लोकसभा चुनाव की निगरानी: परदा उठने से पहले एक अरब मतदाताओं के लिए बस एक सवाल

आगामी लोकसभा चुनावों की निगरानी के लिए एक स्‍वतंत्र पैनल (आइपीएमआइई) बना है। इसकी परिकल्‍पना पूर्व प्रशासनिक अधिकारी एमजी देवसहायम ने की है। इस पैनल में लोकतंत्र, राजनीति विज्ञान, चुनाव प्रबंधन और चुनावी निगरानी तक विभिन्‍न क्षेत्रों के अंतरराष्‍ट्रीय ख्‍याति-प्राप्‍त शख्सियतें शामिल हैं। पैनल का उद्देश्‍य चुनावों पर निगाह रखना, रिपोर्ट प्रकाशित करना और चिंताएं जाहिर करना है ताकि आम चुनाव 2024 निष्‍पक्ष, स्‍वतंत्र, पारदर्शी तथा लोकतंत्र के सिद्धांतों के अनुकूल रहे जिससे भारत के नागरिकों के मताधिकार की सुरक्षा की जा सके। स्‍वतंत्र पैनल की पृष्‍ठभूमि खुद एमजी देवसहायम की कलम से

स्‍वीडन की युनिवर्सिटी ऑफ गॉथेनबर्ग के वी-डेम (वेरायटीज ऑफ डेमोक्रेसी) इंस्टिट्यूट की 2023 की रिपोर्ट भारत के लिए ‘’पिछले दस वर्षों के दौरान सबसे बुरी निरंकुश व्‍यवस्‍थाओं में से एक’’ का प्रयोग करती है और उदारवादी लोकतंत्रों के सूचकांक में भारत को दुनिया के देशों के बीच नीचे के 40-50 प्रतिशत देशों में रखती है। इस सूचकांक में भारत का स्‍थान 97वां है, जो नाइजीरिया से भी नीचे है। चुनावी लोकतंत्रों के सूचकांक में भारत 108वें स्‍थान पर है और समातवादी सूचकांक में 123वें पायदान पर है।

इसी संस्‍थान ने 2021 में भारत को ‘चुनावी तानाशाही’ की श्रेणी में रखा था जबकि उसी साल वॉशिंगटन की अलाभकारी संस्‍था फ्रीडम हाउस ने भारत को ‘आंशिक रूप से स्‍वतंत्र’ बताया था। उसी साल इंस्टिट्यूट फॉर डेमोक्रेसी ऐंड इलेक्‍टोरल असिस्‍टेंस ने अपनी ‘ग्‍लोबल स्‍टेट ऑफ डेमोक्रेसी’ रिपोर्ट में भारत को पीछे जाते हुए लोकतंत्र की संज्ञा दी थी और इसे ‘प्रमुख गिरावट’ के तौर पर चिह्नित किया था।

आज की दुनिया में ‘चुनाव’ को ‘लोकतंत्र’ का पर्याय मान लिया गया है। चूंकि भारत में चुनाव समयबद्ध होते रहे हैं तो इस एक तथ्‍य ने यहां की लोकतांत्रिक राजनीति और उसके भीतर ताकतवर बनकर उभरे नेताओं को एक किस्‍म की वैधता प्रदान कर दी है। इसके चलते भारत के चुनाव आयोग को भी बहुत प्रतिष्‍ठा प्राप्‍त हुई है, हालांकि कड़वी हकीकत यह है कि भारत का चुनावी तंत्र और चुनाव आयोग अतीत के गौरव में ही जी रहा है। वर्तमान में उसकी अखंडता और प्रदर्शन ऐसे सकारात्‍मक आकलन को झूठा ठहराते हैं।


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चुनाव आयोग एक स्‍वायत्‍त संवैधानिक संस्‍था है। वास्‍तव में, संविधान सभा चुनावी प्रक्रिया को स्‍वतंत्र बनाना चाहती थी, लिहाजा उसी का मत था कि विधायी संस्‍थाओं के चुनावों की अखंडता और स्‍वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए चुनाव आयोग को कार्यपालिका के किसी भी हस्‍तक्षेप से मुक्‍त रखा जाए। यह बहुत अहम बात थी। संविधान के अनुच्‍छेद 324 की पैदाइश यहीं से हुई। इसी के आधार पर भारत के चुनाव आयोग का गठन किया गया और उसे स्‍वतंत्र व निष्‍पक्ष चुनाव करवाने की जिम्‍मेदारी सौंपी गई।

स्‍वतंत्र पर्यवेक्षकों की मानें तो कालान्‍तर में चुनाव आयोग अपनी संवैधानिक बाध्‍यताओं को पूरा करने से चूक गया। पिछले आम चुनाव के ठीक बाद 2 जुलाई, 2019 को कॉस्टिट्यूशनल कंडक्‍ट ग्रुप (सीसीजी) से जुड़े कई भूतपूर्व वरिष्‍ठ नौकरशाहों, भूतपूर्व सैनिकों, अकादमिकों और पत्रकारों ने कड़े शब्‍दों में चुनाव आयोग को एक पत्र लिखा था जिसमें कहा गया था: ‘’पिछले लगभग तीन दशक के दौरान देश में हुए तमाम चुनावों में 2019 का आम चुनाव सबसे कम निष्‍पक्ष और स्‍वतंत्र जान पड़ता है… इन आम चुनावों में एक आम धारणा कायम हुई है कि हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया की अवमानना और उपेक्षा उसी संवैधानिक अधिकरण द्वारा की जा रही है जिसे उसकी शुचिता की रक्षा करने का अधिकार सौंपा गया था। यह अतीत में दुर्लभ बात थी कि कोई चुनाव आयोग की निष्‍पक्षता, अखंडता और सक्षमता पर गंभीर संदेह जता सके। दुर्भाग्‍यवश, मौजूदा चुनाव आयोग के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता,खासकर जिस ढंग से उसने 2019 के चुनावों को अंजाम दिया है।‘’

पत्र आगे कहता है कि ‘’हमारा चुनाव आयोग दुनिया भर के लिए जलन का कारण होता था, विकसित देशों के लिए भी, चूंकि तमाम विशाल तकनीकी चुनौतियों और सैकड़ों करोड़ मतदाताओं के बावजूद वह निष्‍पक्ष और स्‍वतंत्र चुनाव करवाने में सक्षम था। इस प्रक्रिया के पतन को देखना वास्‍तव में निराशाजनक है। अगर ऐसे ही चलता रहा, तो यह निश्चित रूप से उस मूलभूत दस्‍तावेज की भावना पर आघात होगा जिसे भारत के लोगों ने आत्‍मार्पित किया था- यानी भारत का संविधान- और साथ ही यह उस लोकतांत्रिक भावना पर भी चोट होगी जो भारतीय गणराज्‍य का आधार है…।‘’

केंद्रीय चुनाव आयोग ने इस पत्र का संज्ञान तक लेना जरूरी नहीं समझा। फिर मार्च 2020 में सु‍प्रीम कोर्ट के पूर्व न्‍यायाधीश जस्टिस मदन बी. लोकुर द्वारा गठित सिटिजंस कमीशन ऑन इलेक्‍शंस (सीसीई) ने ऐसे छह मसलों को उठाया जिनका भारत के चुनावों की निष्‍पक्षता से सीधा संबंध है:

  1. मतदाता सूची की अखंडता और समावेशी होने का मसला, ताकि कोई भी मतदाता इससे छूटने न पाए।
  2. ईवीएम/वीवीपैट और लोकतंत्र के सिद्धांतों व एंड-टु-एंड सत्‍यापन का उनका अनुपालन।
  3. चुनावी लोकतंत्र का आपराधीकरण और धनबल की भूमिका, जिसमें इलेक्‍टोरल बॉन्‍ड भी शामिल है।
  4. चुनावों की अवधि और प्रक्रियाएं तथा मानक आचार संहिता का अनुपालन।
  5. सोशल मीडिया सहित मीडिया की भूमिका, फेक न्‍यूज और समतापूर्ण परिदृश्‍य पर उसका प्रभाव।
  6. चुनाव से पहले, उसके दौरान और बाद में केंद्रीय चुनाव आयोग की स्‍वायत्‍तता और कार्यप्रणाली।

इस संबंध में जनवरी और मार्च 2021 में दो खंडों में रिपोर्ट जमा की गई थी जिन्‍हें नीचे पढ़ा जा सकता है।


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भारत के चुनावी इतिहास के तकरीबन 75 वर्षों के दौरान ऐसा पहली बार हुआ कि भारतीय चुनावों की प्रक्रिया और अखंडता की इतनी करीबी और आलोचनात्‍मक पड़ताल की गई। जिन छह मानकों पर अध्‍ययन किया गया, सभी पैमानों पर भारत का चुनावी तंत्र और चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली बहुत खराब स्थिति में उीार कर सामने आई जिसने देश के चुनावी लोकतंत्र की विश्‍वसनीयता को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। इसके बावजूद चुनाव आयोग यह मानता रहा कि भारत का चुनावी तंत्र अचूक है। बार-बार यह बात दुहरा कर चुनाव आयोग दरअसल भारतीय और अंतरराष्‍ट्रीय मीडिया द्वारा गहराई से उसका विश्‍लेषण कर पाने की नाकामी से उपजी चुनावी तंत्र की अज्ञानतापूर्ण व भ्रामक प्रशंसा का लाभ उठा रहा है।

चार साल बाद 19 अगस्‍त, 2023 को सीसीजी ने एक बार फिर चुनाव आयोग को चिट्ठी लिखी और उसे कुछ खास किस्‍म के सुझाव दिए: ‘’पिछले पांच वर्षों के दौरान हमने चुनाव आयोग को लिखा है और आमने-सामने बैठकें भी की हैं। चुनाव आयोग से हुई हमारी बातचीत में चुनाव से जुड़े उन विशिष्‍ट क्षेत्रों पर जोर रहा जहां उपचारात्‍मक कार्रवाई की जरूरत है, जैसे धनबल और बाहुबल का दुरुपयोग, प्रिंट और इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया का दुरुपयोग, नफरती और मानहानिपूर्ण भाषणों के माध्‍यम से मानक आचार संहिता का खुलेआम उल्‍लंघन,मतदाताओं के पंजीकरण की प्रक्रिया में खामी और वास्‍तविक चुनावी प्रक्रिया में वोटों की गणना और रिकॉर्डिंग में अपारदर्शिता… आपके भूतपूर्व सहकर्मी होने के नाते हम खेद के साथ यह टिप्‍पणी कर रहे हैं कि आपने हमारे इन सुझावों पर हमसे कोई भी संवाद करने की जरूरत नहीं समझी।‘’

बीते वर्षों के दौरान केवल सीसीजी और सीईई ने ही देश के चुनावी तंत्र की कमजोरियों और नाकामियों को रेखांकित नहीं किया, बल्कि कुछ राजनीतिक दलों, विद्वानों और स्‍वतंत्र पत्रकारों ने भी ऐसा किया है। उनके उठाए बिंदुओं में कुछ निम्‍न हैं:

  • ईवीएम/वीवीपैट से वोटिंग/गणना ‘लोकतंत्र के सिद्धांतों’ का अनिवार्यत: अनुपालन नहीं करती: यानी हर मतदाता को यह पता करने में समर्थ होना चाहिए कि उसने जिसको वोट दिया है उसी को वोट पड़ा है, वैसा ही दर्ज किया गया है और उसी तरह गिना भी गया है। वैसे तो प्रत्‍येक ईवीएम के साथ एक वीवीपैट (वोटर वेरिफिएबल पेपर ट्रेल) उपकरण जुड़ा होता है, लेकिन वह महज एक ‘बाइस्‍कोप’ में तब्‍दील कर दिया गया है जो सात सेकंड के लिए मतदाता को एक छोटी सी ‘कागज की चिंदी’ दिखाता है, फिर वह गायब हो जाती है और उसे गिना नहीं जाता। चूंकि वोट डाले जाने से लेकर गिने जाने तक एक सिरे से दूसरे सिरे का मिलान नहीं हो सकता, इसलिए मौजूदा ईवीएम/वीवीपैट प्रणाली मतदान की प्रक्रिया को सत्‍यापन-योग्‍य नहीं बना पाती, लिहाजा लोकतांत्रिक चुनावों के लिए यह अनुपयुक्‍त है।
  • भारत के संविधान का अनुच्‍छेद 324(1) चुनाव आयोग को ‘’संसद से लेकर हर राज्‍य की विधानसभा और राष्‍ट्रपति व उपराष्‍ट्रपति तक के चुनावों को करवाने और इनके लिए मतदाता सूची तैयार करने संबंधी अधीक्षण, दिशानिर्देश और नियंत्रण’’ उपलब्‍ध करवाता है। पहले की पेपर बैलट (मतपत्र) प्रणाली में केंद्रीय चुनाव आयोग का समूचे चुनाव के निष्‍पादन के ऊपर ‘नियंत्रण’ होता था लेकिन ईवीएम आने के बाद वह खत्‍म हो चुका है। इसलिए ईवीएम से करवाए जा रहे चुनावों को असंवैधानिक माना जा सकता है।
  • मतदाता सूची में से मतदाताओं के नाम मनमर्जी से कांटे-छांटे जाने के मामले सामने आए हैं, खासकर उनके जो अल्‍पसंख्‍यक और वंचित समूहों से ताल्‍लुक रखते हैं। यह मतदाता सूची की अखंडता को ही कठघरे में खड़ा करता है जिसके आधार पर चुनाव होते हैं। मीडिया की रिपोर्टों से लेकर लोगों की मौखिक शिकायतों तक लगातार मतदाता सूची से छेड़छाड़ से जुड़े विवाद अब भी जारी हैं।
  • केंद्रीय चुनाव आयोग ने बहुत सक्रियता के साथ चुनाव कानून (संशोधन) बिल का रास्‍ता साफ कर दिया है, जो मतदाता पहचान पत्र को आधार कार्ड से जोड़ने की बात करता है। यह कदम मतदाता सूची को प्रच्‍छन्‍न हितों के लिए छेड़े जाने की खुली छूट दे देगा जिसका लाभ सत्‍ताधारी दल उठा सकते हैं। वैसे तो आधार कार्ड को जोड़ जाने का प्रावधान ‘स्‍वैच्छिक’ बताया गया है लेकिन ऐसी रिपोर्टें आई हैं कि चुनाव आयोग के अफसर मतदाताओं को जबरन इसके लिए बाध्‍य कर रहे हैं। इसके साथ ही बड़े पैमाने पर आधार कार्डों को निष्क्रिय भी किया गया है, जिससे यह आशंका पैदा हुई है कि वास्‍तविक मतदाताओं को अयोग्‍य बनाकर फर्जी मतदाताओं को सूची में जोड़ा जा रहा है।
  • लोकतंत्र की अखंडता का एक अहम आयाम है चुनावी चंदा। मौजूदा सरकार द्वारा 2017 में लाई गई इलेक्‍टोरल बॉन्‍ड योजना एक बड़े घोटाले के रूप में सामने आई है। माना जा रहा है कि इसके रास्‍ते विशेष हित समूहों, कॉरपोरेट लॉबिस्‍टों और विदेशी इकाइयों को सत्‍ताधारी दल ने अपने लाभ के लिए चुनावी प्रक्रिया में इस्‍तक्षेप करने की छूट दी है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस योजना को असंवैधानिक करार देते हुए बंद कर दिया है। सरकार जिस तरीके से अपने विरोधियों और सत्‍ताधारी दल को खतरा माने जाने वालों के यहां सुरक्षा एजेंसियों से छापे मरवा रही है, उस पर भी विवाद कायम है। एक तरह से यह वसूली का स्‍वरूप है जो सत्‍ताधारी दल को अपने चुनाव के लिए फंड जुटाने में मदद कर सकता है।
  • मानक आचार संहिता (एमसीसी) और मीडिया नैतिक संहिता को लागू किए जाने में हुए गंभीर उल्‍लंघन के कई नकारात्‍मक प्रभाव पड़े हैं। यह साम्‍प्रदायिक और विभाजनकारी कार्रवाइयों में योगदान देता है जिससे चुनावी प्रक्रिया विकृत और प्रदूषित हो जाती है। एमसीसी का कार्यान्‍वयन अपरिहार्य रूप से सत्‍ताधारी दल और प्रधानमंत्री के फायदे में किया गया है। मुख्‍यधारा का मीडिया- प्रिंट और इलेक्‍ट्रॉनिक दोनों- सत्‍ताधारी दल के दुष्‍प्रचार का वाहक बन चुका है। मीडिया की रिपोर्टें और टिप्‍पणियां सत्‍ताधारी दल के पक्ष में खुलकर एकतरफा बात करती हैं। साथ में सरकार समर्थक सोशल म‍ीडिया, विशेष रूप से सत्‍ताधारी दल का संचार प्रौद्योगिकी प्रकोष्‍ठ (आइटी सेल) व्‍यापक स्‍तर पर कुसूचना को फैलाने के लिए सक्षम बना दिया गया है।
  • सत्‍ताधारी दल ने नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार रक्षकों और राजनीतिक विपक्षियों के खिलाफ सीबीआइ, ईडी और आयकर विभाग जैसी अनुपालक एजेंसियों को सक्रिय कर दिया है। हाल ही के उदाहरण में देखें तो देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के बैंक खातों को आयकर विभाग ने बंद कर दिया था।

ईवीएम, मतदाता सूची और चुनावी चंदे की गंभीर बीमारियों से निजात पाने के लिए 9000 से ज्‍यादा मतदाताओं ने चुनाव आयोग को दस्‍तखत कर के एक ज्ञापन भेजा है। इलेक्‍ट्रॉनिक वोटिंग पर इनकी मांग बहुत स्‍पष्‍ट है: ‘’ईवीएम/वीवीपैट से वोटिंग/गणना ‘लोकतंत्र के सिद्धांतों’ का अनिवार्यत: अनुपालन नहीं करती: यानी हर मतदाता को यह पता करने में समर्थ होना चाहिए कि उसने जिसको वोट दिया है उसी को वोट पड़ा है, वैसा ही दर्ज किया गया है और उसी तरह गिना भी गया है। वैसे तो प्रत्‍येक ईवीएम के साथ एक वीवीपैट (वोटर वेरिफिएबल पेपर ट्रेल) उपकरण जुड़ा होता है, लेकिन वह महज एक ‘बाइस्‍कोप’ में तब्‍दील कर दिया गया है जो सात सेकंड के लिए मतदाता को एक छोटी सी ‘कागज की चिंदी’ दिखाता है, फिर वह गायब हो जाती है और उसे गिना नहीं जाता। इसलिए वीवीपैट प्रणाली को पूरी तरह मतदाता के लिए सत्‍यापित करने के लिहाज से दोबारा बनाया जाना चाहिए। एक मतदाता के हाथ में वीवीपैट की परची आनी चाहिए जिसे वह चिपमुक्‍त बैलट बॉक्‍स में डाल सके ताकि वोट को वैध माना जा सके। चुनाव नतीजे घोषित किए जाने से पहले हरेक निर्वाचन क्षेत्र के लिए वीवीपैट पर्चियों को पूरी तरह गिना जाना चाहिए। इसके लिए वीवीपैट पर्चियों को आकार में बड़ा होना चाहिए और इस तरह छापा जाना चाहिए कि उन्‍हें कम से कम पांच साल की अवधि तक बचाकर रखा जा सके।‘’  

विपक्षी दलों के गठबंधन इंडिया ने 18 दिसंबर, 2023 की अपनी बैठक में इसी तर्ज पर एक संकल्‍प पारित किया था, ‘’इंडिया के दल इस बात को दुहराते हैं कि ईवीएम की कार्यप्रणाली की अखंडता पर बहुत सारे संदेह कायम हैं। कई जानकारों और पेशेवरों ने इन्‍हें उठाया है। बैलट पेपर से चुनाव करवाने की ओर वापसी की मांग व्‍यापक है। यदि चुनाव आयोग को कोई आपत्ति हो, तो 2024 के आम चुनाव के लिए बैलट पेपर और ईवीएम की एक मिलीजुली प्रणाली को अपनाया जाना संभव और वांछित है। इसने सुझाया है कि वीवीपैट की परची बक्‍से में दोबारा गिर जाने के बजाय उसे मतदाता को सौंप दिया जाना चाहिए, जो अपने दिए वोट की पुष्टि करने के बाद उसे एक अलग बैलट बॉक्‍स में डाल सकता है। इस तरह वीवीपैट पर्चियों की सौ प्रतिशत बिनती संभव हो सकती है।‘’

इस सब के बावजूद चिंता की बात यह है कि चुनाव आयोग का इनकार महज इन मुद्दों से निपटने तक सीमित नहीं है, बल्कि उसे भेजे गए पत्रों से लेकर शिकायतों, प्रतिनिधिमंडलों, ज्ञापनों और यहां तक कि वैधानिक आवेदनों और सूचना के अधिकार कानून के अंतर्गत की गई अपीलों को भी उसने संबोधित नहीं किया है। इससे यह धारणा मजबूत होती जाती है कि चुनाव आयोग अब मौजूदा सत्‍ता के सामने घुटने टेकते जा रहा है और अपनी स्‍वतंत्रता व स्‍वायत्‍तता को गंवाते जा रहा है।

इस दिशा में मुख्‍य चुनाव आयुक्‍त और अन्‍य चुनाव आयुक्‍तों की नियुक्ति का 2023 का कानून भी इशारा और साक्ष्‍य पेश करता है। स्‍वतंत्र व निष्‍पक्ष चुनाव करवाने में चुनाव आयोग की तटस्‍थता और स्‍वतंत्रता को सुनिश्चित करने के बजाय उसे भारत की जनता की जगह कार्यपालिका के अधीन किया जा रहा है। यह कानून इतनी ताकत रखता है कि चुनाव आयोग को वास्‍तव में प्रधानमंत्री कार्यालय का विस्‍तार भर बनाकर छोड़ देगा।

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एक और चिंताजनक बात यह है कि भारत का सर्वोच्‍च न्‍यायालय निष्‍पक्ष व स्‍वतंत्र चुनावों के सवाल के प्रति उदासीन जान पड़ता है। इलेक्‍टोरल बॉन्‍ड योजना के माध्‍यम से सत्‍ताधारी प्रतिष्‍ठान को छह साल से ज्‍यादा समय तक भारी धन जुटाने देने के बाद देर से ही सही, भले सुप्रीम कोर्ट ने इस असंवैधानिक रास्‍ते को अब रोक दिया हो लेकिन अब तक वह ऐसे दो मसलों पर अपनी निगाह नहीं डाल सका है जो स्‍वतंत्र और निष्‍पक्ष चुनाव के लिहाज से कहीं ज्‍यादा निर्णायक हैं: ईवीएम से वोटिंग और गणना तथा मतदाता सूची। मतदाता सूची पर कोर्ट ने एक कमजोर आदेश दिया जिससे कुछ भी नहीं हुआ। ईवीएम पर वह लगातार सुनवाई और निर्देश देने से इनकार करता रहा है, बावजूद कि उसके समक्ष कितनी ही रिट याचिकाएं और आवेदन दिए गए।  

पहले से ही संकट में पड़े भारत के चुनावी लोकतंत्र के सामने अब खतरा एकदम स्‍पष्‍ट है। इसीलिए देश भर में लोग सड़कों पर उतर के स्‍वतंत्र व निष्‍पक्ष चुनाव पेपर बैलट से करवाने की मांग कर रहे हैं। इंडिया गठबंधन ने भी इन प्रदर्शनों में हिस्‍सा लिया है। सरकार ऐसे आंदोलनों का दमन कर रही है तो मीडिया इन्‍हें दिखा ही नहीं रहा है, हालांकि सोशल मीडिया पर तमाम लोगों और यूट्यूब पर स्‍वतंत्र प्रसारकों ने इस मुद्दे को कवर किया है। इन घटनाक्रमों को मिलाकर देखें तो संकेत मिलता है कि इस देश में होने वाले चुनाव अब लगातार जनता की करीबी नजर में हैं और लोग खुलेआम चुनावों की विश्‍वसनीयता पर गंभीर संदेह जाहिर कर रहे हैं।

आज जब 2024 का आम चुनाव हमारे सिर पर है और जिसकी अधिसूचना आगामी सप्‍ताह में जारी होने वाली है, ऐसे में दस साल के तीव्र जन-असंतोष की सूरत में इस देश के प्रधानमंत्री ने संसद के भीतर और बाहर दोनों जगह मुनादी की है कि उनकी पार्टी 543 सदस्‍यों के सदन में दो-तिहाई बहुमत लेकर फिर से आएगी। यह दावा अपने आप में चुनावी प्रक्रिया की अखंडता के ऊपर शंकाएं पैदा करता है। ऐसे में हमारे सामने सवाल यह है कि यदि दुनिया के सबसे बड़े और सबसे आबाद लोकतंत्र को ‘’सबसे बदतर निरंकुश व्‍यवस्‍था’’ बन जाने की छूट दे दी गई, तब भारत के भीतर और पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्‍यों का हश्र क्‍या होगा? यह सवाल लाख टके से भी बड़ा, एक अरब मतदाताओं का है जिसे अभी और यहीं पूछा जाना होगा।

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