महाराष्ट्र में पिछले साल उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली महाविकास अघाड़ी सरकार गिराए जाने में राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की भूमिका पर सुप्रीम कोर्ट ने बीते हफ्ते जो सुनवाई की और फैसला दिया है, उसमें राज्यपालों के अधिकार क्षेत्र पर टिप्पणी के अलावा एक और आयाम था जिस पर बहुत चर्चा नहीं हो सकी। फैसले के इस दूसरे हिस्से में बार-बार एक नाम आता रहा, नबाम रेबिया का, और इससे संबंधित सुप्रीम कोर्ट के 2016 में दिए फैसले को सात जजों वाली संविधान पीठ को रेफर करने की बात आई थी।
नबाम रेबिया अरुणाचल प्रदेश के एक जीते-जागते नेता हैं जो सात साल पहले असेंबली के स्पीकर हुआ करते थे। ऐसा कम ही होता है कि किसी के जीते जी उसके नाम से किसी मुकदमे को जाना जाए और संवैधानिक संकट से जुड़े मामलों में उस व्यक्ति के नाम से मुकदमे का संदर्भ दिया जाए। इस मामले में नबाम रेबिया खुशकिस्मत हैं।
यह कहानी हालांकि नबाम रेबिया की नहीं, उनके किए मुकदमे पर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अरुणाचल प्रदेश में हुए घटनाक्रम की है जो एक पूर्व मुख्यमंत्री की मौत का बायस बनी। विडम्बना ही है कि नबाम रेबिया के पिछले हफ्ते आए इतने संदर्भों के बीच कलिखो पुल का नाम कहीं नहीं आया, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का शिकार बने थे। कोर्ट ने अपने फैसले से राज्यपाल के फैसले को पलट दिया था और कांग्रेस की सरकार वापस बहाल कर दी थी, जिससे कलिखो पुल की कुर्सी चली गई थी। इसके महीने भर बाद पुल की मौत हो गई थी और वे एक कथित सुसाइड नोट छोड़ गए थे।
स्वतंत्र भारत के इतिहास में अरुणाचल के सियासी संकट पर सुप्रीम कोर्ट का 2016 का फैसला यदि ऐतिहासिक कहा जा सकता है, तो उतना ही ऐतिहासिक होगा उस फैसले पर पूर्व मुख्यमंत्री की मौत के रूप में आई टिप्पणी और कथित सुसाइड नोट में लगाया यह आरोप, कि अपने हक में फैसला देने के लिए उनसे 86 करोड़ की रिश्वत मांगी गई थी।
यह बात साठ पन्ने के उनके उस कथित सुसाइड नोट में विस्तार से लिखी है जिसे लेकर उनकी पत्नी यहां-वहां दौड़ती रहीं और अंतत: 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने इस नोट की जांच करने से इनकार कर दिया। इससे पहले 2017 में दिल्ली हाइकोर्ट में एक एनजीओ द्वारा नोट की जांच के लिए लगाई गई याचिका को खारिज करते हुए याचिकाकर्ताओं पर ही पौने तीन लाख रुपये का जुर्माना लगा दिया गया था।
अरुणाचल का संकट
कांग्रेस के नेता नबाम तुकी 1 नवंबर 2011 को अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और जनवरी 2016 तक बने रहे। 2016 में आए एक राजनीतिक संकट के बाद राष्ट्रपति शासन लगाया गया, जिससे मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल समाप्त हो गया था। फरवरी 2016 में कांग्रेस के बागी नेता कलिखो पुल मुख्यमंत्री बने, जब सुप्रीम कोर्ट ने अयोग्य करार दिए गए 14 कांग्रेसी विधायकों को बहाल कर दिया था। 13 जुलाई 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल जेपी राजखोवा द्वारा समय से पहले विधानसभा सत्र को बुलाने के आदेश को रद्द कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा। नतीजतन, तुकी को 13 जुलाई 2016 को अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में बहाल कर दिया गया, लेकिन बहुमत साबित करने से कुछ घंटे पहले ही उन्होंने 16 जुलाई 2016 को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। उनके बाद पेमा खांडू कांग्रेस के मुख्यमंत्री बने। इसके ठीक बाद मुख्यमंत्री आवास में 9 अगस्त को कलिखो पुल मृत पाए गए। सितंबर 2016 में खांडू अपने 47 कांग्रेसी विधायकों के साथ पीपीए नाम की पार्टी में शामिल हो गए और फिर दिसंबर 2016 में वे 33 विधायकों समेत भाजपा में शामिल हो गए। पीपीए नॉर्थ ईस्टर्न डेमोक्रेटिक अलायंस का हिस्सा थी और भाजपानीत एनडीए द्वारा समर्थित थी।
इस समूचे घटनाक्रम को संक्षेप में तारीखवार देखना उपयुक्त होगा:
दिसंबर, 2015: अरुणाचल के संवैधानिक संकट की शुरुआत 9 दिसंबर, 2015 को हुई जब बागी कांग्रेस विधायकों के एक समूह ने (जिसमें कलिखो पुल भी थे) राज्यपाल जेपी राजखोवा से संपर्क किया और स्पीकर नबाम रेबिया पर महाभियोग चलाने की मांग की। उनकी शिकायत थी कि वह उन्हें विधानसभा से अयोग्य ठहराने की कोशिश कर रहे थे। राज्यपाल ने इस पर सहमति जताई और महाभियोग प्रस्ताव पर चर्चा के लिए 16 दिसंबर को एक आपातकालीन सत्र बुलाया। कांग्रेस ने राज्यपाल की कार्रवाई का विरोध किया, लेकिन केंद्र ने आगे बढ़ते हुए अनुच्छेद 356 को लागू करते हुए राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया। एक सामुदायिक हॉल में कांग्रेस के 20 बागी विधायकों, भाजपा के 11 विधायकों और दो निर्दलीय विधायकों की मौजूदगी वाले विशेष सत्र में महाभियोग प्रस्ताव पारित किया गया और कलिखो पुल को सदन का नेता चुना गया। उसी दिन स्पीकर नबाम रेबिया ने कांग्रेस के 14 विधायकों को अयोग्य घोषित कर दिया।
5 जनवरी, 2016: गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने कांग्रेस विधायकों की अयोग्यता पर रोक लगा दी और स्पीकर रेबिया की याचिका खारिज कर दी गई।
15 जनवरी, 2016: उच्चतम न्यायालय ने स्पीकर द्वारा दायर याचिकाओं के पूरे बैच को संविधान पीठ के पास भेज दिया, जिसने बाद में राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों की जांच की।
29 जनवरी, 2016: नबाम तुकी ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में एक नई याचिका दायर की।
30 जनवरी, 2016: केंद्र ने कानून-व्यवस्था पूरी तरह चरमराने का हवाला देते हुए राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने को उचित ठहराया। उसने यह भी कहा कि वहां कांग्रेस सरकार अल्पमत में है।
2 फरवरी, 2016: राज्यपाल राजखोवा ने कहा कि राज्य में राष्ट्रपति शासन अस्थायी है और इसके स्थान पर जल्द ही एक नई निर्वाचित सरकार का गठन किया जाएगा।
4 फरवरी, 2016: उच्चतम न्यायालय ने राज्यपालों की शक्तियों की जांच करते हुए इस दलील पर कड़ा संज्ञान लिया कि राज्यपाल के सभी फैसले न्यायिक समीक्षा के लिए खुले नहीं हैं और कहा कि जब लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का ‘वध’ किया जाता है तो वह मूकदर्शक नहीं बना रह सकता।
10 फरवरी, 2016: शीर्ष अदालत ने विधानसभा अध्यक्ष के खिलाफ कांग्रेस के बागी विधायकों की याचिका खारिज कर दी।
19 फरवरी, 2016: राज्य में राष्ट्रपति शासन हटाया गया।
20 फरवरी, 2016: असंतुष्ट नेता कलिखो पुल ने कांग्रेस के 18 बागी विधायकों, दो निर्दलीय और भाजपा के 11 विधायकों के समर्थन से अरुणाचल प्रदेश के नौवें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। पुल के शपथ ग्रहण से एक दिन पहले उच्चतम न्यायालय ने अरुणाचल प्रदेश विधानसभा में यथास्थिति बनाए रखने के अपने अंतरिम आदेश को वापस ले लिया था, जिससे सरकार गठन का मार्ग प्रशस्त हुआ था।
23 फरवरी, 2016: उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल ने जिस तरह से आदेश जारी किए हैं, वह संवैधानिक उल्लंघन है और उसे पूर्वस्थिति बहाल करने का अधिकार है।
13 जुलाई 2016: सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को असंवैधानिक करार दिया और कांग्रेस सरकार की बहाली का आदेश दिया। कार्यवाहक राज्यपाल तथागत रॉय ने बहाल मुख्यमंत्री नबाम तुकी को 16 जुलाई 2016 को विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए कहा। बहुमत साबित करने से कुछ घंटे पहले तुकी ने इस्तीफा दे दिया। उनके बाद कांग्रेस के बागी विधायक पेमा खांडू आए, जो पूर्व मुख्यमंत्री दोरजी खांडू के बेटे हैं और उन्होंने विधानसभा में बहुमत साबित किया।
9 अगस्त 2016: पूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल अपने घर में मृत पाए गए।
गतिरोध का अंत, शक की शुरुआत
जिस सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने कांग्रेस की सरकार को बहाल कर के नबाम तुकी को मुख्यमंत्री बनाया था और कलिखो पुल को हटाया था, वह पलक झपकते ही राजनीतिक पैंतरेबाजी का शिकार होकर नाकाम हो गया क्योंकि तुकी विधानसभा में विश्वास मत साबित नहीं कर पाए। तुकी के बाद पेमा खांडू मुख्यमंत्री बने। खांडू और तुकी दोनों के बारे में कलिखो पुल ने अपने कथित नोट में लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट का मुकदमा जीतने के लिए इन्होंने 90 करोड़ की भारी-भरकम रकम खर्च की थी। इसका साफ अर्थ है कि तुकी मुख्यमंत्री रहते या खांडू, दोनों एक ही बात थी।
अगले बिंदु में कलिखो पुल बताते हैं कि उनके हक में फैसला देने के लिए उनके पास फोन आया था और उनसे 86 करोड़ रुपये मांगे गए थे, ‘’लेकिन मेरी अंतरात्मा ने इसकी गवाही नहीं दी’’।
इस तरह सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक नबाम रेबिया मुकदमा, जिसका हवाला महाराष्ट्र के राजनीतिक संकट की सुनवाई में बार-बार आया है और जिसे उच्च संविधान पीठ को रेफर कर दिया गया है- पहले राजनीति का शिकार हुआ और फिर उसका अंत एक पूर्व मुख्यमंत्री की मौत में हुआ। कलिखो पुल का सुसाइड नोट यह शंका छोड़ गया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में भी रिश्वत चलती है।
एक और मौत
कलिखो पुल की मौत के चार महीने बाद जनवरी 2017 में जस्टिस खेहर भारत के मुख्य न्यायाधीश बने। उनके ठीक बाद अगस्त 2017 में जस्टिस दीपक मिश्रा भारत के मुख्य न्यायाधीश बने। 17 फरवरी, 2017 को तत्कालीन सीजेआइ खेहर को लिखे एक पत्र में कलिखो पुल की पत्नी डांगविम्साई पुल ने अपने पति के छोड़े नोट के आधार पर एफआइआर दर्ज करने के लिए कहा था। इस पर जांच का आदेश देने के बजाय न्यायमूर्ति खेहर ने सुसाइड नोट को पांच दिन बाद आपराधिक रिट याचिका में बदल दिया। इसे न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और न्यायमूर्ति यूयू ललित की दो सदस्यीय पीठ के समक्ष सूचीबद्ध किया गया।
याचिकाकर्ता के वकील दुष्यंत दवे ने पूछा कि प्रधान न्यायाधीश ने खुद को मामले से अलग क्यों नहीं किया क्योंकि यह स्पष्ट रूप से हितों का टकराव है क्योंकि सुसाइड नोट में न्यायमूर्ति खेहर का नाम है। दवे ने यह भी कहा कि पीठ में न्यायमूर्ति गोयल की उपस्थिति भी अनुचित थी क्योंकि न्यायमूर्ति गोयल और न्यायमूर्ति खेहर दोनों पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में सहयोगी थे।
जस्टिस खेहर के मुख्य न्यायाधीश बनने के महीने भर बाद कलिखो पुल की पत्नी डांगविम्साई पुल ने खेहर को लिखा अपना पत्र वापस ले लिया जिसमें अपने पति की आत्महत्या की जांच की मांग उन्होंने की थी। कायदे से यह केस प्रधान न्यायाधीश के बाद अगले सबसे वरिष्ठ जज की बेंच पर लगाया जाना था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। दूसरे, न्यायमूर्ति गोयल ने खुद को मामले से अलग करने से इनकार कर दिया। इसीलिए पुल ने चिट्ठी ही वापस ले ली।
सुप्रीम कोर्ट से अपनी याचिका वापस लेने के बाद डांगविम्साई ने 28 फरवरी, 2017 को भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को पत्र लिखा। उन्होंने उनसे अपील की कि वह न्यायमूर्ति खेहर और न्यायमूर्ति मिश्रा के अलावा उच्चतम न्यायालय के तीन या पांच वरिष्ठतम न्यायाधीशों को एक विशेष जांच दल (एसआइटी) गठित करने और आरोपों की जांच करने का निर्देश दें। अगस्त 2017 में अंसारी का कार्यकाल समाप्त होने के बाद भाजपा के एम. वेंकैया नायडू ने उनकी जगह उपराष्ट्रपति के रूप में पदभार संभाला। पुल के आरोपों की जांच कभी शुरू नहीं हुई।
तीन साल बाद 11 फरवरी 2020 को कलिखो पुल के 20 वर्षीय बेटे शुभांसो की लाश ब्रिटेन के एक फ्लैट में संदिग्ध परिस्थितियों में पाई गई। वह ईस्ट ससेक्स युनिवर्सिटी में कानून की पढ़ाई कर रहा था। डांगविम्साई की मानें तो अपने पिता की खुदकशी के बाद लगे सदमे से वह उबर नहीं पाया था और उसने भी खुदकशी की थी।
अंतिम याचिका भी खारिज
डांगविम्साई, कलिखो पुल की तीन पत्नियों में पहली थीं। उन्होंने अकेले ही अपने पति की मौत की लड़ाई लड़ी। कलिखो पुल की मौत के बाद हयुलियांग की सीट खाली हो गई थी। दो महीने बाद वहां हुए उपचुनाव में उनकी तीसरी पत्नी दसांगलु पुल भारतीय जनता पार्टी से खड़ी हुई थीं। पिछले महीने तक वे भाजपा की विधायक थीं। 2019 में उन्होंने दोबारा वह सीट जीती थी, लेकिन बीते अप्रैल में गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने जनप्रतिनिधित्व कानून के अंतर्गत उनके चुनाव को रद्द करार दे दिया है। अदालत ने उन्हें अपने चुनावी हलफनामे में संपत्ति से जुड़ी सूचना छुपाने का दोषी पाया है।
आखिरी बार 2021 में सोशल विजिलेंस टीम नामक एनजीओ द्वारा एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट में कलिखो पुल की संदिग्ध मौत की सीबीआइ जांच के लिए दायर की गई थी। उस समय मुख्य न्यायाधीश यूयू ललित थे, जिनकी बेंच को जस्टिस खेहर ने चार साल पहले डांगविम्साई की चिट्ठी याचिका मान कर सुनवाई के लिए सौंपी थी। जस्टिस ललित और दो अन्य न्यायाधीशों की बेंच ने इस आधार पर पीआइएल को खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता एनजीओ का कलिखो पुल के साथ कोई निजी रिश्ता नहीं है, इसलिए अनुच्छेद 32 के अंतर्गत पीआइएल दाखिल नहीं की जा सकती।
न्यायिक विडम्बनाएं
महाराष्ट्र में जिस ढंग से उद्धव ठाकरे की सरकार गिराई गई थी, सुप्रीम कोर्ट का फैसला उस पर एक अभियोगात्मक टिप्पणी है, लेकिन अफसोस की बात है कि यह यथास्थिति को बदलती नहीं है। संविधान पीठ ने फैसला सुनाया है कि राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के पास तत्कालीन मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बहुमत पर संदेह करने का कोई वस्तुपरक आधार नहीं था, फिर भी उन्हें बाहरी कारकों के आधार पर फ्लोर टेस्ट देने के लिए कहा गया। चूंकि ठाकरे ने फ्लोर टेस्ट का सामना किए बिना ही इस्तीफा दे दिया था, इसलिए अदालत ने कहा कि वह उनकी सरकार को बहाल करने में असमर्थ है।
यह सच है कि वह स्वैच्छिक इस्तीफे को रद्द नहीं कर सकती है, लेकिन न्यायालय यह स्वीकार करने में विफल रहा है कि उनका इस्तीफा उन परिस्थितियों के कारण मजबूरीवश हुआ जिसमें न्यायालय स्वयं एक पक्ष था। फ्लोर टेस्ट की पूर्व संध्या पर सुप्रीम कोर्ट की ही एक बेंच ने ही इसे जारी रखने की अनुमति दी थी। इससे पहले, एक अंतरिम आदेश के जरिये अदालत ने एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले शिवसेना के तत्कालीन बागी विधायकों को दलबदल के लिए अयोग्य ठहराने की मांग करने वाली अर्जियों पर जवाब देने के लिए दिए गए समय को 27 जून से बढ़ाकर 12 जुलाई कर दिया था। इस आदेश ने भाजपा के साथ-साथ बागियों को सदन से अयोग्य ठहराए जाने के खतरे से बचते हुए राजनीतिक पैंतरेबाजी का पर्याप्त समय दिया। वास्तव में, दो अदालती आदेशों ने ही महाराष्ट्र की सरकार गिराने में मदद की थी। ताजा निर्णय इस तथ्य को स्वीकार करने में विफल है।
कोर्ट ने यह भी फैसला किया है कि नबाम रेबिया (2016) पर एक बड़ी पीठ द्वारा पुनर्विचार किया जाना चाहिए, जिसमें कहा गया है कि एक स्पीकर जो पद से हटाने के नोटिस का सामना कर रहा है, उसे दलबदल विरोधी कानून के तहत अयोग्यता के मामले पर फैसला नहीं करना चाहिए। यह स्वागतयोग्य है, क्योंकि अयोग्य ठहराए गए विधायकों को अपनी अयोग्यता को दूर करने के लिए स्पीकर को हटाने के लिए एक तुच्छ याचिका का उपयोग करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। ठाकरे भले ही अपनी नैतिक जीत का दावा कर सकते हैं, लेकिन राजनीतिक गठबंधन के दायरे में विधायी बहुमत को नैतिकता से अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।
राजनीतिक घटनाक्रमों से जुड़े मुकदमों में अक्सर ऐसा होता है कि अदालती निर्णय उच्च सिद्धांतों की बात तो करते हैं, लेकिन संवैधानिक मानदंडों के उल्लंघन से प्रभावित पक्ष को कोई राहत नहीं देते हैं। महाराष्ट्र में यही हुआ है। इसके ठीक उलट, 2016 में अरुणाचल में कांग्रेस सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने बहाल किया था, जो अपने आप में एक अपवाद था, लेकिन इस ऐतिहासिक फैसले में एक विडम्बना छुपी है।
वो यह है कि सात साल बाद जिस फैसले की समीक्षा उच्च पीठ से अभी होनी है, उसने नबाम रेबिया का नाम तो न्यायिक इतिहास में दर्ज कर दिया लेकिन कलिखो पुल को हमेशा के लिए मिटा दिया।
नीचे खलिको पुल का लिखा 60 पन्ने का नोट
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