नरसिंहपुर का चुनावी बांध: यहां विरोध मना है क्योंकि परियोजना का बनना तय है

एक बांध परियोजना, जिसे सात साल पहले कई कारणों से बंद कर दिया गया था, कोरोनाकाल में दोबारा शुरू की गई। मध्य प्रदेश के तीन जिलों के सौ से ज्यादा गांव आज डूब की जद में हैं, लेकिन प्रशासन मौन है। नरसिंहपुर से ब्रजेश शर्मा सुना रहे हैं विकास की एक नई कहानी

पिछले महीने की 27 तारीख को नरसिंहपुर जिले के आदिवासी गांवों अमोदा, कुरेला, झामर, ग्वारी, घूरपुर, पिपरिया आदि के कई ग्रामीण नरसिंहपुर तहसीलदार के दफ्तर पहुंचे। एक दिन पहले ही बांध के लिए उनकी जमीनों का अर्जन किए जाने की प्रक्रिया का नोटिस उन्हें दिया गया था। अधिकारी ने उनसे अगले दिन तहसील कार्यालय आने को कहा था। यहां उनकी जमीनों  के सीमांकन और बटांकन की प्रक्रिया होनी थी।

तहसीलदार कार्यालय के सामने जुटे लोगों ने जब स्थानीय मीडिया से बात की, तब पता चला कि उनके यहां एक बांध बनाने का काम शुरू हो चुका है और उसके लिए उनकी जमीनों का मापन भी किया जा रहा है, लेकिन इसके बारे में उन्हें कुछ बताया नहीं गया है। जमीन मापने वाले वाले लोग सीधे अधिकारियों से मिलने की बात कह रहे हैं। ये ग्रामीण जब तहसीलदार के पास पहुंचे तो वहां भी उन्हें कोई जानकारी नहीं दी गई। उलटे, उनसे एक कागज पर दस्तखत करवा लिया गया।

नरसिंहपुर तहसीलदार संजय मेसराम से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि सब कुछ तय प्रक्रिया से हो रहा है। क्‍या हो रहा है, क्‍यों हो रहा है और आगे क्‍या होगा, इसके बारे में न गांव वालों को कुछ पता है और न ही प्रशासन बताने को तैयार है, लेकिन जो हो रहा है उसका होना ‘तय’ है- यह बात जरूर पिछले साल लोक सुनवाई के दौरान गांववालों से दो टूक कह दी गई थी।

ये कहानी कुछ दिनों पहले मध्य प्रदेश की वेबसाइट देशगांव के लिए इस संवाददाता ने कवर की थी। उस दौरान पहली बार पता चला कि विकास के नाम पर बनाई जाने वाली परियोजनाओं का हाल ये है कि जिन पर परियोजनाओं का उल्टा असर पड़ रहा है, वे लोग खुद अंधेरे में हैं। उन्हें नहीं पता कल उनकी जिंदगी का क्या होगा। उनकी अशिक्षा और कमजोरी का फायदा उठाकर अधिकारी उनसे जाने किन कागजात पर दिन के उजाले में खुलेआम न सिर्फ दस्तखत ले रहे हैं, बल्कि एकतरफा कार्रवाई की चेतावनी भी दे रहे हैं।

पूरी कहानी जानने से पहले देखें देशगांव पर प्रकाशित यह वीडियो:


मामला मध्य प्रदेश की जीवन रेखा कही जाने वाली नर्मदा नदी के किनारे बसे नरसिंहपुर जिले का है जहां गांववालों के मुताबिक एक बांध बन रहा है जबकि प्रशासन की शब्‍दावली में बैराज बन रहा है। दिलचस्प बात यह है उक्त बांध 2016 में निरस्त हो चुका था और दोबारा शुरू किया गया है। शहर में खबर है कि इस बांध के बनने के बाद इलाके में सिंचाई का रकबा बढ़ जाएगा और खुशहाली आएगी। शासन प्रशासन द्वारा इसी तरह से इसका प्रचार भी किया जा रहा है।

निरस्त होने के बाद दोबारा बन रहा यह बांध नर्मदा पर दो हिस्सों में बन रहा है, जिसे चिनकी बोरास बैराज कहा जा रहा है। चिनकी बैराज करेली तहसील में बन रहा है, बोरास बैराज रायसेन जिले की उदयपुरा तहसील में बन रहा है। डाउन टु अर्थ की मानें तो दूसरी दिलचस्प बात यह है कि इस बांध से 8780 हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई होगी, लेकिन इससे 6343 हेक्टेयर जमीन डूब जाएगी। इसे जब निरस्त किया गया था, तब कई कारण गिनवाए गए थे। वे सारे कारण आज अचानक गायब हो गए हैं।

चिनकी बांध से नरसिंहपुर और जबलपुर के 92 गांव डूब में आने थे, लेकिन स्थानीय लोगों के विरोध के बाद विधायक जालम सिंह ठाकुर ने हस्तक्षेप किया। वे केन्द्रीय मंत्री प्रहलाद पटेल के साथ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से मिले और उन्होंने इस बांध को माइक्रो लिफ्ट इरिगेशन में परिवर्तित करा कर क्षेत्र को डूबने से बचा लिया। तब सरकार ने लोगों और स्थानीय विधायक के दबाव में सही निर्णय ले लिया था, हालांकि इसकी एक राजनीतिक वजह भी बताई जाती है।

2013 के विधानसभा चुनाव में जनपद मैदान में हुई आम सभा में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने यहां बांध बनाने की घोषणा की थी। तब भाजपा के प्रत्याशी रहे अश्विनी धोरेलिया कांग्रेस के प्रत्याशी सुनील जायसवाल से हार गए थे। भाजपा प्रत्याशी ने अपनी हार का कारण बांध की घोषणा को बतलाया था। इसके बाद ही परियोजना को निरस्त कर के लिफ्ट इरिगेशन के तहत लिए जाने की घोषणा हुई थी।


नवंबर 2022 में चिनकी बैराज पर लोक सुनवाई, साभार: पत्रिका

चिनकी बैराज के बनने से नर्मदा किनारे बसे किसान, आदिवासी और साधु-सन्यासी बहुत परेशान हैं। नर्मदा के किनारे बसे आदिवासी गांवों में जो लोग प्रभावित हो रहे हैं, उनमें नोरिया, ठाकुर, केवट, मल्लाह  ढ़ीमर, मेहरा, कोल, भारिया आदिवासी  शामिल हैं। बैराज बनने के बाद उनकी कितनी जमीन जाएगी और कितनी रहेगी, ज्यादातर लोगों को कुछ नहीं पता। प्रभावित होने वाले गांवों में प्रशासन ने नोटिस देने जैसी प्रक्रियाएं शुरू कर दी हैं, लेकिन लोगों को यह नहीं बताया है कि उनकी कितनी जमीन डूब में जा रही है और उन्हें मुआवजा किस हिसाब से दिया जाएगा। प्रभावित ग्रामीण अधिकारियों के चक्कर लगा रहे हैं, लेकिन वहां भी इनकी सुनवाई नहीं हो रही है।

पिछले साल नवंबर में यही हुआ था, जब चिनकी बोरास बैराज संयुक्त बहुउद्देश्यीय लघु सिंचाई परियोजना की पर्यावरणीय स्वीकृति के लिए राज्यस्तरीय विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति द्वारा एक लोक सुनवाई शिविर का आयोजन किया गया था। परियोजना का विरोध कर रहे करीब 20 गांवों के सैकड़ों ग्रामीण सुनवाई में शामिल हुए थे और अपना पक्ष रखते हुए उन्‍होंने बांध बनाने का विरोध किया था। सुनवाई करने आए अधिकारियों ने उस समय कहा था कि जिसे बांध कहा जा रहा है, वह बैराज है। अधिकारियों ने गांव वालों से साफ कह दिया था कि इस बैराज को बनाया जाना तय है इसलिए गांववाले इसका विरोध करने के बजाय अन्य विषयों पर अपनी आपत्तियां दर्ज कराएं।

किसी परियोजना का बनना तय है, क्‍या यह लोकतंत्र में एकतरफा ढंग से प्रशासन द्वारा कहा जा सकता है? क्‍या विकास के काम एक दिशा से तय होते हैं? और केवल इसीलिए लोगों को विरोध छोड़ देना चाहिए? अगर आजीविका, जमीन, संसाधन छिनने का आदमी विरोध नहीं कर सकता तो फिर और किसी विषय पर आपत्ति का क्‍या मतलब है? सीधी बात है कि नरसिंहपुर के अधिकारी लोगों से सभ्य भाषा में कह रहे हैं कि हमें तुमसे कोई मतलब नहीं, जियो या मरो। लोगों ने भी ‘तय’ परियोजना का विरोध छोड़ देने के आदेश को इसी रूप में लिया है।

बांध का विरोध छोड़ देने के बाद चूंकि ‘अन्‍य विषयों पर आपत्ति’ का कोई सवाल ही नहीं बनता, तो संकल्‍प का आलम यह है कि कुछ लोग आत्महत्या तक की बात अब करने लगे हैं। घूरपुर गांव में बने एक आश्रम में रहने वाले संत राम सिंह पटेल कहते हैं कि खेती के रूप में उनका एक ही रोजगार है, इसलिए बांध बन जाएगा तो वे आत्महत्या करने को विवश हो जाएंगे। घूरपुर के ही योगेंद्र सिंह पटेल कहते हैं कि प्रशासन भले ही कुछ न बता रहा हो, लेकिन लोगों का अपना अनुमान है कि आसपास का कोई भी गांव डूबने से नहीं बचेगा।  


घूरपुर के योगेंद्र सिंह पटेल

इस परियोजना से कुल 1 लाख 31 हजार 925 हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने का दावा है। परियोजना की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि आखिरी छोर पर भी जो गांव हैं वहां भी सिंचाई हो सकेगी। इसकी कीमत कुल 114 गांवों को किसी ने किसी रूप में चुकानी होगी, जो तीन जिलों में आते हैं। कुछ एक गांवों में तो बांध के प्रभाव सामान्य हैं, लेकिन कई जगह ऐसा नहीं है। नरसिंहपुर जिले के कई गांव बैराज के कारण होने वाले जलभराव में पूरी तरह डूब जाएंगे।

नरसिंहपुर के जो गांव इससे प्रभावित हो रहे हैं उनमें बांध के निर्माण स्थल ग्राम पिपरहा के साथ गुरसी, गोकला, रमपुरा, केरपानी, हीरापुर, अमोदा, कुरेला, रोहिणी, झामर, समनापुर, ढ़ाना, डोंगरगांव, जोतखेड़ा, मुर्गा खेड़ा, पिटहेरा, घुघरी, महादेव पिपरिया आदि शामिल हैं। इनमें कई पूरी तरह आदिवासी आबादी वाले गांव हैं।  

नर्मदा विकास प्राधिकरण की रिपोर्ट के मुताबिक 1325 फुट लंबे और करीब 82 फुट ऊंचे बैराज में 50 फुट ऊंचे और 45 फुट चौड़े 17 गेट होंगे। जाहिर है इससे नर्मदा का प्रवाह रुक जाएगा और बड़े इलाके में पानी भरेगा। रिपोर्ट कहती है कि इससे 1729 हेक्टेयर यानी करीब 4272 एकड़ जमीन पानी में डूब जाएगी। इनमें से 518 हेक्टेयर जमीन निजी है और 1211 हेक्टेयर सरकारी है। बांध का कैचमेंट एरिया करीब 23358 वर्ग किलोमीटर का है।

प्राधिकरण के मुताबिक 2027 तक बनने वाले दोनों बैराजों की संयुक्त लागत 5839 करोड़ रुपये आ रही है। इनमें आकार के हिसाब से चिनकी बैराज की लागत अधिक है। चिनकी बैराज में जिन लोगों की जमीनें डूब में जा रही हैं वे नर्मदा किनारे खेती करते हैं। इनमें कई आदिवासी तो पचासों साल से नदी किनारे उपजाऊ जमीनों पर खेती कर रहे हैं। ऐसे में इनकी रोजी-रोटी का साधन यही है। इनमें से कई के पास तो अब अपनी जमीनें भी हैं।

करेली तहसील में नर्मदा नदी के एक किलोमीटर की परिधि में आने वाले करीब 17 गांव इस बैराज के कारण गंभीर तौर पर प्रभावित हो रहे हैं। इन सभी गांवों की चौपालों पर इन दिनों हर रोज ही लोग जुट रहे हैं और बैठकें कर रहे हैं। इनकी सबसे बड़ी चिंता यह है कि बैराज के लिए इनकी जो जमीन ली जा रही है उसके मुआवजे के बारे में प्रशासनिक प्रक्रिया स्पष्ट नहीं है। गांव में जिन लोगों से भी हमने बात की, उनमें से किसी को भी नहीं पता है कि उनकी कितनी जमीन डूब में आ रही है और उसके बदले उन्हें कितना मुआवजा दिया जाना है।

प्रशासन हमें कुछ नहीं बता रहा है: चिनकी में आनंद भोई आश्रम के महंत त्यागी नाथ कुंडल वाले बाबा (बाएं) और बम्होरी के देवेंद्र लोधी, जिनकी 21 एकड़ जमीन परियोजना में डूबने वाली है

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लोग कहते हैं कि जमीन के आकार के हिसाब से तय मुआवजा उन्हें नहीं बताया गया है। ऐसे में वे अब तक नहीं समझ पा रहे हैं कि उन्हें आगे क्या करना है। घाट बम्होरी गांव के रहने वाले किसान देवेंद्र लोधी बताते हैं कि उनके पास 21 एकड़ जमीन है और पूरी इसी डूब क्षेत्र में जा रही है। उन्हें अब तक नहीं पता है कि कितना मुआवजा मिलना है।

देवेंद्र कहते हैं, ‘’हम अच्छे-खासे किसान थे, अब शायद हमें भी मजदूरी करनी प़ड़े।‘’

यही हाल झामर गांव के सीताराम ठाकुर का है। उनके गांव की करीब 150 हेक्टेयर जमीन डूब क्षेत्र में जा रही है। वे कहते हैं कि उनकी पूरी पांच एकड़ जमीन डूब रही है लेकिन उन्हें बताया गया है कि केवल 45 डिसमिल जमीन ही प्रभावित होगी।

चिनकी गांव में नर्मदा नदी के किनारे कई मंदिर और आश्रम भी हैं। यहां आने वाले श्रद्धालुओं से लोगों की कमाई चलती है। यहीं इमरती बाई और प्रशांत शर्मा जैसे लोग अपनी दुकान चलाते हैं। प्रशांत कहते हैं, ‘’हमारी छोटी सी जमीन है, इसलिए हम यहीं पर अपनी दुकान चलाते हैं और गुजारा करते हैं। बारिश में नर्मदा का पानी काफी करीब आ जाता है। जब बैराज बन जाएगा तो शायद कुछ न बचे। पता नहीं आगे क्या होगा।‘’

यहीं छोटी सी दुकान चलाने वाली इमरती को भी कोई अंदाजा नहीं है कि आने वाले दिनों में वे क्या करेंगी और अपने परिवार को कैसे पालेंगी।


परियोजना का पर्यावरणीय प्रभाव आकलन अध्ययन

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ऐसा नहीं कि इस बैराज से केवल छोटे किसान और आदिवासी ही परेशान हैं। यहां के बड़े किसान भी खतरे में हैं। गुरसी गांव के प्रभु लोधी कहते हैं कि उनकी 70 एकड़ जमीन में से एक इंच जमीन भी नहीं बच रही है। वे बताते हैं कि एक साल में वे 10-12 लाख रुपये की फसल बेच लेते हैं, लेकिन अब उन्हें अपनी खेती छोड़नी पड़ रही है। मुआवजा मिलेगा भी तो वह खेती की भरपाई नहीं कर पाएगा।

इस परियोजना में सबसे बड़ी बात यह है कि मुआवजे को लेकर लोगों को अंधेरे में रखा गया है। किसी के पास कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है, न ही प्रशासन इसके लिए कोई प्रयास कर रहा है। इसलिए लोग यहां-वहां से सुनी-सुनाई बातों के आधार पर अटकलें लगा रहे हैं।

गुरसी गांव के लेखराम कहते हैं उन्हें पता चला है कि पिपरहा गांव में कई लोगों को डेढ़ लाख रुपये एकड़ के हिसाब से मुआवजा मिला है। इसके बाद उन्होंने अपनी आपत्ति लगाई है। लेखराम कहते हैं कि उनके गांव की जमीन 30 लाख रुपये एकड़ बिकती है। ऐसे में डेढ़ लाख रुपये का मुआवजा कैसे ठीक होगा? मुआवजे की रकम को लेकर उन्‍हें इसलिए भी संशय है क्योंकि उनके गांव से पिपरहा करीब तीन-चार किलोमीटर ही दूर है, लिहाजा दोनों की जमीनों के बाजार मूल्य में बहुत ज्‍यादा अंतर नहीं हो सकता।

ग्रामीणों का कहना है कि उन्हें नहीं पता कि बैराज बनाने के लिए जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया क्या है। ऐसे में उन्हें केवल उम्मीद भर है कि प्रशासन उनकी मदद करेगा, लेकिन फिलहाल ऐसी कोई मदद उन्हें नहीं मिल रही है। इसी उम्‍मीद में इन गांवों के कई लोग रोजाना नरसिंहपुर और करेली तहसील के चक्‍कर लगाते नजर आ रहे हैं। हर कोई यहां अपनी जमीनों के बारे में सवाल पूछ रहा है।

जानकारी के अभाव में इन गांवों में बहुत से लोग अपने भवन आदि भी बना रहे हैं। ऐसे में इनका आर्थिक नुकसान होना भी तय है। कई जगह ग्रामीणों ने संशय में अपनी सभी योजनाएं रोक दी हैं।


विकास या अंधेरे भविष्य का इंतजार: गांवों की चौपाल पर रोज ऐसी ही बैठकें देखने को मिल रही हैं

नरसिंहपुर के तहसीलदार के मुताबिक अब तक इलाके में धारा 11 का प्रकाशन नहीं हुआ है और शुरुआती प्रक्रिया ही चल रही है। यह प्रक्रिया करीब छह महीने में पूरी हो जाएगी। इसके बाद धारा 11 का प्रकाशन होगा, जिसके बाद प्रशासनिक भूमिका खत्म हो जाएगी और जमीनों के मूल्य तय होंगे।

फिलहाल, प्रशासन ने कई जमीनों पर निशान लगा दिए हैं। ऐसा करने वाले कर्मचारियों ने लोगों को बताया है कि ये डूब के निशान हैं यानी यहां तक जमीन डूब जाएगी। घूरपुर गांव में बनी धर्मशाला इसी निशान के भीतर आती है। यह नदी से काफी दूर है, लेकिन लोग हैरान हैं कि पानी अगर इतना ऊपर आ जाएगा तो शायद ही उनकी जमीनें बचेंगी।

ऐसे में लोग डरे हुए हैं। उन्हें लगता है कि उनकी जमीन का बेहद कम मूल्य दिया जाएगा और फिर उनके पास कोई विकल्प नहीं बचेगा, हालांकि नर्मदा विकास प्राधिकरण की रिपोर्ट के मुताबिक बैराज से विस्‍थापित हुए लोगों के पुनर्वास और पुनर्स्‍थापन के लिए 239 करोड़ रुपये की राशि रखी गई है। वहां 2.5 हेक्टेयर जमीन पर पुनर्वास कॉलोनी बनाने की बात भी रिपोर्ट में शामिल है।

इस क्षेत्र के ज्यादातर लोग जागरूक नहीं हैं। फिर भी ग्रामीणों को इतना जरूर समझ में आ रहा है कि सिंचाई परियोजना से विकास के नाम पर उनकी असल परेशानियों को दबाया जा रहा है और चुप रहने को कहा जा रहा है।


(परियोजना प्रभावित गांवों से लौटकर)


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