भारत के नए आय कर कानून से स्वतंत्र पत्रकार और डिजिटल क्रिएटर क्यों डरे हुए हैं?

Illustration/Perplexity AI
A tax authority peeping into digital space of a handcuffed journalist
भारत की संसद ने 12 अगस्‍त को आय कर कानून, 2025 पारित किया था। इसके बाद मीडिया में यह चर्चा जोर पकड़ने लगी कि टैक्‍स अधिकारी अब अपने विस्‍तारित अधिकारों का दुरुपयोग कर के कहीं पत्रकारों के स्रोतों को उजागर न करने लगें, उनकी निगरानी न करने लग जाएं और वित्तीय अपराधों के आरोपों से उन्‍हें निशाना न बनाने लग जाएं। इस संदर्भ में कमेटी टु प्रोटेक्‍ट जर्नलिस्‍ट्स (सीपीजे) की सोमी दास ने सरकार की मीडिया पर बढ़ती हुई निगरानी और नए कर कानून के निहितार्थों पर इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के अपार गुप्‍ता से बात की है।

मीडिया के खिलाफ इस्‍तेमाल किए जा सकने वाले कर कानूनों के वैश्विक ज़खीरे में एक और इजाफा हुआ है। भारत ने एक नया कर कानून लागू किया है जो पत्रकारों और डिजिटल अधिकार के पैरोकारों के बीच व्‍यापक चिंता का सबब बना हुआ है। यह कानून तलाशी अभियान के दौरान अधिकारियों को ईमेल, क्‍लाउड अकाउंट और एनक्रिप्‍टेड उपकरणों को देखने के एकतरफा अधिकार सौंपता है।  

भारत की संसद ने 12 अगस्‍त को आय कर कानून, 2025 पारित किया था। इसके बाद ही यह डर पैदा हुआ कि अधिकारी अब अपने विस्‍तारित अधिकारों का दुरुपयोग कर के कहीं पत्रकारों के स्रोतों को उजागर न करने लगें, उनकी निगरानी न करने लग जाएं और वित्तीय अपराधों के आरोपों से उन्‍हें निशाना न बनाने लग जाएं। 

पत्रकारों के ऊपर सरकारों द्वारा कर कानूनों के तहत आरोप लगाने का चलन अब बढ़ रहा है। ऐसा हांगकांग में हुआ है और फिलिपींस में भी, जहां नोबेल पुरस्‍कार विजेता मारिया रेसा और उनके समाचार प्रतिष्‍ठान रैपलर को कर चोरी के आरोपों के खिलाफ पांच साल लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। भारत तो पहले से ही स्‍वतंत्र मीडिया प्रतिष्‍ठानों के खिलाफ कर विभाग के छापों, हवाला के मामलों और अपारदर्शी कानूनी हथकंडे अपनाने के लिए कुख्‍यात है। अब नया कर कानून सरकार की इस ताकत को डिजिटल दायरे तक विस्‍तारित करता है।         

स्‍वतंत्र मीडिया पर निगरानी रखने के लिए लगातार बढ़ते भारत सरकार के कानूनी औजारों में यह कानून महज एक है। डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्‍शन कानून और संशोधित आइटी नियमों से लेकर हाल ही में शुरू की गई सहयोग टेकडाउन व्‍यवस्‍था जैसे डिजिटल उपायों ने पत्रकारों के ऊपर बोझ को और बढ़ा दिया है और नए खतरे पैदा किए हैं। 


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इन घटनाक्रमों को कुछ ही वकीलों ने करीब से समझा है, जिनमें प्रमुख हैं अपार गुप्‍ता जो डिजिटल अधिकार समूह इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक हैं तथा संवैधानिक और डिजिटल कानून के विशेषज्ञ भी हैं। वे प्रेस की आजादी से संबंधित कई प्रकरणों में जुड़े रहे हैं। उनमें एक है डाउरी कैलकुलेटर नाम की वेबसाइट, जिसको ब्‍लॉक किए जाने के खिलाफ उन्‍होंने कानूनी चुनौती दी। वे ब्रॉडकास्‍ट सर्विसेज (रेगुलेशन) बिल के मसौदे के खिलाफ पैरवी करने वालों के अगुवा रहे हैं, जो ऑनलाइन कंटेंट के ऊपर सरकार की निगरानी बढ़ाने के उद्देश्‍य से बनाया गया है। उन्‍होंने भारत में पत्रकारों के ऊपर एनएसओ ग्रुप के जासूसी औजार पेगासस के खतरनाक प्रभाव पर भी मुखरता से बोला है।     

सीपीजे ने सरकार की मीडिया पर बढ़ती हुई निगरानी और नए कर कानून के निहितार्थों पर गुप्‍ता से बात की है। यह साक्षात्‍कार संपादित है। इस संदर्भ में सीपीजे द्वारा कर विभाग, प्रेस सूचना ब्‍यूरो और वित्त मंत्रालय को ईमेल से भेजे सवालों का जवाब नहीं आया है।


अपार गुप्‍ता, इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक

नया आयकर कानून भारत में पत्रकारों के लिए किस तरह के खतरे पैदा कर रहा है?

भारत में कर विभाग द्वारा पत्रकारों पर निगरानी कोई नई चीज नहीं है। प्राय: आलोचनात्‍मक रिपोर्टिंग के बदले पत्रकारों को कर विभाग से नोटिस भेजे गए हैं। नई बात यह है कि सरकार की यह ताकत अब डिजिटल दायरे तक फैल चुकी है। आयकर कानून की धारा 132 के तहत पहले से ही अधिकारियों को तलाशी लेने का अधिकार प्राप्‍त है यदि उनके पास ‘’यह मानने के कारण हैं’’ कि आय छुपाई जा रही है। नए आयकर कानून के तहत हालांकि ये अधिकार पारंपरिक कर चोरी से बहुत आगे चले गए हैं। धारा 247 अधिकारियों को कथित वर्चुअल डिजिटल जगत की छानबीन करने की छूट देती है। यह शब्‍द बहुत अटपटा है, चूंकि इसके अंतर्गत सब कुछ आ सकता है- आपके फोन से लेकर आपके ऑनाइन खातों तक। वित्त मंत्री ने तो यहां तक कह दिया है कि इस ताकत का इस्‍तेामल कर के किसी व्‍यक्ति की आवाजाही का पता लगाने के लिए उसके गूगल मैप हिस्‍ट्री को जांचा जा सकता है।

पत्रकारों के लिए यह गंभीर खतरा पैदा करता है। तलाशी अभियानों के दौरान बड़ी आसानी से उन उपकरणों को जब्‍त किया जा सकता है जिनमें संदेश, स्रोत, अप्रकाशित कहानियां, और विसलब्‍लोअरों की गवाहियां दर्ज हों। इस कार्रवाई का आधार केवल शक है। अधिकारियों को तलाशी शुरू करने से पहले विश्‍वसनीय साक्ष्‍यों के दस्‍तावेजीकरण की कोई आवश्‍यकता नहीं होगी। धारा 249 इस समस्‍या को और बढ़ा देती है क्‍योंकि तलाशी के पीछे के कारण को उजागर करने से वह रोकती है, यानी किसी उपकरण को बिना कारण जाने आपको देना पड़ेगा और इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि जब्‍त किया गया साक्ष्‍य सुरक्षित ढंग से बचाकर रखा जाएगा।

निजता और निगरानी से सुरक्षा के अंतरराष्‍ट्रीय मानकों पर य‍ह कानून कितना खरा है?

दुनिया भर में कानूनी निगरानी अनिवार्य और आनुपातिक सिद्धांतों से निर्देशित होती है, जिसे 2013 में संयुक्‍त राष्‍ट्र की मानवाधिकार परिषद से बनाया था। ये सिद्धांत 13 मूल शर्तें बताते हैं जिनसे मूल्‍यांकन किया जा सके कि राज्‍य द्वारा लिया गया निगरानी का उपाय अंतरराष्‍ट्रीय मानवाधिकार कानून के साथ कितना सुसंगत है। इन शर्तों में कानूनी मानदंड, वैध उद्देश्‍य, अनिवार्यता, आनुपातिकता और न्‍यायिक नजरिया शामिल हैं। भारत के कर कानून की धारा 247 महज शक के आधार पर उपकरणों को जब्‍त करने या ऑनलाइन अकाउंटों को देखने की एकमुश्‍त ताकत देती है। कोई रोकथाम, सुरक्षा या पारदर्शिता के उपाय इसके भीतर नहीं हैं।


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उदाहरण के लिए, ज्‍यादातर पत्रकार भुगतान के लिए, बैंकिंग के लिए, पैसे लेने-देने या अपने स्रोतों से बात करने के लिए एक ही डिवाइस का इस्‍तेमाल करते हैं। यह सारा संवेदनशील डेटा केवल उनके स्‍मार्टफोन में एकमुश्‍त जमा होता है। नए कानून के तहत अब वह पूरी तरह असुरक्षित है। नया कानून आनुपातिकता के सिद्धांत का भी उल्‍लंघन करता है। अधिकारियों को कायदे से अपनी जरूरत की सूचना ही जब्‍त करनी चाहिए जिसकी उनकी जांच से प्रासंगिकता हो, न कि पूरा का पूरा स्‍मार्टफोन, जो संवेदनशील निजी और पेशेवर डेटा का संग्रह है। मौजूदा प्रावधानों के अंतर्गत अभी यह अस्‍पष्‍ट है कि इस पर कुछ सुरक्षा लागू होगी या नहीं।

क्‍या अधिकारी कर चोरी के शक के घेरे में आए किसी पत्रकार का निजी डिजिटल डेटा देने के लिए कानूनी रूप से टेक कंपनियों को बाध्‍य कर सकते हैं?   

हां, वेसे ही जैसे बैंकों को पिछले कानूनों के तहत वित्तीय रिकॉर्ड सौंपने के लिए बाध्‍य किया गया, टेक कंपनियों को ईमेल, क्‍लाउड स्‍टोरेज, चैट हिस्‍ट्री और अकाउंट से जुड़ा अन्‍य डेटा देने के आदेश दिए जा सकते हैं। यह नया कानून सरकार की ताकत को कागजात से आगे बढ़ाकर डिजिटल क्षेत्र में ले जाता है।

इससे स्‍वाभाविक तौर पर सवाल उठता है कि इस नए सेंसरशिप के माहौल में डिजिटल मंचों की क्‍या भूमिका रहने वाली है?

डिजिटल प्‍लैटफॉर्म मुनाफे से संचालित होते हैं और विज्ञापन के उद्देश्‍य से यूजर्स का डेटा भारी मात्रा में जमा करते हैं। वे स्‍वतंत्र अभिव्‍यक्ति के वाहक नहीं हैं। इसके बावजूद सरकार की मांग ऐसी हो सकती है जो प्‍लैटफॉर्मों को ऐसे तरीके अपनाने को बाध्‍य कर दे जो उनके व्‍यापारिक हितों के खिलाफ चले जाएं, जैसे कंटेंट को हटाना या संवादों को सेंसर करना

कभी-कभार कुछ प्‍लैटफॉर्म, जैसे एक्‍स, राज्‍य की व्‍यापक ताकत के खिलाफ नागरिक समाज द्वारा उठाई आपत्तियों के साथ खड़े हो जाते हैं, जैसा कि सहयोग पोर्टल के मामले में हुआ। इसके बावजूद खुद एक्‍स ने दुनिया भर में पारदर्शिता में गिरावट लाई है, मसलन, अब वह लुमेन डेटाबेस पर सरकारों द्वारा दिए गए ब्‍लॉक करने के आदेशों को सार्वजनिक नहीं कर रहा है। मेटा के भारत में अपेक्षाकृत ज्‍यादा यूजर हैं, तो उसने शायद ही कभी यहां सरकारी सेंसरशिप को चुनौती दी है।   

तमाम देशों में सरकारों ने स्‍वतंत्र मीडिया पर दबाव डालने के लिए वित्तीय आरोपों का सहारा लिया है। क्‍या आपको लगता है कि भारत के नए कर कानून के प्रावधान उसे उसी रास्‍ते पर ले जा रहे हैं, बल्कि दक्षिण एशिया में वह इस मामले में अगुवाई कर रहा है?

मैं कोई वैश्विक कर नीति का जानकार नहीं हूं, पर यह सच है कि दक्षिण एशिया में नियामक परिवेश को आकार देने में भारत का एक ट्रैक रिकॉर्ड रहा है। मसलन, हमारे सूचना प्रौद्योगिकी कानून के कुछ अंशों ने बांग्‍लादेश को ऐसे ही उपाय अपनाने के लिए प्रभावित किया था। 2022 में बांग्‍लादेश ने डिजिटल मीडिया, सोशल मीडिया और ओटीटी के लिए नियामक मसौदा बनाया था। ये कानून भारत के 2021 के आइटी नियमों के बाद आए थे और उनका लक्ष्‍य सोशल मीडिया व डिजिटल समाचार मीडिया के ऊपर सरकार के नियंत्रण को बढ़ाना था। दोनों ही कानूनों का उद्देश्‍य इंटरमीडियरी की जवबदेही सुरक्षा को सीमित कर के प्‍लैटफॉर्मों की एंड-टु-एंड एनक्रिप्‍टेड सेवाओं में सेंध लगाना था।


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मैं भरोसे से बस इतना कह सकता हूं कि भारत फिलहाल एक ऐसे कानूनी ढांचे की आजमाइश कर रहा है जो निजी डिजिटल स्‍पेस तक असामान्‍य पहुंच को महज कर चोरी के शक के आधार पर सहज-सामान्‍य बनाता है, और प्रेस की स्‍वतंत्रता के लिए यह अपने आप में खतरे की घंटी है।

इस कानून के अलावा पत्रकारों के सामने और कौन से कानूनी खतरे हैं?

सबसे मारक उदाहरणों में एक ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज (रेगुलेशन) बिल का है, जिसे फिलहाल वापस ले लिया गया है। सरकार एक ऐसी लाइसेंसिंग प्रणाली लाना चाहती थी जो यूट्यूबरों और स्‍वतंत्र टिप्‍पणीकारों तक पर लागू होती। तमाम ऐसे पत्रकार जो पारंपरिक मीडिया को वित्तीय दबावों या न्‍यूजरूम में वैचारिक ध्रुवीकरण के चलते छोड़ चुके हैं, वे दर्शकों तक पहुंचने और अपनी आजीविका के लिए अब केवल यूट्यूब जैसे मंचों के भरोसे हैं। अगर यह बिल आ जाता, तो इसके तहत समाचार और समकालीन मामलों पर टिप्‍पणी करने वाले किसी भी व्‍यक्ति को सरकारी पंजीकरण करवाना पड़ जाता।


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इस बिल के खिलाफ लोग इसलिए भी भड़क गए थे क्‍योंकि आप यदि सबस्‍टैक पर हैं, एक्‍स पर या फेसबुक पेज चलाते हैं तब भी आपको लाइसेंस लेना पड़ता नहीं तो आपको ब्‍लॉक कर दिया जाता। इतनी आलोचना हुई कि सरकार को उस बिल को ठंडे बस्‍ते में डालना पड़ गया, सरकार ने इसे वापस नहीं लिया है।

डेटा प्रोटेक्‍शन कानून भी पत्रकारों के लिए खतरे की घंटी था?

बिलकुल, डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्‍शन कानून बन चुका है, बस लागू नहीं हुआ है। यह सूचना के अधिकार को संशोधित करता है और एक अहम रियायत को कमजोर कर देता है जिसके सहारे जनहित में सूचना को पाने की छूट थी। प9कारों के लिए बड़ी चिंता यह है कि इसमें मीडिया के लिए कोई अलग से छूट नहीं है। उसके बगैर पत्रकारों को तकनीकी रूप से ‘डेटा के लिए जिम्‍मेदार’ माना जाएगा यानी ऐसी कहानियां प्रकाशित करने से पहले उन्‍हें सहमति लेनी होगी जिनमें किसी का निजी डेटा हो, भले ही वे लोकसेवकों पर रिपोर्टिंग क्‍यों न कर रहे हों। इस मसले को एडिटर्स गिल्‍ड, प्रेस क्‍लब ऑफ इंडिया, और अन्‍य प्रेस संगठनों ने रेखांकित किया है। सरकार ने बस अस्‍पष्‍ट आश्‍वासन देकर उनकी आपत्तियों को परे झाड़ दिया है।

इससे भी बुरा यह है कि कानून को लागू करने की जिम्‍मेदारी निभाने वाला डेटा प्रोटेक्‍शन बोर्ड सीधे सरकार को रिपोर्ट करता है। वह चाहे तो चुन-ुचन कर पत्रकारों को निशाना बना सकता है। मसलन, यदि किसी समाचार संस्‍थान ने सरकार की गतिविधियों पर कोई आलोचनात्‍मक रिपोर्ट की, तो बोर्ड डेटा के उल्‍लंघन का आरोप लगा सकता है, जुर्माना लगा सकता है या जांच खोल सकता है। ऐसी किसी भी कार्रवाई की धमकी भी खोजी रिपोर्टिंग के आड़े आ जाएगी क्‍योंकि संभव है संबंधित पत्रकार इसके राजनीतिक परिणामों, कानूनी पचड़ों, या अपनी छवि को नुकसान के डर से पीछे हट जाए। चाहे जो हो, उससे स्‍वतंत्र अभिव्‍यक्ति ही बाधित होगी।

हाल में भारत-पाकिस्‍तान के बीच तनाव के दौरान कई स्‍वतंत्र पत्रकारों के एक्‍स खाते बना किसी चेतावनी के ब्‍लॉक कर दिए गए थे। बार-बार ऐसा क्‍यों होता है?

जिनके खाते ब्‍लॉक हुए थे, वैसे 15 पत्रकारों और क्रिएटर की ओर से हमने कानूनी पैरवी की थी। कोई कानूनी आदेश नहीं आया और पंद्रह दिन बाद ही बिना किसी सफाई के ब्‍लॉक को हटा लिया गया। पारदर्शिता का ऐसा अभाव भयावह है।


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असली मसला व्‍यवस्‍थागत है। अगर वास्‍तव में इमरजेंसी वाली स्थिति ही है तो सरकार के पास उसे औपचारिक रूप से लगाने के संवैधानिक अधिकार मौजूद हैं, लेकिन उसके उलट हम देख रहे हैं कि सरकारी विभाग बिना किसी जवाबदेही के कानूनी दायरे से बाहर जाकर सेंसरशिप के लिए अपनी ताकत का इस्‍तेमाल कर रहे हैं। समय के साथ यह ताकत बढ़ती जा रही है और अलग-अलग क्षेत्रों में घुसती जा रही है। इस तरह यह खुद कानून के राज को भीतर से खत्म कर रही है।

डिजिटल दायरे में कार्यपालिका की घुसपैठ पर लगाम लगाने में न्‍यायपालिका कितनी प्रभावी है?

अदालतों को बहुसंख्‍या के आधार पर काम नहीं करना चाहिए, लेकिन वे मौजूदा राजकीय ढांचे के भीतर ही काम करती हैं। इसलिए अदालतों के फैसले अकसर सरकार की विस्‍तारित ताकत का ही समर्थन करते हैं और कार्यपालिका के सामने समर्पण कर देते हैं। इसीलिए पेगासस, इंटरनेट बंदी, भारी पैमाने पर वेबसाइटों के ब्‍लॉक किए जाने जैसे मामले सीमित न्‍यायिक हस्‍तक्षेप के साथ जारी हैं। 


अंग्रेजी में मूल बातचीत CPJ की वेबसाइट पर पढ़ी जा सकती है। यहां इसका पुनर्प्रकाशन CPJ की अनुमति से किया गया है। आवरण चित्र प्रातिनिधिक है और AI द्वारा निर्मित है।


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