पश्चिम बंगाल का पंचायत चुनाव अब दिल्ली के सुप्रीम कोर्ट की देहरी पर पहुंच चुका है। सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाया है राज्य सरकार और राज्य के निर्वाचन आयोग ने, जो केंद्रीय सुरक्षा बल तैनात किए जाने संबंधी दो दिन पहले आए कलकत्ता हाइकोर्ट के फैसले से असंतुष्ट हैं। जाहिर है इस असंतोष के पीछे स्थानीय निकायों में तृणमूल कांग्रेस को अपनी सत्ता चले जाने का डर सता रहा है, जबकि उसके सबसे ज्यादा प्रत्याशियों ने नामांकन भरे हैं।
पंचायत चुनावों के लिए नामांकन की अंतिम सूची जो 16 जून को जारी हुई है, उसमें सबसे ज्यादा प्रत्याशियों की संख्या तृणमूल कांग्रेस की है (85817)। इसके बाद भारतीय जनता पार्टी (56321) और सीपीएम (48646) है। कांग्रेस से कुल 17750 नामांकन दाखिल हुए हैं चूंकि उसकी उपस्थिति कुछ चुनिंदा जिलों में ही है। इन आंकड़ों को देखते हुए समझ में आता है कि भाजपा, कांग्रेस और सीपीएम क्यों हल्ला कर रही थीं कि टीएमसी उनके प्रत्याशियों को नामांकन नहीं करने दे रही।
अगले महीने होने वाले पंचायत चुनाव के लिए नामांकन की प्रक्रिया में अब तक तीन लोगों की मौत हो चुकी है। यह शायद देश का इकलौता स्थानीय चुनाव है जो हर बार ही हिंसा की घटनाओं के चलते अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरता है। इस बार भी मामला कुछ अलग नहीं है, सिवाय इसके कि अगले साल लोकसभा चुनाव होने हैं और मौजूदा घटनाक्रम से विपक्षी एकता की तस्वीर धुंधलाती दिखती है।
एक राज्य के पंचायत चुनाव से लोकसभा चुनाव का प्रभावित होना और मुकदमेबाजी का सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाना अपने आप में उसकी अहमियत बयां करने के लिए काफी है।
दो याचिकाएं
पश्चिम बंगाल में आगामी 8 जुलाई को होने वाले पंचायत चुनाव के लिए कलकत्ता हाइकोर्ट ने राज्य के सभी जिलों में केंद्रीय अर्धसैनिक बल तैनात करने का आदेश दिया था। मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस ने भी स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए केंद्रीय बलों की मांग की थी। जाहिर है इस आदेश का बीजेपी और कांग्रेस ने स्वागत ही किया, लेकिन पश्चिम बंगाल के निर्वाचन आयोग और राज्य सरकार ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने का फैसला ले लिया।
बीते शुक्रवार को राज्य निर्वाचन आयोग और सरकार के प्रतिनिधियों के साथ कानूनी सलाहकारों की एक बैठक के बाद यह फैसला लिया गया। ठीक एक दिन पहले गुरुवार को ही हाइकोर्ट ने निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया था कि वह 48 घंटे के भीतर अर्धसैन्य बलों की तैनाती के लिए केंद्र को लिख कर भेजे। यह मामला अब सर्वोच्च अदालत में तय होगा।
बीते 7 जून को राज्य के मुख्य सचिव रहे राजीव सिन्हा को नया राज्य निर्वाचन आयुक्त बनाया गया था। अगले ही दिन उन्होंने पंचायत चुनावों की घोषणा कर दी। ये चुनाव एक चरण में 8 जुलाई को होने हैं और वोटों की गिनती 11 जुलाई को होगी। इसकी सूचना सिन्हा ने कोलकाता में 8 जुलाई को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में दी। ठीक अगले ही दिन कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी और भारतीय जनता पार्टी के नेता सुवेंदु अधिकारी द्वारा दायर दो अरजेन्ट जनहित याचिकाओं पर कलकत्ता हाइकोर्ट ने सुनवाई की। मामला इसके बाद से बिगड़ना शुरू हुआ।
मुख्य न्यायाधीश शिवगणम और न्यायमूर्ति हिरण्मय भट्टाचार्य की खंडपीठ ने याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कि प्रत्यक्षत: नामांकन दाखिल करने के लिए पांच दिन का समय अपर्याप्त है और चुनाव आयोग को इस पर दोबारा विचार करना चाहिए।
इसी सुनवाई के दौरान केंद्रीय सैन्यबलों की तैनाती के संबंध में पीठ ने याद दिलाया कि कुल 75000 से ज्यादा सीटों के लिए होने वाले इन चुनावों के दौरान अतीत में हुई हिंसा के मद्देनजर कोई 12 मौकों पर अदालत को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा है या मामला केंद्रीय जांच एजेंसी एनआइए के हवाले किया गया है, इसलिए स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिए राज्य निर्वाचन आयोग को केंद्रीय बलों की मांग करनी चाहिए।
पंचायत चुनाव की अधिसूचना जारी होने के साथ ही पूर्वानुमानित आशंका के अनुसार हिंसा की खबरें आना शुरू हो गई थीं। जाहिर है जो पार्टी सत्ता में है या होती है उसी पर हिंसा का आरोप लगता है। यह बात खुद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कहे से समझ में आती है: ‘’लोग कह रहे हैं कि आज बंगाल में शांति नहीं है, मैं उनसे पूछना चाहती हूं- सीपीआइ (एम) के शासन के दौरान यह कैसा था?’’
सवाल वाजिब है क्योंकि सीपीएम और तृणमूल कांग्रेस की सरकारों के दौरान पंचायत चुनाव की हिंसा उन कुछेक चीजों में है जिनमें रत्ती भर बदलाव नहीं आया है।
हिंसा का ताजा दौर
इस बार की सबसे पहले हिंसा की खबर मुर्शिदाबाद से आई जहां 9 जून को- जो कि नामांकन भरने का पहला दिन था- खारग्राम में एक स्थानीय कांग्रेस नेता और उम्मीदवार फूलचाँद शेख की गोली मारकर हत्या कर दी गई। इस गोलीकांड में कुछ अन्य लोग भी गंभीर रूप से घायल हुए। चूंकि यहां मामला एक मौत का था तो यह खबर राष्ट्रीय मीडिया में आई, लेकिन उसी दिन बंगाल के अन्य हिस्सों से भी हिंसा हुई। इनकी खबरें बंगाल के स्थानीय मीडिया में छाई रहीं। उस दिन दक्षिण चौबीस परगना में भी टीएमसी और विपक्षी दलों के बीच हिंसक झड़पें हुई थीं।
मौके की नजाकत को देखते हुए विपक्षी दलों ने चुनाव के लिए केंद्रीय सुरक्षाबलों की तैनाती की मांग उठा दी। उन्होंने आयोग और राज्यपाल से मिलकर, पत्र लिखकर, यह मांग की।
इस दौरान हिंसा का जो सिलसिला 9 जून को शुरू हुआ था, वह जारी रहा। 12 जून को उत्तर चौबीस परगना के मीनाखान में सीपीएम के कार्यालय को घेर कर उसके उम्मीदवारों को नामांकन भरने से रोकने की कोशिश की गई, जिसमें सीपीएम के तीन नेता घायल हुए। सीपीएम ने कहा है कि तृणमूल के गुंडों ने उनके कार्यालय में उस वक्त हमला किया जब वहां पार्टी के नेता नामांकन भरने की तैयारी कर रहे थे। इस झड़प में सीपीएम के तीन नेता सयनदीप मित्रा, राना राय और सोमा दास को चोट आई।
नामांकन के अंतिम दिन 15 जून को, जब कलकत्ता हाइकोर्ट में भाजपा नेता सुवेंदु अधिकारी की याचिका पर राज्य चुनाव आयोग से सवाल-जवाब चल रहा था, अदालत के बाहर राज्य के कुछ हिस्सों में स्थित नामांकन केंद्रों (BDO) ऑफिस के बाहर जहां धारा 144 लागू है, वहां से सत्ताधारी दल और विपक्षी दलों के बीच हिंसक झड़प की खबरें आ रही थीं।
उत्तर दिनाजपुर में 15 जून को तीन लोगों को गोली मारी गई। खबर के मुताबिक यह हमला उस वक्त हुआ जब सीपीएम और कांग्रेस के उम्मीदवार चोपड़ा बीडीओ ऑफिस में नामांकन पत्र दाखिल करने जा रहे थे। गोली लगने से घायल एक व्यक्ति की मौत हो गई।
सीपीएम नेता और पूर्व सांसद मोहम्मद सलीम ने ट्वीट कर कहा कि वाम और कांग्रेस प्रत्याशी व समर्थक अपना नामांकन पत्र जमा करने जा रहे थे, तभी टीएमसी के गुंडों ने उन पर गोलियां चला दीं।
सलीम ने एक अन्य ट्वीट में लिखा है– ‘’पश्चिम बंगाल पुलिस का एक हिस्सा टीएमसी के गुंडों के साथ मिलकर काम कर रहा है और राज्य निर्वाचन आयोग पूरी तरह से निष्प्रभावी और गैर-जिम्मेदार है। ममता बनर्जी के अधीन राज्य प्रशासन के गैर-जिम्मेदाराना और एकतरफा रवैये की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।‘’
राजनैतिक परम्परा के अनुसार सत्ताधारी दल टीएमसी ने विपक्षी दलों के तमाम आरोपों को खारिज करते हुए, हिंसा के लिए विपक्ष को ही जिम्मेदार बता दिया।
मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पलटवार करते हुए कहा- “विपक्षी दल नामांकन दाखिल करते समय हिंसा को अंजाम देकर गड़बड़ी पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। वे राज्य की छवि को धूमिल करने के लिए ऐसा कर रहे हैं। चोपड़ा क्षेत्र (उत्तर दिनाजपुर जिले में) में आज की हिंसा के पीछे सीपीएम है, वहीं एसएफआइ भांगोर (दक्षिण 24 परगना) में हमारी पार्टी के कार्यकर्ताओं पर हमला कर रहा है।“
हाइकोर्ट का आदेश
कलकत्ता हाइकोर्ट ने हिंसा की खबरों के मद्देनजर राज्य चुनाव आयोग को संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान कर, उनकी सूची बनाकर वहां केंद्रीय बलों को तैनात करने का आदेश दिया था। अदालत ने 13 जून को यह आदेश दिया था, लेकिन भाजपा नेता सुवेंदु अधिकारी ने अदालत में रिट याचिका देकर कहा कि आयोग ने अदालत की अवमानना की है और केंद्रीय बलों की तैनाती नहीं हुई है।
इसी पर सुनवाई करते हुए कलकत्ता हाइकोर्ट ने संवेदनशील क्षेत्रों की पहचान करने और केंद्रीय बलों की तैनाती के निर्देश सहित राज्य में पंचायत चुनावों पर अदालत के आदेश को लागू करने में कथित विफलता के लिए राज्य चुनाव आयोग को अवमानना कार्रवाई की चेतावनी दे डाली।
राज्य सरकार के वकील ने अदालत में कहा कि याचिका में कथित हिंसा से संबंधित किसी भी एक निश्चित घटना का जिक्र नहीं है, इसलिए अदालत किसी झूठे आरोप के आधार पर कोई आदेश नहीं दे सकती। राज्य सरकार के वकील ने कहा कि राज्य ने पर्याप्त सुरक्षा के इंतजाम किए हैं, यहां तक कि पड़ोसी राज्यों के पुलिस अधिकारी भी तैनात किए गए हैं। जहां कहीं भी हिंसा की छिटपुट घटना हुई है वहां पुलिस ने तुरंत कार्रवाई की है।
अधिकारी द्वारा दायर याचिका पर नोटिस लेते हुए मुख्य न्यायाधीश शिवगणमन की अध्यक्षता वाली पीठ ने राज्य चुनाव आयोग पर नाराजगी जताते हुए अदालत की अवमानना की चेतावनी दी।
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस शिवगणमन ने मीडिया में प्रकाशित हिंसा की ख़बरों पर ध्यानाकर्षित करते हुए कहा था कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना चुनाव आयोग का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए। अगर राज्य को इस आदेश से आपत्ति है, तो वे अपील करने के लिए स्वतंत्र हैं, हालांकि इसके अभाव में यदि निर्देशों को लागू नहीं किया जाता है तो न्यायालय को स्वत: संज्ञान लेते हुए अवमानना कार्यवाही शुरू करनी होगी।
केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की तैनाती के अदालती आदेश के बाद राज्य में माहौल और गरम हो गया है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अदालत के आदेश के बाद कहा कि केंद्रीय बल तो मणिपुर में भी है, वहां केंद्रीय मंत्री का घर जला दिया गया, 150 लोग गोली से मारे जा चुके हैं, क्या किया केन्द्रीय बल की तैनाती ने?
ममता ने नामांकन पत्रों का आंकड़ा प्रस्तुत करते हुए कहा कि पंचायत चुनाव के लिए 15 जून तक 2.31 लाख नामांकन दाखिल किए गए थे, इसमें से 82,000 नामांकन टीएमसी द्वारा किए गए थे। अन्य दलों ने 1-1.5 लाख नामांकन दाखिल किए। उन्होंने कहा कि भाजपा में ज्यादातर लोग ‘’चोर और गुंडे’’ हैं। वे राज्य के दक्षिण चौबीस परगना में एक सभा को संबोधित कर रही थीं। वहां उन्होंने कहा कि भांगर में हुई हिंसा के लिए तृणमूल जिम्मेदार नहीं है, वहां की हिंसा में टीएमसी के दो कार्यकर्ता मारे गए हैं।
विपक्षी एकता?
पंचायत चुनाव के लिए नामांकन 15 जून को खत्म हो चुका है और केंद्रीय बलों की तैनाती का मामला अब सुप्रीम कोर्ट के पाले में होगा, लेकिन इस स्थानीय चुनाव के व्यापक सियासी निहितार्थ भी सामने आने लगे हैं क्योंकि बंगाल में तृणमूल के खिलाफ कांग्रेस और सीपीएम एक पाले में खेल रहे हैं। इसने ममता को नाराज कर दिया है।
लोकसभा चुनाव के लिए संभावित विपक्षी एकता की कोशिशों को झटका देते हुए ममता बनर्जी ने साफ कह दिया है कि सीपीएम के साथ गठजोड़ के बाद कांग्रेस, बीजेपी के खिलाफ किसी मुद्दे पर अब टीएमसी से कोई उम्मीद न रखे।
ममता बनर्जी ने कहा, ‘’कांग्रेस संसद में हमारा समर्थन चाहती है। भाजपा के विरोध में उनका समर्थन करने के लिए हम तैयार हैं, लेकिन उन्हें सीपीएम से हाथ मिलाने के बाद बंगाल में समर्थन मांगने के लिए हमारे पास नहीं आना चाहिए।‘’
हिंसा की राजनीतिक परंपरा
पश्चिम बंगाल के चुनावों में हिंसा कोई नई बात नहीं है। इसकी एक राजनीतिक परंपरा रही है। हिंसा ने कभी भी मतदाताओं को बूथ से दूर नहीं किया, बल्कि इसके उलट लोग भारी संख्या में वोट देने के लिए उमड़ते रहे हैं। इसके पीछे यहां के मतदाताओं की राजनीतिक दलों के साथ करीबी सम्बद्धता और उनके मानस का राजनीतिकरण है, जिसका सकारात्मक श्रेय सीपीएम के तीन दशक के शासन को जाता है। हिंसा, हालांकि इस राजनीतिकरण का एक नकारात्मक आयाम है जो किसी भी दौर में बराबर कायम रही है।
साठ के दशक में कांग्रेस के वर्चस्व को वाम और स्थानीय दलों ने चुनौती दी थी। यह दशक हिंसा से भरा हुआ था। कांग्रेसी सरकारों ने वाम आंदोलनों का भयंकर दमन किया। उसकी प्रतिक्रिया में नक्सलबाड़ी से उपजा आंदोलन शहरों तक फैल गया। सत्तर का दशक भी हिंसक रहा। अस्सी के दशक की राजनीतिक लड़ाई भी वाम दलों और कांग्रेस के बीच रही। यही वह दौर था जब वाम दलों ने लोकल कमेटी (एलसी) बनाकर चुनावों पर अपनी राजनीतिक पकड़ पुख्ता की। चुनावी हिंसा के केंद्र में यही कमेटियां रही हैं।
नब्बे के दशक में कांग्रेस के दोबारा उभार ने ममता बनर्जी जैसे नेताओं को पैदा किया। हिंसा का एक नया दौर शुरू हुआ। 2008 तक माओवादी हिंसा चरम पर थी। तृणमूल कांग्रेस ने उसके कंधे पर चढ़कर सीपीएम की सत्ता को चुनौती दी। नंदीग्राम का संघर्ष उसका नायाब उदाहरण रहाद्य। पूर्वी मिदनापुर का खेजुरी, पश्चिमी मिदनापुर का लालगढ़, सिंगुा, खानकुल आदि ऐसी हिंसा के रंगमंच रहे। इन्हीं जगहों पर हिंसा की राजनीति ने सीपीएम का किला ढहा दिया और ममता बनर्जी की सरकार आई।
आज की तारीख में तृणमूल को सबसे ज्यादा चुनौती भारतीय जनता पार्टी से मिल रही है। वाम दल लंबी लड़खड़ाहट के बाद अपने पैर टिका रहे हैं तो कांग्रेस अपनी बची-खुची जमीन बचाने की फिराक में है। इस चक्कर में स्वाभाविक रूप से चुनावी हिंसा के लिए तृणमूल को दोषी ठहराने में भाजपा, कांग्रेस और वाम दल एक पाले में दिखते हैं। केंद्रीय राजनीति में स्थिति बिलकुल उलट है, जहां तृणमूल, कांग्रेस और वाम दल तीनों भाजपा के खिलाफ हैं। इसके बावजूद, स्थानीय राजनीतिक की मजबूरियां इनकी व्यापक एकता के आड़े आती हैं।
चूंकि 8 जुलाई को 75000 के करीब पंचायत प्रतिनिधियों का चुनाव होना है, जिनमें 22 जिलों की 928 जिला परिषदें, 9730 पंचायत समिति सदस्य, और 63229 ग्राम पंचायत सदस्यों का चुनाव शामिल है, तो हर दल भविष्य की राजनीतिक एकता को भुला कर अपनी-अपनी ताकत झोंके हुए है। इतिहास गवाह है कि केंद्रीय बल हों चाहे केंद्रीय पर्यवेक्षक अथवा राष्ट्रीय मीडिया और अदालती निर्देश, बंगाल की राजनीतिक जमीन पर चुनावी हिंसा के आड़े कुछ भी नहीं आता। नब्बे के दशक में मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन इकलौते थे जिन्होंने यहां शांतिपूर्ण चुनाव करवाए, लेकिन वह बंगाल की राजनीतिक परंपरा में एक अपवाद ही कहा जाएगा।