आज भारत के आधुनिक धनकुबेरों की सरपरस्ती में देश में कायम अरबपति राज औपनिवेशिक ताकतों के लाए ब्रिटिश राज से भी ज्यादा गैर-बराबरी पैदा कर चुका है। कमाई और संपत्ति का अत्यधिक केंद्रीकरण समाज और सरकार पर जरूरत से ज्यादा प्रभाव डालने के काम आ सकता है। खासकर कमजोर हो चुकी लोकतांत्रिक संस्थाओं के आलोक में यह चिंता और बढ़ जाती है।
लोकतांत्रिक संस्थाओं के मामले में भारत उत्तर-औपनिवेशिक देशों के बीच कभी एक रोल मॉडल रहा है, लेकिन इधर हाल के वर्षों में ऐसा लगता है कि विभिन्न प्रमुख संस्थाओं की अखंडता के साथ समझौता हुआ है। यही बात एक प्लूटोक्रेसी (अमीरों की सरकार या धनिक तंत्र) की ओर भारत के पतन की आशंका को ठोस बनाती है।
वैसे तो यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि भारत में धनवानों का प्रभाव और उनकी शक्ति पहले से ही बहुत ज्यादा है। इसका अश्लील प्रदर्शन कुछ दिनों पहले गुजरात के जामनगर में भारत के (और एशिया के) सबसे धनवान परिवार के सबसे छोटे बेटे की ‘प्री-वेडिंग’ में देखने को मिला जब न केवल एक डिफेंस एयर स्टेशन को अस्थायी रूप से 10 दिनों के लिए अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे में बदल दिया गया ताकि वहां विदेशी विमान उतर सकें, बल्कि ऐसा जान पड़ता है कि भारतीय वायुसेना ने अपने संवेदनशील इलाकों तक पहुंच की अनुमति देने के साथ-साथ एयर ट्रैफिक कंट्रोल टावर के संचालन के लिए अतिरिक्त सैन्यकर्मी भी उपलब्ध करवाए।
भारत में पिछला एक दशक अहम राजनीतिक और आर्थिक घटनाक्रमों से भरा रहा है। आजादी के बाद से कांग्रेस पार्टी के तकरीबन अबाध शासन के बाद 2014 में भारी बहुमत के साथ दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) केंद्र की सत्ता में आई। भाजपा को विकास और आर्थिक सुधार के नाम पर यह जनादेश मिला था लेकिन कई जानकारों का मानना है कि अपने दो कार्यकालों के दौरान इसने एक निरंकुश सरकार चलाई जहां निर्णय लेने की ताकत केंद्रीकृत कर दी गई (मोदीज इंडिया: हिंदू नेशनलिज्म एंड राइज ऑफ एथनिक डेमोक्रेसी, क्रिस्टॉफ जेफ्रलॉ, प्रिंसटन युनिवर्सिटी प्रेस,2021) और बड़े कारोबारों व सरकार के बीच गठजोड़ और बढ़ गया।
हाल के इन वर्षों में पैदा हुई गैर-बराबरी के रुझानों पर आने से पहले हम 2014 के बाद से व्यापक आर्थिक मोर्चे पर सरकार के प्रदर्शन की चर्चा करना चाहेंगे।
धुंधली आर्थिक तस्वीर
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि मोदी के शासन के वर्षों में आर्थिक वृद्धि बहुत सुस्त रही है- आय में साल-दर-साल वृद्धि की दर 2015 के 6 प्रतिशत से घटकर 2016 में 4.7 प्रतिशत, 2017 और 2018 में 4.2 प्रतिशत और नाटकीय रूप से 2019 में 1.6 प्रतिशत रह गई। यह आंकड़े कोविड-19 महामारी के आने से पहले के हैं। अगले साल 2020 में आय सीधे 9 प्रतिशत गोता मार गई। फिर 2022 में आय 4.7 प्रतिशत बढ़ी हुई दिखती है, जो आधार वर्ष के प्रभाव के चलते है।
सवाल उठता है कि कोविड से पहले घटती हुई आय की दर के पीछे कौन सा कारण था। सरकारी आंकड़ों पर आधारित अनुमान बताते हैं कि 2017-18 तक बीते एक दशक के दौरान बचत और निवेश की दर स्थायी रूप से घटती रही थी। निर्यात 2014-15 से ही गिरने लगा था और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण और उद्योग का हिस्सा 2013 से 2018 के बीच गतिरोध का शिकार रहा। बेरोजगारी की दर, खासकर युवाओं में (15 से 29 वर्ष) 2011-12 से 2017-18 के बीच जबरदस्त रूप से बढ़ी। विभिन्न क्षेत्रों में वेतन-भत्ते पिछले एक दशक के दौरान कमोबेश स्थिर रहे हैं।
आर्थिक मंदी का एक अन्य संभावित कारण ‘नोटबंदी’ का कड़ा झटका था जो नवंबर 2016 में अर्थव्यवस्था को लगा, जब करीब 86 प्रतिशत मुद्रा रातोरात बेकार हो गई। यह कदम कथित रूप से ‘काले धन’ के खिलाफ उठाया गया था लेकिन माना जाता है कि इसका असमान रूप से कहीं ज्यादा असर अनौपचारिक क्षेत्र, लघु और मझोले कारोबारों व गरीबों पर पड़ा। एक अनुमान के मुताबिक लघु आवधिक जीडीपी 2 प्रतिशत गिर गई।
मोदी सरकार ने बेशक आवास, शौचलय, बिजली और बैंकिंग जैसे बुनियादी ढांचा लाभों को विस्तारित करने के लिए निवेश किया, जिसे कुछ लोगों ने ‘भारत के दक्षिणपंथ का नया कल्याणकारी’ मॉडल कहा है लेकिन यह साफ नहीं है कि इन निवेशों ने बाजार में क्रय शक्ति को सुधारने का काम किया या नहीं। इसके अलावा, हाल के वर्षों में एनएसएसओ के उपभोग सर्वेक्षण के अभाव में यह भी अस्पष्ट है कि भारत ने अत्यधिक गरीबी को कम करने में कितनी प्रगति की है।
उपभोग-व्यय सर्वेक्षण 2022-23 का एक प्राथमिक तथ्यपत्रक हाल ही में सार्वजनिक किया गया था, हालांकि इसमें की गई तुलनाओं और अनुमानों को लेकर संदेह कायम है। व्यापक रिपोर्ट का इंतजार है।
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गैर-बराबरी की चाल, 2014-2022
गैर-बराबरी के संदर्भ में मोदी के शासनकाल को तीन चरणों में बांटा जा सकता है: 2014-2017, 2018-2020 और 2021 के बाद का समय।
पहले चरण में अर्थव्यवस्था मध्यम गति से बढ़ रही थी और आय तथा संपत्ति दोनों की गैर-बराबरी भी लगातार बढ़ रही थी। दूसरे चरण में आर्थिक वृद्धि की रफ्तार काफी कम हो गई और 2020 में गोता मार गई। इस दूसरे चरण में हम पाते हैं कि शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों की आय और संपत्ति में भी 1 से 2 प्रतिशत की गिरावट आई। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि गैर-बराबरी की प्रकृति चक्रीय होती है यानी उछाल के दौर में जहां अमीरों को असमान रूप से लाभ मिलता है वहीं गिरावट के दौर में उन्हें उतना ही ज्यादा नुकसान भी होता है (घटक और अन्य)। इस चरण में कमाई और संपत्ति दोनों के रुझान को देखते हुए यही सबसे संभावित वजह जान पड़ती है।
इतना ही नहीं, जैसा कि नीचे दिए गए चित्र में दिखाया गया है, सबसे अमीर भारतीयों की संपत्ति राष्ट्रीय आय के अनुपात में 2018 से 2020 के बीच घटी थी। एक साथ आय और संपत्ति में समान रुझान को समझाने के लिए और कोई वजह कारगर नहीं हो सकती। हां, गणना में गलतियां हो सकती हैं जिस पर हम आगे बात करेंगे।
तीसरे चरण में जब लॉकडाउन को हटा लिया गया और कोविड-19 के आर्थिक प्रभाव धीरे-धीरे कम होने लगे, हम पाते हैं कि अर्थव्यवस्था में शीर्ष तबके की हिस्सेदारी 2021 और 2022 में अपने उच्चतम रुझान की ओर वापस लौटती है जबकि निचले तबकों की हिस्सेदारी वापस गिर कर 2014 के स्तर पर पहुंच जाती है। 2014 से 2022 के बीच आय और संपत्ति की वृद्धि का कर्व देखें, तो हम पाते हैं कि हाल के वर्षों में असली लाभार्थी सबसे अमीर लोग रहे यानी शीर्ष के 1 प्रतिशत और उसके आसपास के लोग। यानी सबसे ऊपर के तबके में धन का संकेंद्रण होता गया।
इसी के आधार पर उन राजनीति-अर्थशास्त्रीय अनुमानों को बल मिलता है जिन्होंने हाल में वर्षों में भारत के आर्थिक तंत्र को ‘कांग्लोमरेट कैपिटलिज्म’ (दामोदरन) और ‘कांक्लेव इकनॉमी’ (बर्धन) में बदलते जाने की ओर लक्षित किया है।
एक और दिलचस्प आयाम जो ध्यान देने योग्य है, कि आय और संपत्ति दोनों के ही मामले में इस अवधि में बीच की 40 प्रतिशत आबादी ने ऐसा लगता है कि नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के मुकाबले धीमी वृद्धि की है। संभव है कि यह ‘भारत के लापता मध्यवर्ग’ की परिघटना में तेजी आने का संकेत हो (जैसा कि चान्सल और पिकेटी ने 2019 में लिखा था)।
हम देखते हैं कि बदले में नीचे की 50 प्रतिशत आबादी की आर्थिक वृद्धि उसी दर से बढ़ी जो औसत आबादी की वृद्धि दर थी, जिसके चलते कुल आय और संपत्ति में उनकी हिस्सेदारी नहीं बढ़ पाई। यहां यह कहना जरूरी है कि हो सकता है ये नतीजे काफी किफायती हों। हाल के आइसीई360 के आंकड़े संकेत करते हैं कि 2015-16 से 2020-21 के बच निचले 50 प्रतिशत लोगों की आय का हिस्सा काफी घटा है और उसकी वृद्धि दर औसत से नीचे रही है।
गैर-बराबरी की इस चाल को और गहराई से समझने के लिए पारिवारिक सर्वेक्षण और प्रशासनिक डेटा तक बेहतर पहुंच की जरूरत होगी, जिस पर हमने आगे बात की है।
शीर्ष 1 प्रतिशत और शीर्ष 10 प्रतिशत का हिस्सा
भारत में धन के संकेंद्रण की प्रक्रिया का एक प्रमुख लक्षण है सबसे ऊपर के लोगों के पास पैसे का इकट्ठा होता जाना। 1961 से 2023 के बीच सबसे ऊपर के 1 प्रतिशत लोगों की धनसंपदा में तीन गुना का इजाफा हुआ है, जो 13 प्रतिशत से 39 प्रतिशत है।
इसमें सबसे ज्यादा इजाफा 1991 के बाद हुआ जब से लेकर 2022-23 तक सबसे ऊपर के 1 प्रतिशत लोगों की राष्ट्रीय धनसंपदा में हिस्सेदारी लगातार बढ़ती ही रही। हम पाते हैं कि शीर्ष पर भी महज 1 प्रतिशत लोगों के बीच यह पैसा केंद्रित होता गया।
चित्र में देखें, तो पता चलता है कि 2022-23 में शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों की धनसंपदा में हिस्सेदारी 39.5 प्रतिशत थी जिनमें से 29 प्रतिशत शीर्ष 0.1 प्रतिशत का हिस्सा हो गए, 22 प्रतिशत 0.01 प्रतिशत में चले गए और 16 प्रतिशत लोग 0.001 प्रतिशत में चले गए।
1961 में शीर्ष 10 प्रतिशत की धनसंपदा का हिस्सा 45 प्रतियात हुआ करता था, जो 1961 से 1971 के बीच 1 प्रतिशत घटा। यह इकलौता दशक था जब गिरावट देखी गई। 1961 से 1981 के बीच शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों की हिस्सेदारी में ज्यादा अंतर नहीं आया। यही बात शीर्ष 1 प्रतिशत और 0.1 प्रतिशत पर भी लागू होती है। यह इसलिए आश्चर्यजनक है क्योंकि वह दौर समाजवादी नीतियों के उत्कर्ष का था।
1981 के बाद जब समाजवादी नीति से बाजार आधारित सुधारों की ओर मुड़ा गया, तो हम पाते हैं कि शीर्ष 10 प्रतिशत का धन अगले तीन दशक तक लगातार बढ़ा और 2021 में 63 प्रतिशत हो गया। 2012 के बाद एक दशक तक शीर्ष 10 प्रतिशत के हिस्से की वृद्धि में कुछ सुस्ती आई है। वास्तव में, 2012 से 2018 के बीच शीर्ष 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी में 2 प्रतिशत की मामूली गिरावट देखी गई। यह शीर्ष 1 प्रतिशत की हिस्सेदारी से उलट रुझान है जो पिछले तीन दशक के दौरान लगातार चढ़ती गई।
नीचे के 50 प्रतिशत और बीच वाले 40 प्रतिशत लोग
1991 के बाद से शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों की धनसंपदा में जो लगातार इजाफा हुआ, वह नीचे के 50 प्रतिशत और बीच के 40 प्रतिशत की हिस्सेदारी की कीमत पर हुआ।
नीचे के 50 प्रतिशत लोगों की धनसंपदा में हिस्सेदारी 1961 से 1981 के बीच 11 प्रतिशत पर स्थिर रही, 1991 में वह गिरकर 8.8 प्रतिशत पर आ गई और 2002 में 6.9 प्रतिशत पर आ गई। इसके बाद अगले दो दशक तक यह 6-7 प्रतिशत के बीच मंडराती रही जिसमें बहाली के कोई संकेत नहीं थे।
1961 में नीचे के 50 प्रतिशत और बीच के 40 प्रतिशत का हिस्सा समान था। 2022-23 तक शीर्ष 1 प्रतिशत का हिस्सा नीचे के 50 प्रतिशत के मुकाबले पांच गुने से ज्यादा हो गया। यह निश्चित रूप से बहुत बड़ा अंतर है, लेकिन नीचे के 50 प्रतिशत लोगों की धनसंपदा में हिस्सेदारी को तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो 2022 में चीन में यह 6 प्रतिशत, यूके में 5 प्रतिशत और फ्रांस में 5 प्रतिशत था, जबकि अमेरिका में यह 1 प्रतिशत था जो भारत से काफी कम है।
उच्च वृद्धि और बढ़ती असमानता वाले उदारीकरण के बाद के वर्षों में बीच के 40 प्रतिशत यानी मध्यवर्ग को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है। इसकी आंशिक वजह यह हो सकती है कि चूंकि नीचे वाले 50 प्रतिशत लोगों की हिस्सेदारी उदारीकरण की शुरुआत में इतनी कम थी (1991 में 9 प्रतिशत) कि बाद के वर्षों में शीर्ष 10 प्रतिशत की झोली में जो भी गया, वह बीच के 40 प्रतिशत की कीमत पर ही आ सकता था।
1961 से 1981 के बीच मध्यवर्ती 40 प्रतिशत और ऊपर के 10 प्रतिशत की हिस्सेदारी तकरीबन समान थी (40 से 45 प्रतिशत के बीच), लेकिप बाद के तीन दशकों में ऊपर वाले 10 प्रतिशत का हिस्सा तेजी से चढ़ा जबकि बीच वाले 40 प्रतिशत लोगों की हिस्सेदारी उनके चलते 2012 में गिरकर 31 प्रतिशत पर आ गई। 2018 में यह मामूली 1 प्रतिशत बढ़कर 32 प्रतिशत हुई, फिर बीते पांच साल में लगातार गिरते हुए 2023 में 29 प्रतिशत पर पहुंच चुकी है।
डेटा की बढ़ती चुनौती
पिछले दशक के दौरान भारत में विभिन्न प्रमुख डेटा स्रोत या तो अनुपलब्ध हो चुके हैं या उनकी गुणवत्ता संदेहों के घेरे में आ चुकी है। गैर-बराबरी को मापने के लिए जो भी इनपुट चाहिए, यह बात सब पर लागू होती है, जैसे राष्ट्रीय आय का हिसाब, करों की गणना और तमाम सर्वेक्षण। इन पर संक्षिप्त चर्चा इस उद्देश्य से की जा रही है ताकि हाल के वर्षों के अनुमानों को समझने में सतर्कता बरती जा सके।
राष्ट्रीय आय: हाल के वर्षों में भारत की राष्ट्रीय आय के हिसाब-किताब की वैधता पर काफी चिंताएं जाहिर की जा चुकी हैं। ऐसे कम से कम दो अनुभवसिद्ध अभ्यास हमारे सामने हैं। एक भारत सरकार के भूतपूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार द्वारा किया गया है जो 2011 के बाद के वर्षों में जीडीपी को अतिरंजित किए जाने की संभावना की ओर इशारा करता है (मॉरिस और कुमारी, 2019; सुब्रमण्यन, 2019)। कुछ और चिंताएं सुब्रमण्यन और फेलमान ने भारत के जीडीपी डिफ्लेटर की गलत गणना के संबंध में जाहिर की हैं।
मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि जीडीपी के अनुमान में इस्तेमाल किए जा रहे डेटा की तारीख सबसे ज्यादा चिंताजनक है। मसलन, सीपीआइ, डब्ल्यूपीआइ, इनपुट-आउटपुट टेबल, इंडस्ट्री कोड, उपभोग-व्यय इत्यादि फिलहाल दस से पंद्रह साल पुराने डेटा पर आधारित हैं। यह अर्थव्यवस्था के अनौपचारिक क्षेत्रों के लिए कहीं ज्यादा चिंताजनक पहलू है। यदि वाकई हाल के वर्षों में जीडीपी को बढ़ा-चढ़ाकर बताया जाता रहा है तो इसका मतलब यह निकलेगा कि गैर-बराबरी हमारे अनुमानों से कहीं ज्यादा होगी।
कर तालिकाएं : अंग्रेजी राज ने 1922 में आयकर कानून बनाने के साथ निजी आयकर पर डेटा इकट्ठा करना शुरू किया। हर साल यह डेटा तालिका के रूप में प्रकाशित किया जाता था। आजादी के बाद भी यह प्रथा जारी रही लेकिन 1999 से भारत सरकार ने अचानक अज्ञात कारणों से कर तालिकाओं का प्रकाशन रोक दिया। पूरे एक दशक तक जब भारत की आर्थिक वृद्धि बहुत जबरदस्त रही (2000-2010) कोई कर तालिका उपलब्ध नहीं है। फिर 2016 में जाकर सरकार ने पिछली तारीख में डेटा जारी किया, लेकिन यह 2011 से था। उसके बाद से पिछली तारीख के डेटा जारी किए जाते रहे। अंतिम डेटा 2017 का उपलब्ध है। फिर 2023 के मध्य में सरकार ने 2018-21 तक का डेटा जारी किया। संक्षेप में, हाल के वर्षों में टैक्स डेटा को आधे-अधूरे और विचित्र ढंग से जारी किया जाता रहा है।
इसकी वजह अस्पष्ट है। हो सकता है यह आयकर विभाग की प्राथमिकताओं में ही न आता हो। हैरत की बात यह है कि 1990 से लेकर अब तक राज्यस्तरीय डेटा उपलब्ध नहीं है। इसके कारण राज्यस्तरीय आय और संपत्ति में गैर-बराबरी की गणना या अनुमान एक अधूरी कवायद रह जाती है।
आय और उपभोग सर्वेक्षण: पिछले एक दशक की गैर-बराबरी को जानने में सबसे बड़ी चुनौतियों में एक रहा है 2011-12 के बाद से एक तुलनीय एनएसएसओ उपभोग सर्वेक्षण का न होना। एनएसएसओ अब आय को नहीं मापता, उपभोग पर हुए खर्चे को मापता है। इसीलिए हमारी गणना भी उसी के भरोसे रहती है। एनएसएसओ ने 2017-18 में एक दौर गणना की थी लेकिन सरकार ने उसे दबा दिया।
धनसंपदा सर्वेक्षण: संपत्ति में गैर-बराबरी के लिए एनएसएसओ का अखिल भारत ऋण और निवेश सर्वे (एआइडीआइएस) आधार होता है, लेकिन ऐसा लगता है कि पिछले तीन दौर के एआइडीआइएस (2002, 2012 और 2018) में शीर्ष की गणना को कम कर के मापा गया है। नमूना सर्वेक्षणों में अमीर लोगों का हिस्सा और प्रतिनिधित्व कम कर के दिखाया जाना भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में होता है, लेकिन एनएसएसओ के लिए चिंता की बात यह होनी चाहिए कि यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। अमीरों के निम्न आकलन की एक और वजह उनका ऑफशोर धन भी हो सकता है। मसलन, दुबई में विदेशी स्वामित्व वाला जितना भी रियल एस्टेट है उसका 20 प्रतिशत भारतीयों का है। इसकी कीमत कुल मिलाकर भारत के जीडीपी का 1.1 प्रतिशत है।
यह आलेख वर्ल्ड इनीक्वालिटी लैब की ताज़ा रिपोर्ट ‘इंकम एण्ड वेल्थ इनीक्वालिटी इन इंडिया, 1922-2023 : द राइज़ ऑफ द बिल्यनेर राज” के चुनिंदा अंशों का मिलाजुला अनूदित रूप है। इस रिपोर्ट को नितिन कुमार भारती, लुकास चैन्सल, थॉमस पिकेटी और अनमोल सोमंची ने लिखा है। मूल रिपोर्ट नीचे पढ़ी जा सकती है।
WorldInequalityLab_WP2024_09_Income-and-Wealth-Inequality-in-India-1922-2023_Final