जनवरी 2023 के शुरुआती हफ्ते में उत्तराखंड के जोशीमठ कस्बे से आई खबरों ने सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा। कई महीनों से धीमे-धीमे धंस रहे कस्बे के एक बड़े हिस्से में लोगों ने 2 जनवरी को और गहरा भू-धंसाव महसूस किया था। जो दरारें बीते कई महीनों से क़स्बे के कई घरों, इमारतों, रास्तों और सड़कों में अलग-अलग स्तर पर देखी जा रही थीं, 2 जनवरी को अचानक और फैल गईं और एक बड़े इलाके में इसका असर महसूस किया जाने लगा।
23 जनवरी 2023 तक जोशीमठ के घरों-मुहल्लों में लगातार बढ़ती जा रही दरारों ने कस्बे के सारे ही 9 वार्डों के कम से कम 863 घरों को अपनी चपेट में ले लिया था। कुछ इलाकों में दरार का प्रभाव ज्यादा था और कुछ में कम। जिला प्रशासन ने 181 घरों को असुरक्षित घोषित कर दिया और सबसे ज्यादा प्रभावित और खतरे की जद में मौजूद घरों के 145 परिवारों को शहर की ही दूसरी सुरक्षित जगहों पर विस्थापित किया गया।[i]
भूगर्भीय तौर पर यह घटना इसलिए हुई थी क्योंकि जोशीमठ क़स्बे के बीचोंबीच पिछले तकरीबन सात महीने से डेवलप हो रहे सब्सीडेंस जोन/भूधंसाव क्षेत्र में अचानक से कुछ ही दिनों में -5 सेंटीमीटर का धंसाव आ गया था। नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर (एनएसआरसी) और भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने सैटेलाइट-आधारित डाटा के अध्ययन के आधार पर यह तथ्य बताया था।[ii] इस प्रारंभिक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि -5 सेंटीमीटर का यह भूधंसाव संभवत: 2 जनवरी को ही हुआ हो। इसे स्थानीय लोगों ने भी महसूस किया था।
एनएसआरसी और इसरो की शुरुआती अध्ययन रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि अप्रैल से लेकर नवम्बर 2022 तक के सात महीनों में धीमे-धीमे जोशीमठ में -9 cm का भू-धंसाव हुआ था जिसे स्थानीय लोगों ने महसूस भी किया था क्योंकि उनके घरों में इसके चलते बड़ी-बड़ी दरारें आ गई थीं। इस पर कई मीडिया रिपोर्ट्स[iii] भी हुई थीं लेकिन उन्हें वैसा महत्व नहीं मिला जैसा कि 2 जनवरी के बाद अचानक बढ़ी दरारों के चलते मिला।
बीते दशकों में जोशीमठ के संवेदनशील भूगोल में जिस तरह के विकास मॉडल को अपनाया गया है उस पर विशेषज्ञों और पर्यावरणविदों ने प्रश्नचिन्ह लगाया है। इस बहस के दौरान एक रिपोर्ट का बार-बार जिक्र आया जिसमें तकरीबन आधा दशक पहले जोशीमठ कस्बे की संवेदनशीलता को लेकर उजागर हुए बेहद महत्वपूर्ण तथ्यों का संदर्भ दिया गया था और यहां सस्टेनेबल डेवलपमेंट (सतत/स्थायित्वपूर्ण विकास) के लिए बेहद जरूरी सुझाव दिए गए थे।
1960-70 के दशक में भी जोशीमठ में इसी तरह का एक भूधंसाव नोटिस किया गया था। उस समय की उत्तर प्रदेश सरकार ने गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर एमसी मिश्रा की अध्यक्षता में एक 17 सदस्यीय कमेटी गठित की थी। 1976 में जारी हुई इस कमेटी की रिपोर्ट[iv] में विस्तार से जोशीमठ की संवेदनशील भौगोलिक और भूगर्भीय स्थिति की व्याख्या करते हुए यहां बड़े और अवैज्ञानिक निर्माण कार्यों को एकदम न किए जाने की सलाह दी गई थी। इस रिपोर्ट में कहा गया था, ”जोशीमठ बालू और पत्थरों का ढेर है, यह मुख्य चट्टान नहीं है। इसलिए यह किसी कस्बे की बसावट के लिए उपयुक्त जगह नहीं थी। विस्फोटों के इस्तेमाल और भारी यातायात से पैदा होने वाली कंपन भी प्राकृतिक कारकों में असंतुलन पैदा कर देगी।”
इस रिपोर्ट में सड़क निर्माण में बरती जाने वाली सावधानी, शहर के ड्रेनेज और सीवेज सिस्टम में सुधार, अस्थिर ढलानों पर खेती से परहेज, वहां वृक्षारोपण और पेड़ों के कटान पर पूरी तरह रोक लगाने जैसे कई वैज्ञानिक सुझाव दिए गए थे। जैसा कि जोशीमठ पर हो रही वर्तमान चर्चाओं के दौरान बार-बार कहा जा रहा है, इस रिपोर्ट के तकरीबन सभी सुझावों को दरकिनार कर बीते दशकों में जोशीमठ ने अपनी ‘विकास-यात्रा’ की है।
‘विकास’ की पहेली
विकास, जिसके लिए अंग्रेज़ी में ‘development’ शब्द का इस्तेमाल होता है, इसका मतलब आम तौर पर ऐसा बदलाव है जो अच्छा हो, अच्छी दिशा में हो। लेकिन कौन सा बदलाव अच्छा है, यह कैसे निर्धारित होगा?
लंबे समय तक विकास का अर्थ व्यापक तौर पर इंफ्रास्ट्रक्चर के उत्तरोत्तर निर्माण, पूंजी के तेज प्रसार, उसके निर्माण और उससे आई/आ रही आर्थिक समृद्धि के तौर पर लिया जाता रहा है। लेकिन बाद के दौर में विकास की इस एकरूप समझ को कई विद्वानों ने चुनौती देते हुए ‘विकास’ की एक समग्र समझ पर जोर डाला है।[v]
इस नई समझ के अनुरूप विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें भौतिक, आर्थिक, पर्यावरणीय, सामाजिक व जनसांख्यिकीय घटक जुड़े होते हैं और जो प्रगति व सकारात्मक परिवर्तन दर्शाता हो। विकास का उद्देश्य जनसंख्या के जीवन के स्तर और गुणवत्ता में वृद्धि करना और पर्यावरण के संसाधनों को नुकसान पहुंचाए बिना स्थानीय-क्षेत्रीय आय और रोजगार के अवसरों का निर्माण या विस्तार करना है।
1983 में संयुक्त राष्ट्र की ओर से नॉर्वे की तत्कालीन प्रधानमंत्री ग्रो हार्लेम ब्रुंडलॉ की अध्यक्षता में वर्ल्ड कमिशन ऑन एन्वायरन्मेंट एंड डेवलपमेंट को गठित किया गया था। कमिशन ने 1987 में ‘आवर कॉमन फ्यूचर’ नाम से एक महत्वपूर्ण डॉक्युमेंट पेश किया जिसे हम ब्रुंडलॉ रिपोर्ट के नाम से जानते हैं। इस दस्तावेज में ‘विकास’ को इसके प्रचलित अर्थों से आगे चल कर देखे जाने का आग्रह था। जिस टर्म ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ यानि सतत (स्थायित्वपूर्ण) विकास को आज विश्व स्तर पर राजनेता और मीडिया बार-बार दोहराते मिलते हैं, इस दस्तावेज में पहली बार उसकी, विकास के अर्थ को व्यापक आयाम देते हुए व्याख्या की गई थी।
Our Common Future
5987our-common-futureइस दस्तावेज में विकास की व्याख्या करते हुए कहा गया था, ”ऐसा विकास जो कि भविष्य की पीढ़ियों की जरूरतों को पूरा कर पाने की क्षमताओं को खतरे में डाले बगैर वर्तमान की जरूरतों को पूरा कर दे।”[vi]
इसी क्रम में अस्सी के दशक में अमर्त्य सेन ने विकास के असल लक्ष्य को एक नई तरह से परिभाषित किया जिसे ‘क्षमता दृष्टिकोण’ कहा जाता है। इस नजरिये के मुताबिक मानव विकास का मूल लक्ष्य जीडीपी में वृद्धि, तकनीकी प्रगति या औद्योगीकरण को बेतरह बढ़ाते जाने के बजाय इस तरह का जीवन जी सकने की क्षमता पैदा करना है जिससे वास्तव में मानवीय गरिमा का सम्मान हो सके।[vii]
उत्तराखंड का बनना
एक संघीय गणराज्य के तौर पर भारत इस बात तो लेकर शुरुआत से ही उलझा रहा है कि यहां राज्यों के पुनर्गठन का तर्कसंगत आधार क्या हो। यह प्रश्न इस महादेश के आकार, उसके इतिहास और संस्कृति की जादुई विविधता के कारण वाकई हमेशा जटिल रहा है। भारत की आजादी के बाद 1950 में ब्रिटिश हुकूमत के दौर के ‘युनाइटेड प्रोविंसेज ऑफ आगरा एंड अवध’ को उत्तर प्रदेश नाम मिला था। इस भूगोल का बहुतायत हिस्सा आम तौर पर गंगा-यमुना के दोआब में पसरा सघन आबादी वाला मैदानी उपजाऊ इलाका है, लेकिन उत्तर की ओर हिमालय की तलहटियों से ऊपर एक अलग पहाड़ी भूगोल है जिसका एक विशिष्ट इतिहास और संस्कृति रही है।
धीरे-धीरे कुछ दशकों में इस भूगोल से एक पृथक राज्य की मांग का आंदोलन उभरना शुरू हुआ। इतिहास में बिखरी हुई यह मांग आजादी के पहले भी उठनी शुरू हो गई थी। कुमाऊं और गढ़वाल के पर्वतीय जिलों को मिलाकर एक अलग प्रशासनिक इकाई बना देने का विचार पहली बार 1929 में कुमाऊं के ब्रिटिश-राज समर्थक कुछ लोगों के एक समूह ने उछाला था। उन्होंने इस आशय का एक ज्ञापन संयुक्त प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर मैल्कम हैली को सौंपा था, जिसमें ब्रिटिश कुमाऊं (उत्तराखंड) के लिए स्वायत्तता की मांग की गई थी।[viii] मई 1938 में श्रीनगर गढ़वाल में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में भी इस पहाड़ी भूगोल को एक पृथक राज्य बनाने की मांग उठी थी। 1952 में कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव कॉमरेड पीसी जोशी ने भी इसी आशय का एक पत्र भारत सरकार को लिखा था। 1955 में फजल अली आयोग के उस प्रस्ताव को उत्तर प्रदेश सरकार ने ठुकरा दिया जिसमें विशाल राज्य उत्तर प्रदेश का पुनर्गठन करते हुए उत्तराखंड को एक अलग राज्य बना दिए जाने की सिफारिश की गई थी।
पृथक उत्तराखंड का मूल तर्क था कि उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में इस पहाड़ी भूगोल और यहां के लोगों की उपेक्षा होती आई है और उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता। इस लिहाज से वे एक पृथक पहाड़ी राज्य पाने के हकदार हैं जहां उन्हें सही प्रतिनिधित्व मिल पाएगा और वे अपने भूगोल और समाज की आकांक्षाओं के अनुरूप विकास नीतियां बना सकेंगे।
बिखरे तौर पर यह मांग दशकों तक तैरती रही और इसके भीतर धीमे-धीमे गोलबंदी भी होती रही। इस तथ्य को उत्तर प्रदेश सरकार ने शुरुआत में ही भांप लिया था और इस आधार पर पनप रहे असंतोष को शांत करते हुए पर्वतीय इलाकों के प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए 1967 में पर्वतीय विकास परिषद का गठन किया।
बाद के वर्षों में पृथक राज्य के विचार को और आधार मिला। नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों में इस आंदोलन ने और प्रसार पाया। इसे खास तौर पर तब चिंगारी मिली जब 1994 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश सरकार ने मंडल कमिशन की सिफारिशों को लागू करते हुए सरकारी नौकरियों में पिछड़ी जातियों के लिए 27 फीसदी आरक्षण और राज्य के स्वामित्व वाले शिक्षण संस्थानों में भी ठीक इतने ही प्रतिशत आरक्षण को लागू करने का फैसला लिया। इस निर्णय ने पहाड़ में उबाल ला दिया। इस उबाल का तर्क था कि आरक्षण की यह नीति मैदानी इलाकों के जातिगत समीकरणों के लिए अनुकूल थी जहां ओबीसी की एक बड़ी आबादी मौजूद थी, लेकिन वही नीति यांत्रिक रूप से उन पहाड़ी इलाकों में नहीं लागू की जा सकती थी जहां ओबीसी की आबादी दो प्रतिशत से ज्यादा नहीं थी।
इसी क्रम में आंदोलनकारी इस भूगोल के आम जन को नए राज्य का विचार और सपना समझा पाने में काफी हद तक कामयाब रहे। इसलिए इस आंदोलन को ऐतिहासिक तौर पर जनसमर्थन हासिल हुआ। एक लम्बे संघर्ष और कड़वे अनुभवों के बाद इस आंदोलन के परिणामस्वरूप स्वरूप 9 नवम्बर 2000 को देश के 27वें राज्य उत्तराखंड (उत्तरांचल के नाम से) का निर्माण हुआ।
विकास का ‘विज़न’
पृथक उत्तराखंड राज्य को लेकर उबाल में जो समूह था उसकी बुनियादी मांग एक ऐसा अलग राज्य बनाने की थी जो अपने विशिष्ट पहाड़ी भूगोल और अपनी जरूरतों के मुताबिक अपने विकास का पर्यावरणसम्मत एक नया मॉडल चुन सके। बीते दो दशकों में उत्तराखंड विकास के जिस रास्ते पर चला है उस रास्ते में क्या वह विकास की उस मौजूदा व्यापक समझ को संबोधित कर पाया है?
राज्य निर्माण के बाद राज्य का नेतृत्व जिन राजनीतिक हाथों में आया उन्होंने राज्य की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए इसके संसाधनों का दोहन करते हुए विकास के जिस मॉडल की नींव रखी, दो दशकों बाद अब उसके शुरुआती परिणामों को परखा जा सकता है।
शुरुआत से ही यहां विकास के लिए दो संभावनाओं पर सबसे अधिक दांव लगाया गया। इसके तहत उत्तराखंड को ‘ऊर्जा प्रदेश’ और ‘पर्यटन प्रदेश’ बनाने के विजन सामने रखे गए। ‘ऊर्जा प्रदेश’ की प्रेरणा उत्तराखंड की 16 प्रमुख नदियों और उनकी असंख्य सह-धाराओं से निकली थी जहां ‘हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स’ के निर्माण से विद्युत ऊर्जा के उद्योग को विकसित करने का विजन था। ‘ऊर्जा प्रदेश’ के अपने विजन को लेकर राज्य सरकार ने काफी सक्रियता दिखाई और राज्य गठन के ठीक एक साल बाद 9 नवम्बर 2001 को उत्तराखंड जल विद्युत निगम की स्थापना की जिसका मुख्य मकसद लघु जल विद्युत परियोजनाओं के जरिये उत्तराखंड के भीतर की जल ऊर्जा की क्षमताओं को समझना और उन्हें खोजना था।
शुरुआती दावों में राज्य की नदियों की कुल जलविद्युत ऊर्जा क्षमता को 558 बांधों के साथ तकरीबन 25 हजार मेगावॉट आंका गया था। यही ‘ऊर्जा प्रदेश’ के विचार का आधार था। बीते दो दशकों में राज्य में अलग-अलग नदी घाटियों में तकरीबन 100 से अधिक बांध परियोजनाएं अस्तित्व में आई हैं। इनमें से 37 परियोजनाएं बन कर चालू हो गई हैं और तकरीबन 87 परियोजनाएं योजना या निर्माणाधीन अवस्था में हैं।[ix] तकरीबन 24 परियोजनाओं में पर्यावरण संबंधी कारणों के चलते या तो रोक लगी है या वे रद्द कर दी गई हैं।
उत्तराखंड जल विद्युत निगम की वेबसाइट के मुताबिक निगम के तत्वावधान में राज्य में अभी 25 मेगावाट से कम क्षमता वाली 33 जलविद्युत परियोजनाएं मौजूदा समय में काम कर रही हैं, जिनकी कुल विद्युत उत्पादन क्षमता 1400 मेगावॉट से ज्यादा है। इसके अलावा 14 और ऐसी परियोजनाएं हैं जिनके निर्माण का कार्य अलग-अलग स्तरों तक पहुंचा हुआ है। निकट भविष्य में कुल 121.5 मेगावॉट की 13 और परियोजनाओं के लिए निगम ने रोडमैप बनाया हुआ है। इसके अलावा उत्तरकाशी और चमोली जिलों के उच्च हिमालयी क्षेत्रों को भारत सरकार की ओर से सेंस्टिव ईको जोन घाषित करने के बाद इन इलाकों में प्रस्तावित 7 जल विद्युत परियोजनाओं को निरस्त कर दिया गया है।[x]
एक अनुमान के मुताबिक उत्तराखंड में कुल प्रस्तावित जल विद्युत परियोजनाओं में तकरीबन 1500 किलोमीटर की सुरंगों का निर्माण होना है और राज्य की तक़रीबन एक-चौथाई आबादी इन सुरंगों के ऊपर होगी।[xi] उत्तराखंड को ‘ऊर्जा प्रदेश’ बनाने की महत्वाकांक्षी कवायद में यहां के संवेदनशील भूगोल में हुए बेतहाशा निर्माण कार्य और सुरंग निर्माण ने एक ओर यहां के संवेदनशील पर्यावरणीय तंत्र को काफी प्रभावित किया है तो दूसरी ओर यहां के समाज ने इन परियोजनाओं के चलते विस्थापन, प्राकृतिक आपदाएं और प्रशासन का दमन झेला है। उत्तराखंड में निर्मित या निर्माणाधीन अधिकतर परियोजनाओं पर यहां की पारिस्थितिकी, समाज, संस्कृति और स्थानीय आर्थिक गतिविधियों पर नकारात्मक असर डालने के आरोप लगते रहे हैं। हाल के वर्षों में उत्तराखंड में आई भयानक आपदाओं की भयावहता को और अधिक बढ़ा देने के आरोप भी जलविद्युत परियोजनाओं पर लगे हैं। ऐसे आरोप लगाने वालों में न सिर्फ पर्यावरण एक्टिविस्ट और पर्यावरणविद् शामिल रहे हैं जबकि सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित विशेषज्ञ समितियों ने भी इस तथ्य को सामने रखा है।[xii]
राज्य में ऊर्जा की कुल मांग से अधिक उत्पादन करते हुए दूसरे राज्यों को ऊर्जा बेच पाना मूल रूप से ‘ऊर्जा प्रदेश’ का सपना है, लेकिन बावजूद विनाशकारी परिणामों के उत्तराखंड में चल रही मौजूदा परियोजनाएं सालाना कुल 3971 मेगावाट विद्युत ऊर्जा का उत्पादन कर पा रही हैं जो कि राज्य की खुद की ऊर्जा जरूरतों के लिहाज से भी कम है। राज्य की आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट बताती है कि राज्य अब भी अपनी ऊर्जा जरूरतों का 50 प्रतिशत दूसरे राज्यों से आयात करता है।[xiii] ऐसे में पिछले 20 साल में राज्य के ‘ऊर्जा प्रदेश’ के मॉडल से जो हासिल है उससे उत्तराखंड का सतत विकास सुनिश्चित किया जा सकेगा, इस पर संशय है।
दूसरी ओर उत्तराखंड में ‘पर्यटन प्रदेश’ का विजन था। पर्वतीय राज्य की अपार खूबसूरती और धार्मिक महत्व के चलते यहां पर्यटन उद्योग का विकास करना था। इसके लिए बीते दौर में प्रदेश भर में धार्मिक पर्यटकों के लिए ‘चार धाम यात्रा’ और अन्य धार्मिक स्थलों की यात्रा को प्रोत्साहित करने के प्रयास किए गए और नैसर्गिक खूबसूरती से भरपूर जगहों को भी पर्यटक स्थल बनाने की कोशिशें की गईं। लक्ष्य देश और विदेश से भारी से भारी संख्या में पर्यटकों को उत्तराखंड तक लाना था जिससे उत्तराखंड में आर्थिक गतिविधियों में तेजी आए और लोगों को रोजगार हासिल हो। इस कवायद में उत्तराखंड ने काफी उपलब्धियां हासिल की हैं। यहां सालाना चार करोड़ पर्यटक आते हैं और सरकार का लक्ष्य इनकी संख्या दोगुनी करने का है। इस कवायद के लिए उत्तराखंड में इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास पर भरपूर जोर दिया गया है। जहां एक ओर नैनीताल, मसूरी जैसे मशहूर पर्यटन स्थलों पर पर्यटकों के लिए सुविधाजनक माहौल बनाने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर पर काफी जोर दिया गया है वहीं पूरे राज्य में सड़कों का जाल बिछाया गया और सड़कों के चौड़ीकरण की कई परियोजनाएं सामने आई हैं, जिनमें से 889 किलोमीटर की ‘ऑल वेदर रोड’ या ‘चारधाम रोड’ एक महत्वाकांक्षी योजना भी शामिल है।
उत्तराखंड में चारधाम यात्रा पर्यटन का मुख्य केंद्र है, लेकिन ये चारों धाम ऊंचे हिमालय के संवेदनशील भूगोल में अवस्थित हैं। ऐसे में जिस तरह राज्य चारधाम यात्रा पर बेहद जोर दे रहा है और अधिक से अधिक पर्यटकों को वहां पहुंचाने का लक्ष्य रखा जा रहा है, इसने इस इलाके के संवेदनशील हिमालय की पारिस्थितिकी को लेकर कई चिंताएं खड़ी कर दी हैं। सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 2022 में चारधाम यात्रा में 40 लाख यात्री शामिल हुए जबकि अकेले केदारनाथ आने वाले पर्यटकों का यह आंकड़ा 14 लाख को पार कर गया। 2013 की भयानक आपदा झेले केदारनाथ में पर्यटकों की यह तादाद इसके संवेदनशील भूगोल के लिहाज से चिंता पैदा करने वाली है।
राज्य में पर्यटन विकास को लेकर चल रही परियोजनाओं ने पर्यटकों को जरूर अपनी ओर खींचा है लेकिन इसने बहुत सी पर्यावरणीय और सामाजिक चिंताओं को भी बढ़ा दिया है। इन निर्माण परियोजनाओं ने उत्तराखंड में भूस्खलन और अन्य आपदाओं को बढ़ाने का काम किया है। उसकी एक महत्वपूर्ण वजह निर्माण कार्यों में वैज्ञानिक सलाह की उपेक्षा और मनमाना निर्माण कार्य भी है।
2013 की भयानक आपदा के बाद भी ठीक इसी समझ के साथ काम किया गया था। केदारनाथ कस्बे के नवनिर्माण की प्रक्रिया में भी यही रवैया दिखाई दिया था। हर एक एक्सपर्ट एजेंसी की स्पष्ट हिदायत थी कि केदारनाथ में बाढ़ के बाद आए मलबे को स्थिर होने के लिए कुछ साल का समय देना चाहिए, उसके बाद ही किसी किस्म का निर्माण कार्य वहां किया जाना चाहिए। इन सुझावों को दरकिनार करते हुए तकरीबन 13 सौ करोड़ रुपया खर्च कर केदारनाथ में बेतहाशा निर्माण कार्य किया गया है।[xiv]
उत्तराखंड में जिन शहरों में पर्यटन गतिविधियों के चलते आबादी का तेजी से प्रसार हुआ है उन शहरों की अवैज्ञानिक बसावट भी अपने आप में चुनौतीपूर्ण हो गई है। जोशीमठ के भूधंसाव ने जाहिर किया है कि उत्तराखंड के शहरों की बसावट में पूरी तरह अवैज्ञानिकता बरती गई है और यहां नगर विकास की किसी दूरदर्शी योजना का भरपूर अभाव है। जोशीमठ की तरह ही उत्तराखंड के दूसरे शहर भी इसी समस्या से जूझ रहे हैं।
पर्यटन का जो मॉडल उत्तराखंड में अपनाया गया है उसने संकेंद्रित पर्यटन को बढ़ावा दिया है। पर्यटकों की सबसे बड़ी संख्या महज कुछ मशहूर पर्यटन स्थलों पर ही है। राज्य के दूसरे इलाकों में पर्यटकों का पहुंचना तो दूर, वहां से तो स्थानीय लोग ही पलायन को मजबूर हो चुके हैं।
उत्तराखंड पलायन आयोग की 2018 में आई एक रिपोर्ट बताती है कि बीते एक दशक में पर्वतीय जिलों से 11.12 प्रतिशत आबादी ने पलायन किया है। इसमें से अधिकतम आबादी को आजीविका की तलाश में पलायन करना पड़ा है। रिपोर्ट के मुताबिक राज्य के तकरीबन साढ़े सात सौ गांव इसी कारण पूरी तरह खाली हो गए हैं।
यह इस बात का संकेत है कि उत्तराखंड में अपनाए गए विकास मॉडल में इंफ्रास्ट्रक्चर पर तो काफी ध्यान दिया गया, लेकिन जिन योजनाओं को अपनाया गया वे पहाड़ी भूगोल और समाज के हाशिये के तबके के अनुरूप नहीं रही हैं।
उत्तराखण्ड एक हिमालयी राज्य है, यहीं से भारत की जीवनदायी नदियों का जन्म होता है जो उपजाऊ मैदान तैयार करती हैं और जलवायु का निर्धारण करती हैं। यह क्षेत्र बहुत संवेदनशील है क्योंकि महासागरीय अवसाद से निर्मित विभिन्न चरणों में उपस्थित भारतीय हिमालय में अनेक छोटी-बड़ी सक्रिय भ्रंश एवं दरारें हैं, जो विध्वंसात्मक टेक्टोनिक घटनाओं को बढ़ाती हैं। हिमालय का जन्म 5-6 करोड़ वर्ष पूर्व ही हुआ था इसलिए यह पृथ्वी के बाकी हिस्सों से ज्यादा सक्रिय है और अब भी ऊंचा उठ रहा है। हिमालय क्षेत्र होने के कारण उत्तराखंड का प्राकृतिक घटनाओं जैसे बाढ़, भूस्खलन, भूमि अपरदन, वनाग्नि, बादल फटने, भूकम्प आदि से पुराना सम्बन्ध है लेकिन धीरे-धीरे समय और विकास के साथ ये घटनाएं अब मानवजनित आपदाओं का रूप ले रही हैं।
हिमालय के एक अतिसंवेदनशील भूगोल वाले राज्य की अपनी संवेदनशील बनावट और वैश्विक स्तर पर क्लाइमेट चेंज के खतरों के चलते हाल के वर्षों में राज्य ने कई पर्यावरणीय और सामाजिक चुनौतियों का सामना किया है। अगर समय रहते इन चुनौतियों से जूझने के लिए पर्यावरण और समाजसम्मत नीतियों की ओर रुख किया जाए तो भविष्य में संभावित विकराल चुनौतियों को टाला जा सकता है। उत्तराखंड के सामने अब भी एक विकास का एक ऐसा मॉडल चुनने का विकल्प है जिसके तहत वह आने वाली पीढ़ियों के लिए चुनौतियां खड़ी किए बगैर अपनी जरूरतों को पूरा करने के रास्ते तलाश सके।
स्रोत और संदर्भ
[i] जोशी रोहित, दरारों से झांकता विकास मॉडल, समयांतर, फरवरी अंक
[ii] https://www.nrsc.gov.in/sites/default/files/pdf/DMSP/Joshimath_landslide_11Jan2023.pdf (बाद में यह रिपोर्ट सरकार के निर्देशों के बाद वेबसाइट से हटा ली गई थी.)
[iii] खरे विनीत, उत्तराखंड के जोशीमठ में क्यों धंस रही है ज़मीन? ग्राउंड रिपोर्ट, BBC Hindi : https://www.bbc.com/hindi/india-63426618
[iv] मिश्रा कमेटी रिपोर्ट, 1976.
[v] Ingham Barbara, The Meaning of Development: Interactions Between “New” and “Old” Ideas. http://bit.ly/3SpwCDk
[vi] ‘अवर कॉमन फ़्यूचर’/ ब्रुंटलैंड रिपोर्ट, 1987. https://www.are.admin.ch/are/en/home/media/publications/sustainable-development/brundtland-report.html
[vii] Capability Approach. https://en.wikipedia.org/wiki/Capability_approach
[viii] Joshi Rajesh, Dalit Pushback in Uttarakhand, Seminar 757 – September 2022
[ix] Singh Jeet, The role of hydropower projects in development and disasters in Uttarakhand. https://india.mongabay.com/2021/08/commentary-the-role-of-hydropower-projects-in-development-and-disasters-in-uttarakhand/
[x] https://www.ujvnl.com/small-hydro-plants
[xi] तिवारी चारु, बांध विकास और हक़ीक़त, जनपक्ष आजकल, अक्टूबर 2010
[xii] https://sandrp.in/2014/04/29/report-of-expert-committee-on-uttarakhand-flood-disaster-role-of-heps-welcome-recommendations/
[xiii] आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट, 2020.21
[xiv] Joshi Rohit, In Rebuilding Kedarnath, a New Disaster in the Making, The Wire. https://thewire.in/environment/kedarnath-temple-rebuilding-flood-lessons