भोपाल गैस कांड का दाग मिटाने के लिए अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी यूनियन कार्बाइड/डाउ केमिकल्स से मिली कानूनी फीस में से इस त्रासदी के पीड़ितों को कुछ भी दान दिए बगैर ही प्रतिष्ठित न्यायविद् फली एस. नरीमन का नब्बे पार की उम्र में गुजर जाना दुखद है। इस संबंध में प्रो. उपेंद्र बख्शी द्वारा उन्हें दी गई सलाह नरीमन की आत्मकथा ‘बिफोर मेमोरी फेड्स’ में बाकायदा दर्ज है।
ध्यान रहे कि नरीमन ने एसबेस्टस कंपनियों की भी पैरवी की थी। कैंसर पैदा करने वाला एसबेस्टस दुनिया के 70 देशों में प्रतिबंधित है। इसका सुरक्षित और नियंत्रित उपयोग असंभव है। डाउ केमिकल्स ने अमेरिका में एसबेस्टस से उपजे रोगों से ग्रस्त लोगों को मुआवजे के लिए 2.2 अरब डॉलर का एक फंड बनाया था। अमेरिका में इस रोग की जवाबदेही यूनियन कार्बाइड के ऊपर थी, पर भारत में नहीं। ऐसे कॉरपोरेट अपराधियों की पैरवी करने वाले नरीमन बिना किसी प्रायश्चित के चले गए। इंसान की जिंदगी केवल उसकी पेशेवर बाध्यताओं तक सीमित नहीं होती। उसका आंतरिक जीवन नैतिक बाध्यताओं से भी निर्देशित होता है।
नरीमन 1972 से 1975 तक भारत के अडीशनल सॉलिसिटर जनरल रहे। तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने जब इमरजेंसी लगाई, तो विरोध में उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इस बारे में नरीमन ने बहुत सही टिप्पणी की थी कि, ‘’(जून 1975 की) आंतरिक इमरजेंसी का एक सबक यह था कि संवैधानिक कार्यपालकों पर विश्वास न किया जाय। इन्होंने हमें नाकाम कर दिया- चाहे वे सरकार के मंत्री हों, सांसद, सुप्रीम कोर्ट के जज या फिर भारत के राष्ट्रपति।‘’ इससे यह बात भी निकलती है कि राष्ट्रपति तक पर भरोसा नहीं किया जा सकता, जिसने 25 जून, 1975 की रात इमरजेंसी लगाए जाने के आदेश को मंत्रिपरिषद के पास भेजे जाने से पहले ही मौखिक सूचना के आधार पर उस पर दस्तखत कर दिए थे।
इसी का परिणाम था कि 1978 में संविधान में 44वां संशोधन किया गया और अनुच्छेद 352(3) के माध्यम से यह प्रावधान लाया गया कि भविष्य में राष्ट्रपति इमरजेंसी के आदेश पर तभी दस्तखत करेगा जब मंत्रिपरिषद की ओर से उसके पास इसका लिखित निर्णय आएगा। यह प्रावधान 20 जून, 1979 से प्रभावी हुआ। नरीमन हालांकि यह भूल गए कि यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन को भोपाल में अपनी खतरनाक कीटनाशक फैक्ट्री और अनुसंधान व विकास केंद्र को खोलने का औद्योगिक लाइसेंस इमरजेंसी के दौरान ही मिला था, जहां कथित रूप से युद्धक रसायनों का उत्पादन और परीक्षण किया जा रहा था।
यूसीसी के कारखाने में हुए दुनिया के सबसे बुरे औद्योगिक हादसे के बाद नरीमन कंपनी के मुख्य पैरोकार के बतौर अदालत में अपने कनिष्ठ अधिवक्ता बोमी ज़रीवाला के साथ यूसीसी का बचाव करने के लिए उतरे। हादसे के बाद हुए दीवानी मुकदमे में 1985 के आखिरी महीनों में यूसीसी ने उन्हें अपना वकील रखा था, लेकिन नरीमन की मानें तो इस सब की शुरुआत 5 सितंबर, 1986 से मानी जानी चाहिए जब भारत सरकार ने हादसे के पीड़ितों की ओर से भोपाल गैस लीक त्रासदी (दावा निपटारा) अधिनियम, 1985 के अंतर्गत दावों के लिए एक मुकदमा भोपाल की जिला अदालत में दायर किया और यूसीसी से 3.3 अरब डॉलर का मुआवजा मांगा। 1985 का यह कानून 29 मार्च, 1985 को बनाया गया था ताकि यूसीसी और अन्य के खिलाफ त्रासदी के मुआवजे के लिए भारत सरकार इकलौते वादी के तौर पर मुकदमा दायर कर सके।
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नरीमन की स्मृति तब तक शायद धुंधली पड़ चुकी थी क्योंकि हकीकत यह है कि इस समूचे प्रकरण की शुरुआत सभी पीड़ितों की ओर से भारत सरकार द्वारा न्यूयॉर्क की सदर्न डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में दायर एक मुकदमे से हुई थी जिसकी सुनवाई जज जॉन कीनन ने 8 अप्रैल, 1985 को की थी, जब पीड़ितों की तरफ से अमेरिका की विभिन्न अदालतों में 7 दिसंबर, 1984 को दायर कोई 145 मुकदमों को समेट कर एकमुश्त जज के समक्ष रखा गया। जब जज कीनन ने 12 मई, 1986 को पीड़ितों के दावे को खारिज कर दिया, तब जाकर भोपाल की जिला अदालत में इस शर्त पर मुकदमा दायर किया गया कि यूसीसी भारतीय न्यायालयों के अधीन जवाब देगी।
भोपाल जिला अदालत के जज देव ने 17 दिसंबर, 1987 को 350 करोड़ रुपये के अंतरिम मुआवजे का आदेश दिया। इसे जबलपुर उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। वहां जज एसके सेठ ने अंतरिम मुआवजे की राशि को घटाकर 250 करोड़ कर दिया। भारत सरकार और यूसीसी ने 8 सितंबर, 1988 को इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट ने यूसीसी की अपील पर 14-15 फरवरी, 1989 को जल्दबाजी में निपटारा करते हुए आदेश दिया कि जवाबदेही लिए बगैर यूसीसी और उसकी भारतीय इकाई भारत सरकार को 470 मिलियन डॉलर का एकमुश्त और अंतिम भुगतान करें (जो 615 करोड़ रुपये के बराबर था)।
इसके बाद से ही फली नरीमन और भारत के 18वें प्रधान न्यायाधीश आरएस पाठक की भूमिका कठघरे में बनी हुई है, जिन्होंने 1984 के इस हादसे के अन्यायपूर्ण निपटारे के बीच में ही अपना पद छोड़ दिया क्योंकि अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में जज के बतौर उनका ‘तदर्थ चयन’ हो गया था। पता चलता है कि पाठक तो अपना पद छोड़ने को तैयार थे लेकिन उन पर इंतजार करने का दबाव बनाया गया क्येांकि उनके कई मुकदमों में फैसले लंबित थे। फरवरी 1989 से मई 1989 के बीच उनके दिए फैसलों पर यदि गौर करें, तो पता चलता है कि उन्हें कितनी हड़बड़ी थी। वास्तव में कई ऐसे फैसले थे जिन्हें उन्होंने सुनाया नहीं, बल्कि वे जारी किए गए।
अंतरराष्ट्रीय कोर्ट में अपना दूसरा कार्यकाल निभा रहे भारतीय जज एम. नागेंद्र सिंह के निधन के बाद पाठक वहां जज के लिए चुने गए। वे 1989 से 1991 तक इस पद पर रहे। भारत ने उन्हें दोबारा नामित न करने का फैसला किया था लेकिन वे आयरलैंड के समर्थन से दोबारा दौड़ में शामिल हो गए। जब भारत के कुछ सांसदों ने पाठक द्वारा प्रधान न्यायाधीश रहते हुए यूसीसी के प्रकरण में 470 मिलियन डॉलर वाले निपटारे का उन पर आरोप लगाते हुए आयरिश सरकार को घेरा, तब जाकर पाठक ने खुद को जज की दौड़ से बाहर खींच लिया। भोपाल गैस कांड के इस निपटारे के चलते पाठक और नरीमन दोनों को ही पसंद नहीं किया जाता था।
नरीमन की आत्मकथा बताती है कि कैसे भोपाल गैस कांड में खुद का बचाव करने के लिए उन्होंने पाठक को प्रचुर मात्रा में उद्धृत किया है। इसी के मद्देनजर प्रो. उपेंद्र बख्शी लिखते हैं, ’’चीफ जस्टिस पाठक के अनुनादपूर्ण वंदन का नरीमन द्वारा किया गया आवाहन घोर विश्वासघात है।‘’
पाठक के प्रति नरीमन के सम्मान की याद करते हुए वरिष्ठ पत्रकार एजे फिलिप लिखते हैं, ‘’लतीफा चलता है कि अगर आपके पास नरीमन को पैरोकार रखने के लिए कुछ करोड़ रुपये हैं तो आप बड़ी आसानी से किसी की हत्या कर के बच निकल सकते हैं। लेकिन नहीं, पैसा अकेले उनके लिए मायने नहीं रखता। जहां तक मेरी स्मृति जाती है, उन्होंने मुझसे और मेरे साथी रिपोर्टर से एक पैसा भी नहीं लिया था और पूरे केस को ध्यान से पढ़ते हुए हमारे हलफनामें में कई बदलाव सुझाए थे, जो हमें उच्च न्यायालय में दाखिल करना था। उनके लिए ज्यादा अहम बात यह थी कि द ट्रिब्यून ट्रस्ट के मुखिया जस्टिस आरएस पाठक थे, यानी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश।‘’
अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्हें काफी आलोचना झेलनी पड़ी थी। मसलन, एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय प्रकाशन ह्यूमन राइट्स ट्रिब्यून के संपादक लॉरी एस. वाइसबर्ग ने 1992 में एक लेख लिखा था ‘फॉलेन एंजेल्स’, जिसमें उन्होंने यूसीसी की पैरवी करने के लिए परीमन की आलोचना की थी, वो भी तब जब नरीमन इंटरनेशनल कमीशन ऑफ ज्यूरिस्ट्स, जिनेवा की कार्यकारी समिति के सदस्य हुआ करते थे। नरीमन जब यूसीसी के वकील हुए, तभी से प्रो. उपेंद्र बख्शी ने संकल्प लिया कि वे उनके साथ कोई सार्वजनिक मंच साझा नहीं करेंगे। प्रतिष्ठित भारतीय पत्रिका सेमिनार के 2005-05 के अंक में इस संबंध में दोनों के बीच हुई बहस शामिल है।
कई साल बाद सीएनन-आइबीएन पर करन थापर को दिए एक साक्षात्कार में नरीमन ने यूसीसी की पैरवी करने के अपने फैसले पर पछतावा जताया। वे बोले, ‘’मेरे खयाल से उस उम्र में हर कोई महत्वाकांक्षी होता है। जब बाद में मुझे यह बात समझ आई, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। आप किसी केस से ऐसे ही बाहर नहीं निकल सकते… वह महज एक केस नहीं था, वह एक त्रासदी थी।‘’
थापर के प्रोग्राम ‘डेविल्स एडवोकेट‘ में उन्होंने कहा कि, ‘’अगर मुझे दोबारा जिंदगी जीने का मौका मिले एक वकील के रूप में और मेरे पास इसका ब्रीफ आए और मुझे वह सब कुछ पहले से पता हो जो बाद में सामने आया, तो मैं निश्चित रूप से जवाबदेही वाले उस दीवानी मुकदमे को नहीं लड़ूंगा जो मैंने किया।‘’
चूंकि वे लगातार यूसीसी के वकील बने रहे, तो उन्हें पक्के तौर पर यह खबर होगी कि 28 नवंबर, 2023 को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में जस्टिस शील नागू और देवनारायण मिश्र की खंडपीठ ने एक आदेश देते हुए राज्य और केंद्र सरकार के अधिकारियों के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू करने को कहा था। यह आदेश 19 फरवरी, 2024 को वापस ले लिया गया। शुरुआत में आदेश ने कुछ अफसरों को दोषी पाया था और उन्हें नोटिस दिया था क्योंकि वे 8 अगस्त, 2012 को आए सुप्रीम कोर्ट के आदेश का अनुपालन नहीं कर सके थे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कंप्यूटरीकरण और नेटवर्किंग के माध्यम से उन सभी अस्पतालों और क्लीनिकों के मेडिकल रिकॉर्ड के एकमुश्त रखरखाव के लिए कहा था जहां गैस कांड के पीड़ितों का इलाज चल रहा है। नोटिस देने की एक और वजह इन अफसरों द्वारा विशेषज्ञों और बेहतरीन सुविधाओं के माध्यम से सर्वश्रेष्ठ इलाज मुहैया करा पाने में नाकामी थी।
अब 19 फरवरी, 2024 को उच्च न्यायालय में जस्टिस शील नागू और विनय सराफ की खंडपीठ का जो आदेश आया है वह कहता है कि ‘’बेहतर होगा कि निगरानी समिति की मदद ली जाय। इसलिए यह आदेश दिया जाता है कि कोर्ट की अवमानना का दोषी प्रत्येक व्यक्ति, जो प्रथम श्रेणी गजेटेड अधिकारी से नीचे की रैंक का न हो, उसे निगरानी समिति की अगली बैठक की तारीख को उपस्थित होना चाहिए ताकि वह समिति को रिट याचिका (सिविल) संख्या 50/1998 पर सुप्रीम कोर्ट के 9 अगस्त, 2012 को दिए आदेश और इस अदालत द्वारा दिए गए अन्य आदेशों के अनुपालन और वर्तमान स्थिति के आकलन में सक्षम बना सके और तत्पश्चात विभिन्न मदों में अनुपालन के होने और न होने की एक रिपोर्ट तैयार करे। निगरानी समिति से अनुरोध है कि वह उक्त रिपोर्ट को जल्द से जल्द जमा कर के अदालत की मदद करे। अगली तारीख अप्रैल, 2024 मुकर्रर।‘’
ऐसा लगता है कि भोपाल गैस त्रासदी के शिकार लोगों के लिए न्याय एक अंतहीन प्रतीक्षा में तब्दील हो चुका है, जिसका भविष्य में कोई अंजाम नहीं होना है।
गुजरने से पहले नरीमन 14 मार्च, 2023 को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के दिए आदेश का गवाह रहे थे, जब पीठ की अध्यक्षता करते हुए जस्टिस एसके कौल ने फरवरी 1989 के अन्यायपूर्ण निपटारे के खिलाफ केंद्र सरकार की उपचार याचिका को इस आधार पर खारिज कर दिया था कि वह सरकार ही थी जिसने गैस त्रासदी के शिकार लोगों में से अधिकतर को ‘मामूली’ जख्मों से पीड़ित की श्रेणी में डाल दिया था। अपनी याचिका में केंद्र सरकार ने अतिरिक्त 8.1 अरब डॉलर (7844 करोड़) की मांग की थी। इससे पहले यूसीसी (अब डाउ केमिकल्स कंपनी के स्वामित्व में) 1989 वाले निपटारे के मुताबिक 470 मिलियन डॉलर दे चुका है। जस्टिस कौल का आदेश तत्यात्मक त्रुटियों से युक्त है, जिसे अब भी दुरुस्त किया जाना शेष है।
उधर, यूसीसी जैसे कॉरपोरेट अपराधी गैस त्रासदी से हुए मुनाफे पर अब भी फल-फूल रहे हैं। यह जनता के खून से उपजा पैसा है। मैक्बेथ में शेक्सपियर ने ऐसे ही अन्यायी लोगों की नियति के बारे में लेडी मैक्बेथ के हवाले से कहा था, ‘’…कौन सोच सकता था कि यह बूढ़ा इतने लोगों का खून पीकर जिंदा होगा? अब भी इसमें से खून की बू आ रही है। अरब का सारा इत्र भी इस पर उंड़ेल दिया जाय तो इसकी हथेलियों से खुशबू नहीं आ सकती।‘’
फैसलों के आने के बरसों बाद तक जजों और वकीलों के बारे में फैसले सुनाए जाते हैं। अपनी पेशेवर भूमिका को निभाकर और अपने हिस्से के सारे तमगों को बंटोर कर पाठक जैसे जजों और नरीमन जैसे वकीलों के गुजर जाने के बाद भी उन हादसों के शिकार लोगों का आर्तनाद गूंजता रहता है, जिन्हें समय रहते रोका जा सकता था।