वे यह भी कहती हैं कि उनके बेटे पिंटू ने नाव खरीदने के लिए अपनी पत्नी सुमन के गहने गिरवी रखे थे। जब पैसे कम पड़े तो वह उनसे घर के कागजात और जेवर मांगकर ले गया।

विशम्भर पटेल दलील देते हैं कि अमूमन कोई ठेका होता है तो विज्ञापन निकलता है, टेंडर मांगे जाते हैं, बोली लगती है, लेकिन कुम्‍भ में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। प्रशासन ने इस तरह की स्थितियां तैयार की दीं जिससे पिंटू महरा के परिवार का दरिया पर एकाधिकार कायम हो जाए।


Small boats at Sangam
सवारी ढोने वाली छोटी नावें

इसके बाद की कहानी पटेल बताते हैं, ‘’लोगों को संगम नहलवाने के लिए जो नावें लगीं, वे अरैल घाट, वीआइपी घाट, बोट क्लब और संगम घाट की तरफ लगीं। इधर जो आम मल्‍लाहों की नाव लगाने की जगह थी उसे प्रशासन ने जीटी खड़ा करके घेर लिया। यही काम प्रशासन ने अरैल और वीआइपी घाट पर भी किया। जो जगह बची उधर केवल महरा परिवार और उनके प्रतिद्वद्वियों की नावें लगीं। आम मल्लाहों ने यदि ग़लती से या चालाकी से नावें लगा भी लीं तो वहां ड्यूटी कर रहे पुलिसकर्मियों ने यह सुनिश्चित किया क बाहर से आने वाले वीआइपी यात्री उनकी नावों पर न बैठने पाएं।‘’

स्कॉर्पियो से चलने वाले और आलीशान दोमंजिला मकान में रहने वाले चालीस वर्षीय पिंटू महरा का कहना है कि जब मुख्यमंत्री ने 2019 के अर्द्धकुम्भ का भव्य और सफल आयोजन संपन्न करवाया था तभी से उसने 2025 के कुम्भ में कुछ बड़ा करने की योजना बनानी शुरू कर दी थी। पिंटू महरा को कुम्भ-2025 के आयोजन में चकर्ड प्लेट की सड़कें बनाने, बिजली लाइन बिछाने, बिजली के सबस्टेशन तैयार करने का ठेका भी मिला था। पिंटू की मां शुक्लावती देवी बिजली विभाग में रजिस्टर्ड ठेकेदार हैं और उनके नाम पर कई ठेके चलते हैं। इन कामों के सिलसिले में उनका मेला प्रशासन के बड़े अधिकारियों के साथ रात-दिन का उठना-बैठना था और मेला क्षेत्र की तमाम सेवाओं और उनकी क़ीमतों पर उनका एकाधिकार था।

नदी से बालू की निकासी करवाने और उसकी बिक्री के कारोबार में भी इस परिवार का दखल रहा है। इसके बाद इस परिवार ने नाव संचालन को अपने हाथों में लेना शुरू किया। कहने को तो नदी में नाव चलाने के लिए जल पुलिस या जिला प्रशासन का लाइसेंस लेना पड़ता है, लेकिन असल लाइसेंस पिंटू महरा के पास से मिलता है। नदी में नई नाव उतारने से पहले महरा परिवार को लाख-पचास हजार रुपये देकर उसकी हामी ली जाती है। फिर हर महीने की तयशुदा तारीख पर एक बंधी रक़म देनी होती है। मल्लाहों का कहना है कि पिंटू महरा के खिलाफ किसी थाने किसी महकमे में कोई सुनवाई नहीं होती है। 

मल्लाह समुदाय के लोग बताते हैं कि 2010 के बाद से उसने नाविकों से वसूली करना और नदी पर अपना दबदबा बनाया शुरू किया। इसका कुछ मल्लाहों ने विरोध किया था। विरोध करने वालों में से एक रूपचंद कलंदर का भाई था, जिसकी हत्या का आरोप पिंटू महरा के परिवार पर है।  


Wiring work contract was awarded to Pintu Mahra in Kumbh 2025
बिजली के तार का ठेका भी पिंटू महरा को मिला था

पिंटू महरा और उसके पूरे परिवार की पृष्ठभूमि आपराधिक है। उसके खिलाफ कई संगीन धाराओं में 21 आपराधिक मुकदमे दर्ज़ हैं। उसके खिला दो बार गुंडा ऐक्ट और गैंगस्टर ऐक्ट के तहत कार्रवाई भी हो चुकी है। तीन आपराधिक मामलों में वह अतीक अहमद के साथ सह-अभियुक्त रहा है। रंगदारी और अपने खिलाफ आवाज उठाने वालों में दहशत कायम करना उसके लिए रोजमर्रा का काम है।

उसके परिवार के पांच सदस्यों की हत्या दबंगई और वर्चस्व की लड़ाई में हुई है। वह कई बार जेल जा चुका है लेकिन राजनीतिक संरक्षण के चलते जल्द ही बाहर आ जाता है। पिंटू महरा का पिता राम सहारे उर्फ बच्चा महरा शातिर अपराधी था और उसकी मौत जेल में 25 जून 2018 को हुई थी। उसका बड़ा भाई आनंद महरा भी हिस्ट्रीशीटर था और वर्चस्व की लड़ाई में दो अन्य लोगों के साथ उसकी हत्या हो चुकी है। पिंटू महरा का छोटा भाई अरविंद महरा भी अपराधी है और कई बार जेल जा चुका है।

पिंटू महरा की अपने ही मैसेरे भाइयों बर्रू और बाँके से वर्चस्व का लड़ाई में कई बार दिन दहाड़े गैंगवार हुई है। नवंबर 2017 में पिंटू महरा गिरोह ने बर्रु गिरोह के बीच दिनदहाड़े कई राउंड गोलियां चली थीं। इसी गोलीबारी में घर से सब्जी लेने बाजार निकले अखिलेश त्रिपाठी की गोली लगने से मौत हो गई थी। त्रिपाठी महाप्राण सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के प्रपौत्र थे।



2019 के अर्द्धकुम्भ के आयोजन में पुलिस अधिकारी विजय किरण आनंद के ऊपर भ्रष्टाचार का आरोप लगा था। उनके ऊपर सरकार के बड़े अधिकारियों को मेला से फंड पहुंचाने का आरोप था। अगस्त 2021 में जारी सीएजी रिपोर्ट में बताया गया था कि तमाम विभाग अपने व्यय का ब्यौरा तक नहीं दे पाये थे। उसके बावजूद उन्हें कुम्भ आयोजन का प्रभार दिया गया।

भ्रष्‍टाचार का आरोप प्रयागराज नगर निगम के सफ़ाईकर्मियों द्वारा भी लगाया गया है। कुम्भ के दौरान नगर निगम के सफ़ाईकर्मियों ने ओवरटाइम की मांग की थी। उनकी ड्युटी मेला क्षेत्र में सुबह 7 से दोपहर 2 बजे तक थी, लेकिन उनसे शाम के 5 या 6 बजे तक काम लिया गया। सफ़ाई मजदूर एकता मंच के अध्यक्ष बलराम पटेल बताते हैं कि कुम्भ मेले में जितने ठेका सफ़ाईकर्मियों की तैनाती बताई गई थी, जितने लोगों की हाजिरी लगाई जा रही है, उतने सफ़ाईकर्मी मौज़ूद ही नहीं थे। इसीलिए उनसे अतिरिक्त काम करवाया गया। उनके काम के अतिरिक्त घंटों को ऐसे सफाईकर्मियों की हाजिरी के तौर पर दिखाया गया जो हकीकत में थे ही नहीं। ऐसे काल्पनिक या फर्जी ठेका सफ़ाईकर्मियों की संख्या सैकड़ों में नहीं हजारों में थी, जिनकी ड्यूटी केवल कागजों पर चल रही थी। 

इस कुम्‍भ में अंधेरगर्दी का आलम नदी से लेकर पीने के पानी तक चौतरफा था। संगम की ओर जाने वाली सड़क पर दुकान लगाने वाले एक व्‍यक्ति से बात करने पर पता चलता है कि उल्टा क़िला के इलाके में लगाई गई पानी की टंकियों में पानी ही नहीं आया। वे एक औरत की मार्मिक कहानी सुनाते हैं जिसका बच्‍चा प्‍यास के मारे बीच राह में ही गुजर गया जबकि मेले में कुछ गिने चुने लोगों ने पानी की बोतलें 50 रुपये से लेकर 100 रुपये तक में बेची हैं। वे बताते हैं कि जिस अधिकारी को पानी की जिम्मेदारी दी गई थी उसने पानी की बोतल बेचने वालों से साठगांठ कर रखी थी।



कोई पांच मिनट की बातचीत के बीच में मैंने जब टोकते हुए जब उनसे नाम पूछा तो वे बोले, ‘’अरे, नाम तो… हम लोग निषाद जाति से हई हैं… हम अंधेर नगरी, उलटा किला के पास रहते हैं, हमारा नाम नंदूराम है। जो हमने बात बोला है वो गलत नहीं है, आप किसी अधिकारी से भी पता कर सकते हैं कि पानी वहां आया कि नहीं आया। जिस वि‍भाग को ये काम दि‍या गया था उसके अधिकारी को योगी को पकड़ना चाहिए। पानी क्‍यों नहीं आया, ये पूछना चाहिए।‘’

उलटा किला के रहने वाले नंदू को उम्मीद है कि उनका राजा भ्रष्‍ट अधिकारियों को पकड़ेगा, उनसे जवाब तलब करेगा, लेकिन वे शायद भूल गए कि अंधेर नगरी का राजा हड़बोंग था। इलाहाबाद में शास्‍त्री पुल को पार करते ही झूंसी में दिखने वाली टीलों की श्रृंखला गवाह है कि जब-जब हड़बोंग के राज में अंधेर बढ़ता है, धरती डोल उठती है और एक से एक मजबूत किले भी उलट जाते हैं।


(सभी तस्वीरें और विडियो: सुशील मानव)


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