मुझे गर्व है कि मैं क्षत्रिय जाति में पैदा हुआ, लेकिन मैं एक साधु बन गया। मेरी पहचान अब योगी के रूप में है। मैं योगी के रूप में लोगों की सेवा करता हूं। एक सच्चा क्षत्रिय वह है जो गरीबों और दलितों की रक्षा के लिए समर्पित है।
यह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का ढाई साल पुराना वक्तव्य है। इससे पहले उन्होंने ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ को दिए एक साक्षात्कार में कहा था, “क्षत्रिय जाति में पैदा होना कोई अपराध थोड़े न है! इस देश की ऐसी जाति है जिसमें भगवान जन्म लिए हैं और बार-बार जन्म लिए हैं, तो अपनी जाति पर स्वाभिमान हर व्यक्ति को होना चाहिए।”
मुख्यमंत्री के संवैधानिक पद पर बैठे एक व्यक्ति के ऐसे बयानों को क्षत्रिय (राजपूत) जाति के लोगों ने किस रूप में लिया यह शोध का विषय हो सकता है, लेकिन जाति-गौरव में सने ऐसे बयानों का उत्तर प्रदेश के उन इलाकों में असर साफ दिखाई दे रहा है जहां राजपूतों को सम्मान से बाऊ साहब या ठाकुर साहब के नाम से पुकारा जाता है। ऐसा ही एक इलाका है चंदौली जिले के सैयदराजा विधानसभा का धानापुर, जहां नया फौजदारी कानून लागू होने के पहले ही हफ्ते में एक जघन्य हत्या हो गई।
इस कत्ल और इसकी सामाजिक पृष्ठभूमि ने सूबे में जातिगत वर्चस्व की राजनीति और उत्पीड़न के बीच के सामंती संबंध को फिर से प्रकाशित कर दिया है। इस हत्याकांड के पीछे की कहानियां और उनकी जटिल परतें दिखाती हैं कि आधुनिकता और लोकतंत्र पर टिका यह संवैधानिक गणराज्य पचहत्तर साल के अपने सफर में सामंतवाद का बाल तक बांका नहीं कर सका है।
एक हत्याकांड, तीन एफआइआर
धानापुर इलाके के करजरा गांव में बीती 6 जुलाई की सुबह करीब साढ़े छह बजे भूमि विवाद को लेकर कुम्हार जाति के अजय प्रसाद (35) की हत्या सिर पर फावड़ा मार के कर दी गई। क्षत्रिय (राजपूत) जाति के नरेंद्र सिंह और उनके बेटों आशीष सिंह उर्फ विनायक सिंह एवं अभिषेक सिंह पर अजय प्रसाद की हत्या करने का आरोप है। इस संबंध में धीना थाना में मृतक के भतीजे आदर्श कुमार की तहरीर पर एक प्राथमिकी (एफआइआर) दर्ज हुई। उसके घंटे भर के भीतर ही आरोपी नरेंद्र सिंह की तहरीर पर मृतक अजय (उर्फ धर्मू प्रजापति) और उनके बड़े भाई शम्भू प्रजापति के खिलाफ एक जवाबी एफआइआर दर्ज की गई।
पहली एफआइआर के मुताबिक, अजय प्रसाद गत 6 जुलाई की सुबह अपनी निजी भूमि पर चहारदीवारी का निर्माण करवा रहे थे। इसी दौरान नरेंद्र सिंह, आशीष सिंह और अभिषेक सिंह वहां पहुंच गए। वे उन्हें चहारदीवारी का निर्माण कराने से रोकने लगे। मना करने पर वे गाली-गलौज और मारपीट करने लगे। इसी दौरान आरोपी अभिषेक सिंह ने अजय प्रसाद के सिर पर फावड़े से हमला कर दिया। अजय गंभीर रूप से घायल होकर जमीन पर गिर पड़े। अगले दिन वाराणसी स्थित बीएचयू के ट्रॉमा सेंटर में इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई।
धीना थाना पुलिस ने अगले दिन मामले में भारतीय न्याय संहिता 2023 की धारा 115(2), 352, 151(2), 109, 110, 103(1) और 3(5) के तहत नरेंद्र सिंह, आशीष सिंह और अभिषेक सिंह के खिलाफ एफआइआर दर्ज की। अजय की मौत की सूचना उनके बड़े भाई शम्भू नाथ द्वारा देने के बाद पुलिस ने उसमें भारतीय न्याय संहिता की धारा 103(1) और 3(5) को जोड़ा।
मृतक अजय प्रसाद और शम्भू के खिलाफ दायर जवाबी एफआइआर की तहरीर में नरेंद्र सिंह ने लिखा है कि वे दोनों जिस रास्ते को खोद रहे थे, वह जल जीवन मिशन की पानी की टंकी की पश्चिमी दीवार से उनके पोल्ट्री फार्म तक जाता है। नरेंद्र ने उन्हें मना किया तो वे उन्हें गाली-गलौज और मारपीट पर उतर आए। इसी दौरान नरेंद्र सिंह का बेटा अभिषेक सिंह वहां आ गया और वे लोग उसे मारने-पीटने लगे। इसी बीच अजय प्रसाद को चोट लग गई।
धीना थाना पुलिस ने नरेंद्र सिंह की इस तहरीर के आधार पर मृतक और उनके बड़े भाई शम्भू के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता की धारा 115(2), 352, 110, 117 के तहत प्राथमिकी दर्ज की।
इसके बाद धीना थाना में एक और एफआइआर दर्ज की गई। इसे शम्भू नाथ की तहरीर पर नरेंद्र सिंह के अस्सी वर्षीय चाचा फतेह बहादुर सिंह उर्फ फत्ते सिंह के खिलाफ दर्ज करवाया गया। फतेह बहादुर सिंह पर आरोप है कि उन्होंने मृतक के परिजनों को धमकी दी थी। उस धमकी पर गौर कीजिएः
तुम लोग होश में रहो, नहीं तो तुम लोगों का हाल भी वही होगा जो गांव के हवलदार नाई का किया था।
फतेह बहादुर सिंह के खिलाफ दर्ज यह तीसरी एफआइआर ही मामूली सी दिखने वाली इस हत्या को एक जटिल कहानी बनाती है। कौन है हवलदार नाई, जिसका हवाला देकर फत्ते सिंह ने मृतक के परिजनों को धमकाया? जब मैंने हवलदार नाई के बारे में जानकारी हासिल की, तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आए।
अड़तीस साल पहले
जिस विवादित जमीन को लेकर अजय प्रसाद की हत्या हुई है, वह जमीन उनके पिता स्वर्गीय कांता प्रसाद ने हवलदार राम उर्फ हवलदार नाई से खरीदी थी। तब हवलदार नाई से इस जमीन को लेकर फत्ते सिंह का झगड़ा हुआ था। इस मामले में फत्ते सिंह के खिलाफ एक एफआइआर दर्ज हुई और उनके ऊपर मुकदमा भी चला था।
हवलदार नाई का पूरा नाम हवलदार राम है। वे भारतीय सेना के पूर्व नायक हैं। वे पवनी जातियों के समूह से आते हैं। पवनी वे जातियां होती हैं जिनके लोग किसी व्यक्ति या परिवार के यहां उनके घरेलू कार्यों को करने के लिए लगे होते हैं, जैसे धोबी, नाई, कुम्हार, कहार, लोहार, भर, गोंड़, आदि। इन्हें परजुनिया भी कहते हैं। इनकी हालत सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक रूप से बहुत ही खराब है। इन जातियों की कोई राजनीतिक गोलबंदी नहीं है। इसलिए इन जातियों के लोग सामाजिक रूप से खुद को ज्यादा असुरक्षित महसूस करते हैं। वे जीविकोपार्जन के लिए गांव के संपन्न और अगड़ी जातियों के लोगों पर ही निर्भर रहते हैं। इसकी वजह से वे उनकी गैर-कानूनी गतिविधियों के खिलाफ आवाज उठाने से कतराते हैं।
हवलदार नाई भी करजरा के ही निवासी हैं, लेकिन अब गाजीपुर के जमनियां में किराये के मकान में अपने परिवार के साथ रहते हैं। फौज की नौकरी से 15 जुलाई 1986 को सेवानिवृत्त होकर वे करजरा वापस आए थे। करीब एक साल तक वे वहां रहे भी, फिर उन्होंने गांव छोड़ दिया। उन्होंने अपने हिस्से की जमीन मृतक अजय प्रसाद के पिता कांता प्रसाद को बेच दी और मकान अपने भाई को दे दिया। जमनियां में हवलदार राम के परिवार का कोई सदस्य अब अपनी जाति के पारंपरिक कामों को नहीं करता है, लेकिन करजरा में उनके भतीजे सुग्रीव शर्मा आज भी ये काम जारी रखे हुए हैं। इसी से उनका पेट पलता है।
हवलदार के यहां जाने से पहले करजरा में मेरी मुलाकात सुग्रीव से हुई। उस समय वे गांव के एक व्यक्ति की नतपतोहू के आने से मिलने वाले पाहुर को अपनी बेटी के साथ ग्राम प्रधान सुभाष यादव के घर पर बांट रहे थे। वहीं उनसे मैंने हवलदार नाई के बारे में बात की।
बातचीत में उन्होंने फत्ते सिंह और अपने चाचा हवलदार के बीच करीब चार दशक पहले हुए झगड़े की पुष्टि की। इस मुकदमे में गांव के लोगों ने हवलदार नाई का सहयोग किया था, लेकिन दबाव पड़ा तो उन लोगों ने उनसे सुलहनामा करवा दिया। बताया जाता है कि इसी से चिढ़कर हवलदार नाई जमनियां चले गए।
सुग्रीव शर्मा से मिलने के बाद मैं हवलदार नाई से मिलने के लिए उनके घर जमनियां गया ताकि अजय प्रसाद हत्याकांड की पूरी कहानी को इतिहास की रोशनी में समझा जा सके। यह इसलिए भी जरूरी था क्योंकि जिस दौर में हवलदार राम ने करजरा गांव को छोड़ा और गाजीपुर जा बसे, उस वक्त पूर्वांचल में माफियाओं की जंग अपने चरम पर थी, तो पिछड़ी जातियों की चेतना भी अंगड़ाई ले रही थी।
हवलदार नाई अब चलने में असमर्थ हो चुके हैं। उन्हें दिखाई भी नहीं देता है, हालांकि उनकी याददाश्त बहुत अच्छी है। फत्ते सिंह के खौफ का असर आज भी हवलदार के बेटे और बहुओं की आवाज़ में साफ झलक रहा था। जब मैंने उनसे करजरा गांव में फिर से बसने के बारे में पूछा, तो सभी ने एक स्वर में वहां जाने से इंकार कर दिया। उनकी बड़ी बहू ने कहा- ‘’नहीं, हम यहीं ठीक हैं। वहां जाकर ठाकुरों की मार थोड़े खाएंगे और गाली थोड़े सुनेंगे!”
गांव छोड़ने के कारण और जमीन के विवाद पर हवलदार राम से मैने विस्तार से बात की। उन्होंने भी सब कुछ पूरे विवरण के साथ बताया।
“केस हुआ था। एक बड़ा जिद्दी आदमी, फत्ते सिंह नाम है। मेरे पड़ोस में उसकी जमीन है। एक लाट है, मेड़ है। मेड़ के बगल उसका खेत है। उसके बाद हमारा। लेकिन बंटवाए थे। हिस्से में हमारे ही पड़ा है। एक भाई हमारा है तो उसका इस साइड में पड़ गया। ये सब ही हैं बांटने वाले। इसके साथ एक बार मेरे से भी झगड़ा हुआ था। क्या हुआ था? मेड़िया जो पड़ता है न, उसके बगल में, सुना हूं कि, मैं तो रहा नहीं हूं, बाहा छुटा है इसके ही खेतवा में। उसी के, फत्ते के। मेरा वही है हकीकत। मैं उसको थोड़ा सोचा कि अपनी खेत क्यारी आ गई तो थोड़ा माटी चढ़ा दूं उस पर, तो मैं चढ़ा दिया था। तो वो जो है, आकर उसको उल्टा-पुल्टा कर दिया था, गिरा दिया था। उल्टा-पुल्टा दरवाजे पर आकर गाली–गलौज कर रहा था। उसी के चलते मेरे को टेंशन हुआ। सोचा कि रहना यहां बेकार है। लेकिन, फिर भी सोचा कि अभी एकदम से भागने का नहीं, तो केस भिड़ा दिया। एकाक साल चला। इसके बाद इसी में हाथ-पांव जोड़ने लगे, इधर-उधर बड़ों से कि खतम कर दीजिए, खतम कर दीजिए। तो चार ठो सहयोगी थे मेरे गांव के… हकीकत। लुप्पो-चुप्पो वाला नहीं थे… यादव लोग… एकाक साल केस लड़ा। उनकी हार हुई, हमारी जीत हुई, सच्चाई की जीत हुई।”
वह कहते हैं, “एक साल के अंदर ये हुआ था। एक साल उसको केस-वोस लड़ाया। उसी में झगड़ा-फसाद, उसी में गाली गलौज… मार देंगें, काट देंगे, अंड-बंड बोलता था। औरत जाती मैदान करने रात में तो लाठी से मारता था, खोदता था। डिस्टर्ब थे वहां पर। मुझे लगा, यहां मैं बड़ा दिक्कत देख रहा हूं, बच्चे भी विकास नहीं कर पाएंगे, हमको भी तकलीफ होगी तो इस हालत में साहब, अपने विकास को देखते हुए, मैं वहां से अपनी जमीन को उड़ा दिया।”
मृतक अजय प्रसाद के परिजनों को फत्ते सिंह की धमकी में हवलदार का नाम लिए जाने पर जब उनसे मैंने पूछा, तो उन्होंने हंसते हुए कहा, “वो ऐसे बंडल मार रहा था, अपनी इज्जत बढ़ाने के लिए। लेकिन गांव से पूछिए साहब कि वो जो है कि किसी के भगाने से भगा है कि अपने आप भगा है।”
खौफ के पिछले अध्याय
हवलदार खुद करजरा छोड़कर भागे या फत्ते सिंह ने उनको इस पर मजबूर किया, यह भले अपने-अपने दावों पर टिकी हुई बहुत पुरानी बात हो चली है लेकिन हवलदार के फौज से रिटायर होकर गांव लौटने के तीन महीने पहले ही इस इलाके में कुछ ऐसा हुआ था जिसने यहां की सामाजिक और राजनीतिक नियति को हमेशा के लिए तय कर दिया। इसे पूर्वांचल का सबसे चर्चित सिकरौरा नरसंहार कांड कहा जाता है, जिसने इलाके में ठाकुरों का खौफ पैदा कर दिया था। इसी हत्याकांड से संगठित अपराध में बृजेश सिंह की पहली पहचान बनी।
करजरा से महज घंटे भर की दूरी पर चंदौली (तत्कालीन बनारस) के ही सिकरौरा गांव में 9 अप्रैल 1986 की रात जो हुआ उसका आज की तारीख में अजय प्रसाद हत्याकांड के संदर्भ में महत्व समझना हो, तो कुछ तथ्यों पर गौर करें। सैयदराजा असेंबली (जिसमें करजरा पड़ता है) से भाजपा के टिकट पर सुशील सिंह विधायक हैं, जो माफिया डॉन के रूप में चर्चित बृजेश सिंह के भतीजे और पूर्व एमएलसी उदय नाथ सिंह उर्फ चुलबुल सिंह के बेटे हैं। बृजेश सिंह पूर्व में एमएलसी रह चुके हैं। उनकी पत्नी अन्नपूर्णा सिंह फिलहाल विधान परिषद की वाराणसी सीट से एमएलसी हैं। इस परिवार का दबदबा ऐसा है कि सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने अन्नपूर्णा सिंह के खिलाफ अपना उम्मीदवार तक नहीं उतारा था।
चार दशक में एक ही जाति और परिवार के राजनीतिक दबदबे का सबब कोई घटना कैसे बन जाती है और जातिगत उत्पीड़न की घटनाएं क्यों नहीं रुकती हैं, सिकरौरा नरसंहार और उसके बाद का घटनाक्रम इसी को रेखांकित करता है।
इस नरसंहार कांड में सिकरौरा के प्रधान रामचंद्र यादव, उनके भाई राम जनम और सियाराम समेत चार मासूमों मदन, उमेश, टुनटुन और प्रमोद को मौत के घाट उतार दिया गया था। रामचंद्र यादव की बेटी शारदा और उनकी भतीजी मुलताली घायल हो गई थीं। तब की मीडिया रिपोर्टों के अनुसार सिकरौरा कांड के दौरान बृजेश सिंह को भी पुलिस की गोली लगी थी और पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया था। बाद में वे भाग निकले।
रामचंद्र यादव की पत्नी हीरावती की तहरीर पर अगले दिन बलुआ थाना में एफआइआर दर्ज की गई। मामले में दाखिल आरोप-पत्र में पुलिस ने कुल 14 लोगों को आरोपी बनाया। एफआइआर में नामजद चार आरोपियों के अलावा बृजेश कुमार सिंह उर्फ वीरू सिंह, कन्हैया सिंह, वंश नारायण सिंह, राम दास उर्फ दीना सिंह, मुसाफिर सिंह, विनोद कुमार पांडे, महेंद्र प्रताप सिंह, नरेंद्र सिंह, लोकनाथ सिंह और विजय सिंह का नाम शामिल था। सुनवाई के दौरान अभियुक्त विनोद कुमार पांडे की मौत हो गई। बृजेश कुमार सिंह उर्फ वीरू सिंह भगोड़ा घोषित हो गया, इसलिए उसके मामले की सुनवाई अलग से होने लगी।
सोलह साल बाद वाराणसी के अपर जिला एवं सत्र न्यायालय ने 6 अगस्त 2002 को सिकरौरा नरसंहार के आरोपियों (बृजेश कुमार सिंह उर्फ वीरू सिंह को छोड़कर) को बरी कर दिया। इस फैसले से हीरावती देवी, शारदा और मुलताली की चीखें सिसकियों में बदल गईं। क्षत्रियों की लामबंदी के आगे हीरावती का संघर्ष विफल हो गया था। निचली अदालत ने मान लिया था कि आरोपियों ने रामचंद्र यादव के परिवार के लोगों की हत्या नहीं की थी।
फिर सिकरौरा कांड के शिकार सात लोगों की हत्या किसने की? इस सवाल का जवाब राज बन कर रह जाता, अगर हीरावती देवी ने हार मान ली होती। उन्होंने राज्य सरकार के जरिये इलाहाबाद उच्च न्यायालय में निचली अदालत के फैसले को चुनौती दी। उधर, दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने 23 जनवरी 2008 को भुवनेश्वर से बृजेश सिंह को गिरफ्तार कर लिया। उच्च न्यायालय के निर्देश पर मामले में त्वरित सुनवाई हुई।
16 अगस्त 2018 को वाराणसी के जिला एवं सत्र न्यायालय ने गवाहों के बयान में भिन्नता पाए जाने की वजह से बृजेश सिंह को बरी कर दिया। हीरावती देवी ने जिला एवं सत्र न्यायालय के फैसले को उच्च न्यायालय इलाहाबाद में चुनौती दी। उनके विधिक पैरोकार एवं साहित्यकार राकेश न्यायिक ने उनकी मदद की। वहां मामले में सभी आरोपियों के बरी हो जाने की अपील पर सुनवाई जारी रही। इस दौरान आरोपी वंश नारायण सिंह, महेंद्र सिंह और लोकनाथ सिंह की मौत हो गई।
उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति प्रीतिंदर दिवाकर और न्यायमूर्ति अजय भनोट की संयुक्त पीठ ने 9 नवंबर 2023 को बृजेश सिंह समेत नौ आरोपियों को सिकरौरा कांड में बरी करने के जिला एवं सत्र न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा, हालांकि पीठ ने मामले में चार आरोपियों देवेंद्र सिंह, वकील सिंह, राकेश सिंह और पंचम सिंह को दोषी करार देते हुए उन्हें उम्र कैद की सजा सुनाई।
उससे पहले ही 4 अगस्त 2022 को बृजेश सिंह जमानत पर जेल से रिहा हो चुके थे, हालांकि यह रिहाई सिकरौरा कांड में नहीं, उसरी चट्टी कांड के मुकदमे में हुई थी। यह कांड 15 जुलाई 2001 को हुआ था जिसमें (अब दिवंगत) बाहुबली मुख्तार अंसारी के ऊपर गोलीबारी हुई थी। उसका आरोप बृजेश सिंह पर ही लगा था, हालांकि इसमें एक तीसरा पात्र भी था- त्रिभुवन सिंह, साहब सिंह गिरोह का खास आदमी।
एक माफिया के रूप में बृजेश सिंह की पैदाइश भले सिकरौरा कांड से दिखती हो और मुख्तार अंसारी के साथ उनकी अदावत के चक्कर में उपजी माफिया जंग की जड़ भले उसरी चट्टी गोलीबारी कांड को माना जाता हो, लेकिन वास्तव में इन सब की जड़ में जमीन के एक छोटे से प्लॉट का ही झगड़ा था। इसी झगड़े में त्रिभुवन सिंह के पिता और बाद में साहब सिंह की हत्या हो जाती है, जिसका आरोप मकनू सिंह के गिरोह पर लगता है जिसमें साधु सिंह और मुख्तार अंसारी हुआ करते थे।
त्रिभुवन से बृजेश की जेल में हुई दोस्ती के नाते साधु-मकनू-मुख्तार और बृजेश-त्रिभुवन एक दूसरे की जान के दुश्मन बन गए। साधु सिंह की गाजीपुर जेल में बृजेश सिंह द्वारा हत्या किए जाने के बाद उस गिरोह की कमान मुख्तार के पास आ गई और सीधी लड़ाई बृजेश और मुख्तार के बीच ठन गई। 1998 में मुख्तार पहली बार मऊ से विधायक बने, उसके बाद गाजीपुर का उसरी चट्टी कांड हुआ। बृजेश के हमले में मुख्तार बाल-बाल बच गए, लेकिन 2002 में मोहम्मदाबाद की सीट भाजपा के कृष्णानंद राय के पास चली गई जहां से मुख्तार के बड़े भाई जीतते चले आ रहे थे। इसके बाद 2005 में कृष्णानंद राय की हत्या हो गई। बृजेश सिंह इसके बाद 2008 में उड़ीसा से कथित रूप से पकड़े गए और राजनीति में औपचारिक रूप से प्रवेश कर गए।
एक छोटी सी जमीन का झगड़ा जिस गति से तीन दशक में दलगत राजनीति तक पहुंचा, वही राजनीति अब जमीन के मामूली झगड़ों में सजातीय ताकतों को संरक्षण देने का काम कर रही है। इसी जमीन ने करजरा में अजय प्रसाद की जान ली है और पिछली पीढ़ी के हवलदार नाई को विस्थापित होने पर भी मजबूर किया है। इसलिए उस जमीन के बारे में जान लेना जरूरी है जिसने अजय प्रसाद की जान ली है।
जमीन का जंजाल
बीती 15 जुलाई को सुबह करीब साढ़े आठ बजे मैंने करजरा गांव के लेखपाल विनोद सोनकर से बात की। उन्होंने बताया कि जल जीवन मिशन की पानी की टंकी और उसकी दीवार बनने से पहले यह ग्राम सभा की परती भूमि थी। उसे गांव के धर्मनाथ सिंह ने अवैध रूप से कब्जा रखा था। करीब दो साल पहले जल जीवन मिशन की पानी की टंकी के निर्माण के लिए ग्राम पंचायत ने इसे जल कल विभाग को दे दिया था। इसके बाद राजस्व विभाग ने पुलिस के सहयोग से धर्मनाथ सिंह से यह भूमि खाली कराई थी।
उन्होंने यह भी बताया कि पानी की टंकी की दीवार और मृतक अजय प्रसाद की जमीन के बीच न कोई सार्वजनिक रास्ता है और न ही कोई परती भूमि छोड़ी गई है। इस बारे में करजरा भूमि प्रबंधन समिति के अध्यक्ष और ग्राम प्रधान सुभाष यादव कहते हैं, “जो जल निगम की टंकी लगी है, वो नवीन परती पर है। अजय प्रजापति का खेत इसके बगल में है। पानी की टंकी की पश्चिमी दीवार से अजय प्रसाद का खेत लगा है जबकि दक्षिणी दीवार से सटी सिंचाई विभाग की नाली है।”
पानी की टंकी की दक्षिणी दीवार से सटी नाली मौके पर नहीं होने और उसकी जगह चकरोड बने होने के बारे में जब सुभाष यादव से पूछा गया तो उन्होंने बताया कि नरेंद्र सिंह ने अपने फॉर्म हाउस पर जाने के लिए सिंचाई विभाग की नाली को पाटकर चकरोड बना लिया है। हवलदार राम ने अपने बयान में संभवतः इसी नाली को बाहा कहा था। इसकी मेड़ पर मिट्टी चढ़ाने की वजह से फत्ते सिंह और उनके बीच झगड़ा हुआ था।
मौके पर विवादित भूमि पर इकट्ठी मिट्टी से होकर जाने वाले रास्ते के बारे में मृतक के बड़े भाई शम्भू नाथ कहते हैं, “मुझे मकान बनवाना था तो तीन महीने पहले मिट्टी गिरवाया था। वहीं पर वे रास्ता मांग रहे थे। मिट्टी हमारी है। हमारी निजी भूमि में है।”
वे आगे बताते हैं कि अजय प्रसाद तीन महीने पहले चहारदीवारी बनवाने के लिए जेसीबी से नींव खुदवा रहे थे, तब नरेंद्र सिंह ने निर्माण कार्य को रास्ता बनाने के लिए रुकवा दिया। ‘’वे पानी की टंकी की दीवार से सटी हमारी निजी भूमि से अपने फार्म पर जाने के लिए रास्ता चाहते थे। वे रास्ते के लिए एक बिस्वा जमीन मांग रहे थे और उसकी जगह दूसरी ओर एक बिस्वा जमीन देने की बात कह रहे थे। हम लोग भी इस बात पर सहमत थे। तीन महीने हो गए लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसके बाद मेरा भाई अजय चहारदीवारी का निर्माण करवा रहा तो उन लोगों ने फावड़े से मारकर उसकी हत्या कर दी।‘’
राजस्व विभाग के दस्तावेजों में घटना वाली जगह के पास मृतक अजय प्रसाद के नाम से करीब 14 बिस्वा खेती की जमीन गाटा संख्या 77मी. में दर्ज है। इतनी ही जमीन उनके बड़े भाई शम्भू नाथ के नाम से इसी गाटा संख्या में दर्ज है। यही वह जमीन है जो इन दोनों के पिता कान्ता प्रसाद ने हवलदार राम उर्फ हवलदार नाई से खरीदी थी। इसी भूमि की पूर्वी छोर पर जल जीवन मिशन की पानी की टंकी की दीवार का निर्माण कराया गया है।
लेखपाल सोनकर, प्रधान सुभाष यादव और शम्भू नाथ के दावों पर गौर करें तो पानी की टंकी की दीवार और मृतक की जमीन के बीच न ही कोई सार्वजनिक रास्ता है और न ही परती भूमि है। ऐसे में हत्या के आरोपी नरेंद्र कुमार सिंह और उनके बेटों द्वारा मृतक अजय प्रसाद की चहारदीवारी के निर्माण को सार्वजनिक रास्ते के नाम पर उनके पास जाकर रोकना उनकी निजी भूमि पर जबरन कब्जा करने जैसा प्रतीत होता है।
अगर हत्यारोपी नरेंद्र कुमार सिंह की तहरीर में रास्ता होने की बातों को मान भी लिया जाए तो सवाल है उन्होंने मृतक अजय प्रसाद की शिकायत राजस्व विभाग या पुलिस प्रशासन से क्यों नहीं की? जब वहां उनकी भूमिधरी नहीं थी तो वे लोग अजय प्रसाद को चहारदीवारी का निर्माण कराने से रोकने उसके पास क्यों गए?
जमीन के विवादों से जुड़े मामलों में कानूनी प्रक्रियाओं को धता बताकर बाहुबल से काम लेने का पूर्वांचल की ऊंची जातियों में पुराना चलन है। खासकर चंदौली के ब्लॉक प्रमुखों से लेकर ग्राम पंचायत सदस्यों में चूंकि राजपूतों का पहले से दबदबा रहा है और अब भी है, इसके मद्देनजर यह तथ्य गौरतलब है कि अजय प्रसाद की हत्या के 23 दिनों बाद भी उनकी भूमिधरी की जम़ीन की पैमाइश नहीं हो की गई थी। राजस्व विभाग के अधिकारी पीड़ित परिवारों को बार-बार नापी की तिथि बताते रहे लेकिन वे मौके पर नहीं पहुंचे।
निर्माणाधीन जल जीवन मिशन की पानी की टंकी, टंकी की दक्षिणी दीवार से सटकर नरेंद्र सिंह के फार्म तक जाने वाला रास्ता और मृतक अजय प्रसाद द्वारा अपनी भूमिधरी में जेसीबी से खुदवाई गई नींव (बाएं से दाएं पहली पंक्ति); गाटा संख्या 77 मी. की खतौनी और नरेंद्र सिंह का मकान (बाएं से दाएं, नीचे)
26 जुलाई को धीना थाना प्रभारी से लेकर सकलडीहा तहसील प्रशासन द्वारा गठित टीम के लोग पीड़ित परिवार को नापी के लिए आने का भरोसा देते रहे। वे लोग इंतजार करते रहे, लेकिन टीम मौके पर नहीं पहुंची। पहले भी तहसील प्रशासन ने निचली अदालत में आरोपी नरेंद्र सिंह की जमानत की सुनवाई की तिथि पर नापी के लिए आने की सूचना दी थी। फिर मुहर्रम के दिन तिथि भी निर्धारित की गई थी लेकिन त्योहार की वजह से उस दिन भी टीम नहीं पहुंची। आखिरकार वह कौन-सा कारण था जिसकी वजह से तहसील प्रशासन नापी की तिथि की सूचना पीड़ित परिवार को देता था, लेकिन मौके पर नहीं पहुंचता था?
सवाल यहीं नहीं रुकते। अंतत:, 29 जुलाई की सुबह करीब दस बजे सकलडीहा तहसीलदार अजीत कुमार सिंह की अगुआई में तहसील प्रशासन की टीम मृतक अजय प्रसाद की भूमिधरी वाली जमीन की पैमाइश करने अचानक करजरा गांव पहुंची। शम्भू नाथ ने टीम की कार्यशैली पर सवाल उठाया है। उनका आरोप है कि नक्शे के अनुसार जमीन की पैमाइश नहीं की गई।
सवाल उठता है कि ग्राम पंचायत भूमि प्रबंधन कमेटी और राजस्व विभाग की टीम ने जल जीवन मिशन की पानी टंकी की दीवार और मृतक अजय प्रसाद की जमीन के बीच इतनी चौड़ाई की भूमि क्यों छोड़ी? अगर उन्होंने यह भूमि छोड़ी तो इसकी घेराबंदी क्यों नहीं कराई जबकि इस भूमि को अवैध कब्जे से मुक्त कराया गया था? अगर यह भूमि रास्ता के रूप में छोड़ी गई थी तो इसे राजस्व विभाग के दस्तावेजों में क्यों नहीं दर्ज किया गया? कथित रूप से रास्ता के रूप में छोड़ी गई इस भूमि की जानकारी केवल नरेंद्र सिंह को ही क्यों थी? इस परती भूमि से सटे काश्तकारों को इसकी जानकारी क्यों नहीं दी गई?
मेरी जमीन चौकोर दिखाकर नापी की गई जबकि नक्शे में जमीन पूरब दिशा में गोलाकार है। इससे विवादित भूमि पर ग्राम सभा की करीब आधा बिस्वा नवीन परती भूमि निकली। उसकी चौड़ाई भी वही निकली जो नरेंद्र सिंह कह रहा था। फिर उन्होंने एक संतुष्टि पत्र पर हस्ताक्षर कराया लेकिन उसकी प्रति मुझे नहीं दी।
- शंभू नाथ, मृतक अजय प्रजापति के भाई (बाएं), पुलिस के पहरे में अपने घर के सामने
क्या ग्राम प्रधान और राजस्व विभाग की टीम ने हत्यारोपी नरेंद्र सिंह और उसके शुभचिंतकों के दबाव में यह भूमि बीच में छोड़ी है? अगर ऐसा है, तो क्यों नहीं अजय प्रसाद की हत्या की साजिश रचने के लिए ग्राम पंचायत भूमि प्रबंधन समिति के सदस्यों समेत ग्राम प्रधान सुभाष यादव और पानी की टंकी के निर्माण के लिए भूमि की पैमाइश करने वाले राजस्व विभाग के कर्मचारियों और अधिकारियों के खिलाफ भी प्राथमिकी दर्ज हो?
शम्भू नाथ के उठाए सवालों पर गौर करें तो ऐसा सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी के नेताओं के दखल के बिना संभव नहीं है! इससे इस बात के संकेत भी मिलते हैं कि प्रशासन में प्रभाव रखने वाले क्षत्रिय जाति के राजनेता अपनी जाति के हत्यारोपियों के साथ खड़े हैं। इसकी पुष्टि हत्यारोपियों के पक्ष में क्षत्रिय जाति के संगठनों की प्रत्यक्ष गोलबंदी से होती है। क्षत्रियों के संगठन श्री राष्ट्रीय राजपूत करणी सेना ने बीती 22 जुलाई को नरेंद्र कुमार सिंह के घर पर एक बैठक की थी। उससे पहले भी आरोपी के घर अज्ञात लोगों ने बैठक की थी जिसमें एक पुलिसकर्मी भी शामिल था।
जाति-गौरव का एकतरफा दंश
जमीन विवाद के चलते मामूली से दिखने वाले एक हत्याकांड में करणी सेना को पहुंचने की जरूरत क्यों पड़ गई? जबकि हत्या किसी राजपूत की तो हुई नहीं? क्या उत्तर प्रदेश में हर जमीनी विवाद में हुई हत्या में ऐसे संगठन पहुंचते हैं? निश्चित ही नहीं। यही बात अजय प्रसाद हत्याकांड को पूर्वांचल का सामंतवाद समझने के लिए एक प्रतिनिधि घटना बना देती है। इसकी तहों में जाने पर हमें जातिगत जकड़बंदी तोड़ने के उद्देश्य से राजनीतिक प्रतिनिधित्व की प्रतिद्वंद्विता का भी एक अध्याय बरामद होता है।
जब कोई वंचित-दमित जाति राजनीतिक चेतनासंपन्न हो जाती है तो वह पुराने सामंती वर्चस्वों को चुनौती देने लगती है। करजरा की यह कहानी इसी तनाव को रेखांकित करती है। इसका तात्कालिक संदर्भ पिछले पंचायत चुनाव तक जाता है, जब अजय प्रसाद और उनके भाई शम्भू ने मौजूदा वर्चस्व के राजनीतिक ढांचे को चुनौती देने की गलती कर डाली थी। इस चुनौती के पीछे की वजह आंकड़ों में जाहिर है।
मृतक अजय प्रसाद का परिवार कुम्हार जाति से आता है। कुम्हार पवनी जाति-समूह का हिस्सा हैं। इस जाति के लोग पारंपरिक रूप से मिट्टी का बर्तन बनाकर अपना जीविकोपार्जन करते हैं। प्लास्टिक, फाइबर और थर्माकोल के बर्तनों के आ जाने से इनकी आर्थिक हालत पहले की तुलना में काफी खराब हो गई है। उच्च शिक्षा और नौकरियों में भी यह समुदाय काफी पिछड़ा हुआ है। राजनीतिक रूप से गोलबंद न होने की वजह से इन जातियों के लोगों पर आए दिन हमला होता रहता है। प्रायः एक गांव में इनके दो-चार घर ही होते हैं। इस वजह से ये खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं।
उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सपा सरकार ने कुम्हारों को अतिपिछड़ा से अनुसूचित जाति में शामिल करने की एक अधिसूचना जारी की थी, लेकिन न्यायालय ने उसे खारिज कर दिया, हालांकि मध्य प्रदेश के विंध्य इलाके में इस जाति के लोग अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल हैं। उत्तर प्रदेश में इस समुदाय का एक बड़ा हिस्सा खुद को अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल कराने के लिए अब भी संघर्ष कर रहा है।
कुम्हारों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के अभाव में करजरा भी इस संघर्ष से अछूता नहीं है। कुम्हारों के प्रतिनिधित्व के लिए उनकी गोलबंदी पर केंद्रित दो राजनीतिक दल फिलहाल सक्रिय हैं: जन भागीदारी पार्टी (अपंजीकृत) और भागीदारी पार्टी (पी)। जन भागीदारी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष देवेंद्र कुमार प्रजापति और भागीदारी पार्टी (पी) के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रेमचंद प्रजापति के नेतृत्व में सैकड़ों की संख्या में कुम्हारों ने जिलाधिकारी कार्यालय का घेराव कर अजय प्रसाद के हत्यारों की गिरफ्तारी और पीड़ित परिवार को एक करोड़ रुपये के मुआवजे की मांग की थी। साथ ही, उन्होंने जिला प्रशासन को चेतावनी दी थी कि हत्या के सभी आरोपियों को नहीं पकड़ा गया और उनकी मांगें नहीं मानी गईं तो वे सात दिनों बाद बड़ा आंदोलन करेंगे। हत्या को महीना भर हो रहा है। इन दलों की सक्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कुम्हारों की राजनीति करने वाली दोनों पार्टियों के लोग चंदौली की सड़कों पर अब तक नहीं उतरे हैं।
स्वाभाविक है कि ऐसे परिदृश्य में मृतक अजय प्रसाद के भाई शम्भू ने अगर चुनाव लड़ने का फैसला किया, तो इसमें कहीं कोई दिक्कत नहीं थी बल्कि यह मुख्यधारा में नुमाइंदगी की ओर एक सकारात्मक कदम था। दिक्कत केवल संख्याबल की थी, जो परिणामों को तय करता है। करजरा ग्राम में कुल 1181 मतदाता हैं। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों की जमात में यहां मुसहर, दुसाध (पासी), गोंड और खरवार जातियों के लोग आते हैं। गांव में करीब 40 घर क्षत्रियों के होंगे, करीब 30 घर यादवों के हैं, सात-सात घर तेली और लोहार जातियों के हैं, पांच घर नाई जाति के हैं, दो घर कहार और एक घर धोबी (मुस्लिम) के हैं। गांव में कुम्हारों के तीन परिवार हैं जिनमें कुल 38 लोग हैं। इससे गांव में पवनी जातियों (लोहार, नाई, कहार और धोबी मिलाकर मात्र 22 परिवार) की संख्यात्मक ताकत का अंदाजा लगाया जा सकता है।
इसके बावजूद शम्भू नाथ 82 मतों के साथ तीसरे स्थान पर रहे जबकि नरेंद्र सिंह 68 मतों के साथ सातवें स्थान पर आए। 163 मत पाकर सुभाष यादव ग्राम प्रधान निर्वाचित हुए। इस चुनाव के बाद नरेंद्र सिंह और उनके परिवार के साथ शम्भू के परिवार का व्यावहारिक संबंध पहले जैसा नहीं रह गया था, शम्भू खुद इसकी पुष्टि करते हैं। चुनाव के बाद दोनों परिवारों में बातचीत कम हो गई थी। ध्यान देने वाली बात है कि मृतक अजय प्रसाद जिस जमीन पर अपने परिवार के साथ रहते थे, वह जमीन उनके पिता कान्ता प्रसाद ने नरेंद्र कुमार सिंह के पिता विजय बहादुर सिंह से बैनामा ली थी। मृतक का परिवार आज भी वहीं रह रहा है।
यह चुनाव परिणाम करजरा के राजपूतों के लिहाज से तो कतई सामान्य नहीं माना जा सकता, जिन्होंने गांव के 1942 के शहीदों की सूची तक में दूसरी जातियों को जगह देने से इनकार कर दिया था। करजरा का शहीद स्मारक आज भी इस एकतरफा जाति-गौरव की ज्वलन्त गवाही देता है।
16 अगस्त 1942 को धानापुर थाने में हुए गोलीकांड में कुल नौ लोग शहीद हुए थे। इनमें विशुनपुरा के अंगनू बिन्द, विरना के चिगनू चमार, इनायतपुर के पुरुषोत्तम कोइरी, कवई पहाड़पुर के विश्वनाथ गोंड़, भदाहूं के महंगू सिंह, मनिहारी गाजीपुर के रघुनाथ सिंह, मठिया के राज कुमार गिरी, पहाड़पुर के शिव मंगल चौधरी, हिंगुतर गढ़ के हीरा सिंह शामिल थे। शहीद स्मारक पार्क में लगे स्वतंत्रता संग्राम शहीदों की पुराने स्तम्भ में शहीदों की संख्या दस थी जिसमें भैसोर के फेंकू राय का नाम भी शामिल था।
भारत की आजादी के 25 वर्ष पूरे होने पर भारत सरकार ने धानापुर में 15 अगस्त 1972 से 14 अगस्त 1973 के बीच धानापुर थाना गोलीकाण्ड के शहीदों का स्मारक बनवाया। उत्तर प्रदेश राज्य योजना आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष पं. कमलापति त्रिपाठी ने 16 अगस्त 1973 को इसका उद्घाटन किया।
आज यह शहीद स्मारक शहीद पार्क में तब्दील हो चुका है। शहीदों के नामों की लिखावट और प्रतिमाओं के निर्माण में इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि क्षत्रिय (राजपूत) का जाति-गर्व किसी भी रूप में अन्य जातियों के शहीदों के समान न हो। सुशील सिंह की विधायक निधि से पार्क में केवल तीन सजातीय शहीदों महंगू सिंह, हीरा सिंह और रघुनाथ सिंह की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं। गोलीकांड वाली जगह धानापुर थाने में भी इन्हीं तीन शहीदों के नाम का स्मृति-चिन्ह स्थापित किया गया है।
पहाड़पुर के शहीद शिव मंगल चौधरी के खानदान के मुसाफिर यादव क्रांतिकारी शहीदों की सूची में महंगू सिंह और रघुनाथ सिंह के नाम शामिल किए जाने पर सवाल उठाते हैं। धानापुर शहीद स्मारक स्थल में केवल तीन शहीदों की प्रतिमाएं लगाने पर उन्होंने जिला प्रशासन से सभी शहीदों की प्रतिमाओं को लगाने की बात कई बार कही है। वे कहते हैं, ‘’लेकिन कोई सुनता ही नहीं है। यहां कौन सुनने वाला है?’’
गांव से लेकर राजनीति तक एक जाति के गौरव का खौफ दूसरी जातियों पर ऐसा है कि उधर कोई सुनने वाला नहीं है तो इधर कोई बोलने वाला भी नहीं है। अजय प्रसाद प्रजापति की हत्या के समय मौके पर दर्जनों लोगों के मौजूद होने की बात सामने आई है लेकिन कोई भी उनकी हत्या के बारे में बताने को तैयार नहीं है। जो मौके पर मौजूद नहीं थे वे हत्या के बारे में मीडिया और आपसी चर्चा में सामने आई बातों को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहे हैं।
अजय प्रसाद के शव का अंतिम संस्कार करने के बाद अगले दिन करजरा समेत आस-पास के कई गांवों के लोगों ने धानापुर-जमनियां मार्ग जाम कर हत्यारोपियों को तत्काल पकड़े जाने और पीड़ित परिवार को न्याय दिलाए जाने की मांग की थी। इस दौरान ग्रामीणों ने धीना थाना प्रभारी रमेश यादव से योगी सरकार की बुलडोजर नीति पर सवाल पूछा था।
शव गांव से जाने के बाद जो ग्रामीण हत्या के विरोध में बोल रहे थे, उन्हें अब खामोश करा दिया गया है। उनकी चीखें अब सिसकियों में तब्दील हो चुकी हैं। करजरा हत्याकांड से उपजा यह खौफ आसपास के उन इलाकों में भी है जहां की बसावट में बाकी जातियां संख्याबल में राजपूतों पर भारी हैं।
उत्तर प्रदेश के गांवों में जाति-वर्चस्व से निकले खौफ का प्रभाव जातिगत बसावटों और उनकी आबादी से निर्धारित होता है। मसलन, करजरा गांव से करीब तीन किलोमीटर दूर सुढ़िया गांव में चमार जाति के 200 घरों की बस्ती है। सुढ़िया के डॉ. भीमराव अम्बेडकर उद्यान एवं सांस्कृतिक केंद्र पर 60 वर्षीय राजेंदर और 72 वर्षीय जय नारायण पाल मिले। राजेंदर ने बताया कि वे लोग ठाकुरों से जरा भी नहीं डरते हैं। वे उल्टा बोलकर यहां से जा नहीं सकते हैं।
पास के जिगना गांव में शिव शंकर पासवान और उनका परिवार अपने खेत में धान की रोपाई कर रहे थे। करजरा की घटना के बारे में पूछने पर कहते हैं कि भविष्य में बिल्कुल ऐसी घटना यहां भी घट सकती है। इससे वे लोग भी दहशत में हैं।
जिसकी लाठी उसका न्याय
बतौर क्षेत्रीय विधायक, सुशील सिंह को पीड़ित परिवार के घर पहुंचने में चार दिन लग गए जबकि वे घटनास्थल से महज 12 किलोमीटर दूर धानापुर में रहते हैं। सुशील सिंह पीड़ित परिवार से मिलने तब पहुंचे थे जब मृतक के बड़े भाई शम्भू नाथ ने अपने भाई का दाह संस्कार करने के बाद उनके आवास पर जाकर न्याय की गुहार लगाई थी।
पीड़ित परिवार से मिलने के बाद यू-ट्यूब चैनल ‘न्याय तक’ के पत्रकार कुमार विजय के एक सवाल पर उन्होंने कहा, “अपराध, गुंडागर्दी और रंजिश के अलग-अलग मायने होते हैं। हत्याएं हो रही हैं, लेकिन जिस तरीके से पहले की सरकारों में गुंडागर्दी हुआ करता था, अपराध होता था, गैंग होता था, आज के डेट में कोई गैंग नहीं होता है, कोई बड़ा संगठित अपराध नहीं होता है।“
सुशील सिंह की यह बात सच है, लेकिन अधूरी है। उत्तर प्रदेश में बाहुबली अतीक अहमद की दिनदहाड़े हत्या और मुख्तार अंसारी की संदिग्ध मौत इसकी पुष्टि करती है। इन मौतों के साथ आज पूर्वांचल में सुशील सिंह के चाचा बृजेश सिंह को चुनौती देने वाला कोई भी बाहुबली जिंदा नहीं है।
इतना ही नहीं, सिकरौरा नरसंहार कांड में निचली अदालत से सभी आरोपियों के बरी हो जाने और उच्च न्यायालय इलाहाबाद के आदेश में केवल चार आरोपियों को ही सजा होने की समयावधि पर गौर करें तो यहां भी जातिगत वर्चस्व की राजनीति ही सामने आती है जो न्यायिक प्रक्रिया को भी प्रभावित करने से पीछे नहीं रहती। इसे समझने के लिए फिर पीछे चलते हैं।
28 अक्टूबर, 2000 को चंदौली के ही भभौरा गांव निवासी और राजपूतों के नेता के रूप में चर्चित राजनाथ सिंह सूबे के मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान अपर जिला एवं सत्र न्यायालय में सिकरौरा नरसंहार कांड में बहस हुई। कई गवाहों के बयानों में भिन्नता आ गई। 8 मार्च, 2002 उनका कार्यकाल खत्म हो गया। तब केंद्र में भाजपा की अगुआई वाली राजग सरकार थी। प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा। चौदहवीं विधानसभा के लिए चुनाव हुआ। किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। भाजपा के समर्थन से बसपा प्रमुख मायावती 3 मई, 2002 को सूबे की मुख्यमंत्री बनीं। इसी सरकार के दौरान निचली अदालत ने सिकरौरा नरसंहार कांड के आरोपियों (बृजेश कुमार सिंह उर्फ वीरू सिंह को छोड़कर) को बरी किया था।
मामले में अगर निचली अदालत से बृजेश सिंह के बरी होने समय पर गौर करें, तो यह फैसला भी भाजपा सरकार के दौरान ही आया। योगी आदित्यनाथ 19 मार्च, 2017 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 16 अगस्त, 2018 को वाराणसी के अपर जिला एवं सत्र न्यायालय ने सिकरौरा नरसंहार हत्याकांड में आरोपी बृजेश कुमार सिंह को बरी कर दिया। बीते नवंबर महीने में उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने बृजेश सिंह की रिहाई के खिलाफ हीरावती देवी की अपील को खारिज कर दिया। पुलिस के दावों पर गौर करें तो बृजेश सिंह के ऊपर 40 से अधिक मामले दर्ज हैं। इसके बावजूद योगी आदित्यनाथ की सरकार में वे जमानत पर जेल से बाहर है।
न्याय पर जातिगत वर्चस्व के प्रभाव की ऐसी छवियां करजरा हत्याकांड में भी दिख रही हैं। पीड़ित परिवार के घर सुशील सिंह के पहुंचने और दो हत्यारोपियों की गिरफ्तारी के मामले में एक बड़ा दिलचस्व कनेक्शन सामने आया है। मृतक अजय प्रसाद के हत्यारोपी अभिषेक सिंह को पुलिस ने घटना के दो दिन बाद हिरासत में लिया था लेकिन उसकी गिरफ्तारी नहीं दिखाई थी। इसके दो दिन बाद सुशील सिंह पीड़ित परिवार के घर पहुंचे। अगली सुबह यानी पांचवें दिन धीना थाना पुलिस ने नरेंद्र सिंह और अभिषेक सिंह को गिरफ्तार कर के न्यायालय में पेश किया, जहां से उन्हें जेल भेज दिया गया।
मामले में तीसरा आरोपी आशीष सिंह अब भी फरार है। सवाल उठता है कि तीसरे हत्यारोपी को कौन बचा रहा है? क्या उसे बचाने में सत्ताधारी भाजपा के क्षत्रिय नेताओं का हाथ है?
परिवार का हाल
आशीष सिंह भी फरार है जबकि अजय की हत्या को करीब महीना भर हो रहा है। उनका और उनके भाई का परिवार अब भी दहशत में है। परिवार के सदस्यों को धमकियां मिल रही हैं। मृतक के भाई शम्भू नाथ की बेटी ने गत 23 जुलाई को पुलिस अधीक्षक से सुरक्षा की गुहार लगाई और मामले में फरार आरोपी को तत्काल गिरफ्तार करने की मांग की।
इस घर की बेटियां अब सीधे मुख्यमंत्री से सवाल पूछ रही हैं। ये सवाल बेबुनियाद नहीं हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपराधियों और माफियाओं पर नकेल कसने के लिए बुलडोजर नीति का बखान करते रहते हैं लेकिन उनकी यह नीति सजातीय अपराधियों के खिलाफ लागू क्यों नहीं होती? बलिया के बांसडीह में 20 जुलाई को रोहित पांडेय की हत्या कर दी गई। इसमें कई यादव लड़के आरोपी बनाए गए। तीन दिन बाद जिला प्रशासन ने तीनों के घर को बुलडोजर से ध्वस्त कर दिए। बेटियां यही पूछ रही हैं कि करजरा में आरोपियों नरेंद्र सिंह, आशीष सिंह और अभिषेक सिंह के घरों पर बुलडोजर की कार्रवाई आज तक क्यों नहीं की गई।
को दिया गया शिकायती पत्र
अजय प्रसाद प्रजापति के परिवार में उनकी 32 वर्षीय पत्नी मंशा देवी के अलावा उनके दो बेटे अंशदीप (11) और कौशलदीप (9) हैं। अंशदीप गांव के कंपोजिट विद्यालय में छठवीं कक्षा का छात्र है और कौशलदीप चौथी में पढ़ रहा है। अजय अपनी डेढ़ बीघा जमीन पर खेती करते थे और ऑटोरिक्शा चलाकर परिवार का भरण-पोषण करते थे। उनकी खतौनी से पता चलता है कि वह कर्ज लेकर किसी भी प्रकार का कार्य करने के पक्षधर नहीं थे। भूमिधरी किसान होते हुए भी उन्होंने न तो किसान क्रेडिट कार्ड बनवाया था और न ही जिला सहकारी समिति के सदस्य थे। इसलिए उनकी मौत के बाद उनके परिवार के सदस्यों पर आर्थिक संकट गहरा गया है।
उनकी पत्नी मंशा देवी पति की मौत के सदमे में हैं। जब मैं उनके घर पहुंचा तो वे चारपाई पर बेसुध लेटी हुई थीं। रिश्तेदारी की महिलाएं घर का काम कर रही थीं। जेठ शम्भू नाथ के पास पीएसी के दो जवान बैठे हुए थे। गांव में पीएसी के 15 जवान तैनात थे जो कंपोजिट विद्यालय में डेरा डाले हुए थे। रात में धीना थाना पुलिस के दो जवानों की ड्यूटी भी लगाई गई थी।
मंशा देवी घटना के समय वह मौके पर नहीं थीं। हत्या की सूचना मिलने के बाद वह वहां पहुंची। वह वे हत्यारोपियों को फांसी दिए जाने की मांग कर रही हैं। वह आरोपियों के फार्म हाउस को नहीं देखना चाहती हैं। वह हत्या वाली जगह मौजूद अपनी भूमिधरी की घेराबंदी कराना चाहती हैं ताकि भविष्य में उनके बच्चों को कोई मार न सके।
राजनीतिक सरगर्मी
करीब चार दशक पहले हुए सिकरौरा कांड यादव परिवार के सात सदस्यों की जघन्य हत्या के बाद विपक्ष के तत्कालीन नेता पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने गांव का दौरा किया था। अजय प्रसाद की हत्या पर मुख्य विपक्षी पार्टी के मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने एक शब्द भी नहीं कहा, न ही सोशल मीडिया पर घटना से जुड़ी कोई पोस्ट की जबकि पीड़ित परिवार ने उनसे मिलने की गुहार लगाई थी।
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का रुख भी इस मामले में उदासीन रहा। बसपा प्रमुख मायावती और आकाश आनंद ने घटना के संबंध में एक शब्द भी नहीं कहा। न ही उनकी पार्टी ने पीड़ित परिवार के यहां कोई प्रतिनिधिमंडल भेजा।
सपा के प्रवक्ता मनोज सिंह ‘काका’ ने बेशक हत्या के अगले दिन ‘एक्स’ पर इस संवाददाता की पोस्ट को रिट्वीट और डीजीपी को टैग करते हुए लिखा कि दबंग अपराधियों के खिलाफ कड़ी से कड़ी कार्रवाई सुनिश्चित हो। सपा के पूर्व विधायक मनोज कुमार सिंह ‘डब्लू’ अजय प्रसाद की शव यात्रा में शामिल हुए। बाद में सपा के क्षेत्रीय सांसद विरेंद्र सिंह की अगुआई में पार्टी का एक प्रतिनिधिमंडल करजरा जाकर पीड़ित परिवार से मिला। विरेंद्र सिंह ने व्यक्तिगत रूप से 50 हजार रुपये का चेक मृतक की पत्नी को सौंपा।
चंदौली लोकसभा से बसपा के पूर्व उम्मीदवार सत्येंद्र मौर्य निजी स्तर पर पीड़ित परिवार से मिलने करजरा पहुंचे थे। इसके अलावाभाकपा-माले के जिला सचिव अनिल पासवान के नेतृत्व में पार्टी का एक प्रतिनिधिमंडल भी करजरा पहुंचा। उत्तर प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष राघवेंद्र प्रताप सिंह की अगुआई में प्रदेश कांग्रेस का 13 सदस्यीय एक प्रतिनिधिमंडल भी करजरा पहुंचा था।
इतिहास का दुहराव?
यह घटना सामान्य तौर पर जमीन के विवाद में हुई मारपीट और हत्या ही नजर आएगी, लेकिन अब तक गिनाए गए इसके बिन्दुओं, कानूनी प्रक्रिया, सुबूतों और हत्या के बाद के घटनाक्रम तथा इलाके के सामंती इतिहास पर गौर करेंगे तो इसकी जड़ें उस सोच और लामबंदी से जुड़ी मिलेंगी जो ऐतिहासिक रूप से सामाजिक-आर्थिक स्तर पर ताकतवर एक समुदाय विशेष को कुछ भी गैर-कानूनी कृत्य करने की छूट और अपराधों से दंडमुक्ति की सहूलियत देती है।
यही वजह है कि मौजूदा सरकार के दौरान ग्राम सभा, जिला परिषद, सिंचाई विभाग और वन विभाग की जमीनों पर अगड़ी जातियों के दबंग लोगों द्वारा अवैध कब्जा करने की खबरें लगातार सामने आ रही हैं। अब स्थिति इससे काफी आगे बढ़ चुकी है और भूमिधरी वाली जमीनों पर भी जबरन अवैध कब्जा किया जा रहा है, मारपीट की जा रही है और हत्या हो रही है।
ये गैर-कानूनी गतिविधियां भाजपा की पूर्ववर्ती राजनाथ सिंह सरकार के कार्यकाल की याद दिलाती हैं जब चंदौली, सोनभद्र और मिर्जापुर में नक्सली गतिविधियां अचानक तेज हो गई थीं। इलाके में पुलिस-नक्सली मुठभेड़ों की संख्या भी बढ़ गई थी। इसमें कई बेगुनाह पुलिस की कार्रवाई का शिकार हुए थे। जमीन से जुड़े विवादों की वजह से इन जिलों में दर्जनों हिंसक घटनाएं घटीं जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए थे। ऐसी घटनाओं का दुहराव क्या उत्तर प्रदेश के चंदौली, सोनभद्र और मिर्जापुर के रक्तरंजित इतिहास को एक बार से जिंदा करने की क्षमता रखता है? या, कहें, क्या ऐसी किसी योजना पर सुनियोजित ढंग से काम हो रहा है?