मुझे बहुत रंज है, बहुत तकलीफ है इस बात की कि समाज की जिन परतों पर दरअसल वामपंथियों को काम करना चाहिए था- और वे परतें वाम का स्वाभाविक आधार थीं- और उन पर काम करके एक क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा किया जा सकता था, उन परतों पर वामपंथियों ने नहीं, बल्कि दक्षिणपंथियों ने काम किया, फासिस्टों ने काम किया। आज का जमाना सामूहिक राजनीति का जमाना है और समाज के विभिन्न समूह अपना राजनीतिकरण चाहते हैं। आप राजनीतिकरण नहीं करेंगे, तो दूसरे करेंगे। कम्युनिस्ट यह काम नहीं कर पाए और आरएसएस वालों ने यह काम कर दिखाया। कैसे कर दिखाया? आप सृजनशीलता की बात करते हैं लेकिन आपसे ज्यादा वह सृजनशील हैं। फासिस्ट आतंक भी सृजनशील हो सकता है। आरएसएस के बारे में मेरा कहना है कि जो मसला लेफ्ट दुनिया में कहीं भी हल नहीं कर पाया, वह हिंदुस्तान में आरएसएस ने कर दिखाया। बुर्जुआ डेमोक्रेटिक सिस्टम (पूंजीवादी जनवादी व्यवस्था) को उखाड़ फेंकने का काम वाम का था। उसके लिए वाम की रणनीति क्या थी? यह कि वह एक वैनगार्ड (हरावल) पार्टी होनी चाहिए थी, एक मास पार्लियामेंट्री पार्टी (आम जनता का संसदीय दल) होना चाहिए जो आपका राजनीतिक उपकरण हो, और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिए मोर्चे होने चाहिए। संगठन के यह तीन रूप हैं।
भारतीय वाम ने भी इन तीन रूपों मे अपना संगठन किया लेकिन वह इतना प्रभावशाली नहीं रहा जितना दक्षिणपंथियों और फासिस्टों ने कर दिखाया। आरएसएस उनकी वैनगार्ड पार्टी है, भाजपा आम जनता के संसदीय दल के रूप में उनका राजनीतिक उपकरण है और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिए उनके हर तरह के मोर्चे हैं- औरतों के, मर्दों के, अनपढ़ों के, पढ़े-लिखों के, मजदूरों के, सफेदपोशों के, सब तरह के और सब जगह आप इसे क्रियेटिव (सृजनशील) कह लें या डॉयबॉलिकल (शैतानी या राक्षसी), पर यह हुआ है और उन्होंने किया है। गुजरात में एक तरह से किया है तो कर्नाटक में दूसरी तरह से, उत्तर प्रदेश में तीसरी तरह तो पश्चिम बंगाल में चौथी तरह से, लेकिन किया है और इसी का नतीजा है गुजरात से उत्तर-पूर्व तक मध्य प्रदेश से होती हुई एक लकीर खिंच गई है आदिवासी आरएसएस की। जो लोग वाम के सहज-स्वाभाविक सहयोगी होने चाहिए थे वह दक्षिण के समर्थक और सहयोगी बन गए हैं। यह फासीवादी नाटक का पहला अंक है लेकिन यह बहुत बड़ा नाटक है जो होने जा रहा है। इसलिए मैंने कहा कि दलितों-आदिवासियों पर जो ज़ुल्म हुए हैं उनका पूरा एहसास तो उन्हें कराना चाहिए लेकिन उन्हें रोमेंटिसाइज नही करना चाहिए। उन्हें संगठित तो करना चाहिए पर रोमेंटिसाइज कभी नहीं करना चाहिए।
उपरोक्त उद्गार एजाज़ अहमद साहब के हैं, जो उन्होंने अपने लेख ‘‘सृजनशीलता हमेशा सामाजिक होती है’’ में व्यक्त किए हैं (नया पथ, एजाज़ अहमद अंक, जनवरी-जून 2022)। आज जब सामाजिक द्वेष की सीढ़ी लगाकर भारतीय दक्षिणपंथ पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता के शीर्ष पर जा बैठा है तब एजाज़ अहमद साहब की यह आलोचना किसी एक वामपंथी पार्टी की न होकर समस्त भारतीय वाम की है जिसमें संसदीय और गैर-संसदीय दोनों वाम शामिल हैं। उनकी इस आलोचना से हम बचकर नहीं निकल सकते इसलिए जरूरी है कि हम इस पीड़ा भरी आलोचना में उठाए गए उनके सवालों पर गहराई से विचार-विमर्श करें।
अगर हम गैर-संसदीय वाम की बात करें तो उससे आशय उस वाम से है जो सशस्त्र तरीके से व्यवस्था परिवर्तन करना चाहता है। यह वाम 1967 के बाद से अब तक की 55 साल की अवधि में भारत में एक बहुत ही छोटे से भौगोलिक क्षेत्र में अपनी पहचान बना सका है। पहले की तुलना में अब उसका यह क्षेत्र सिमटकर बहुत ही कम रह गया है। नक्सलवादियों-माओवादियों के नाम से जाने जाने वाले इन ग्रुपों में से अनेक संसदीय राजनीति में शामिल हो चुके हैं लेकिन जो शामिल नही हुए हैं उनकी राष्ट्रीय स्तर पर तभी चर्चा होती है जब वह किसी हिंसक गतिविधि को- जो आम तौर पर सुरक्षाबलों पर हमले के रूप में होती है- अंजाम देते हैं। इनकी भारतीय समाज के बारे में विश्लेषण पद्धति और शब्दावली में कोई नवीनता नहीं आई है यानि उन्होंने खुद को पूंजीवाद की तरह अपडेट नहीं किया है। जो गैर-संसदीय वाम, संसदीय रास्ते की ओर आया उसके पास जनता के बड़े हिस्से के बीच जाने, उन तक अपने विचारों को ले जाने के अवसरों की प्रचुरता मौजूद है।
संसदीय वाम ने आजादी के बाद एक विशेष अवधि में सामंतवाद के खिलाफ तेलंगाना में सशस्त्र प्रतिरोध की पहल की थी लेकिन भारी नुकसान उठाने के बाद उसने अपने इस कदम को वापस ले लिया और तब उसकी यह समझ बनी कि हैदराबाद का निज़ाम जो सामंत था उसकी कमजोर सेना से लड़ना आसान था लेकिन जब उस भारतीय सेना ने लड़ाई की कमान संभाल ली जो द्वितीय विश्वयुद्ध लड़ चुकी थी तो उससे जीतना मुमकिन नही था। इसलिए बजाय इसके कि खुद को समाप्त कर दिया जाय, व्यवस्था परिवर्तन का दूसरा रास्ता चुनना होगा। इस फैसले के बाद संसदीय वाम ने चुनाव में हिस्सा लिया और भारत के बड़े भूभाग पर शासन की बागडोर संभाली और एक प्रदेश में अब भी संभाले हुए है। इस वाम के पास पूंजीवादी लोकतंत्र में अपने दर्शन को जनता के व्यापक हिस्से तक ले जाने के लिए काफी अवसर हैं। इसके अलावा हिंसक रास्ते की तुलना में इस रास्ते में जोखिम भी बहुत ही कम है। 2008 तक भारत का संसदीय वाम राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था लेकिन जैसे ही उसने 2008 में कांग्रेस से अपना समर्थन वापस लिया उसकी इस स्थिति में बदलाव आना शुरू हो गया। 2011 में उसके हाथ से पश्चिम बंगाल निकल गया और उसके बाद 2018 में त्रिपुरा।
केरल चला जाए, उससे पहले…
बंगाल में वह 34 साल शासन में रहा जबकि त्रिपुरा में कुल मिलाकर 29 साल। पश्चिम बंगाल विधानसभा में सीपीएम की सीटें 2006 के चुनाव में 176 थीं, वह 2021 में शून्य रह गईं जबकि तृणमूल कांग्रेस की सीटें 30 से बढ़कर 2021 में 215 हो गईं। एनडीए की 2016 में सीटें शून्य से बढ़कर 3 व 2021 में 77 हो गईं। जहां तक मत प्रतिशत की बात है तो सीपीएम का 1977 से लेकर 2006 तक जो औसत मत प्रतिशत 37.28 रहा था वह 2021 में गिरकर केवल 4.71 प्रतिशत रह गया। तृणमूल कांग्रेस की बात हम छोड़ दें, तो जिस बीजेपी का 2006 में मत प्रतिशत शून्य था वह 2021 में बढ़कर 37.97 हो गया। केवल 15 साल की अवधि में बीजेपी, बंगाल विधानसभा में अपने शून्य मत प्रतिशत से शुरू करके उसे बढ़ाकर 37.97 प्रतिशत पर ले आई और इसी अवधि में अपनी सीटें शून्य से शुरू करके 77 पर पहुंचा दी। वह बीजेपी जिसकी 2009 के लोकसभा चुनाव में 1 सीट और मत प्रतिशत 6.14 था 2019 में 18 सीटें और मत प्रतिशत 40.7 हो गया जबकि सीपीएम जिसकी 2009 के लोकसभा चुनाव में 9 सीटें और मत प्रतिशत 33.1 था, 2019 में सीटें शून्य और मत प्रतिशत केवल 6.33 रह गया।
अगर हम त्रिपुरा विधानसभा के चुनाव पर नजर डालें तो जिस सीपीएम ने 2013 के चुनाव में 60 में से 49 सीटें और 48.11 मत प्रतिशत हासिल किए थे वह 10 साल की अवधि में ही घटकर 11 सीटें और मत प्रतिशत 24.62 रह गया। बीजेपी, जिसे 2013 के चुनाव में कोई सीट नहीं मिली थी और उसका मत प्रतिशत केवल 2.09 था उसने अगले चुनाव यानि 2018 में ही सीपीएम को हराकर अपना मत प्रतिशत 43.59 और सीटें शून्य से 36 कर लीं। हालांकि 2023 के चुनाव में उसकी सीटें घटकर 36 से 32 और मत प्रतिशत 38.97 रह गया लेकिन बहुमत आ जाने के कारण सत्ता उसी की बनी रही। त्रिपुरा में बीजेपी ने पेशेवराना तरीके से वामपंथी सरकार का मुख्य अंतर्विरोध ढूंढ लिया- वह था कर्मचारियों को दिया जाने वाला चौथा वेतन आयोग। देश में सातवां वेतन आयोग आ चुका था, लेकिन वहां चौथा ही लागू था इसलिए उसने सातवें वेतन आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने की घोषणा कर दी। इसका तुरंत असर हुआ। सरकारी कर्मचारियों की संख्या 1 लाख 72 हजार थी। अगर पांच का परिवार माना जाय तो वहां सरकारी वेतन पर निर्भर 8 लाख 60 हजार नागरिक हुए जबकि बीजेपी को 2018 के चुनाव में 10 लाख 25 हजार 673 वोट और सीपीएम को 9 लाख 92 हजार 575 वोट मिले। सातवां वेतन आयोग लागू करने की घोषणा से बीजेपी को पिछले चुनाव में जो 2.09 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे, वह एकदम से बढ़कर 43.59 प्रतिशत हो गए। बीजेपी ने सरकारी कर्मचारियों पर लगाए इस एक दांव से एक झटके में 41.5 पांच प्रतिशत वोट हासिल कर लिए। अगर समय रहते वाम खुद वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा कर देता तो परिणाम यह नहीं आते, लेकिन वाम सरकार कर्मचारियों को प्रदेश की आर्थिक स्थिति को समझाने में लगी रही जबकि कर्मचारियों के सामने बीजेपी की तरफ से इतनी बड़ी पेशकश थी जिसको वह किसी भी हालत में नजरअंदाज नही कर सकते थे। इसी वोट बैंक को बरकरार रखने के लिए बीजेपी ने 2023 के चुनाव से ठीक पहले 5 प्रतिशत महंगाई भत्ते की घोषणा की और कर्मचारियों के वोट फिर से बीजेपी की झोली में जा गिरे।
अब अगर केरल की बात करें, तो 2006 के केरल विधानसभा चुनाव में एनडीए का मत प्रतिशत 4.67 था जो 2016 में बढ़कर 14.65 हो गया। 2021 में मत प्रतिशत में गिरावट आई और वह 12.36 हो गया मगर बीजेपी के मतों में वृद्धि रही, हालांकि उसको एक भी सीट हासिल नहीं हुई लेकिन 2022 में बीजेपी के कार्यकर्ता क्रिसमस पर ईसाइयों के घर-घर पहुंचे और उन्हें गिफ्ट और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के फोटो बने क्रिसमस कार्ड दिए। ईस्टर के दिन 10 हजार बीजेपी कार्यकर्ता एक लाख ईसाई परिवारों से मिलने की योजना को अंजाम दे रहे थे। इसी तरह ईद पर मुस्लिमों से भेंट करने की योजना पर काम चल रहा है। बीजेपी का इरादा मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यकों में अपनी छवि को सुधारना है ताकि उनमें से जितने भी मुमकिन हों मत हासिल किए जा सकें। केरल में 40 साल से कम आयु के युवाओं में बीजेपी का रुझान बढ़ रहा है क्योंकि केरल में हिन्दुओं की तादाद 54.7 प्रतिशत है, इसलिए बीजेपी की योजना इनमें से 30 से 40 प्रतिशत को अपनी ओर लाने की है। केरल की लगभग 35 विधानसभाओं में बीजेपी का मत प्रतिशत 20 हो चुका है। केरल में हिन्दुओं में दो बड़े जाति-समूह है एझावा और नायर। नायर का वोट प्रतिशत 2006 में 11 प्रतिशत एनडीए को मिला था जो 2016 तक 33 प्रतिशत हो गया। एझावा, जो वाम का आधार वोट था उसका वोट एनडीए के पक्ष में 6 से बढ़कर उसी अवधि में 17, ईसाइयों का 1 प्रतिशत से बढ़कर 9 हो चुका है। मुस्लिमों में भी बीजेपी ने घुसपैठ की है- उसका भी वोट प्रतिशत 1 से बढ़कर 3 पहुंच चुका है। अगर वाम ने भाजपा की इस रणनीति के जवाब में अपनी चुनावी रणनीति को अपडेट नही किया तो जिस तरह पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के चुनाव परिणाम अप्रत्याशित थे उसी तरह आने वाले वर्षों में अगर वाम को हराकर बीजेपी सत्ता में आ जाती है या कांग्रेस के स्थान पर प्रमुख विपक्षी पार्टी बन जाती है तो इस पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए।
वाम मोर्चे में सबसे बड़ी पार्टी सीपीएम है। इतनी लम्बी अवधि तक सत्ता में बने रहने के बावजूद ऐसा किस तरह मुमकिन हुआ कि एक प्रदेश की विधानसभा और लोकसभा में उसे एक भी सीट नही मिल पाई और दूसरे प्रदेश में विधानसभा की केवल 11 सीटें रह गईं? 1925 में नागपुर में जन्मी आरएसएस ने इन बीते 89 सालों में आखिर ऐसी कौन सी रणनीति अपनाई कि उसके राजनीतिक मोर्चे भाजपा ने 2014 में आकर भारत की केन्द्रीय सत्ता पर कब्जा कर लिया जबकि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी जिसकी विधिवत स्थापना उसी वर्ष 1925 में कानपुर में हुई थी जिस वर्ष आरएसएस का जन्म हुआ और वह आजादी के बाद के चुनाव में कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी पार्टी थी, लेकिन ऐसी पार्टी इसी अवधि में भारत की केन्द्रीय सत्ता तक पहुंचने के बजाय अपने दो प्रदेश भी गंवा बैठी? ऐसा कैसे मुमकिन हुआ? इस अतिमहत्वपूर्ण सवाल का एक जवाब तो एजाज़ अहमद साहब देते हैं और दूसरा जवाब हमें इटली के कम्युनिस्ट नेता एन्तोनियो ग्राम्शी की जेल डायरी से मिलता है। 1980 के दशक के मध्य तक एक-तिहाई दुनिया वामपंथी विचारों के प्रभाव में थी, फिर ऐसा क्या हुआ कि वह आज केवल पांच देशों (चीन, क्यूबा, लाओस, वियतनाम, उत्तरी कोरिया) तक सिमट कर रह गई? इसका जवाब भी एन्तोनियो ग्राम्शी के विचारों में मिल जाता है।
एजाज़ और ग्राम्शी
वह कहते हैं कि समाज की जिन परतों पर वाम को काम करना था और जो वाम का स्वाभाविक आधार थीं। उन पर वाम ने नहीं, दक्षिणपंथियों, फासिस्टों ने काम किया। वह समाज की जिन परतों की बात कर रहे हैं उससे उनका आशय मजदूर वर्ग से नहीं है क्योंकि मजदूरों में तो वाम ने काम किया है। उनका आशय अनुसूचित जाति/जनजातियों, पिछड़ा वर्ग और आदिवासियों से है, जिन पर काम करके एक क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा किया जा सकता था लेकिन वाम यह काम नहीं कर पाया। उनका कहना था कि आज का जमाना सामूहिक राजनीतिकरण का है और समाज के विभिन्न समूह अपना राजनीतिकरण करना चाहते हैं यानि राजनीति में अपने जाति-समूह के आधार पर अपना प्रतिनिधित्व चाहते हैं। इस काम को वाम को करना था लेकिन उसके न करने पर इस काम को दक्षिणपंथ ने किया। उसने धर्म के नाम पर उन्हे गोलबंद किया और जाति के आधार पर चुनाव में दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों को टिकट दिए और जब वह जीतकर शासन में पहुंचे तो उनसे अपने वर्गीय हित में काम कराया। लोकसभा में अनुसूचित जाति/जनजाति के आरक्षण से पहुंचे 131 सांसद हैं लेकिन वहां वह अपनी जाति के पक्ष में नहीं बल्कि पूंजीपति वर्ग के हित में काम कर रहे हैं। राजनीतिकरण का यही काम अगर वाम करता तो वह भी संसद में मेहनतकश वर्ग के पक्ष में उनसे काम करा सकता था। वाम ने जाति के महत्व को कम करके आंका और यहीं उनसे चूक हो गई, हालांकि अब आकर सीपीएम ने दलित शोषण मुक्ति मंच के नाम से जाति संगठन बनाकर उस चूक को सुधारने की कोशिश की है।
एजाज़ अहमद साहब कहते हैं कि पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था को उखाड़कर समाजवादी व्यवस्था को लाने का काम वाम का था, लेकिन वाम पूरी दुनिया में यह नहीं कर पाया बल्कि इस काम को भारत में आरएसएस ने कर दिखाया। उसने पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था को लगभग उखाड़ दिया है और अब उसके स्थान पर हिन्दू राष्ट्र बनाने के अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है। पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था को उखाड़ने के लिए एक संगठन की जरूरत होती है और वह संगठन तीन मोर्चों पर एक साथ काम करता है। एक उसका हरावल दस्ता होता है जो नेतृत्व करता है। दूसरा आम जनता का संसद-विधानसभा में प्रतिनिधित्व करने वाला राजनीतिक दल और तीसरा समाज के हर क्षेत्र में सक्रिय उसके जनसंगठन। वाम ने इन तीनों मोर्चों पर काम तो किया लेकिन वह उतना प्रभावशाली नहीं रहा जितना दक्षिणपंथियों और फासिस्टों ने किया।
अब हम उस बेहद अहम सवाल पर आते हैं जो आज भी हमारे सामने उसी तरह मौजूद है जैसा 1917 की सोवियत संघ में हुई क्रांति के बाद के वर्षों में एन्तोनियो ग्राम्शी के सामने मौजूद था। यह सवाल था कि कार्ल मार्क्स के अनुसार जिन देशों में पूंजीवाद का विकास होगा वहां शोषण अपने चरम पर पंहुच जाएगा और तब वहां मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी क्रांति होगी, लेकिन रूस में हुई इस क्रांति के बाद यूरोप के विकसित पूंजीवादी देशों में मजदूरों के भयंकर शोषण के बाद भी वहां क्रांति क्यों नहीं हुई? लेनिन ने इस बारे में लिखा कि इसका कारण अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमरीका के उपनिवेशों में किया जाने वाला शोषण है जिसका हिस्सा यूरोप में आ रहा है। जब उपनिवेशों के संसाधन खत्म हो जाएंगे तब यूरोप के पूंजीपति अपने देश के लोगों का शोषण करेंगे जिससे वहां क्रांति होगी- लेकिन उपनिवेशों के आजाद हो जाने के बाद भी यूरोप में क्रांति नही हुई। आज भी हम देखें तो लैटिन अमरीका, अफ्रीकी महाद्वीप और एशिया के देशों में मेहनतकश जनता का शोषण अपने चरम पर होने के बावजूद वहां कहीं भी समाजवादी क्रांति नहीं हो रही। दुनिया में लाओस वह आखिरी देश है जो 1975 में कम्युनिस्ट बना, इसके बाद आधी शताब्दी बीत चुकी है लेकिन अब तक किसी भी देश में कम्युनिस्ट क्रांति नहीं हो पाई है। विकसित, विकासशील और अल्पविकसित पूंजीवादी देशों में पूंजीवाद खुद को किस तरह समाजवादी क्रांति से सुरक्षित रख पाया, इसका जवाब एन्तोनियो ग्राम्शी देते हैं।
ग्राम्शी ने इसका कारण जेल में रहकर ढूंढ निकाला। उन्होंने लिखा कि पूंजीवाद अब जनता पर दमन के बल पर शासन नहीं करता बल्कि उनके दिमाग पर कब्जा करके उनकी सहमति हासिल करके शासन करता है। कार्ल मार्क्स ने समाज का विश्लेषण आर्थिक आधार (उत्पादन के साधनों का स्वामित्व) और अधिरचना (ऊपरी ढांचा यानि सुपरस्ट्रक्चर) के रूप में किया। उन्होंने बताया कि समाज में उत्पादन के साधनों (सामंती व्यवस्था में जमीन और पूंजीवादी व्यवस्था में मशीन यानि उद्योग) पर जिस वर्ग का कब्जा होगा उस समाज का ऊपरी ढांचा उसके हितों के लिए काम करेगा। ऊपरी ढांचा से उसका आशय राजनीतिक, न्यायायिक, धार्मिक और सांस्कृतिक संस्थाओं से है। मार्क्स का कहना था अगर आर्थिक आधार बदल दिया जाय अर्थात उत्पादन के साधनों पर मेहनतकश वर्ग का कब्जा हो जाय तो सुपरस्ट्रक्चर उसके अनुसार अपने आप बदल जाएगा और वह मजदूर वर्ग के हित में काम करने लगेगा। इस तरह मार्क्स ने बेस यानि आधार को प्रमुख महत्व दिया। ग्राम्शी ने मार्क्स के इस विचार में अपने अनुभव को शामिल करते हुए कहा कि यह सही है कि बेस महत्वपूर्ण है लेकिन उसके ऊपर खड़ा सुपरस्ट्रक्चर भी उतना ही महत्वपूर्ण है। यह सुपरस्ट्रक्चर केवल आर्थिक आधार बदलने से अपने आप नहीं बदलेगा बल्कि इसे कल्चरल हेजेमनी कायम करके बदलना होगा। ग्राम्शी ने जनता के दिमाग में स्थापित पूंजीवादी मूल्यों, विश्वासों, धारणाओं को बदलने और उनके स्थान पर समाजवादी मूल्यों को स्थापित करने के लिए सांस्कृतिक आधिपत्य का विचार दिया।
ग्राम्शी ने बताया कि पूंजीवाद जनता के दिमाग पर सांस्कृतिक आधिपत्य क़ायम करने के लिए सिविल सोसायटी की संस्थाओं का इस्तेमाल करता है। सिविल सोसायटी यानि नागरिक समाज की इन संस्थाओं को मुख्य तौर पर चार भागों में बांट सकते हैं: 1. परिवार, 2. शिक्षा, 3. धर्म, 4. मीडिया। ग्राम्शी ने आर्गेनिक इन्टेलेक्चुएल नामक एक और श्रेणी की चर्चा की। उसने बताया कि पूंजीवाद, नागरिक समाज की संस्थाओं में मौजूद अपने आर्गेनिक इन्टेलेक्चुएल यानि संगठनकारी बुद्धिजीवियों के माध्यम से पूंजीवादी मूल्यों, धारणाओं और विश्वास को जनता के दिमाग में बैठाता रहता है और इस तरह यह बुद्धिजीवी पूंजीवादी व्यवस्था के पक्ष में जनसहमति तैयार करते हैं। यह लोग अख़बारों-पत्रिकाओं में लेखों, भाषणों, धार्मिक प्रवचनों, फ़िल्मों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा प्रचार के समस्त साधनों यहां तक कि खेल के द्वारा भी पूंजीवादी व्यवस्था की तारीफ और समाजवादी व्यवस्था की बुराई करते रहते हैं।
यह पूंजीवादी आर्गेनिक इन्टेलेक्चुएल धर्मगुरु, अर्थशास्त्री, अभिनेता, संस्कृतिकर्मी, लेखक, खिलाड़ी, राजनेता आदि हो सकते हैं। ग्राम्शी ने बताया कि मेहनतकश वर्ग को जनता के दिमाग पर अपना सांस्कृतिक आधिपत्य कायम करना होगा और यह काम उसके अपने आर्गेनिक इन्टेलेक्चुएल करेंगे। यह कारखानों के सुपरवाइजर, मजदूर संगठनों के नेता, पत्रकार, साहित्यकार, अध्यापक, सामाजिक कार्यकर्ता और समाज के शोषित वर्ग के पक्षधर दूसरे वर्ग से आए बुद्धिजीवी होंगे। वह जनता के दिमाग में जो पूंजीवादी, सामंती, मूल्य, विश्वास और धारणाएं बैठी हुई हैं उनको हटाकर उसके स्थान पर अपने सांस्कृतिक मूल्य स्थापित करेंगे। दुनिया भर में पूंजीवाद ने सिविल सोसायटी की संस्थाओं के माध्यम से अपने विचारों के प्रति जनसहमति का निर्माण किया है। परिवार, शिक्षण संस्थाएं, धार्मिक संस्थाएं और संचार माध्यम उसके पक्ष में प्रचार करने और लोगों का दिमाग बनाने के काम पर दिन-रात लगे रहते हैं। वामपंथ ने इस काम को प्राथमिकता के आधार पर नहीं किया इसलिए वह पिछड़ गया।
भारत में यह कैसे मुमकिन हुआ कि आरएसएस इतना शक्तिशाली हो गया? कैसे उसने जनता के बड़े हिस्से के दिमाग पर अपना वैचारिक आधिपत्य कायम कर लिया? जैसा कि ग्राम्शी ने सिविल सोसायटी की मुख्यतः चार संस्थाओं को सांस्कृतिक आधिपत्य क़ायम करने का माध्यम बताया था- पहली संस्था परिवार, दूसरी शिक्षण संस्थाएं, तीसरी धर्म और चौथी मीडिया- तो अब हम इस बात की जांच करें कि वाम और आरएसएस का इन संस्थाओं में क्या काम और प्रभाव है।
सिविल सोसायटी से गायब वाम
सबसे पहले हम परिवार नामक संस्था को लेते हैं। वाम ने परिवार के लिए कभी कोई योजना नहीं बनाई। वाम के एजेन्डे में परिवार बतौर एक महत्वपूर्ण संस्था कभी नहीं रहा इसलिए अपनी किसी गोष्ठी में, पार्टी की मीटिंग में परिवार को एक शक्तिशाली संस्था मानकर उसने कभी महत्व नहीं दिया। इसका यह नतीजा सामने आया कि परिवार पर वाम का कोई प्रभाव नहीं है। इसके विपरीत परिवार की उपेक्षा करने से परिवार उनसे असंतुष्ट रहने लगा। परिवार के वयस्क सदस्य सिविल सोसायटी की संस्थाओं के प्रभाव में आकर पूंजीवादी-सामंती मूल्यों के वाहक बनते रहते हैं और अपने विचारों को अपनी अगली नस्ल को अग्रसारित करते हैं। परिवार पर सबसे ज्यादा प्रभाव धार्मिक पुरोहित वर्ग का होता है जो धार्मिक कर्मकांडों, संस्कारों के माध्यम से उससे सम्पर्क बनाए रखता है। यह सभी धर्मों में पाया जाने वाला पुरोहित वर्ग, वाम को धर्मविरोधी मानकर उसका विरोधी होता है और यथास्थितिवाद व पूंजीवाद के पक्ष में मानसिकता बनाता रहता है। आरएसएस हिन्दुओं के परिवार से पुरोहित वर्ग और धार्मिक आयोजनों के माध्यम से जुड़ा रहता है।
अब हम दूसरी संस्था शिक्षा पर आते हैं। आरएसएस ने शिशु मन्दिरों के माध्यम से स्कूलों का पूरे देश में जाल सा बिछा दिया। उसके शिशु मन्दिर से उसकी विचारधारा को लेकर निकले छात्र शासन, प्रशासन, न्यायपालिका, पुलिस, सेना, व्यापार, चिकित्सा, कानूनी सेवा आदि सभी स्थानों पर जा बैठे। आरएसएस के शिक्षा के क्षेत्र में आने से उसको अपने शिशु मन्दिर तथा अन्य शिक्षण संस्थानों में पढ़ाने वाले अध्यापकों की बिना परिश्रमिक के पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की एक फ़ौज मिल गई। आज हम देखें तो उसने प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कराने वाली शिक्षण संस्थाओं में भी अपनी पकड़ मजबूत बना ली है और उसमें पढ़ाने वाले आरएसएस की सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विचारधारा का प्रचार करते नजर आते हैं। वाम के नेतृत्व ने इस पर ध्यान नहीं दिया कि उनके विरोधी के इस काम से उनको भविष्य में किस तरह की चुनौती मिलने वाली है। इस क्षेत्र को महत्वहीन समझकर या व्यापार का क्षेत्र मानकर ही उसने इस क्षेत्र में आने की कोशिश नहीं की और उसका नतीजा आज हमारे सामने है।
वाम ने धर्म नामक संस्था को अंधविश्वास और अज्ञान का क्षेत्र मानकर आस्थावान लोगों को कमतर समझते हुए न केवल इसका मखौल उड़ाया बल्कि यह जानते हुए भी इसमें मेहनतकश जनता की बड़ी तादाद मौजूद है इसको अछूत मानते हुए खुद को इससे अलग-थलग कर लिया। इस तरह यह पूरा मैदान उन्होंने आरएसएस के लिए खाली छोड़ दिया। वाम के ऐसा करने से दक्षिणपंथी आरएसएस के सामने इस क्षेत्र में अब कोई चुनौती ही नहीं थी। आपने देखा होगा कि चुनाव से पूर्व ऐसे धार्मिक आयोजनों की बाढ़ सी आ जाती है और धार्मिक आयोजनों में प्रवचन देने वाले कथावाचक बीच-बीच में टिप्पणी करके चुनाव के समय भाजपा के पक्ष में जनता की राय का निर्माण करने लगते हैं। त्योहारों पर सांस्कृतिक/धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन करने, उनमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने से उनका घनिष्ठ जुड़ाव जनता से बना रहता है जबकि ऐसे कार्यक्रमों/आयोजनों को वाम हेय दृष्टि से देखते हुए इनसे अलगाव बनाए रखता है। वामपंथी सोच के जो लोग सोशल मीडिया पर धर्म का मखौल बनाने में लगे रहते हैं उनको अपनी अब तक की कोशिशों का आलोचनात्मक विश्लेषण करना चाहिए कि वह अपने आसपास के या अपने परिवार के कितने लोगों को धर्मविमुख कर पाए और कितनों को वाम विरोधी।
ग्राम्शी ने आर्गेनिक बुद्धिजीवियों की श्रेणी में परम्परागत बुद्धिजीवियों को भी रखा है। यह लोग पुरानी सामंती व्यवस्था के आर्गेनिक बुद्धिजीवी होते हैं जिनका धर्म के क्षेत्र में अच्छा प्रभाव होता है। इनमें से कुछ नई पूंजीवादी व्यवस्था से खिन्न होते हैं इसलिए वामपंथियों को इनसे भी सम्पर्क करना चाहिए और उन्हे अपने पक्ष में लाने की कोशिश करनी चाहिए।
अब हम मीडिया पर आते हैं। भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के शुरुआती वर्षों में इस पर महत्वपूर्ण काम किया गया। प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा जैसे सांस्कृतिक संगठनों ने मीडिया में अच्छी पकड़ बनाई। ब्लिट्ज जैसे साप्ताहिक जनपक्षीय अखबारों ने वाम के पक्ष में जनसहमति बनाने का काम किया। सोवियत संघ से आने वाली पुस्तकों, उनकी प्रदर्शनी के आयोजनों, पीपीएच जैसे प्रकाशन, साहित्यिक संगठनों, पत्रिकाओं ने इस काम को विस्तार दिया। वाम संस्कृतिकर्मियों ने इसमें काफ़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और कुर्बानियां दीं लेकिन सोवियत संघ के 1991 में विघटन के बाद जो निराशा और हताशा का वातावरण पैदा हुआ इस काम में कमी आती चली गई। कम्युनिस्ट पार्टियों में युवाओं की आमद शिथिल पड़ने लगी। उम्रदराज पार्टी कार्यकर्ता निराशा, ऊब, सुस्ती और थकान से भर उठे। भाजपा ने जनता पार्टी के शासन में बहुत सोच-समझकर सूचना एवं प्रसारण मंत्री का पद संभाला और मीडिया में अपनी विचारधारा के लोगों को प्रवेश दिलाया। वाम को भी एक बार यह अवसर मिला था जब ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव था तथा दूसरी बार 2004 में जब वाम ने बाहर से कांग्रेस को समर्थन दिया। इस अवसर का उपयोग मीडिया व अन्य महत्वपूर्ण विभागों/मंत्रालयों में अपनी विचारधारा के लोगों को प्रवेश दिलाने में हो सकता था लेकिन वाम ने इसे गंवा दिया जबकि आरएसएस ने ऐसे किसी भी अवसर को हाथ से जाने नहीं दिया।
भाषा और मीडिया
संचार माध्यम के क्षेत्र में इन्टरनेट और सोशल मीडिया का आना एक बहुत बड़ी सूचना क्रांति का होना था। पूंजीवाद ने इसका अविष्कार हालांकि बाजार के लिए किया था लेकिन जल्द ही उसको यह अहसास हो गया कि इस हथियार का इस्तेमाल राजनीति में किया जा सकता है। ग्राहक को दूसरे उत्पाद से हटाकर अपने उत्पाद की ओर लाने के लिए जो प्रचार और विज्ञापन मनोविज्ञान का इस्तेमाल किया जा रहा था उसको मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए होने लगा। भारत में भाजपा ने डिजिटल पॉलिटिकल मार्केटिंग की इस तकनीक को सबसे पहले इस्तेमाल करना शुरू किया। यह कोई हैरानी की बात नहीं होगी कि 2014 का चुनाव बीजेपी ने प्रचार की इसी आधुनिक तकनीक के बल पर जीता। प्रचार के इस हथियार की मारक क्षमता बहुत दूर तक है लेकिन वाम इस मामले में पिछड़ गया। कम्युनिस्ट पार्टियों में उम्रदराज लोगों की तादाद अधिक होने के कारण वह प्रचार के परम्परागत तरीकों से चिपटे रहे और सोशल मीडिया की नई तकनीक से अपना मानसिक तालमेल नहीं बैठा पाये। अगर आप सरकार चला रहे हैं तो किसी परियोजना को शुरू करने से पहले उसके प्रति प्रचार के द्वारा जनसहमति बनाना जरूरी है लेकिन पश्चिम बंगाल में वाम ने खुद पर अतिविश्वास के चलते इस काम को नहीं किया, जिसके नतीजे में सिंगूर और नंदीग्राम में वाम को विफलता का सामना करना पड़ा। अगर वाम इन परियोजनाओं से पहले उनके पक्ष में धुआंधार प्रचार करता तो ऐसी स्थिति नहीं बनती। ऐसा ही पश्चिम बंगाल में मुसलमानों के मामले में हुआ। सच्चर कमेटी में बैठे अर्थशास्त्री अबुसालेह शरीफ ने अपने पूर्वाग्रह और पुराने आंकड़ों के आधार पर रिपोर्ट में यह लिख दिया कि पश्चिम बंगाल के मुसलमान हर क्षेत्र में अन्य राज्यों से भी खराब हालत में हैं जबकि वाम मोर्चे की सरकार ने मुस्लिमों के लिए बाकी राज्यों की तुलना में बेहतर काम किया था। इसके अलावा वाम का सबसे बड़ा काम 34 साल में साम्प्रदायिकता को हाशिये पर रखना था लेकिन इस प्रचार को वाम विरोधी मुस्लिम संगठनों ने खूब फैलाया और 2011 के विधानसभा चुनाव में इससे वाम को नुकसान हुआ। समय रहते अगर वाम इस प्रचार का युद्धस्तर पर जवाब देता तो हालत ऐसी नहीं होती।
आरएसएस और उसके राजनीतिक मोर्चे भाजपा ने केन्द्रीय सत्ता में आने से पहले न केवल मुख्यधारा के राष्ट्रीय चैनलों यहां तक कि बॉलावुड की फिल्मों को अपने प्रभाव में ले लिया बल्कि सोशल मीडिया पर जबरदस्त उपस्थिति दर्ज कराई। यूटयूब पर सैकड़ों चैनल चाहे वह ज्योतिष, अध्यात्म, सिविल सर्विस कम्पटीशन, योग-स्वास्थ्य और चिकित्सा, वैवाहिक आदि के हों सब भाजपा के पक्ष में जनसहमति निर्माण करते नजर आते हैं। सोशल मीडिया पर मौजूद इन्फ्लूएन्सर का कुशल प्रबंधन बीजेपी के मीडिया मैनेजर करते हैं और उनमें से अधिकांश अपने फॉलोअर के बीच बीजेपी का प्रचार करते नजर आते हैं। कहते हैं कि बीजेपी ने अपने व्हाट्सअप ग्रुप से 18 करोड़ लोगों को जोड़ रखा है। उसका आइटी सेल इनका प्रबंधन करता है। जो सामग्री वह तैयार करता है उसका ईको सिस्टम सब जगह फैलाने की क्षमता रखता है। वह नए नैरेटिव गढ़ता है और लोग उसमें इस या उस ओर से होने वाली बहस में उलझ जाते हैं। वाम के हाथ से पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा निकलने के पीछे उसकी सोशल मीडिया पर कम उपस्थिति और उसका प्रचार प्रबंधन और प्रचार के पुराने तौर-तरीके हैं। प्रोपेगेन्डा की एक तकनीक नेमकॉलिंग होती है जिसमें अपने विरोधी को नाम दिया जाता है। बीजेपी आइटी सेल ने जेएनयू घटना के समय टुकड़े-टुकड़े गैंग नाम दिया, एक चैनल ने पंच मक्कार के नाम से पूरी सीरिज प्रचारित की, जहरीला वामपंथ नाम से किताब प्रकाशित हुई लेकिन वाम का कोई भी सांस्कृतिक मोर्चा इस टक्कर का नाम आरएसएस या बीजेपी को नही दे पाया बल्कि ऐसे नाम दिए गए जो बजाय बीजेपी की छवि घूमिल करने के उसको लाभ पहुंचा रहे हैं, जैसे हिन्दुत्ववादी, भगवाधारी आदि। यह नाम उसे हिन्दू और हिन्दू संस्कृति का पक्षधर होने का प्रमाणपत्र देते हैं।
आरएसएस ने सोशल मीडिया का इतना बेहतर तरीके से इस्तेमाल किया कि अब अगर वह शाखाएं नहीं भी लगाए तो उसकी सोशल मीडिया पर लाखों शाखाएं 24 घंटे सातों दिन लग रही हैं जिन पर उनके बौद्धिक लगातार चल रहे हैं। इस तरह बिना आरएसएस में शामिल हुए भी लोग उसकी विचारधारा को प्रचारित कर रहे हैं जबकि वामपंथी पार्टियों की शाखाएं डीसी से डीसी लगती हैं। आमतौर पर केन्द्र से आने वाले प्रोगामों को ही राज्य और जिला कमेटियां (डीसी) अमल में लाती रहती हैं। उनमें स्वयं पहल करने की आदत खत्म हो गई है।
वाम ने सोशल मीडिया का अभी तक योजनाबद्ध होकर बतौर हथियार इस्तेमाल नहीं किया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के यूटयूब पर एक करोड़ सब्स्क्राइबर हैं लेकिन सीपीएम/सीपीआइ/सीपीआइ(एमएल)-लिबरेशन का आधिकारिक राष्ट्रीय यूटयूब चैनल मौजूद तो हैं लेकिन उनके सब्सक्राइबर और उस पर वीडियो बहुत कम पड़े हैं। जैसे सीपीआइएम स्पीक के 9360 सब्सक्राइबर हैं और उस पर 451 वीडियो हैं। सीपीआइ के 1270 सब्सक्राइबर और 94 वीडियो हैं जबकि सीपीआइ (एमएल) के 5880 सब्सक्राइबर और 178 वीडियो हैं। हां, सीपीआइएम पश्चिम बंगाल के 1 लाख 80 हजार सब्सक्राइबर और 8400 वीडियो हैं तो केरल सीपीआइएम के 1 लाख 47 हजार सब्सक्राइबर और 1300 वीडियो हैं। इनसे उलट, बीजेपी के 46 लाख सब्सक्राइबर और 33 हजार वीडियो पड़े हुए हैं। भारतीय जनता पार्टी के कई नेताओं के राष्ट्रीय यूटयूब चैनल हैं। कांग्रेस का भी नेशनल चैनल है। सपा का भी है। अखिलेश का अलग है, लेकिन वाम की बड़ी पार्टियों के किसी केन्द्रीय नेता के यूटयूब चैनल नहीं हैं। हालांकि सोशल मीडिया पर वाम की उपस्थिति बढ़ी है लेकिन वह सुनियोजित नहीं है। आधे मन से इस मोर्चे पर काम करने का नतीजा है कि वाम लोगों की आम राय बनाने वाले सूचना के इस हैरतअंगेज हथियार को इस्तेमाल नहीं कर पा रहा है।
मशहूर लेखक युवाल नोआह हरारी ने अपनी किताब होमो डियस में लिखा है कि आज के दौर की तकनीकी क्रांति से दो वर्ग पैदा हो रहे हैं। एक वह, जो इस सूचना और डेटा विज्ञान का माहिर है और दूसरा वह जो इस मामले में पिछड़ गया है। आने वाली शताब्दी में पहला वाला वर्ग दूसरे वर्ग को गुलाम बना लेगा।
बहुसंख्यक आम जनता तक बात पहुंचाने का माध्यम भाषा होती है, लेकिन जिस भाषा का इस्तेमाल वाम करता है वह सामान्य लोगों की भाषा नहीं है। वाम की चाहे प्रकाशित सामग्री हो या बातचीत उसमें क्लिष्ट वामपंथी शब्दावली की भरमार होती है जो आम लोगों की समझ में नहीं आती इसलिए बुर्जुआ, सर्वहारा, साम्राज्यवाद, साम्यवाद, फासीवाद, संशोधनवाद, शोषण आदि शब्दों के ऐसे पर्यायवाची ढूंढने होंगे जो आम जनता की समझ में आते हों। वाम के सांस्कृतिक मोर्चे पर काम कर रहे लेखक संघों के साहित्यकारों की भाषा एक खास सम्भ्रांत शहरी शिक्षित वर्ग की समझ में आती है जिसकी तादाद अधिक नहीं है। उसमें बौद्धिकता जरूर है लेकिन प्रस्तुति में रोचकता नहीं होने के कारण सामान्य लोगों को प्रभावित नही कर पाती। मिसाल के तौर पर राजेश जोशी की एक कविता यूट्यूब पर पड़ी है जिसका शीर्षक है ‘मेरा टेलीफोन नम्बर बदल गया’’- उसको चार साल में 1597 लोगों ने देखा और 45 लोगों ने लाइक किया है। इसके उलट भोजपुरी की गायिका नेहा सिंह राठौर जिसने सामान्य लोगों की समस्याएं अपने गीतों में उठाई हैं उसके गीत, ‘घटल बा कमाई बढ़ल जाता महंगाई’ को 9 दिन में 3 लाख 27 हजार लोगों ने देखा और 13 हजार ने लाइक किया।
एक और मिसाल सहमत द्वारा 12 अप्रैल 2023 को मनाए गए नेशनल स्ट्रीट थेटर डे के पोस्टर से लेते हैं, जिसमें चित्र के तौर पर जतिन दास की पेन्टिंग को लगाया गया है। यह पेन्टिंग किसी आर्ट गैलरी में प्रदर्शन के लिए सही है लेकिन आम जनता के बीच किए जाने वाले नुक्कड़ नाटक की सूचना देने वाले पोस्टर में इस तरह की पेन्टिंग का कोई लाभ नहीं, जिसको समझने के लिए नुक्कड़ पर खड़े आदमी को ज़ेहन पर जोर देना पड़े और तब भी उसकी समझ में उसका साफ मतलब न आए1 पिकासो की पेन्टिंग ‘गुएर्निका’ हर एक की समझ में आने वाली नहीं है इसलिए उसका हर जगह इस्तेमाल नहीं हो सकता। नेट पर ऐसी हजारों पेन्टिंग मौजूद हैं जो सीधी बात कहती हैं या आम आदमी की संवेदनाओं को सीधे झकझोर सकती हैं, उनमें से किसी को चुनने के स्थान पर ऐसे दुरूह मॉडर्न आर्ट को लगाना उस मानसिक खाई को बताता है जो महानगरीय सम्भ्रांत वर्ग और सड़क के आम आदमी के बीच मौजूद है।
कम्युनिस्ट पार्टियां अपने मुखपत्र प्रकाशित करती हैं लेकिन उन पत्रों की भाषा रोचक नहीं होती तथा उसमें अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद आम तौर पर भावानुवाद नहीं होते इसलिए ज्यादातर लोग उसकी हेडलाइन पढ़कर छोड़ देते हैं। उनका गेटअप भी आकर्षक नही होता। मिसाल के तौर पर, पार्टी सदस्य लोकलहर को मंगा तो लेते हैं लेकिन प्रभात पटनायक जैसे विद्वानों के लेखों का सरल अनुवाद नहीं होने के कारण बहुत कम लोग उसे पढ़ते हैं। जो पढ़ते भी हैं तो उसको समझने में उनको दिक्कत आती है।
सवाल सांस्कृतिक है
बीजेपी का बहुत बड़ा आधार दलित, पिछड़े और आदिवासी हैं। उन तक अपने संदेश बीजेपी और आरएसएस कैसे पहुंचाती है, उसको जानने के लिए आपको कांवड़ यात्रा में बजने वाले गीतों को सुनना होगा। कथावाचकों की शैली का अध्ययन करना होगा। उस सरल और रोचक भाषा शैली और प्रस्तुति का नाटकीय अंदाज अपनाना होगा जो आम जनता की समझ में आसानी से आ सके।
ग्राम्शी जिस कल्चरल हेजेमनी की बात करता है यानि जनता के दिमाग पर सांस्कृतिक आधिपत्य कायम करना- उसके लिए पूंजीवाद जिन सिविल सोसायटी की संस्थाओं का इस्तेमाल करता है उनमें से परिवार, शिक्षा, धर्म और मीडिया पर वाम का प्रभाव नहीं है। यही कारण है कि भारत ही नहीं पूरी दुनिया में वह पूंजीवाद से पिछड़ रहा है। दुनिया भर के 90 प्रतिशत संचार माध्यमों पर पूंजीवादी कब्जा होने का नतीजा है कि वह बच्चों के वीडियो गेम, कार्टून फिल्मों, हॉलीवुड से बनने वाली युद्ध फिल्मों सभी के द्वारा पूंजीवादी व्यवस्था के पक्ष और समाजवादी व्यवस्था के विरुद्ध जनसहमति निर्माण करता रहता है। इसका हल यही है कि वाम ने सिविल सोसायटी के जिन क्षेत्रों को पूंजीवाद के लिए खाली छोड़ दिया है उसपर अभी से काम शुरू किया जाय। एक दीर्घकालीन और एक अल्पकालीन योजना बने।
जिस तरह पुरानी हवेली जिसका रंगरोगन फीका पड़ गया है, पलस्तर जगह-जगह उखड़ रहा है, ऐसी हवेली न उसमें रहने वालों और न बाहर वालों को आकर्षित करती है, कुछ इसी तरह राजनीतिक पार्टी का हाल हो जाता है। इसलिए उसको फिर से रंगरोगन, मरम्मत और सजावट करने की जरुरत पड़ती है। बिना जनता को पार्टी के विचारों की ओर आकर्षित किए उनके दिमाग पर सांस्कृतिक अधिपत्य कायम नहीं किया जा सकता और बिना सांस्कृतिक आधिपत्य को कायम किए आप न पूंजीवाद और न ही फासीवाद को हरा सकते हैं।
(इस लेख को विस्तार से ‘उद्भावना’ पत्रिका के ताजा अंक में पढ़ा जा सकता है, जहां से यह साभार लिया गया है)