फ्रेडरिक जेमसन: पुरानी दुनिया और नए युग के वैचारिक जगत को जोड़ने वाला अंतिम सिरा

Fredric Jameson
Fredric Jameson
आज से बीसेक दिन पहले फ्रेडरिक जेमसन शायद इकलौते जीवित शख्‍स थे जिन्‍होंने एक सदी के दौरान बदलती हुई हमारी दुनिया को न सिर्फ देखा और महसूस किया था, बल्कि राजनीति, वैचारिकी, संस्‍कृति से लेकर बौद्धिकता के विभिन्‍न क्षेत्रों में हुए बदलावों की सघन पड़ताल करते हुए विपुल लेखन भी किया। वे पुरानी और नई दुनिया के बीच एक वैचारिक पुल थे, जो बीते 22 सितंबर को चल बसे। इस दुनिया को दिए उनके वैचारिक योगदान के आईने में प्रतिष्ठित दार्शनिक स्‍लावोइ ज़ीज़ेक ने उन्‍हें याद किया है। ज़ीज़ेक का जेमसन पर लिखा स्‍मृतिलेख यहां अविकल प्रस्‍तुत है

फ्रेडरिक जेमसन न केवल एक आला पाये के बुद्धिजीवी थे, बल्कि समकालीन विचार के क्षेत्र में वे अंतिम सच्‍ची प्रतिभा थे। वे एक ऐसे खांटी पश्चिमी मार्क्‍सवादी थे जो वैचारिकता के दो विरोधी ध्रुवों को बराबर नापते थे। वे यूरोप के चश्‍मे से देखते थे, पर उनका काम जापान और चीन में बोलता था। वे कम्‍युनिस्‍ट थे, पर उन्‍हें हॉलीवुड से, खासकर हिचकॉक से प्‍यार था। वे चैंडलर के जासूसी उपन्‍यासों के मुरीद थे, तो संगीत में वैगनर, ब्रूकनर और पॉप के प्रेमी थे। ठस फर्जी नैतिकता में किसी को भी खारिज कर देने वाली आजकल की संस्‍कृति का एक कतरा भी उनकी जिंदगी और उनके काम में नहीं मिलेगा। इसीलिए यह दावा पूरे भरोसे के साथ किया जा सकता है कि वैचारिक प्रबोधन के नए युग का वे अंतिम चेहरा थे।

जेमसन आजीवन एक समस्‍या से जूझते रहे। उसे वे कॉग्निटिव मैपिंग का अभाव कहते थे। इसका मतलब यह है कि इस अर्थवान जगत में हमारे जो भी अनुभव हैं, हम उन्‍हें आपस में जोड़कर कोई दिमागी नक्‍शा जैसा क्‍यों नहीं बना पाते। मनुष्‍य की इस नाकाबिलियत की पड़ताल की ओर उन्‍हें उनका सहज-ज्ञान धकेलता था, जो हमेशा ही सही होता था। मसलन, दुधारी तर्क यानी बाइनरी लॉजिक को सांस्‍कृतिक अध्‍ययन के क्षेत्र में खारिज करने का जो फैशन है, उस पर उन्‍होंने एक सुंदर लेख लिखा था। उसमें वे ”‍परस्‍पर विरोधी तर्कों को आम तौर से मानने-मनाने’’ की बात करते हैं। उनके लेखे, यौनिकता की बाइनरी का अस्‍वीकार वर्गीय बाइनरी के अस्‍वीकार के साथ-साथ चलता है। बहरहाल, उनके जाने से मैं अब भी गहरे सदमे में हूं। इसलिए उनके वैचारिक रुझान के ऊपर सरसरी तौर पर यहां कुछ रोशनी डालना चाहूंगा।

आजकल मार्क्‍सवादी लोग आकस्मिकता से उपजी किसी बात को जड़ता कहकर खारिज कर देते हैं। उन्‍हें लगता है कि वह बात सामाजिक मध्‍यस्‍थताओं पर परदा डाल रही है। इसके उलट, अडॉर्नो पर लिखे अपने मास्‍टरपीस में जेमसन ने यह दिखाने की कोशिश की हैं कि कैसे कोई द्वंद्वात्‍मक विश्‍लेषण एक बिंदु पर पहुंचकर खुद ही जड़ हो जाता है। अडॉर्नो सामाजिक मध्‍यस्‍थताओं की जटिल व्‍याख्‍या करते-करते अचानक अवव्‍याख्‍या या रिडक्‍शनिज्‍म की अश्‍लील मुद्रा अपना लेते हैं। उनका एक मामूली सा वाक्‍य, ‘’कुल मिलाकर मामला वर्ग संघर्ष का ही तो है’’, एक उम्‍दा द्वंद्वात्‍मक पाठ का प्रवाह तोड़ देता है। जेमसन इस बिंदु पर कहते हैं कि वर्ग संघर्ष सामाजिक संपूर्णता के भीतर ऐसे ही काम करता है। उनका कहना है कि वर्ग संघर्ष की भव्‍य सैद्धांतिक संरचना या उसकी गहरी जमीन मध्‍यस्‍थता के हर पल में कायम नहीं रह पाती, बल्कि कोई सतही सी चीज एक बिंदु पर आकर उसकी जगह ले लेती है। यहीं पर एक अंतहीन जटिल विश्‍लेषण नाकाम हो जाता है और हताश होकर हम हाथ उठाकर कर मुनादी कर बैठते हैं, ‘’लेकिन आखिरकार तो सारा मामला वर्ग संघर्ष का ही है!” जेमसन के मुताबिक एक बिंदु पर पहुंचकर विश्‍लेषण की यह नाकामी दरअसल यथार्थ में ही अंत:स्‍थ है, यानी हमारा समाज हकीकत में अपने भीतर मौजूद शत्रुताओं के सहारे खुद को ही अपने भीतर समेट लेता है। दूसरे शब्‍दों में, जब समाज को संकुचित करने के आजमाए तरीके नाकाम हो जाते हैं, तब वर्ग संघर्ष यह काम छद्म ढंग से और तेजी से करता है। यानी वर्ग संघर्ष समाजबंदी के एक सिद्धांत के रूप में शत्रुताओं का इस्‍तेमाल करने की सचेत कोशिश है।


Jameson on Adorno

आजकल के वामपंथियों के लिए कांस्पिरेसी थियरी को खारिज करना भी एक फैशन हो गया है। वे ऐसी बातों को फर्जी और सरलीकृत समाधान मानकर चलते हैं। बरसों पहले जेमसन ने समझाया था कि आज के वैश्विक पूंजीवाद में कुछ ऐसी चीजें घट रही हैं जिन्‍हें किसी अनाम ‘’पूंजी के तर्क’’ का संदर्भ देकर नहीं समझाया जा सकता। मसलन, अब जाकर हमने जाना है कि 2008 का आर्थिक संकट कुछ वित्‍तीय हलकों की एक सुनियोजित ‘’साजिश’’ का नतीजा था। तो, सामाजिक विश्‍लेषण का सच्‍चा कार्यभार यह समझाना है कि सम‍कालीन पूंजीवाद ने कैसे इस किस्‍म की ‘’षडयंत्रकारी’’ दखलंदाजी के लिए अपने भीतर जगहें बनाई हैं।

जेमसन की एक और दृष्टि है जो आजकल के उत्‍तर-औपनिवेशिक चलन के खिलाफ जाती है। उसका संबंध वैकल्पिक आधुनिकताओं से है। इस अवधारणा को जेमसन खारिज करते हैं। वैकल्पिक आधुनिकताओं का विचार यह कहता है कि पश्चिमी-लिबरल आधुनिकता, आधुनिकीकरण के तमाम रास्‍तों के बीच महज एक है। इसके मुताबिक ऐसे दूसरे रास्‍ते मुमकिन हैं जिन पर चलकर उन शत्रुताओं और गतिरोधों से बचा जा सकता है जो हमारी आधुनिकता के आड़े आते हैं। जेमसन कहते हैं कि हमें जैसे ही यह अहसास होगा कि आधुनिकता वास्‍तव में पूंजीवाद का ही एक छद्म नाम है, हम आसानी से देख पाएंगे कि अलग-अलग आधुनिकताओं की ऐतिहासिक सापेक्षता गिनवाने वाली इस तरकीब के पीछे दरअसल पूंजीवाद का वैचारिक सपना ही काम कर रहा है। वह एक से ज्‍यादा रास्‍ते गिनवाकर अपने भीतर मौजूद शत्रुताओं से बचने की फिराक में है।

इस संदर्भ में वे लिखते हैं:

उत्‍तर-आधुनिकता ने जब गंभीर किस्‍म के राजनीतिक, आर्थिक और व्‍यवस्‍थागत प्रश्‍नों को अपरिहार्य बना दिया हो, वैसे में आधुनिकता के वैचारिक प्रणेता इन सवालों से बचते हुए अपने माल- जैसे, सूचना क्रांति और वैश्‍वीकृत मुक्‍त बाजार- को पुराने दौर के माल से अलग दिखाकर बेच कैसे पाते हैं? जवाब आसान है: वे ‘’आल्‍टरनेट’’ या ‘’आल्‍टरनेटिव’’ आधुनिकताओं की बात करते हैं। अब तो हर कोई यह फॉर्मूला जान गया है: इसका मतलब है कि हर किसी के लिए अपनी-अपनी एक आधुनिकता संभव है, जो प्रचलित या प्रभुत्‍वशाली ऐंग्‍लो-सैक्‍सन आधुनिकता से अलग होगी- तो आपको ये वाली आधुनिकता पसंद नहीं है, कोई बात नहीं; आपको इस वाली आधुनिकता में अगर अपनी अधीनता का अहसास हो रहा है, तो इसे भुला दीजिए और बस इस ‘’सांस्‍कृतिक’’ धारणा से राजी हो जाइए कि आप अपने तरीके से अपनी खुद की आधुनिकता गढ़ सकते हैं, जैसे लैटिन अमेरिका वाली, भारत वाली, या अफ्रीका वाली…। यह नुस्‍खा आधुनिकता के बुनियादी अर्थ की ही उपेक्षा करता है- आधुनिकता मने वैश्विक पूंजीवाद।

इस आलोचना का महत्‍व आधुनिकता के भी पार जाता है। यह इतिहास को घटा कर देखने की सीमाओं को उजागर करता है। बहुलता वाला नुस्‍खा (कि आधुनिकता का कोई एक स्थिर सार नहीं है, बल्कि वे अनेक हैं और एक-दूसरे से जुदा भी हैं) इसलिए झूठा नहीं है कि वह आधुनिकता के एक विशिष्‍ट और स्थिर ‘सार’ को नहीं मानता, बल्कि इसलिए है क्‍योंकि बहुलता यहां शत्रुताओं को नकारने का काम कर रही है- वे शत्रुताएं, जो आधुनिकता के भीतर निहित हैं। बहुलता का झूठापन तब उजागर होता है जब वह आधुनिता के सार्वभौमिक विचार को उसके भीतर मौजूद शत्रुताओं से मुक्‍त कर देती है- वे शत्रुताएं जो पूंजीवादी व्‍यवस्‍था में ही गहरे मौजूद हैं। ऐसा करने के लिए पूंजीवादी आधुनिकता को आधुनिकताओं की बस एक प्रजाति भर कह दिया जाता है। भूलना नहीं चाहिए कि बीसवीं सदी का उत्‍तरार्द्ध ऐसी दो बड़ी परियोजनाओं के नाम है जो ‘’वैकल्पिक आधुनिकता’’ के खयाल में बिलकुल फिट बैठती हैं: फासिज्‍म और कम्‍युनिज्‍म। क्‍या फासीवाद का मूल विचार मानक ऐंग्‍लो-सैक्‍सन लिबरल-पूंजीवादी आधुनिकता के विकल्‍प के तौर पर एक और आधुनिकता मुहैया कराना नहीं था? उसके लिए बस इतना करना था कि व्‍यक्तिवादी मुनाफाखोरी का जो यहूदी ‘’टुकड़ा’’ एक विचलन की तरह मौजूद था, उसे बाहर निकाल फेंक कर पूंजीवादी आधुनिकता के सारतत्‍व को बचा लेना था। इसी तरह, 1920 और 1930 के दशक के दौरान रूस में हुआ तीव्र औद्योगीकरण क्‍या पश्चिमी-पूंजीवादी आधुनिकीकरण से कुछ अलग करने का प्रयास नहीं था?  

जैसे भूत-प्रेत लाल मिर्च से दूर भागते हैं, जेमसन वैसे ही विभिन्‍न किस्‍म की बगावतों के बीच किसी गहरी एकता के जबरिया खयाल से बचते थे। इस संदर्भ में, 1980 के दशक के दौरान उन्‍होंने पश्चिम के न्‍यू लेफ्ट और पूर्वी यूरोप के बागियों के बीच संवाद में आए गतिरोध का एक महीन हवाला दिया है, कि उनके बीच एक साझा भाषा का कैसा अभाव था: ‘’संक्षेप में कहें, तो पूरब के लोग सत्‍ता और दमन के संदर्भ में बात करना चाहते हैं; जबकि पश्चिम संस्‍कृति और जिंसकरण की भाषा में बोलता है। दोनों के बीच संवाद के इस संघर्ष की कोई साझा जमीन ही नहीं है, तो कुल मिलाकर अंत में वह हास्‍यास्‍पद हो उठता है, जहां दोनों अपनी-अपनी पसंद की भाषा और मुहावरे में अप्रासंगिक किस्‍म की प्रतिक्रियाएं देते रह जाते हैं।‘’    

नजरियों के ऐसे पैरेलैक्‍स या समानांतर विचलन को दर्ज करने के मामले में स्‍वीडन के अपराध-कथा लेखक हेनिंग मानकेल जबरदस्‍त कलाकार हैं। वे स्‍वीडन के वाइस्‍टाड और मोजाम्‍बीक के मापुतो की तुलना के बहाने इस अंतर को समझाते हैं, कि कैसे दोनों जगहें एकदम अलहदा हैं और दोनों के बीच परस्‍पर अनुवाद की कोई साझा भाषा ही नहीं है कि हम एक का सच दूसरे के आईने में देख सकें। ऐसे में हम बस इतना ही कर सकते हैं कि इस बंटवारे के प्रति खुद सच्‍चे रहें और उसे दर्ज कर दें। पहली दुनिया जिन मसलों में उलझी है- जैसे विलंबित पूंजीवाद से उपजा अलगाव और जिंसकरण, पारिस्थितिकीय संकट, नव-नस्‍लवाद, असहिष्‍णुता, इत्‍यादि- वे तीसरी दुनिया में नंगे नाच रही गरीबी, भुखमरी और हिंसा के सामने स्‍वार्थी किस्‍म के विषय जान पड़ते हैं। दूसरी ओर, तीसरी दुनिया की समस्‍याओं को ‘खांटी’ मानकर उसके मुकाबले पहली दुनिया के विषयों को खारिज करने की कोशिश भी कम फर्जी नहीं है। तीसरी दुनिया की ‘खांटी’ समस्‍याओं पर ही सारा जोर देना अपने समाज की शत्रुताओं से टकराने से बचने जैसा होगा, यह विशुद्ध पलायन होगा। इन दोनों नजरियों को जो चीज अलगाती है, यह जो दूरी है, वही इस पल का सच है।


Parallax View by Zizek

सारे भले मार्क्‍सवादियों की तरह जेमसन भी कला के अपने विश्‍लेषण में कठोर रूपवादी थे। एक बार उन्‍होंने हेमिंग्‍वे पर लिखा था कि उनकी सुथरी शैली यानी छोटे-छोटे वाक्‍य, क्रिया-विशेषणों से बचने की तरकीब, आदि किसी खास किस्‍म के नै‍रेटिव या आत्‍मपरकता (एक खर, एकाकी, पका हुआ इंसान) का द्योतक नहीं है। इसके उलट, उनके अफसाने (यानी कटु व्‍यक्तियों के बारे में कहानियां) गढ़ी हुई हैं, इसीलिए वे खास किस्‍म के वाक्‍य लिख पाते हैं (और यही उनका बुनियादी लक्ष्‍य भी है)। इसी तर्ज पर उन्‍होंने रेमंड चैंडलर पर एक महत्‍वपूर्ण निबंध लिखा था। वे उसमें चैंडलर के लिखने का फॉर्मूला समझाते हैं: यह लेखक एक जासूसी कहानी के ढांचे का इस्‍तेमाल करता है (जासूस की जांच-पड़ताल उसे जीवन के हर क्षेत्र के लोगों के साथ संपर्क में लाती है)। इस ढांचे के भीतर वह दिलचस्‍प सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संदर्भ डालता है, चरित्र-चित्रण करता है और उनके जीवन की त्रासदियों की हमें झलक दिखलाता है।

यहां एक द्वंद्वात्‍मक विरोधाभास काम कर रहा है जिसे फिसलने नहीं देना चाहिए। हमारा यह पूछना गलत हो जाएगा कि ‘’लेखक इस ढांचे को छोड़ क्‍यों नहीं देता और हमें शुद्ध-सच्‍ची कला क्‍यों नहीं दिखाता?” यह शिकायत एक दृष्टिभ्रम की पैदाइश है। सवाल पूछने वाला भूल रहा है कि वह जिस ‘कलात्‍मक’ अंतर्वस्‍तु की बात कर रहा है वह उसकी नजर में इसीलिए आई है क्‍योंकि लेखक के फॉर्मूले ने उसे विकृत कर दिया है। यानी, लेखक यदि अपने फॉर्मूले या ढांचे को ही छोड़ दे, तो उसकी विकृत की हुई ‘कला’ भी हमारी पकड़ से जाती रहेगी।

मार्क्‍स को लकां की नजर से पढ़ना जेमसन की एक और खास उपलब्धि रही है: जेमसन को सामाजिक शत्रुताएं समाज का यथार्थ नजर आती हैं। मुझे याद है कि जब 2001 में एसेन में मैंने लेनिन पर एक कॉन्‍फ्रेंस बुलाई थी, तब जेमसन ने हम सबको चौंका दिया था। उस सम्‍मेलन में उन्‍होंने ट्रॉट्स्‍की के सपने की व्‍याख्‍या लकां की नजर से की थी। ट्रॉट्सकी ने 25 जून, 1935 को एक सपना देखा। उस वक्‍त वे निर्वासन में थे। उनके सपने में लेनिन आए (जो 1924 में ही मर चुके थे)। लेनिन ने ट्रॉट्स्‍की से उनकी बीमारी के बारे में पूछा। ट्रॉट्स्‍की बोले, ‘’मैंने उन्‍हें बताया कि मैं बहुत जगह सलाह ले चुका हूं, फिर मैं उन्‍हें अपनी बर्लिन यात्रा के बारे में बताने लगा; पर लेनिन को देख के मुझे लगा कि ये तो मर चुके हैं। मैंने तुरंत यह खयाल अपने मन से निकालना चाहा ताकि बात पूरी हो सके। जब मैंने उन्‍हें इलाज के लिए 1926 में अपने बर्लिन जाने की पूरी कहानी सुना दी, तब लगा कि मुझे उसमें जोड़ देना चाहिए कि ‘यह आपके निधन के बाद की बात है’; लेकिन मैंने खुद को रोका और सुधारते हुए कहा, ‘जब आप बीमार पड़े थे, उसके बाद…।‘’’

लकां ने फ्रायड के एक सपने के साथ जोड़ कर ट्रॉट्स्‍की के सपने की व्‍याख्‍या की है। उस सपने में फ्रायड को अपने पिता दिखते हैं- वे पिता जो यह नहीं जानते कि वे मर चुके हैं। लेनिन भी ट्रॉट्स्‍की के सपने में नहीं जानते थे कि वे मर चुके हैं। तो इस बात को कहने का मतलब क्‍या है? जेमसन समझाते हैं कि ट्रॉट्स्‍की के सपने को पढ़ने के दो परस्‍पर विरोधी तरीके हैं। पहली व्‍याख्‍या के अनुसार, ‘’सपने में आई जिंदा लेनिन की भयावह रूप से हास्‍यास्‍पद छवि इस बात से वाकिफ नहीं है कि उसने अकेले दम पर जिस जबरदस्‍त सामाजिक प्रयोग को अंजाम दिया था (जिसे हम सोवियत साम्‍यवाद कहते हैं) वह अब खत्‍म हो चुका है। इसीलिए मर कर भी वह ऊर्जा से भरा हुआ है। दूसरी ओर, वास्तव में जो लोग जिंदा हैं वे लेनिन को जैसी लानतें भेज रहे हैं- कि स्‍टालिनवादी आतंक की शुरुआत उसी ने की थी, कि वह नफरत से भरा हुआ एक आक्रामक आदमी था, सत्‍ता और तानाशाही को पसंद करने वाला एक निरंकुश था, और यहां तक कि (यह सबसे बुरा है) अपने एनईपी में भी उसने बाजार खोज निकाला- ये तमाम बददुआएं भी लेनिन को मार नहीं पा रही हैं, बल्कि दूसरी मौत नहीं दे पा रही हैं। आखिर ऐसा हो कैसे सकता है कि वह खुद को अब भी जिंदा समझ रहा है? और यहां हमारी अपनी स्थिति क्‍या है? मतलब, सपने में ट्रॉट्स्‍की की स्थिति, कि मरने के बाद भी लेनिन कैसे उसे धोखा दे रहा है कि वह जिंदा है? लेनिन मर चुका है, हमारा यह न जानना आखिर क्‍या है? सपने में ल‍ेनिन अपनी मौत से हमें जो गाफिल किए हुए है, वह क्‍या है?’’

लेनिन के जिंदा होने का एक अर्थ और है। बादियू के शब्‍दों में, वह सबकी मुक्ति का ‘’शाश्‍वत विचार’’ है, न्‍याय की कभी न खत्‍म होने वाली तड़प है जिसे कोई भी बददुआ, कोई भी बदकार मार नहीं सकती। लेनिन तब तक जिंदा है जब तक वह इस विचार का वाहक है।

मेरी ही तरह जेमसन भी एक कम्‍युनिस्‍ट थे, हालांकि वे लकां से भी समानांतर सहमत थे जिनका दावा था कि न्‍याय और बराबरी ईर्ष्‍या-द्वेष पर आधारित चीजें हैं- उस गैर से जलनखोरी की उपज, जिसके पास वह सब कुछ है जो हमारे पास नहीं है और वह उसका सुख भोग रहा है। लकां की इसी स्‍थापना के आधार पर जेमसन इस पुराने आशावादी खयाल को पूरी तरह खारिज करते थे कि साम्‍यवाद में द्वेष पूंजीवादी प्रतिस्‍पर्धा की छाड़न जैसा पीछे छूट जाएगा और एकजुटता व सहयोग उसकी जगह ले लेंगे, जब दूसरे के सुख में हमें सुख मिलने लगेगा। इस कल्‍पना को खारिज करते हुए जेमसन जोर देकर कहते हैं कि कम्‍युनिज्‍म जितना ज्‍यादा न्‍यायपूर्ण समाज बनाता जाएगा, द्वेष और असंतोष उतना ही ज्‍यादा फूटता जाएगा। इसके लिए जेमसन का समाधान सनक की हद तक क्रांतिकारी है। वे सुझाते हैं कि साम्‍यवाद के टिके रहने का एक ही तरीका है- समाज सेवा के रूप में किसी तरह की सार्वभौमिक मनोचिकित्‍सा, जो लोगों को ईर्ष्‍या-द्वेष के जाल में फंसने से रोकने में खुद समर्थ बना दे।

जेमसन साम्‍यवाद को कैसे समझते थे, उसका एक और इशारा हमें गाने वाली चुहिया जोसेफीन पर काफ्का की लिखी कहानी की उनकी व्‍याख्‍या है। जेमसन इस कहानी को काफ्का का सामाजिक-राजनीतिक युटोपिया मानते थे, यानी एक क्रांतिकारी समतावादी कम्‍युनिस्‍ट समाज का स्‍वप्‍न। इसमें अपवाद की बात एक थी कि काफ्का ऐसा युटोपिया केवल जानवरों के समाज के लिए ही सोच पाए क्‍योंकि मनुष्‍यों को तो वे अहंकारी (सुपरईगो का दोषी) मानते थे। कहानी के अंत में जोसेफीन के गायब हो जाने या मर जाने को त्रासदी समझने से पाठक को बचना चाहिए क्‍योंकि कहानी में यह स्‍पष्‍ट है कि मौत के बाद ‘’हमारे लोगों के नायकों की भीड़ में खुद को खुशी-खुशी खपा देने में’’ ही जोसफीन का संतोष है (बलाघात मेरी ओर से)।    

बहुत बाद में लिखे अपने लंबे निबंध ‘’अमेरिकन युटोपिया’’ में जेमसन ने अपने कई मानने वालों को यह प्रस्‍ताव देकर चौंका दिया कि भविष्‍य के उत्‍तर-पूंजीवादी समाज का मॉडल सेना है- कोई इंकलाबी सेना नहीं बल्कि अमन के दौर में नौकरशाही से संचालित होने वाली एक उदासीन सेना। जेमसन इसका प्रस्‍थान-बिंदु आइजनहावर के दौर के एक लतीफे को बनाते हैं, जब कहा जाता था कि अमेरिका के किसी नागरिक को अगर सामाजिक दवाई की जरूरत है तो उसे सेना में चले जाना चाहिए। जेमसन का कहना है कि सेना यह भूमिका सटीक ढंग से इसलिए निभा सकती है क्‍योंकि उसे अलोकतांत्रिक और अपारदर्शी तरीके से संगठित किया जाता है (जैसे, जनरल लोग निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं होते)।


Jameson on American Utopia and Army

जेमसन भले खांटी भौतिकवादी थे, लेकिन अकसर वे कुछ मार्क्‍सवादी अवधारणाओं पर रोशनी डालने के लिए धर्मशास्‍त्रीय तत्‍वों का इस्‍तेमाल करते थे। इससे लगता है कि धर्मशास्‍त्र और मार्क्‍सवाद एक ही ढंग से काम करते हैं। मसलन, प्रारब्‍ध या नियति को वे मार्क्‍सवाद के भीतर सबसे दिलचस्‍प धर्मशास्‍त्रीय अवधारणा मानते थे। प्रारब्‍ध पहले से मौजूद किसी कारण पर टिका होता है। वह एक द्वंद्वात्‍मक ऐतिहासिक प्रक्रिया का लक्षण है। धर्मशास्‍त्र के साथ ऐसा ही एक और अनपेक्षित रिश्‍ता वे यह कह कर उजागर करते हैं कि पूंजीवाद को प्रोटेस्‍टेंट जिस तरह धन के तर्क से जायज ठहराते हैं, वैसी ही भूमिका हिंसा किसी क्रांतिकारी प्रक्रिया के संदर्भ में निभाती है। वैसे तो हिंसा में कोई अंतर्निहित मूल्‍य नहीं होता (इसीलिए इसे खुद में पवित्र मानकर इसका उत्‍सव नहीं मनाया जाना चाहिए, जैसा कि फासिस्‍ट करते हैं), लेकिन यह हमारे क्रांतिकारी उद्यम को विश्‍वसनीयता प्रदान करने के काम में आती है। मसलन, जब दुश्‍मन पलटकर हमें हिंसक टकराव में खींच ले, तो समझिए कि हमने उसकी कमजोर नस पर हाथ रख दिया है…।

धर्मशास्‍त्र की सबसे श्रमसाध्‍य व्‍याख्‍या जेमसन ने अपने एक कम चर्चित लेख ‘’सेंट ऑगस्‍टीन ऐज ए सोशल डेमोक्रेट’’ में की है। यहां वे समझाते हैं कि कैसे संत अगस्‍तीन की सबसे बड़ी खोज (एक आस्तिक की मनोवैज्ञानिक गहराइयों की पड़ताल, उसके तमाम संदेहों और निराशाओं के साथ) ईसाइयत को राजकीय धर्म के तौर पर वैध ठहराने के साथ सीधे जुड़ी हुई थी। यह ईसाइयत के पुराने गढ़ और नई रैडिकल राजनीति को जोड़ने वाले सिरे से सुसंगत जान पड़ता है। ठीक यही तर्ज शीतयुद्ध के दौर में कम्‍युनिस्‍ट विचारधारा से पलटे उसके विश्‍वासघातियों और अन्‍य पर लागू होती है। जो लोग कम्‍युनिज्‍म से पलटे, वे किसी नियमस्‍वरूप इसके समानांतर फ्रायडवाद की ओर प्रवृत्‍त हो गए, जो मनुष्‍य की मनोवैज्ञानिक जटिलताओं की पड़ताल करता है।  

पुराने और नए के बीच टूटते हुए पुलों या मध्‍यस्‍थों के संदर्भ में जेमसन ने एक पद ईजाद किया था- वैनिशिंग मीडिएटर। पुरानी व्‍यवस्‍था से नई में संक्रमण की प्रक्रिया में यह एक खास लक्षण को दिखाता है। जब पुरानी व्‍यवस्‍था टूट रही होती है तब अप्रत्‍याशित घटनाएं घटती हैं। वे केवल भयावह नहीं होतीं, जैसा कि ग्राम्शी कहते हैं। इस प्रक्रिया में कुछ चमकदार सपने और नए आचार-व्‍यवहार भी जन्‍म लेते हैं। एक नई व्‍यवस्‍था कायम होने के बाद कोई नया अफसाना शुरू होता है। फिर उससे बने नए वैचारिक जगत के भीतर से ऐसे मध्‍यस्‍थ ओझल हो जाते हैं, जो पुराने और नए के बीच पुल की भूमिका निभा सकें। इसे समझने के लिए पूर्वी यूरोप के समाजवाद से पूंजीवाद में संक्रमण की प्रक्रिया काफी होगी। अस्‍सी के दशक में जब लोगों ने वहां कम्‍युनिस्‍ट सत्‍ताओं के खिलाफ बगावत की, तो ज्‍यादातर लोगों के मन में पूंजीवाद का खयाल नहीं था। उन्‍हें सामाजिक सुरक्षा चाहिए थी, एकजुटताओं की दरकार थी, मोटामोटी न्‍याय की जरूरत थी। वे राज्‍य के नियंत्रण से मुक्‍त होकर अपनी जिंदगी जीना चाह रहे थे। वे अपनी मर्जी से उठ-बैठ कर संवाद करना चाह रहे थे। उन्‍हें दरअसल ईमानदारी और सच्‍चाई की एक साधारण जिंदगी चाहिए थी जो पुराने विचारधारात्‍मक दबावों और चौतरफा फैले स्‍वार्थ व पाखंड से मुक्‍त हो। संक्षेप में कहें, तो कम्‍युनिस्‍ट शासन के खिलाफ जिन आदर्शों के लिए लोग विरोध कर रहे थे, उनके वे आदर्श मोटे तौर पर समाजवादी विचारधारा की ही उपज थे। फ्रायड से हमने सीखा है कि जो भी दबा दिया जाता है, वह विकृत होकर लौट आता है। यूरोप के बागी जनमानस में दमित समाजवाद ही दक्षिणपंथी लोकप्रियतावाद का खोल पहनकर लौट आया।  

जेमसन के ऐसे कई कथन आज मीम का विषय बन चुके हैं। जैसे, उन्‍होंने उत्‍तर-आधुनिकतावाद को पूंजीवाद का सांस्‍कृतिक तर्क बताया था। ऐसा ही एक मीम उनके एक पुराने कथन के ऊपर है जिसे अकसर गलती से मेरे मुंह में डाल दिया जाता है। यह कथन पहले से कहीं ज्‍यादा आज की तारीख में प्रासंगिक हो गया है: पूंजीवादी संबंधों में वास्‍तविक बदलाव की कल्‍पना के मुकाबले आज धरती के विनाश की कल्‍पना करना हमारे लिए कहीं ज्‍यादा आसान है। जाहिर है, प्रलय के बाद भी पूंजीवाद किसी तरह चलता रह जाए, ऐसा तो नहीं होने वाला। अब यही बात अगर हम जेमसन पर पलट कर लागू करें, तो? कह सकते हैं, कि जेमसन के चले जाने से ज्‍यादा आसान पूंजीवाद के खात्‍मे की कल्‍पना करना है।


A photo from Berlin Protest bearing Jameson's quote
We are fed up: Demo for an agricultural turnaround in Berlin, 18.01.20

फ्रेडरिक जेमसन पर जीजेक का लिखा और सार्वजनिक रूप से जारी किया गया यह स्मृतिलेख कई जगह अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुका है। फॉलो अप स्टोरीज़ ने अलेक्स तेक गवांग ली की अनुमति से इसे छापा है। अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है।


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