इन दिनों कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश वी. श्रीशानंद सुर्खियों में हैं। उन्होंने बीते 28 अगस्त को एक अदालती सुनवाई के दौरान बेंगलुरु के एक मुस्लिम-बहुल इलाके को पाकिस्तान कह दिया और एक महिला वकील को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी की। इस बयान के कथित वीडियो पर सोशल मीडिया में जब काफी शोर मचा, तब मुल्क की आला अदालत घटना के तीन हफ्ते बाद 20 सितंबर को हरकत में आई। उसके कारण अगले ही दिन श्रीशानंद को खुली अदालत में खेद जताना पड़ा।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में पांच जजों की पीठ ने 20 सितंबर को श्रीशानंद के बयान पर स्वत: संज्ञान लेते हुए उसे ‘अनावश्यक’ करार दिया और कर्नाटक उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल को इस संबंध में रिपोर्ट बना कर भेजने का आदेश दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि वह सुनवाई के दौरान जजों के प्रेक्षण को लेकर कोई दिशानिर्देश जारी कर सकती है। अगली सुनवाई की तारीख 25 सितंबर दी गई थी।
इस दूसरी ही तारीख पर मामले को निपटा दिया गया। 25 सितंबर को सुनवाई शुरू होते ही मुख्य न्यायाधीश ने बताया कि 23 सितंबर को ही कर्नाटक उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा उक्त रिपोर्ट जमा कराई जा चुकी है। चूंकि जस्टिस श्रीशानंद ने खेद जता दिया है, तो सर्वोच्च अदालत इस मामले को आगे नहीं ले जाएगी और उन्हें नोटिस नहीं देगी।
दिलचस्प है कि सर्वोच्च न्यायालय ने केस को निपटाते हुए जजों के लिए कथित ‘दिशानिर्देशों’ का कोई जिक्र नहीं किया, जिसका हवाला 20 सितंबर को दिया गया था। इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात है कि इस मामले में श्रीशानंद के बयान को मुख्य न्यायाधीश ने “बुनियादी रूप से भारत की अखंडता के खिलाफ” करार दिया। पहले उन्होंने इसे “अनावश्यक” कहा था।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट का यह हल्का हस्तक्षेप भी काबिले तारीफ है, पर सवाल उठता है कि जजों के लिए अगर कोई दिशानिर्देश बन भी जाए तो भविष्य में अदालतों में कही जाने वाली उलट-सुलट बातों पर क्या रोक लग जाएगी? मसलन, क्या हम सुनिश्चित कर सकेंगे कि अदालत में कोई जज ऐसी बात कभी नहीं बोलेगा कि ‘‘भारत को आजादी के तत्काल बाद धर्म के आधार पर हिन्दू राष्ट्र घोषित कर देना चाहिए था’ या यह, कि ‘’मोदी हमारे हीरो हैं’’? क्या इस बात की गारंटी दी जा सकेगी कि ऐसे विवादास्पद बयान माननीय न्यायाधीशगण अपनी सुनवाइयों और सार्वजनिक संबोधनों में नहीं देंगे? चूंकि मामला अब जजों के बयानों और टिप्पणियों से काफी आगे जा चुका है।
दिल्ली की ‘हिंदू’ पंचायत
बीते 8 सितंबर को दिल्ली में विश्व हिन्दू परिषद की एक बैठक हुई। उसका आयोजन विहिप के विधि प्रकोष्ठ की तरफ से किया गया था। वक्फ संपत्ति, काशी-मथुरा के मंदिरों की मुक्ति, धर्मान्तरण, गोवध, जैसे संघ परिवार के उन एजेंडों पर बात करने के लिए यह बैठक बुलाई गई थी जो मामले मुख्यत: अदालतों में न्यायाधीन हैं। इस कार्यक्रम में केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल भी आए थे और उन्होंने अपनी बातें रखी थीं।
यह बैठक इस वजह से खबर बनी क्योंकि उसमें सर्वोच्च और उच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त तीस से अधिक न्यायाधीशों ने हिस्सा लिया। इन पूर्व जजों की पूरी सूची तो जारी नहीं हुई, मगर बैठक में उपस्थित दो नाम चर्चा में रहे। ये वे पूर्व जज हैं जिनके दो फैसलों को संघ परिवार के एजेंडे के अनुकूल बताया गया था। सेवानिवृत्ति के तत्काल बाद केंद्र सरकार की तरफ से उन्हें कोई अहम जिम्मा भी मिला था।
इनमें से एक हैं हेमंत गुप्ता, जिन्होंने कर्नाटक सरकार के हिजाब पर पाबंदी लगाने वाले फैसले का समर्थन किया था। दो न्यायाधीशों की बेंच के सामने यह मुकदमा चला था और चूंकि दूसरे न्यायमूर्ति ने इस पाबंदी का विरोध किया था, इसलिए अब उस मसले को बड़ी पीठ को सौंपा गया है।
दूसरे सेवानिवृत्त न्यायाधीश थे आदर्श कुमार गोयल, जो 2018 में रिटायर होने के बाद नेशनल ग्रीन टिब्यूनल के चेयरमैन बनाए गए। अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण कानून को कमजोर करने वाले उनके फैसले ने पूरे देश में जबरदस्त हंगामा खड़ा कर दिया था और उसके खिलाफ व्यापक जनांदोलन हुआ था। बाद में एक बड़ी पीठ ने उनके इस फैसले को पलट दिया था। इसी साल फरवरी में गोयल को भारत विकास परिषद का अध्यक्ष निर्वाचित किया गया है। यह परिषद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अनुषंगी संस्थाओं में एक है जिसके ज्यादातर संरक्षक पूर्व जज ही रहे हैं।
दो दर्जन से ज्यादा पूर्व जजों से लेकर देश के कानून मंत्री तक की विश्व हिंदू परिषद की बैठक में शिरकत तथा निर्द्वंद्वता और दुस्साहस के साथ सेवारत जजों द्वारा दिए जा रहे आपत्तिजनक व अनावश्यक बयान इस बात की ताईद करते हैं कि संविधान के सिद्धांतों और मूल्यों तथा जमीन पर उनके अमल के बीच दूरी लगातार बढ़ती जा रही है। दरअसल, एक अवाम के तौर पर, एक राष्ट्र के तौर पर, हम अब भी उस बात को सही ढंग से आत्मसात करने से काफी दूर हैं जिसे डॉ. आंबेडकर ने संवैधानिक नैतिकता कहा था:
संवैधानिक नैतिकता कोई स्वाभाविक भावना नहीं होती, उसे विकसित करना होता है। हमें इस बात का एहसास करना चाहिए कि हमारे लोगों को उसे अभी सीखना है। भारत में जनतंत्र – जो भारतीय जमीन पर एक ऊपरी परत है – बुनियादी तौर पर गैर-जनतांत्रिक है।
निस्संदेह, यह स्थिति एक दिन में नहीं बनी है। इसका जिम्मा विगत दशक में अधिक उभार पर आई हिन्दुत्व की वर्चस्ववादी ताकतों पर ही नहीं छोड़ा जा सकता, लेकिन इस बात पर जरूर जोर देना होगा कि उनके उभार के बाद कार्यपालिका से लेकर विधायिका और न्यायपालिका तक हर स्तर पर नफरत फैलाना अपेक्षाकृत ‘सम्मानजनक’ और ‘सामान्य’ काम हो गया है।
संवैधानिक नैतिकता के दोषी
हम याद कर सकते हैं कि किस तरह केरल उच्च न्यायालय के जज वी. चितम्बरेश ने एक सार्वजनिक वक्तव्य में ‘द्विजों’ की तारीफ के पुल बांधे थे और आवाहन किया था कि उन्हें आरक्षण के खिलाफ अपने आंदोलन को तेज कर के आर्थिक आधारों पर आरक्षण की मांग करना चाहिए।
इसी तरह, सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश और आंध्र प्रदेश के वर्तमान गवर्नर अब्दुल नजीर ने आरएसएस के अनुषंगी संगठन अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद की हैदराबाद में आयोजित राष्ट्रीय परिषद में तीन साल पहले ‘मनुस्मृति’ और ‘प्राचीन भारत की कई कानूनी किताबों की तारीफ करते हुए कहा था कि ‘’उनकी उपेक्षा ने राष्ट्रीय हितों को बहुत नुकसान पहुंचाया’’। यही बातें उन्होंने साल भर पहले कर्नाटक केन्द्रीय विश्वविद्यालय के एक समारोह में दुहराई थीं। अब्दुल नजीर अयोध्या पर फैसला देने वाली सुप्रीम कोर्ट की बेंच के सदस्य थे।
शायद वे भूल गए थे कि आजादी के आंदोलन में उठी सामाजिक-सांस्कृतिक मुक्ति की धारा ने डॉ. आंबेडकर की अगुआई में मनुस्मृति के खिलाफ जबरदस्त लड़ाई लड़ी थी और उसे ‘प्रतिक्रांति का दस्तावेज’ कहा था। इतना ही नहीं, डॉ. आंबेडकर ने हजारों लोगों की उपस्थिति में 25 दिसम्बर 1927 को मनुस्मृति का सार्वजनिक दहन भी किया था। देश को संविधान सौंपते हुए संविधान निर्माण की मसविदा समिति के अध्यक्ष के नाते अपने वक्तव्य में आंबेडकर ने कहा था कि संविधान के लागू होने के बाद अब ‘मनुस्मृति का युग समाप्त हो गया है।’
इसके बावजूद जब राजस्थान उच्च न्यायालय के सामने पिछले 35 साल से खड़ी 11 फुट की मनु की मनुस्मृति पकड़े हुए कुख्यात प्रतिमा को हटाने की एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई, तो अदालत ने उसे खारिज कर दिया था। यह बात पिछले साल की ही है। कोर्ट का कहना था कि मामला उच्च न्यायालय में लंबित होने की वजह से वह याचिका को नहीं ले सकती। दिलचस्प यह है कि 1989 में ही उच्च न्यायालय ने इसे प्रतिमा को हटाने का संकल्प पारित कर दिया था, लेकिन आज तक यह मामला उसी अदालत में अटका पड़ा है।
इस बात पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है कि संविधान-निर्माण की प्रक्रिया के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का किस तरह का असहज रिश्ता था और कैसे उसने एक स्वाधीन मुल्क के लिए एक नए संविधान बनाने की संकल्पना का विरोध किया था। बहरहाल, न्यायपालिका का क्षरण हम हाल के महीनों में उच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीशों का रातोंरात भाजपा-संघ का हिमायती बनने या रिटायर होते वक्त़ बाकायदा भाजपा के साथ औपचारिक तौर पर जुड़ने में भी देख सकते हैं।
न्यायाधीशों की इस कतार में सबसे चर्चित नाम रहा है अभिजित गांगुली का, जो कोलकाता उच्च न्यायालय के जज थे और तृणमूल कांग्रेस की राज्य सरकार के खिलाफ दिए अपने कई फैसलों के लिए जाने जाते थे। अपनी सेवानिवृत्ति के आखिरी दिन उन्होंने अचानक ऐलान किया कि वे भाजपा से जुड़ने जा रहे हैं। बीते आम चुनाव में वे लोकसभा में भाजपा के सांसद के तौर पर निर्वाचित हुए हैं।
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हम मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रोहित आर्य की भी चर्चा कर सकते हैं, जो तब सुर्खियों में आए थे जब स्टैंड-अप कॉमेडियन मुनव्वर फारुकी को हिन्दुत्ववादी संगठनों की पहल पर एक कार्यक्रम शुरू होने से पहले गिरफ्तार किया गया था। रोहित आर्य की अदालत ने फारुकी को जमानत देने से इन्कार किया था, बाद में सर्वोच्च न्यायालय से उन्हें जमानत मिली और उच्च न्यायालय के रवैये की तीखी आलोचना भी की गई। आर्य ने रिटायरमेंट के तीन माह के भीतर ही भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली।
जिस तेजी के साथ कई जजों ने भाजपा का दामन थामा, उसके चलते उनके कार्यकाल के दौरान उनके दिए फैसलों की नए सिरे से समीक्षा हुई और यह पाया गया कि उनमें कई स्तरों पर खामियां थीं।
सत्ता-अनुकूल न्याय-तंत्र
ऐसे विवादास्पद बयान तो महत्वपूर्ण हैं ही, लेकिन ऐसे मामले भी देखने में काफी मिलते हैं जहां अपने आचरण में बेहद शालीन समझे जाने वाले, कभी प्रकट रूप में कोई अशालीन बात नहीं कहने वाले न्यायाधीश भी अपने फैसलों के माध्यम से उसी किस्म के असमावेशी चिन्तन को बढ़ावा देते हैं – जैसा विचार सत्ताधारियों के अनुकूल हो- या ऐसे मुकदमों को लटका देते हैं जो सत्ताधारियों के लिए प्रतिकूल जाने जाते हों।
चाहे भीमा कोरेगांव मामले में गिरफ्तार लोगों की जमानत का मामला हो या 2020 के उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगों में गिरफ्तार सामाजिक कार्यकर्ताओं को जमानत पर छोड़ने का मामला हो, इस प्रवृत्ति को देखा जा सकता है। पिछले दिनों इन गिरफ्तारियों के चार साल पूरे होने पर दिल्ली में आयोजित एक सम्मेलन में शामिल वक्ताओं ने न्यायपालिका के ऐसे रुख की काफी आलोचना पेश की थी।
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इस संदर्भ में, लगभग एक दशक पहले मुंबई उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और मानवाधिकार कार्यकर्ता होसबेट सुरेश ने जो भविष्यवाणी की थी, उसे यहां रेखांकित करना मौजूं होगा। उनका कहना था, ‘’एक डर व्याप्त है कि आने वाले वर्षों में न्यायपालिका का भी केसरियाकरण किया जाएगा… यह आशंका प्रकट की जा रही है कि आने वाले समय में अगर न्यायपालिका में उच्च स्तरों पर इसी चिन्तन के लोग नियुक्त किए जाएंगे तो वह हो सकता है।‘’
हम इस संबंध में मद्रास उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति विक्टोरिया गौरी की नियुक्ति को देख सकते हैं, जो पहले भाजपा की सदस्य थीं। उन पर यह आरोप लगा था कि उन्होंने नफरती भाषण दिए और धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया था। इतना ही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम के सामने- जिसे यह जिम्मा मिला था कि न्यायाधीशों की नियुक्ति पर मुहर लगाए- वकीलों की तरफ से और कानून के विद्वानों की तरफ से हस्ताक्षरित याचिकाएं भी भेजी गई थीं, जिसमें उनके ऐसे वक्तव्यों के प्रमाण दिए गए थे।
बताया जाता है कि कॉलेजियम ने इन सरोकारों पर गौर करने से इन्कार किया और कहा कि चूंकि उनके बारे में कुछ वकीलों की खास राय है, इस आधार पर हम उनकी नियुक्ति को रोक नहीं सकते हैं। भाजपा सरकार इस दिशा में किस तरह रफ्ता-रफ्ता आगे बढ़ रही है, इसके बारे में कुछ बातें हम डॉ. मोहन गोपाल के निम्न वक्तव्य में सुन सकते हैं।
अपने व्याख्यान में वह इस बात की चर्चा करते हैं कि ‘‘किस तरह न्यायपालिका में ऐसे न्यायाधीशों की संख्या बढ़ रही है जो कानून का स्रोत संविधान में नहीं बल्कि धर्म में ढूंढ रहे हैं”:
ऐसे परम्परावादी/धर्मशासित न्यायाधीशों की संख्या में बढ़ोतरी- जैसी कि मोदी की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के शासन में देखी गई है- वह एक तरह से उस दो भाग की रणनीति का हिस्सा है जिसका मकसद है वर्ष 2047 तक हिंदू राष्ट्र की स्थापना करना, संविधान को उलट कर नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसकी ऐसी व्याख्या करके कि वह एक हिन्दू दस्तावेज है… पहला कदम है ऐसे न्यायाधीशों की नियुक्ति जो संविधान से परे देखने के लिए तैयार हों और दूसरा चरण होगा जहां न्यायाधीश अपने फैसलों का स्रोत बताएंगे, जिसकी शुरूआत हिजाब के फैसले से हुई है… रफ्ता-रफ्ता हम ऐसी अवस्था में पहुंच सकते हैं जहां हम कह सकें कि भारत एक हिंदू धर्मतंत्र है उसी संविधान के तहत- जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने व्याख्यायित किया है- इस तरह विचार यह है कि न्यायपालिका का अपहरण किया जाए और हिन्दू धर्मतंत्र को स्थापित किया जाए।
चौखंबे का पतन
सर्वोच्च न्यायालय ही संविधान का असली संरक्षक है। उसका प्रमुख काम यह सुनिश्चित करना है कि संविधान के कानूनों के तहत नागरिकों को प्रदत्त बुनियादी अधिकारों पर हमले न हों और उनमें कटौती न हो। केंद्र में सत्तासीन सरकार, जो खुद नागरिकों को धर्म के आधार पर बांटने की जुगत भिड़ा रही है, उसके लिए ये तमाम बातें प्रतिकूल हैं। सरकार जानती है कि संविधान को पूरी तरह कमजोर करने और हिंदू राष्ट्र की ओर बढ़ने के उसके इरादे में न्यायपालिका कभी भी बाधा बन सकती है। उस पर अपना वर्चस्व कायम किए बिना इसे अंजाम नहीं दिया जा सकता।
इसलिए सुप्रीम कोर्ट से जजों के आचरण के संबंध में कोई दिशानिर्देश जारी होने के बाद भी कोई गारंटी नहीं होगी कि न्यायाधीशगण अपने वक्तव्यों में विवादास्पद बातों से तौबा करें। हकीकत यह है कि उच्चस्तरीय न्यायिक अधिकारियों के ऐसे विवादास्पद वक्तव्यों को हम समाज में सभी स्तरों पर उजागर हो रहे क्षरण से या जिन्हें जनतंत्र के रक्षा-स्तंभों के तौर पर देखा जाता है, उनके कमजोर होने के रूप में देख सकते हैं।
यह स्थिति कार्यपालिका और विधायिका के स्तर पर भी बराबर देखी जा सकती है। 2014 में भारतीय जनता पार्टी के केंद्र में सत्तासीन होने के बाद कभी ‘लव जिहाद’ के नाम पर, तो कभी गोहत्या के नाम पर लिंचिंग की घटनाएं लगातार सामने आई हैं। ऐसे हत्यारों को सत्ताधारी पार्टी के सम्मानित सदस्य माला पहनाते हुए भी दिखे हैं। अब, जबकि देश का कानून मंत्री और अवकाश-प्राप्त तमाम जज इन्हीं मुद्दों के पक्ष में विचार करने के लिए देश की राजधानी में खुलेआम विहिप के आयोजन में शिरकत कर चुके हैं, तो स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है।
क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के निवासी के तौर पर अभिमान के साथ रहने वाले लोगों में से किसी ने कभी भी यह सोचा होगा कि इस धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र का प्रधानमंत्री दुनिया के मानवाधिकार संगठनों की जांच के दायरे में इस वजह से आ जाएगा क्योंकि उसने जगह-जगह इस्लाम-विरोधी बयान दिए थे?
जाहिर है, न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कायम रखने और कार्यपालिका के हस्तक्षेप से उसे बचाने के संघर्ष के परिणाम भारत के जनतंत्र के लिए दूरगामी होंगे।