वह 19 अगस्त, 2013 का दिन था। जगह थी ओडिशा के रायगड़ा जिले में डोंगरिया कोंध आदिवासियों का एक गांव जरपा, जो उस दिन लोकतंत्र, आंदोलन और संविधान की मिलीजुली ताकत से चालीस हजार करोड़ रुपये की खनन परियोजना के दफन होने का गवाह बनने जा रहा था। अब तक की ग्रामसभाओं में वेदांता कंपनी 11-0 से मुंह की खा चुकी थी। सब मान कर चल रहे थे कि यह ग्रामसभा तो मात्र औपचारिकता है, आदिवासियों की जीत तय है। यही हुआ भी। महज 12 वोटरों के इस गांव ने जज मिश्रा के सामने देखते-देखते एक महाकाय बहुराष्ट्रीय कंपनी को ठुकरा दिया। अपने बेटों की जीत का जश्न मनाने के लिए नियम देवता हहराकर बरस पड़े।
”वेदांता के ताबूत में आखिरी कील है जरपा”, भीगते हुए इस लेखक से उस वक्त यही कहा था नियमगिरि आंदोलन के नेता लिंगराज आजाद ने। उसके बाद की कहानी इतिहास नहीं, वर्तमान है। दस साल बाद आज नियमगिरि के आसपास की हर पहाड़ी खतरे में है। हर पहाड़ी पर रहने वाला कोंध आदिवासियों का हर देवता खतरे में है। कोरापुट, रायगड़ा और कालाहांडी, तीनों जिलों को बॉक्साइट की प्यासी हिंडाल्को, वेदांता और अदाणी कंपनियों ने घेर लिया है। लिंगराज पर मुकदमा कायम है। उनके साथी जेल में हैं। दर्जन भर एफआइआर में लिखा ‘अन्य’ सैकड़ों आदिवासियों के नाम जोड़े जाने की बाट जोह रहा है।
इस बीच पिछले दिनों दो जनसुनवाइयां हुई हैं। एक 16 अक्टूबर को और दूसरी 18 को। 16 तारीख को हुई जनसुनवाई रायगड़ा के काशीपुर ब्लॉक के गांव बनतेजी में थी। 18 तारीख की जनसुनवाई कालाहांडी जिले के थुआमल-रामपुर ब्लॉक स्थित गांव करपाई में थी। दोनों सुनवाइयां सिजिमाली बॉक्साइट ब्लॉक के लिए थीं, जो वेदांता को आवंटित है। अगस्त से लगातार डराए, धमकाए, मारे, पीटे और गिरफ्तार किए जाने के बावजूद आदिवासियों ने इन जनसुनवाइयों में अपनी आवाज जमकर उठाई है। नियमगिरि के पिछवाड़े स्थित सिजिमाली और खंडुआलमाली की हरी-भरी वादियों में तीन महीने से सुलग रही यह आग अब भड़कने को है क्योंकि आदिवासियों ने खनन को अपनी मुकम्मल ना कह दी है।
इस बार की लड़ाई में हालांकि एक बड़ा फर्क है। अबकी वेदांता अकेले नहीं है। उसके साथ अदाणी है और अदाणी के साथ भारत सरकार है। वेदांता के साथ तत्कालीन केंद्र सरकार नहीं थी। अदाणी और वेदांता की जुगलबंदी ही इस संघर्ष को संगीन बनाती है- खासकर अगले छह महीने अहम हैं क्योंकि लोकसभा चुनाव और ओडिशा विधानसभा लगभग साथ होने वाले हैं।
वेदांता-अदाणी की ‘मैत्री’
उस साल पहले जरपा में जब नियमगिरि के आदिवासियों ने बॉक्साइट खनन के खिलाफ अपना निर्णायक मत दिया, उस वक्त दिल्ली के लीला होटल में एनडीटीवी के मालिक डॉ. प्रणय रॉय के साथ बैठे अनिल अग्रवाल अपनी कंपनी वेदांता का भविष्य साफ-साफ देख पा रहे थे। उन्होंने आखिरी बाजी पलटने के लिए बड़ी मेहनत की थी। एनडीटीवी से एक टीम को बाकायदा कंपनी के पक्ष में रिपोर्ट करने के लिए भेजा गया था। इसके बावजूद न नैरेटिव बदल सका, न बाजी पलट सकी। फिर भी लांजीगढ़ (कालाहांडी) की अपनी रिफाइनरी पर उन्होंने कभी ताला नहीं लगने दिया। गुजरात से बॉक्साइट मंगवाकर कारखाने को चालू रखा। उधर, पहाड़ों के भीतर जाकर कहीं गुम हो जाने वाले कनवेयर बेल्टों पर लगातार जंग जमती गई। इधर एनडीटीवी अदाणी के हाथों बिक गया।
नवीन पटनायक तब भी मुख्यमंत्री थे, अब भी हैं। सरकार भी बीजू जनता दल की ही है। लड़ाई अब भी बॉक्साइट की ही है। बस खिलाड़ी बढ़ गए हैं और दस साल में खेल के नियम भी बदल गए हैं। नियमगिरि आंदोलन की जीत वेदांता के ताबूत में आखिरी कील साबित न हो सके, यह सुनिश्चित करने लिए 2016-17 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अपनी सालाना रिपोर्ट में नियमगिरि सुरक्षा समिति को माओवादियों से जोड़ दिया। सिजिमाली में वेदांता तब कहीं सीन में नहीं थी। तब यह ब्लॉक लार्सन एंड टुब्रो (एलएंडटी) के पास था। फिर जाने क्या हुआ कि एलएंडटी से लेकर ब्लॉक वेदांता को दिया गया और एलएंडटी ने ओडिशा सरकार पर मुकदमा कर दिया।
लांजीगढ़ रिफाइनरी की प्यास बुझाने के लिए अग्रवाल को किसी भी कीमत पर बॉक्साइट चाहिए थी। नियमगिरि से नहीं तो उसके आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, किसी भी पहाड़ से। सो, बीते मार्च में हुई तीन नीलामियों में राज्य सरकार ने अग्रवाल की वेदांता को सिजिमाली का एक वह बॉक्साइट ब्लॉक दे दिया, जो एलएंडटी को आवंटित था। अग्रवाल ने सरकार को इसकी क्या कीमत चुकाई होगी, बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है। बगल में कटरूमाली और बल्लाडा के बाकी दो बॉक्साइट ब्लॉक मुंद्रा अलुमिनियम लिमिटेड को दे दिए गए, जो गौतम अदाणी की कंपनी है। इस तरह वेदांता और अदाणी बॉक्साइट के धंधे में बगलगीर बन गए।
दिलचस्प यह है कि अदाणी और वेदांता दोनों के बॉक्साइट ब्लॉक का एमडीओ यानी माइन डेवेलपर एंड ऑपरेटर (खदान को विकसित करने वाला और इसका संचालक) एक ही कंपनी है- मैत्री इन्फ्रास्ट्रक्चर एण्ड माइनिंग इंडिया प्राइवेट लिमिटेड। कहानी इसी मैत्री कंपनी के खिलाफ आदिवासियों के संघर्ष से अगस्त के पहले हफ्ते में शुरू होती है।
दस साल बाद: अगस्त 2023
वेदांता को मिली सिजिमाली बॉक्साइट परियोजना रायगड़ा-कालाहांडी के 1549 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली हुई है। यहां बीस से अधिक आरक्षित वन और नौ जल निकाय हैं। रायगड़ा और कालाहांडी दोनों संविधान की पांचवीं अनुसूची वाले (पेसा) क्षेत्र हैं जहां प्रमुख अनुसूचित जनजाति आबादी जैसे कोंध आदिवासी, परजा और डोम दलित रहते हैं। अन्य जातियों व समुदायों का एक छोटा प्रतिशत भी यहां रहता है।
सिजिमाली में वेदांता को राज्य सरकार से मिला लेटर ऑफ इन्टेंट फरवरी 2026 तक वैध है, हालांकि अब तक न तो खनन योजना इंडियन ब्यूरो ऑफ माइंस से स्वीकृत है, न ही खनन का पट्टा कंपनी को मिला है। वन काटने की मंजूरी भी नहीं मिली है, केवल कंपनी की अर्जी दाखिल है। कुल 18 गांव खनन की जद में आ रहे हैं, सौ परिवार विस्थापित होने जा रहे हैं और 500 परिवार प्रभावित होने को हैं। पुनर्वास और पुनर्स्थापन की परियोजना अब भी कागज पर नहीं आई है। दो गांव मालीपदर और बुंदेल करलापट अभयारण्य के ईको-सेंसिटिव क्षेत्र में आते हैं, लिहाजा उनका प्रमाण-पत्र भी अटका हुआ है।
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि नीलामी के बाद से अब तक कुछ भी ठोस यहां शुरू नहीं हुआ है- न तो वेदांता के सिजिमाली में और न ही अदाणी के कटरूमाली ब्लॉक में। इसके बावजूद आदिवासी इस बार पहले से सतर्क थे क्योंकि अदाणी और वेदांता की ओर से मैत्री कंपनी वाले गांव में आना-जाना आवंटन के बाद से ही शुरू कर चुके थे। स्थानीय प्रशासन की सहायता से यहां पर मैत्री कम्पनी लंबे समय से जनसम्पर्क शिविरों का आयोजन कर रही थी। लोगों के आधार कार्ड और बैंक खातों का नंबर लेने की कोशिश की जा रही थी। इसके जवाब में आदिवासी ग्रामीण सिजीमाली कुटरूमाली विरोधी समिति का गठन कर के अपना खनन-विरोधी प्रचार अभियान चला रहे थे। नियमगिरि के पिछले अनुभव के चलते दोनों कंपनियों को अहसास था कि खेती में हाथ लगाने से पहले खरपतवार को साफ करना जरूरी है। इसलिए पहले समिति के विरोध का दमन हुआ, बाद में जनसुनवाई की अधिसूचना जारी की गई।
नियमगिरि की जीत के दस साल जब अगस्त में पूरे हो रहे थे, तभी आदिवासियों पर बजर गिरी- वो भी विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर! बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं। आदिवासी नेताओं पर गैरकानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम (यूएपीए) लगा दिया गया। एक बड़े समाजवादी नेता प्रफुल्ल सामंतराय का अपहरण कर लिया गया। कोरापुट के माली पर्वत से लेकर सिजिमाली और खंडुआलमाली में सरकारी दमन ऐसा बरपा जैसा 2013 में कल्पना से भी परे था। उकसावा कंपनी और प्रशासन की ओर से ही आया।
टकराव की शुरुआत 4 अगस्त को हुई, जब वेदांता-अदाणी की एमडीओ मैत्री कंपनी के अधिकारियों ने पुलिस के साथ गांवों में जबरन घुसने की कोशिश की। इसके खिलाफ काशीपुर में एक विरोध प्रदर्शन हुआ। इसके बाद पुलिस और अर्धसैन्य बलों ने गांवों में आधी रात को छापेमारी की। बीस से अधिक व्यक्तियों को अवैध हिरासत में ले लिया गया और प्रताड़ित किया गया। उनमें से अधिकांश को बाद में आइपीसी, शस्त्र अधिनियम और सीएलए के विभिन्न प्रावधानों के तहत औपचारिक रूप से गिरफ्तार कर लिया गया।
राज्यपाल गणेशी लाल को करीब अस्सी वकीलों और कानूनविदों द्वारा 21 सितंबर को भेजे गए एक पत्र के मुताबिक सबसे चौंकाने वाली एफआइआर काशीपुर थाने में एफआइआर संख्या 93, 96, 97 है, जो एक-दूसरे की नकल हैं। ये 8 अगस्त 2023 को क्रमिक रूप से दर्ज की गई हैं, जिनमें 11 लोगों को नामजद किया गया है और सौ अन्य अज्ञात हैं। इसी तरह, 12 अगस्त को मैत्री कंपनी के एक अधिकारी द्वारा दायर एफआइआर संख्या 101 में 94 लोगों के नाम हैं और सौ अन्य अज्ञात हैं।
कालाहांडी और रायगड़ा जिलों के बीच पड़ने वाले नियमगिरि इलाके में 5 अगस्त को नियमगिरि सुरक्षा समिति के दो कार्यकर्ताओं कृष्णा सिकाका और बारी सिकाका को सादे कपड़े में पुलिसवालों ने हिरासत में ले लिया। जब गांववालों को किसी थाने से कोई जानकारी नहीं मिली, तब उन्होंने 6 अगस्त को इनकी रिहाई के लिए कल्याणसिंहपुर थाने के सामने धरना प्रदर्शन किया। धरने से लौटते समय पुलिस ने एक कार्यकर्ता द्रेंजु कृषिका को पकड़ने की कोशिश की, जिसका ग्रामीणों ने विरोध किया। इस विरोध को “विधि-विरुद्ध” करार करते हुए पुलिस ने नियमगिरि सुरक्षा समिति से जुड़े नौ कार्यकर्ताओं के खिलाफ आइपीसी और यूएपीए की धाराएं लगा दीं, जिसमें कृष्णा सिकाका और लादा सिकाका के अलावा भुवनेश्वर के कवि लेनिन कुमार और लिंगराज आजाद भी शामिल हैं, जो प्रदर्शन में कथित रूप से मौजूद ही नहीं थे।
इसी एफआइआर के अंतर्गत समाजवादी जन परिषद के राज्य सचिव उपेन्द्र बाग को 10 अगस्त को रायगड़ा से उठाया गया था। पांच दिन तक एसपी के ऑफिस में गैरकानूनी हिरासत में रख कर उनके साथ मारपीट की गई और बाद में उन्हें विधि-विरुद्ध जमावड़े के आरोप में यूएपीए के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया। न्यायालय में जमानत की सुनवाई के दौरान पुलिस ने अन्य चार एफआइआर के बारे में जानकारी दी, जो कई साल पुरानी हैं और उनमें यूएपीए जैसी संगीन धाराएं जुड़ी हुई हैं।
इसी बीच कोरापुट जिले के माली पर्वत क्षेत्र में भी दमन चला। 23 अगस्त को माली पर्वत सुरक्षा समिति के दो नेताओं अभी सदापेल्ली और दासा खोरा को छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा अलग-अलग जगहों से उठाया गया और बलपूर्वक उन्हें दंतेवाड़ा ले जाया गया। जब उनके परिवारों ने पुलिस थानों में अपहरण की शिकायत की, तो उन्हें 26 अगस्त को दंतेवाड़ा के पास छोड़ दिया गया।
माली पर्वत में बॉक्साइट खनन का पट्टा आदित्य बिड़ला ग्रुप की प्रमुख कम्पनी हिन्डालको को दिया गया है। पर्यावरण स्वीकृति समाप्त हो जाने के बावजूद हिंडालको ने यहां गैरकानूनी रूप से खनन जारी रखा है और अब दोबारा पर्यावरण स्वीकृति लेने की प्रक्रिया में है। उच्च न्यायालय के आदेश पर यहां जनवरी 2023 में जिला न्यायाधीश की उपस्थिति में जनसुनवाई आयोजित की गई थी जिसमें अधिकतर लोगों ने खुलकर खनन का विरोध किया था, इसके बावजूद ग्रामीणों पर कई तरह के दबाव लगातार बनाए जा रहे हैं।
Rights activists demand probe against the Police atrocities in Rayagada and Kalahandi. Bhubaneswar – Local Police in…
Posted by Narendra Mohanty on Sunday, October 15, 2023
सबसे बड़ी कार्रवाई की गई 29 अगस्त को, जब प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता प्रफुल्ल सामंतराय रायगड़ा की जेल में सिजिमाली और कुटरूमाली के गिरफ्तार आदिवासी नेताओं से मिलने और उनको अपना समर्थन देने गए थे। उस शाम उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस थी। इससे पहले कि वे प्रेस के बीच जाते, उनके होटल के कमरे में साधारण कपड़ों में कुछ लोग आए और उनकी आंखों और मुंह पर पट्टी बांध कर, हाथ बांधकर, मोबाइल छीन कर उनको अपने साथ गाड़ी में ले गए। पांच घंटे घुमाने के बाद उन्हें बरहमपुर छोड़ दिया गया। प्रफुल्ल सामंतराय के अपहरण के खिलाफ देश भर में आवाज उठी। भुवनेश्वर से लेकर दिल्ली तक प्रतिरोध सभा हुई। इसके बाद माहौल थोड़ा शांत हुआ।
महीना भर दमन चक्र चलाने के बाद प्रशासन ने जनसुनवाई की अधिसूचना जारी की। 13 सितंबर को ओडिशा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने रायगड़ा जिले की काशीपुर तहसील और कालाहांडी जिले की थुआमल-रामपुर तहसील में प्रस्तावित बॉक्साइट खनन की मंजूरी के लिए सार्वजनिक सुनवाई की तारीखों की घोषणा की। यही सुनवाई बीती 16 और 18 तारीख को संपन्न हो चुकी है। कंपनियों और प्रशासन को पूरी उम्मीद थी कि अगस्त 2013 की तरह जनसुनवाई का लोकतंत्र इस बार न जीतने पाए, लेकिन दोनों जनसुनवाइयों में आदिवासियों ने अपने हक में खनन के खिलाफ जैसी आवाज उठाई है, वह संकेत है कि वेदांता और अदाणी की मिलीजुली ताकत के खिलाफ उनकी तैयारी भी पूरी है। आदिवासियों की यह तैयारी विशुद्ध संविधान और कानून पर टिकी है, धन-दौलत या जोर-जबर पर नहीं।
करलापट और खंडुआलमाली
ओडिशा में संसाधनों की लड़ाई सीधे संविधान बनाम पूंजी की है। यह बात मुहावरे की नहीं है, कालाहांडी के संघर्षरत गांवों में इसे नंगी आखों से देखा जा सकता है।
मार्च में वेदांता और अदाणी को रायगड़ा-कालाहांडी के बॉक्साइट ब्लॉक दिए गए। इसके ठीक तीन महीने बाद जून में मुझे कालाहांडी जाने का मौका मिला था। कोशिश थी कि इस इलाके में लौटकर दस साल बाद के दौरान आए बदलावों को समझा जाय। इलाका हालांकि ठीक वही नहीं था जहां नियमगिरि का आंदोलन हुआ था। यह नियमगिरि के पीछे का एकदम अनछुआ इलाका है जहां करलापट का वन्यजीव अभयारण्य है।
नियमगिरि और उसके आसपास के पहाड़ों में बॉक्साइट खनन के खिलाफ जारी संघर्ष आपस में कैसे जुड़े हुए हैं, इसे समझने के लिए इलाके का भूगोल जानना बहुत जरूरी है। नियमगिरि वाला रायगड़ा जिला, करलापट वाला कालाहांडी जिला और माली पर्वत वाला कोरापुट जिला आपस में सटे हुए हैं। रायगड़ा में नियमगिरि की पहाडि़यां हैं। कालाहांडी में सिजिमाली, खंडुआलमाली और कटरूमाली के पर्वत हैं। वेदांता की रिफाइनरी लांजीगढ़ में पड़ती है जो कालाहांडी का मुख्यालय है लेकिन रायगड़ा से सटा हुआ है।
पिछली बार वाया छत्तीसगढ़ के रायपुर से मुनिगुड़ा उतर कर नियमगिरि, लांजीगढ़ और आसपास के गांवों में जाना हुआ था। मुनिगुड़ा के आगे आंध्र प्रदेश लग जाता है। इस बार वाया भुवनेश्वर से भवानीपटना उतर कर मैं कालाहांडी पहुंचा था। भवानीपटना से कोई पौन घंटे की दूरी पर करलापट का जंगल शुरू हो जाता है। इस जंगल से नियमगिरि के पहाड़ों की दूरी कोई सौ किलोमीटर है। इसी बीच सबसे करीब खंडुआलमाली, पचास किलोमीटर बाद सिजिमाली और कटरूमाली के पहाड़ पड़ते हैं। यानी, सिजिमाली से लांजीगढ़ की रिफाइनरी तक अगर वेदांता को अपना बॉक्साइट पहुंचाना है तो उसे अपने कनवेयर बेल्ट की लंबाई पचास किलोमीटर के आसपास बढ़ानी पड़ेगी। यह कनवेयर बेल्ट फिलहाल नियमगिरि तक ही जाती है।
भवानीपटना से करलापट के जंगल पौन घंटे की दूरी पर हैं, लेकिन भीतर सिजिमाली और कटरूमाली के दुर्गम गांवों तक जाने में दो घंटा या उससे ज्यादा भी लग सकता है। सबसे करीब खंडुआलमाली है। फिर सिजिमाली और कटरूमाली। हम इसी इलाके के दो ऐसे गांवों में गए थे जो खनन की जद में आ रहे हैं। पहला गांव था तलाम्बपदर, जो सिजिमाली की तलहटी में पड़ता है। इससे करीब दस किलोमीटर पीछे पोलिंगपदर गांव पड़ता है जो खंडुआलमाली का इलाका है।
करलापट के जंगल पर लंबे समय से खनन कंपनियों की नजर रही है। इसे अब दो दशक होने को आ रहा है। इसीलिए करलापट के ग्रामीणों का संघर्ष भी नियमगिरि जितना ही पुराना है। सुप्रीम कोर्ट की केंद्रीय विशेषाधिकार कमेटी जब दिसंबर 2004 में वेदांता के मामले की समीक्षा करने के लिए नियमगिरि आई थी, तभी उसने यह कहा था कि करलापट के खंडुआलमाली बॉक्साइट ब्लॉक वन अभयारण्य के बहुत करीब हैं और दक्षिणी ओडिशा के हाथी रिजर्व का हिस्सा हैं, इसलिए वहां खनन नहीं किया जा सकता है। उस वक्त राज्य सरकार ने बाकायदा हलफनामा दायर कर के कहा था कि करलापट के भीतर खंडुआलमाली पहाडि़यों में खनन की मंजूरी नहीं दी जाएगी।
इसके बावजूद खनन के लिए दुनिया भर में कुख्यात कंपनी बीएचपी बिलिटन ने 2005 के नवंबर में कालाहांडी के जिला कलक्टर को खंडुआलमाली में खनन के लिए आवेदन कर दिया। कलक्टर ने उसे डीएफओ को बढ़ा दिया। कंपनी चाहती थी कि राज्य सरकार अधिसूचित अभयारण्य क्षेत्र की सीमा में बदलाव कर के उसे खंडुआलमाली की खदानें सौंप दे। वाइल्डलाइफ सोसायटी ऑफ ओडिशा ने तब आरोप लगाया था कि राज्य सरकार अभयारण्य के एक हिस्से को डीनाोटिफाइ करने के लिए बीएचपी बिलिटन के दबाव में है।
पर्यावरण संरक्षण कानून, 1986 के अंतर्गत नियम यह है कि किसी भी राष्ट्रीय अभयारण्य की सीमा से दस किलोमीटर तक का इलाका ‘ईको-सेंसिटिव’ माना जाएगा। इसे राष्ट्रीय वन्यजीव नीति, 2002 में अक्षुण्ण रखा गया है। दूरी के हिसाब से देखें तो करलापट अभयारण्य की सीमा से सिजिमाली के गांव दस किलोमीटर से कहीं ज्यादा दूर पड़ते हैं लेकिन खंडुआलमाली के कुछ गांव दस किलोमीटर के दायरे में ही आ जाते हैं। मसलन, खंडुआलमाली में पड़ने वाला पोलिंगपदर करलापट से बमुश्किल दस किलोमीटर दूर है। यही वजह थी कि करलापट के जंगलों में सबसे पहले लोगों ने खंडुआलमाली से खनन योजनाओं का विरोध करना शुरू किया था। यहां सबसे पहले बनी खंडुआलमाली सुरक्षा समिति, उसके बाद सिजिमाली कटरूमाली विरोध समिति का गठन हुआ। जाहिर है, दमन भी सबसे पहले खंडुआलमाली से ही शुरू हुआ।
2013 में नियमगिरि के आदिवासियों ने वेदांता को जब 12 ग्रामसभाओं में खारिज कर दिया, उसके बाद से खंडुआलमाली पर खतरा बढ़ा। 2016-17 में केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा नियमगिरि सुरक्षा समिति को माओवादियों से जोड़ कर आसपास के इलाकों में दमन की जमीन तैयार की गई। हर साल खंडुआलमाली के शिखर पर होने वाली माली पूजा की 2017 में जब तैयारियां चल रही थीं, तब सीआरपीएफ ने वहां धावा बोलकर 11 लोगों को उठा लिया और भवानीपटना ले गए। गांव वाले सैकड़ों की संख्या में एसपी दफ्तर पहुंचे और उन्होंने अपने लोगों को छुड़ा लिया। फिर 2018 में समिति के नेता ब्रिटिश कुमार माझी को पुलिस ने उठा लिया और प्रताडि़त किया। 2019 में लिंगराज आजाद को गिरफ्तार किया गया। यह सिलसिला आज तक जारी है।
खंडुआलमाली सुरक्षा समिति को नियमगिरि सुरक्षा समिति की तर्ज पर स्थानीय लोगों द्वारा बनाया गया था। नियमगिरि आंदोलन के सबक और अनुभवों से खंडुआलमाली की समिति को तो लाभ मिला ही, पर अच्छी बात यह थी कि करलापट के भीतर पड़ने वाले गांवों में पिछड़ेपन की स्थिति नियमगिरि के डोंगरिया कोंध जैसी नहीं है। यहां कुटिया कोंध और डोम दलित रहते हैं जो अपेक्षाकृत दुनिया से ज्यादा जुड़े हुए हैं। फिर दस साल में मोबाइल आदि की गांवों तक पहुंच और शिक्षा व परिवहन साधनों ने स्थितियों को बदल दिया है। खनन विरोधी कार्यकर्ताओं के लिए सबसे बड़ा लाभ यह था कि यहां के लोग सामान्य तौर से उड़िया बोलते थे जबकि नियमगिरि के डोंगरियों में कुई चलती है, उड़िया नहीं। वैसे तो कोंध आदिवासियों की भाषा कुई ही है, लेकिन शहरीकरण के असर में कई इलाकों में अब ये लोग स्थानीय उड़िया ही बोलने लगे हैं।
इन तमाम कारणों से कंपनी के विरोध की बात बहुत तेजी से फैली। एक नहीं दो-दो सुरक्षा समितियां करलापट में बन गईं। कार्यकर्ताओं और नेताओं ने अपनी बात पहुंचाने और लोगों को जागरूक करने के लिए संविधान की प्रस्तावना वाले फ्लेक्स और बैनर बनवाए। नए नारे गढ़े गए। जैसे, एक मजबूत नारा पिछले तीन साल से यहां चल रहा है- खंडुआलमाली कु नइ करि देउ मरुस्थान, गाले पाछे जाऊ जान…। ग्रामीणों ने ‘गो बैक’ बोलना भी सीख लिया। एक आंदोलन को और क्या चाहिए!
नियमगिरि में बॉक्साइट खनन पर रोक लगाने वाली सुप्रीम कोर्ट की जनसुनवाई का माओवादियों ने खुलेआम बहिष्कार किया था। इसके ठीक उलट नियमगिरि सुरक्षा समिति ने जनसुनवाई में न केवल हिस्सा लिया, बल्कि डोंगरिया कोंध आदिवासियों को पल्लीसभाओं में लोकतांत्रिक ढंग से अपनी बात रखने के लिए प्रोत्साहित किया था। दोनों के धुर विरोधी पक्ष स्पष्ट होने के बावजूद केंद्र सरकार ने नियमगिरि सुरक्षा समिति को अपनी रिपोर्ट में जबरन माओवादियों से जुड़ा बता दिया। इसने संविधान में आदिवासियों की आस्था और मजबूत कर दी। उन्होंने संविधान पर अपनी टेक लगाए रखी और भविष्य के हमलों से संविधान के सहारे लड़ने का फैसला किया।
दो गांव, दो मिजाज
यही सब समझते हुए हम स्थानीय लोगों के साथ तलाम्बपदर पहुंचे थे। जून की उस चिलचिलाती और उमस भरी दोपहर गांववालों ने हमें आने से मना किया था क्योंकि गांव में किसी की मौत हो गई थी। फिर भी हम पहुंचे। पूरा गांव क्रियाकर्म कर के थोड़ी देर पहले ही लौटा था। यहां किसी के मरने पर खाने-पीने का रिवाज है, तो तकरीबन हर कोई नशे में था। आम तौर से जब आदिवासी अपने गांव में होते हैं तो भीड़ जुटाने के लिए बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ती है। फिर भी कार्यकर्ताओं ने गांव का एक चक्कर लगाया और सबको गांव के बीचोबीच बनी एक चौपाल पर बुलाया। हमेशा की तरह औरतें सबसे पहले आईं, फिर पुरुष आए।
वहां एक बैनर बांधा गया। बैनर पर उड़िया में संविधान की प्रस्तावना लिखी हुई थी। सभा की शुरुआत लाउडस्पकीर पर एक गीत गाने से हुई। गीत सुनकर और लोग चले आए। आसपास तकरीबन पूरा गांव इकट्ठा हो गया। उसके बाद तकरीर शुरू हुई। थोड़ी देर सुनने के बाद लोगों ने बोलना शुरू किया। एकाध गांववाले कुछ ज्यादा नशे में थे, तो वे बीच-बीच में टोक दे रहे थे। माहौल कुछ ज्यादा ही लोकतांत्रिक हो जा रहा था। फिर गांववाले ही खुद उन लोगों को संभाल ले रहे थे।
कुल मिलाकर जो बात समझ में आई, वो यह थी कि जमीन हमारी माता है। पहाड़ हमारा देवता है। हम उसे नहीं जाने देंगे। किसी को गांव में नहीं आने देंगे। वहां बैठे हर पुरुष-स्त्री ने अपनी-अपनी तरफ से यह पक्का वादा किया कि गांव में कंपनी को वे नहीं आने देंगे, चाहे कुछ हो जाए। बैठक के अंत में कुछ पुरुषों के बीच बहस भी छिड़ गई। यह सब नशे का असर था। पूरा गांव जितने नशे में था, उतना ही उत्तेजित भी था।
तलाम्बपदर चूंकि भीतर का गांव है, इसलिए यहां पढ़ाई-लिखाई की स्थिति कमजोर है। गरीबी अपेक्षाकृत ज्यादा है। लोगों के पास गाय-भैंसें और बकरियां हैं लेकिन शहरी जीवन से कटाव सा दिखता है। ऐसे गांवों की हालांकि एक खूबी यह होती है कि वे बाहरी लोगों की बहुत इज्जत करते हैं। वापसी पर तकरीबन पूरा गांव हमें छोड़ने आया, सबने नारा लगाया और हाथ हिलाकर हमें विदा किया।
यह गर्मजोशी पोलिंगपदर में नहीं दिखी। यहां की सभा में कोई बहसबाजी या टकराव देखने को नहीं मिला। लोग अपेक्षाकृत शांत थे। वैसे भी यहां आते हुए रास्ते में हलकी बारिश हो चुकी थी, माहौल सील चुका था। फिर भी धीरे-धीरे चौपाल पर सब जुट ही गए। यहां के मुखिया खंडुआलमाली सुरक्षा समिति के नेता भी हैं। वे बुजुर्ग हैं। उनके बेटे ने बैठक की कमान संभाली और सबको जुटाने का काम किया।
एक तरफ औरतें कतारबद्ध बैठी थीं। दूसरी तरफ बड़े-बुजुर्ग पुरुष कतार में थे। नौजवानों अपना झुण्ड बनाकर एक ओर खड़े रहे। नौजवान पढ़े-लिखे थे। कामकाजी थे। शहर के निकट होने के कारण इस गांव में मोटरसाइकिलें पर्याप्त थीं। डिश एंटीना भी था। किसी ने डाल से तोड़ा आम बाल्टी में पानी में भिगोकर रख दिया। चौपाल पर संविधान की प्रस्तावना वाला बैनर बांधा गया। फिर भाषण चालू हुआ। बच्चे आम चूस-चूस कर खाते रहे और लोग ध्यान से सुनते रहे।
पोलिंगपदर में घुसते ही खुली जगह में लकड़ी के खपच्चों से घेरा हुआ एक बड़ा सा पत्थर रखा दिखा था। यह आदिवासियों की खंडुआल देवी थी। खुडुआलमाली को यहां के लोग उसी तरह देवी मानते हैं जैसे नियमगिरि को वहां के लोग देवता। कालाहांडी के सबसे पुराने बाशिंदे कहे जाने वाले कोंध आदिवासियों के यहां ऐसे कई देवी-देवता हैं, लेकिन इन सभी के बीच एक समानता है कि ये धरती या धरनी देवी के विभिन्न रूप हैं।
नियमगिरि के आंदोलन का एक अद्भुत पक्ष यह था कि वह लड़ाई केवल अपने संसाधन को बचाने की नहीं थी। वह अपने देवता, धर्म, संस्कृति और परंपरा को बचाने की लड़ाई भी थी। खंडुआलमाली हो या सिजिमाली, आदिवासों में हर जगह लड़ाई का संदर्भ इतना ही व्यापक है। मसलन, जहां वेदांता को खनन करना है वहां न सिर्फ कोंध आदिवासियों के खंडुआल देवता का स्थान है, बल्कि डोम समुदाय के लिए भी वह जगह पवित्र है। उनके देवता का नाम टिजी राजा है। सिजिमाली पहाड़ी में कई पवित्र मानी जाने वाली गुफाएं हैं। स्थानीय आदिवासी इनकी पूजा करते हैं। वे मानते हैं कि इनमें उनके पशु देवता बसते हैं। हर साल वे इन गुफाओं में उत्सव कर के पशु देवताओं का आवाहन करते हैं। पारापर और बाघपर नाम की दो गुफाएं इनमें सबसे अहम हैं।
दिलचस्प बात यह है कि जनजातीय संसाधनों का यह धार्मिक और सांस्कृतिक पक्ष वेदांता की पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट में सिरे से गायब है। गुफा और देवता तो छोड़ दें, रिपोर्ट में सिजिमाली की 200 जलधाराओं का भी कोई जिक्र नहीं है। ऐसे में सवाल स्वाभाविक है कि दिल्ली में ओडिशा के आदिवासियों को सुनने वाले वे लोग आखिर कहां गए जिन्होंने कभी डोंगरियों के अस्तित्व से जुड़े हर तकनीकी पहलू को सार्वजनिक करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी? विडम्बना यह है कि ये तथ्य वहां के आदिवासी बखूबी जानते हैं। बनतेजी और करपाई की जनसुनवाई में इन तथ्यों को जमकर उन्होंने प्रशासन के समक्ष रखा, जिससे छंट कर ही सही कुछ बातें बाहर आ पाईं।
बगावत के स्वर
वेदांता के सिजिमाली प्रोजेक्ट को पर्यावरणीय मंजूरी के लिए 18 अक्टूबर को कालाहांडी के थुआमल-रामपुर ब्लॉक के करपाई में हुई जनसुनवाई के लिए कंपनी के एजेंटों ने भोर में साढ़े तीन बजे से ही बाहरी लोगों को गांव में घुसाना शुरू कर दिया था ताकि फर्जी बयानात से गांववालों की आवाज को दबा दिया जाए। इसके बावजूद पहाड़ों में स्थित गांवों से तमाम लोग वहां आकर जुटे और उन्होंने बाहरियों को खदेड़ कर भगा दिया। जनसुनवाई स्थल पर टूटी हुई कुर्सियां टकराव की गवाही दे रही थीं।
सुनवाई सुबह दस बजे शुरू हुई और डेढ़ घंटा चली। करपाई पंचायत के तड़ादेई और तलांगपदर गांवों से आए दर्जन भर लोगों ने अपनी बात रखी। सुंगेर पंचायत के सुगुबाड़ी, बनतेजी और कंटामाल से भी आए लोगों ने अपनी बात रखी। कंपनी के विरोध का आलम यह था कि तंबू के भीतर और बाहर मिलाकर कोई डेढ़ हजार लोग थे। कई लोगों को बोलने नहीं दिया गया।
औरतों ने उन गांवों में रहने वाले अपने रिश्तेदारों के अनुभव सुनाए जो बाफलीमाली में उत्कल अलुमिना की खदान और उसके रिफाइनरी संयंत्र से प्रभावित हुए हैं। बनतेजी से आई एक औरत ने दो दिन पहले 16 अक्टूबर को उसके गांव में हुई जनसुनवाई के बारे में बताते हुए कहा कि कैसे कंपनी के एजेंटों और सरकारी अधिकारियों ने कंपनी का समर्थन करने का उन पर दबाव बनाने के लिए डराया धमकाया था और उसे ‘गरीब’ कहा था।
उस औरत ने पूछा, ‘’मैं कंपनी से पूछती हूं, अगर हम गरीब हैं तो आप हमारे पास हमारे पहाड़ लेने क्यों आ रहे हैं? आपको लगता है कि आदिवासी औश्र दलित बेवकूफ और अनपढ़ हैं! अपने पुरखों के समय से ही हम इस धरती और इन पहाड़ों में कंपनी की रेवडि़यों और सरकार की मदद के बगैर जी रहे हैं। इसलिए अपनी अगली पीढि़यों तक भी हम ऐसे ही जी सकते हैं।‘’
एक और ग्रामीण ने कहा, ‘’सरकार को मनुष्य की तरह जीना और बरताव करना चाहिए, लेकिन इस सरकार को मनुष्यों से, पशुओं से, पेड़ों से, पक्षियों से और इस धरती के जीव-जंतुओं से कुछ लेना-देना ही नहीं है। ये सरकार हम आदिवासियों के जैसे नहीं सोचती। हम आदिवासियों के साथ सहानुभूति पैदा करने के लिए पहले सरकार को हमारी तरह इंसान बनना सीखना होगा।‘’
‘वेदांता गो बैक’, ‘मैत्री गो बैक’, सिजिमाली में खनन नहीं’ के नारों के बीच रायगड़ा की उपजेल में कैद एक कार्यकर्ता उमाकांत नायक की मां अपने पोते को गो में लिए मंच पर आई। उसने गीत के माध्यम से बताने की कोशिश की कि कैसे उसके बेटे को गिरफ्तार किया गया और उसकी पत्नी और बच्चा कितने दर्द में जी रहे हैं। इस महिला को बोलने नहीं दिया गया और जबरन तंबू से बाहर कर दिया गया।
कालाहांडी के एडीएम द्वारा जनसुनवाई की समाप्ति की घोषणा के बाद बोलेरो की जीपों में कंपनी के कर्मचारियों और सरकारी अफसरों को ले जाया जाने लगा और स्थानीय मीडिया को सवाल करने का मौका ही नहीं दिया गया। ग्रामीणों ने विरोध में जीपों पर पानी की बोतलें फेंकनी शुरू कर दीं और नारे लगाए।
भवानीपटना में ‘द समाज’ दैनिक के लिए काम करने वाले पुरस्कृत पत्रकार बिजय द्विवेदी से मेरी लंबी बात हुई थी। वे विस्तार से बताते हैं कि कैसे इस इलाके में सामान्यत: पत्रकारों को कंपनी वाले खरीद लेते हैं, इसलिए सही खबर लिखने की गुंजाइश ही नहीं रह जाती या खबर नहीं लिखने के लिए पैसे मिलते हैं। बमुश्किल ही ऐसे पत्रकार होते हैं जो सही रिपोर्ट करने की कोशिश करते हैं, लेकिन उन्हें डरा धमकाकर या दूसरे तरीकों से शांत करवा दिया जाता है। अकेले कालाहांडी में नहीं, खनन वाले इलाकों में आम तौर पर मीडिया की यही स्थिति है।
करपाई की सभा से दो दिन पहले 16 अक्टूबर को सुंगेर के बनतेजी में हुई जनसुनवाई की सुबह औरतों को बाकायदा पुलिस ने पीटा ताकि वे सभा तक पहुंच न पाएं। किसी ने इस हरकत पर मुख्यमंत्री को संबोधित कर के ट्वीट किया, तब जाकर बात बाहर निकली। इस जनसुनवाई में हाइकोर्ट के आदेश पर रायगड़ा जेल में कैद दिबाकर साहू और जितेंदर माझी को भी अपनी बात रखने के लिए लाया गया था। उन्होंने खुलकर कंपनी के खिलाफ अपनी गवाही दी थी। यहां भी कोई बीसेक लोगों ने अपनी गवाहियां दीं।
देर से ही सही, दिल्ली तक पहुंच रही ये छिटपुट सूचनाएं कुछेक कार्यकर्ताओं और संगठनों के निजी प्रयासों का नतीजा हैं। वरना 16 तारीख वाली जनसुनवाई के बारे में स्थानीय मीडिया ने खूब अफवाह फैलाई कि कानून व्यवस्था के कारण प्रक्रिया रद्द कर दी गई है जबकि सभा के अंत में एडीएम रायगड़ा और एएसपी रायगड़ा ने बाकायदा घोषणा की थी कि जनसुनवाई सफलतापूर्वक संपन्न हुई है।
सुदूर अंचलों में हो रही जनसुनवाई की यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया खुलेआम प्रभावित करने की कोशिश की जाती है क्योंकि कंपनी और सरकारी अमले को यह भरोसा रहता है कि सूचनाएं बाहर नहीं जा पाएंगी। चूंकि गांवों में और स्थानीय मीडिया में भी कंपनियों के एजेंट मौजूद होते हैं, तो यह काम और आसान हो जाता है।
दिल्ली बनाम कालाहांडी
जो प्रचार 2013 में नियमगिरि आंदोलन को मिला था उसका एक छटांक भी सिजिमाली, कटरूमाली या खंडुआलमाली को नहीं मिल पाया है। दस साल पहले एक बड़ी वजह थी राहुल गांधी का नियमगिरि दौरा, जो काफी चर्चा में रहा था।
वे 2010 में नियमगिरि के इजिरूपा गांव में गए थे और वहां से उन्होंने घोषणा की थी कि वे खनन नहीं होने देंगे। बाद में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हुई ग्रामसभाओं ने इसे सुनिश्चित कर डाला। इस बार राहुल गांधी वहां नहीं हैं। हो सकता है जाएं जब चुनाव हो, लेकिन इससे ज्यादा बड़ी बात यह है कि केंद्र में उनकी पार्टी की सरकार भी दस साल से नहीं है। यह एक ऐसे उहापोह की स्थिति है जिसका जवाब जयराम रमेश के पास भी नहीं है, जिन्होंने ग्रामीण विकास मंत्री रहते हुए उस समय ओडिशा सरकार और वेदांता से साफ शब्दों में खनन बंद करने को कह दिया था।
वेदांता द्वारा बॉक्साइट खनन पर रायगड़ा के काशीपुर ब्लॉक स्थित बनतेजी में भारी दमन के बीच संपन्न हुई 16 अक्टूबर की जनसुनवाई को लेकर समाजवादी जन परिषद (सजप) का एक प्रतिनिधिमंडल 17 अक्टूबर को कांग्रेस नेता जयराम रमेश से मिलने उनके घर गया था। प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहे सजप के राष्ट्रीय महामंत्री अफलातून ने बहुत विस्तार से बताया था कि ओडिशा के आदिवासी इलाकों में क्या चल रहा है। बैठक के दो प्रमुख एजेंडे थे।
पहला एजेंडा सजप के राज्य सचिव उपेंद्र बाग पर लागू यूएपीए की धाराओं के संबंध में जयराम रमेश को अवगत कराना और उसकी स्थिति में स्पष्टता हासिल करना था। दूसरा एजेंडा बात को राहुल गांधी तक पहुंचाना था कि कैसे वहां जनसुनवाई को सरकारी दबाव और कंपनी बल से प्रभावित करने की कोशिश की जा रही है।
जयराम रमेश तक पहुंचने की यह स्थिति इसलिए आई क्योंकि अव्वल तो दिल्ली तक खबरें नहीं पहुंच रही हैं; दूसरे, कि स्थानीय स्तर पर आदिवासियों को समर्थन और संरक्षण का बड़ा संकट है। मसलन, जेपी आंदोलन से निकले कालाहांडी के पूर्व सांसद और बड़े आदिवासी नेता भक्तचरण दास भी आज की तारीख में वेदांता और अदाणी के सीएसआर के पैसे से विकास की बात करने लगे हैं और उन्होंने खनन विरोध का रास्ता छोड़ दिया है।
इस स्थिति को और ज्यादा संगीन बनाता है केंद्र में एक ऐसी सरकार का होना, जो अदाणी के मसले पर किसी से कुछ सुनने को तैयार नहीं है। पिछले दिनों हिंडनबर्ग रिपोर्ट के आलोक में राहुल गांधी ने जब 20 हजार करोड़ रुपये का सवाल अदाणी पर उठाया तो उनकी संसद सदस्यता चली गई, मकान छिन गया। अब सांसद महुआ मोइत्रा ने फाइनेंशियल टाइम्स में छपी पड़ताल की रोशनी में अदाणी को घेरा है, तो उनके ऊपर न सिर्फ संसदीय जांच बैठ गई है बल्कि सीबीआइ के छापे की तलवार लटक रही है।
सबको सुनने के बाद इन्हीं सब स्थितियों की रोशनी में जयराम ने टिप्पणी की, ‘’क्या किया जाए, बहुत मुश्किल है। अब ये लोग रुकने वाले नहीं हैं।‘’ फिर भी, बैठक के अंत में उन्होंने आश्वासन दिया था कि वे राहुल गांधी से इस सिलसिले में बात करेंगे। इस संदर्भ में विशेष रूप से उन्होंने अदाणी के माइनिंग पट्टे की स्थिति के बारे में पूछा था, जिससे उम्मीद बनी थी कि शायद राहुल गांधी अदाणी पर जारी अपने उद्घाटनों में कालाहांडी की बॉक्साइट खदानों का जिक्र ले आएंगे।
राहुल गांधी ने अगले दिन प्रेस कॉन्फ्रेंस की। अदाणी पर ही की, लेकिन उसमें ओडिशा का कहीं कोई जिक्र नहीं आया। उसी दिन करपाई में दूसरी जनसुनवाई चल रही थी, लेकिन कहीं कोई सूचना नहीं थी। राहुल गांधी बोलना चाहते भी तो क्या बोलते?
जनसुनवाई के बारे में सूचना, तस्वीरें और वीडियो दो दिन बाद 20 अक्टूबर की दोपहर तक निकल कर बाहर आ पाए। सूचनाओं का ऐसा संकट पहले कभी नहीं आया था।
नियमगिरि के प्रकरण के साथ एक वक्त में इतना करीब से जुड़े रहे जयराम रमेश ही जब ओडिशा की ताजा स्थितियों को लेकर पर्याप्त सूचित नहीं हैं, तो दिल्ली और नोएडा के पत्रकारों व नागरिक समाज के लोगों से क्या ही अपेक्षा की जाए!
बॉक्साइट खनन के खिलाफ इस बार आदिवासियों की लड़ाई इसीलिए कहीं ज्यादा कठिन है। दो जनसुनवाइयों में बेशक उनकी आवाजें पर्याप्त उठी हैं, लेकिन अव्वल तो भूलना नहीं चाहिए कि चुनाव करीब हैं। दूसरे, यह भी याद रखा जाना चाहिए कि नियमगिरि में वेदांता का खुलेआम विरोध कर के कांग्रेस की सरकार बची नहीं थी, चली गई थी। और इस बार तो वेदांता के साथ अदाणी भी है, जिसके बारे में राहुल गांधी कह चुके हैं- ‘मोदी ही अदाणी है, अदाणी ही मोदी’!
सभी तस्वीरें और वीडियो: अभिषेक श्रीवास्तव
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