अब हमें सिर्फ़ अपने नेताओं से ही नहीं, बल्कि आबादी के एक पूरे हिस्से से ख़ौफ़ होता है। अब हमारी सड़कों पर, हमारी कक्षाओं में, और कई सारी सार्वजनिक जगहों पर दिखता है कि बुराई को किस तरह एक मामूली, रोज़मर्रा की चीज़ बना दिया गया है। भारत के संविधान को असल में दरकिनार कर दिया गया है। भारतीय दंड संहिता को फिर से लिखा जा रहा है। अगर मौजूदा हुकूमत को 2024 के चुनाव में बहुमत मिल जाती है, तो यह बहुत मुमकिन है कि हमें एक नया संविधान देखने को मिले। यह भी बहुत मुमकिन है कि जिसे परिसीमन कहा जाता है, उस पर भी अमल किया जाए। हो सकता है कि परिसीमन का इस्तेमाल करते हुए उत्तर भारत में हिंदी बोलने वाले राज्यों को अधिक संसदीय सीटें दे दी जाएं, जहां भाजपा जनाधार है।
दक्षिण के राज्यों में इससे भारी नाराज़गी पैदा होगी। यह एक ऐसा कदम है जो भारत को एक ऐसे देश में बदल सकता है जहां अलग-अलग इलाक़ों के बीच मनमुटाव और टकराव जगह बना ले। चुनावों में इनके हारने की संभावना कम ही है, लेकिन वे हार भी जाएं, तब भी समाज में श्रेष्ठ होने के अहसास का ज़हर बहुत गहराई तक फैल चुका है। इसने अंकुश बनाए रखने की ज़िम्मेदारी वाले हरेक सार्वजनिक संस्थान को खोखला कर दिया है। अभी तो निगरानी और अंकुश बनाए रखने के लिए कोई भी संस्थान नहीं बचा है, सिवाय एक कमज़ोर और खोखले कर दिए गए सर्वोच्च न्यायालय के। पिछले बीस बरसों में मुक्त बाज़ार और फ़ासीवाद और तथाकथित स्वतंत्र प्रेस ने मिल कर भारत को एक ऐसी जगह पहुंचा दिया है, जहां इसे किसी भी लिहाज से एक लोकतंत्र नहीं कहा जा सकता है।
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इस जनवरी में दो ऐसी चीज़ें हुईं दो इन हालात की इतनी बख़ूबी मिसाल पेश करती हैं, कि कोई और चीज़ शायद ही ऐसा कर पाए। बीबीसी ने ‘इंडिया: द मोदी क्वेश्चन’ नाम से दो हिस्सों में एक डॉक्यूमेंटरी दिखाई और उसके कुछ दिनों के बाद अमेरिका की एक छोटी-सी कंपनी हिंडनबर्ग रिसर्च ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसे अब हिंडनबर्ग रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है। हिंडनबर्ग रिसर्च की विशेषज्ञता एक ऐसी चीज़ में है जिसे एक्टिविस्ट शॉर्ट-शेलिंग कहा जाता है। उन्होंने भारत की सबसे बड़े कॉरपोरेट कंपनी अदाणी समूह की हैरतअंगेज़ धांधलियों को विस्तार से उजागर किया। बीबीसी-हिंडनबर्ग मामले को भारतीय मीडिया ने इस तरह पेश किया कि यह भारत के ट्विन टावरों पर किसी हमले से कम नहीं था। ये ट्विन टावर हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारत के सबसे बड़े उद्योगपति गौतम अदाणी जो अभी हाल तक दुनिया के तीसरे सबसे अमीर आदमी थे। इन दोनों के ख़िलाफ़ लगाए गए आरोप हल्के नहीं हैं।
बीबीसी की फिल्म इशारा करती है कि मोदी ने सामूहिक क़त्लेआम को उकसाया। हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने अदाणी पर “कॉरपोरेट इतिहास की सबसे बड़ी जालसाज़ी” करने का आरोप लगाया है। बीते 30 अगस्त को गार्डियन और फाइनेंशियल टाइम्स ने अपराध के सबूत देने वाले दस्तावेज़ों के आधार पर लेख प्रकाशित किए, जिन्हें ऑर्गेनाइज़्ड क्राइम एंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट द्वारा जमा किया गया था। इनमें भी हिंडनबर्ग रिपोर्ट की और पुष्टि की गई। भारतीय जांच एजेंसियां और ज्यादातर भारतीय मीडिया ऐसी हालत में नहीं है कि वे इनकी जांच कर सकें या इन लेखों को प्रकाशित कर सकें। जब विदेशी मीडिया उन्हें प्रकाशित करता है, तब यह आसान हो जाता है कि एक खोखले आक्रामक राष्ट्रवाद के मौजूदा माहौल में इसे भारतीय संप्रभुता पर एक हमला बताया जाए।
मोदी सरकार ने फ़िल्म पर पाबंदी लगा दी है। हरेक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने इस पाबंदी पर अमल किया और इसके सभी लिंक और संदर्भ हटा दिए। फिल्म के रिलीज होने के हफ्तों के भीतर बीबीसी के दफ्तरों को पुलिस ने घेर लिया और टैक्स अधिकारियों ने उन पर छापे मारे।
गौतम अदाणी दुनिया के सबसे धनी आदमियों में से एक हैं, लेकिन अगर आप चुनावों के दौरान भाजपा की तड़क-भड़क को देखें तो वह न सिर्फ भारत का, बल्कि शायद दुनिया का भी सबसे अमीर राजनीतिक दल निकलेगा। भाजपा ने 2016 में चुनावी बॉन्डों की योजना लागू की, जिसमें कॉरपोरेट कंपनियों को अपनी पहचान सार्वजनिक किए बिना राजनीतिक दलों को धन मुहैया कराने की इजाजत दे दी गई थी। भाजपा अब तक सबसे अधिक कॉरपोरेट फंडिंग हासिल करने वाली पार्टी बन गई है। ऐसा दिखता है कि मानो ट्विन टावरों का तहख़ाना एक ही है।
जिस तरह मोदी की जरूरत के वक्त अदाणी उनके साथ खड़े रहे, मोदी सरकार भी अदाणी के साथ खड़ी है और इसने संसद में विपक्ष के सांसदों द्वारा पूछे गए एक भी सवाल का जवाब देने से इन्कार किया है। वह इस हद तक चली गई कि उसने उनके भाषणों को संसद के रिकॉर्ड तक से हटा दिया है।
एक ओर भाजपा और अदाणी ने अपनी-अपनी दौलत बटोरी है, वहीं एक रिपोर्ट में ऑक्सफ़ैम ने बताया है कि भारतीय आबादी के सबसे ऊपर के 10 फीसदी लोगों के पास देश की कुल दौलत का 77 फीसदी है। 2017 में पैदा हुई कुल दौलत का 73 फीसदी हिस्सा सबसे अमीर 1 फीसदी लोगों के पास चला गया, जबकि 67 करोड़ भारतीयों ने, जो देश का सबसे गरीब आधा हिस्सा हैं, पाया कि उनकी दौलत में सिर्फ 1 फीसदी का इजाफा हुआ है। जहां भारत को एक विशाल बाज़ार वाली एक आर्थिक ताकत के रूप में पहचाना जाता है, इसकी ज्यादातर आबादी तबाह कर देने वाली गरीबी में जीती है। लाखों लोग गुजारे के लिए मिली राशन की थैलियों पर जीते हैं, जो मोदी के छपे हुए चेहरे के साथ बांटी जाती हैं। भारत एक बहुत गरीब अवाम का एक बहुत अमीर देश है- दुनिया के सबसे गैरबराबर समाजों में से एक।
ऑक्सफ़ैम इंडिया को भी अपनी मेहनत का फल मिला, उसके दफ्तरों पर छापे मारे गए। सरकार के लिए समस्या खड़ी करने वाले एमनेस्टी इंटरनेशनल और कुछ दूसरे ग़ैर-सरकारी संगठनों को तो इतना परेशान किया गया कि उन्होंने काम करना ही बंद कर दिया।
इनमें से किसी भी बात का पश्चिमी लोकतंत्रों के नेताओं पर कोई असर नहीं पड़ा है। हिंडनबर्ग-बीबीसी मामलों के कुछ ही दिनों के भीतर “गर्मजोशी भरी और उपयोगी” बैठकों के बाद प्रधानमंत्री मोदी, राष्ट्रपति जो बाइडेन और राष्ट्रपति एमानुएल मैक्रों ने घोषणा की कि भारत बोइंग और एयरबस हवाई जहाज़ ख़रीदेगा। बाइडेन ने कहा कि इस सौदे से दस लाख से अधिक अमेरिकी नौकरियां पैदा होंगी। एयरबस में इंजन रोल्स रॉयस का होगा। “ब्रिटेन के उभरते हुए विमान निर्माण सेक्टर के लिए आसमान ही सीमा है,” प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने कहा।
जुलाई में मोदी ने अमेरिका का राजकीय दौरा किया और बास्तील दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में फ्रांस गए। क्या यकीन करेंगे आप इस पर? मैक्रों और बाइडेन बेहद शर्मनाक तरीकों से उनकी ख़ुशामद करते रहे, जबकि वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि 2024 के चुनाव प्रचार में यह मोदी के लिए मुंहमांगी मुराद का काम करेगा। जिस आदमी को वे गले लगा रहे हैं, उसके बारे में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे वे जानते न हों।
उन्हें इस बात की जानकारी रही होगी कि जिस वक़्त दिल्ली में वे मोदी से गले मिल रहे थे, उसी वक़्त उत्तर भारत में एक छोटे-से क़स्बे से मुसलमान अपना घरबार छोड़ कर भाग रहे थे। “मुसलमान-मुक्त” उत्तराखंड की खुलेआम बातें हो रही हैं। उन्हें पता रहा होगा कि मोदी की हुक्मरानी में भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य मणिपुर एक बर्बर गृहयुद्ध की आग में झुलस रहा है। एक किस्म का नस्ली सफाया अंजाम दिया जा चुका है। सुरक्षा बल भी दो हिस्सों में बंब् गए हैं, जिनमें एक तरफ पुलिस और दूसरी तरफ़ कोई व्यवस्था नहीं है। इंटरनेट बंद है। ख़बरों को रिस-रिस कर आने में हफ्तों लग जाते हैं।
इसके बावजूद दुनिया की ताक़तें मोदी को वह सब कुछ मुहैया करा रही हैं जो उन्हें भारत के सामाजिक ताने-बाने को तबाह करने और जलाने के लिए चाहिए। मुझसे पूछिए तो यह एक क़िस्म का नस्लवाद है। ये ताक़तें लोकतांत्रिक होने का दावा करती हैं, लेकिन ने नस्लवादी हैं। वे इसमें यकीन नहीं करते कि वे जिन “मूल्यों” पर अमल करने का दावा करते हैं, उन्हें अश्वेत देशों पर लागू होना चाहिए।
लेकिन इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। हम अपनी लड़ाई लड़ेंगे और आखिरकार अपने मुल्क को वापस हासिल भी करेंगे। अगर वे यह सोचते हैं कि भारत में लोकतंत्र को पुर्जे-पुर्जे करने का कोई असर पूरी दुनिया पर नहीं पड़ने वाला है, तो यक़ीनन वे ख़ामख़याली में जी रहे हैं।
जब मैंने कहा कि हम एक अलग ही दौर में पहुंच गए हैं, तो मैं इसी की बात कर रही थी। चेतावनियों का वक्त खत्म हो चुका है, और हम अपने अवाम के एक हिस्से से उतना ही खौफज़दा हैं जितना अपने नेताओं से।
इन सबके बारे में प्रधानमंत्री के पास कहने के लिए कुछ भी नहीं है। यह चुनावों का मौसम है। अगले मई तक आम चुनावों को होना है। यह सब चुनावी अभियान का हिस्सा है। हम और भी अधिक खून-खराबे, सामूहिक हत्याओं, साजिश करके होने वाले झूठे हमलों, नकली जंगों और ऐसी हरेक चीज़ की आशंका के लिए तैयार हैं, जो पहले से ही बंटी हुई आबादी को और अधिक बांट देंगी।
भारत में जो कुछ हो रहा है, वह कोई ढीले-ढाले क़िस्म का इंटरनेट फासिज़्म नहीं है। यह सचमुच की चीज़ है। हम नात्सी बन चुके हैं- सिर्फ हमारे नेता नहीं, सिर्फ हमारे टीवी चैनल और अखबार नहीं, बल्कि हमारी आबादी का एक व्यापक हिस्सा भी। अमेरिका और यूरोप और दक्षिण अफ्रीका में रहने वाली भारतीय हिंदू आबादी की बड़ी संख्या राजनीतिक और भौतिक रूप से फासीवादियों की मदद करती है। अपने ज़मीर, और अपने बच्चों के ज़मीर और अपने बच्चों के बच्चों के ज़मीर के लिए, हमें उठ खड़ा होना होगा। इससे फर्क नहीं पड़ता कि हम नाकाम रहते हैं या कामयाब।
2024 में अगर मोदी जीत जाते हैं, तो असहमति के सारे रास्ते बंद कर दिए जाएंगे। इस हॉल में मौजूद आपमें से किसी को भी यह दिखावा नहीं करना चाहिए कि जो कुछ भी हो रहा था आप उसके बारे में नहीं जानते थे।
एक लेखक के लिए इसमें यकीन करना एक गुस्ताखी, उद्दंडता, और यहां तक कि थोड़ी सी बेवकूफी भी होगी कि वह अपने लेखन से दुनिया को बदल सकता है, लेकिन उसने अगर इसकी कोशिश तक नहीं की तो यह सचमुच में एक अफ़सोसनाक बात होगी।
(2023 यूरोपियन एस्से प्राइज़ फ़ॉर लाइफ़टाइम एचीवमेंट स्वीकार करते समय लौज़ान, स्विट्ज़रलैंड में दिए गए भाषण के प्रासंगिक अंश। अनुवाद रेयाज़ुल हक़ ने किया है। मूल भाषण के लिए यहां क्लिक करें)