इनकार और इज्जत की जिंदगी पर बाजार भारी, चुटका के लोगों को दोबारा उजाड़ने की मुकम्मल तैयारी

Chutka Nuclear Plant
Chutka Nuclear Plant
परमाणु हथियारों के खिलाफ अभियान चलाने वालों को शांति का नोबेल देकर दुनिया के बड़े देश वापस परमाणु ऊर्जा की ओर लौट आए, तो भारत ने भी जन-प्रतिरोध के चलते बरसों से अटकी परियोजनाओं को निपटाने के लिए कमर कस ली। पहली बार किसी राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को न्‍यूक्लियर प्‍लांट लगाने के काम में तैनात किया गया, और नतीजा सामने है। अपने अधिकारों, अपनी जिंदगी और अपनी आजीविका के लिए बरसों चली आदिवासियों की लड़ाई अब खत्‍म होने को है। बस दो पैसा ज्‍यादा मुआवजे का सवाल है, वरना मध्‍य प्रदेश के मंडला जिले के गांव के गांव अपना सामान फिर से बांध चुके हैं। यहां परमाणु प्‍लांट लगना है, तो लौटकर आने का सवाल ही नहीं है। संवैधानिक अधिकारों पर ऊर्जा-बाजार की जीत का चुटका प्रसंग आदित्‍य सिंह की कलम से

दुनिया की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए एक समय में परमाणु संयंत्रों का बड़े पैमाने पर सहारा लिया था। 1986 में हुए चेर्नोबिल हादसे के बाद पश्चिमी देश इस ऊर्जा विकल्प से किनारा करने लगे। 1990 में जहां 112 परमाणु संयंत्र दुनिया भर में सक्रिय थे, वहीं आज की तारीख में यह संख्‍या 94 पर आ चुकी है। इसके बावजूद परमाणु ऊर्जा (और परमाणु हथियारों) के प्रति देशों का झुकाव कम होने के बजाय बढ़ता ही गया है। अब बड़े, जटिल संयंत्रों की जगह छोटे मॉड्यूलर रिएक्‍टरों (एसएमआर) का बाजार गरमा रहा है, जिन्‍हें सुरक्षित माना जाता है।

इस बाजार का एक बड़ा केंद्र भारत है, जहां चालीस से पचास एसएमआर लगाने की बात चल रही है। इस आम बजट में केंद्रीय वित्‍त मंत्री ने ऐसे रिएक्‍टर लगाने के लिए निजी कंपनियों को भी आमंत्रित करने की बात कही है। परमाणु संयंत्रों के निजीकरण का यह नया अध्‍याय खुलने के पहले से कुछ पुरानी सरकारी परियोजनाएं अटकी पड़ी थीं, जिन्‍हें सरकार ने पिछले ही साल जल्‍दी-जल्‍दी निपटाने की मंजूरी दी है। एक लाख करोड़ रुपये से ज्‍यादा की लागत वाली चार राज्यों में अटकी दस परमाणु संयंत्र परियोजनाएं अगले कुछ वर्षों में पूरी की जानी हैं। इनमें पचीस हजार करोड़ रुपये की लागत से मध्‍य प्रदेश के मंडला स्थित चुटका में दो परमाणु ऊर्जा प्लांट लगाए जाने हैं। सरकारी उपक्रम न्‍यूक्लिर पावर कॉरपोरेशन इसे एनटीपीसी के साथ मिलकर बना रहा है और चार-पांच साल में काम पूरा करने का इरादा रखता है।  

चुटका संयंत्र को पंद्रह साल पहले ही मंजूरी दे दी गई थी लेकिन स्‍थानीय प्रतिरोध के चलते काम अटका रहा। 2011 में फुकुशिमा हादसे के बाद दुनिया एक बार फिर परमाणु रिएक्‍टरों के खतरे से सहम गई, तो चुटका में काम अपने आप ठंडा पड़ गया। अभी दो साल पहले जब प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से चुटका में रुचि दिखाई गई, तो अड़चनों को दूर करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की अनौपचारिक तैनाती हुई। उसके बाद से चुटका परियोजना को लेकर हलचल तेज हो गई।     


People of Chutka village have abandoned any hope against the Nuclear Power Plant
उजड़ने का इंतजार: चुटका गांव के लोग

फिलहाल स्थिति यह है कि आए दिन एसडीएम, तहसीलदार और पटवारी गांव के चक्कर लगा रहे हैं। लोगों को यकीन हो चला है कि अब सरकार हर हाल में परमाणु संयंत्र बनाना चाहती है और उनकी जमीन उनसे छीन लेगी, लेकिन उनकी मजबूरी यह है कि अब जाएं तो कहां जाएं। ये वे लोग हैं जो आज से पचास साल पहले बरगी बांध के निर्माण के चलते यहां बसाए गए थे। उस समय जो गांव उजड़े, उनके लोगों को चुटका जैसे कई गांवों में बसा दिया गया था। एक बार फिर ये लोग उजाड़ की कगार पर ला दिए गए हैं।

नर्मदा नदी के किनारे बसे मंडला जिले में जिला मुख्यालय से करीब 75 किलोमीटर दूर आदिवासी बहुल गांव चुटका है। चुटका के लोग फिर एक बार उजड़ने की तैयारी कर रहे हैं। इस बार इन्हें मंडला शहर के नजदीक बनाई गई एक कॉलोनी में बसाया जा रहा है। चुटका के लोग आम तौर से मजदूरी करने शहर या कस्बों में जाते हैं और गांव लौट आते हैं। अब लौटने के लिए उनके पास गांव ही नहीं होगा। बरगी बांध के पिछले विस्‍थापन ने कम से कम गांव को बख्‍श दिया था।       

परमाणु संयंत्र के लिए गांव की करीब 1500 एकड़ जमीन सरकार ले रही है। यहां 700-700 मेगावाट के दो बिजलीघर बनाए जाएंगे जो चुटका, टाटीघाट, कुंडा और मानेगांव की करीब 497 हेक्टेयर जमीन पर होंगे। इसमें से तकरीबन आधी जमीन यहां के लोगों की है, बाकी वन विभाग की। सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक, यहां के करीब सवा तीन सौ परिवारों को विस्थापित किया जा रहा है, लेकिन इलाके में काम कर रही गैर-सरकारी संस्थाओं के मुताबिक विस्थापित होने वाले परिवारों की संख्या 450 या इससे अधिक है। सरकारी आंकड़ा इसलिए कम है क्‍योंकि उसमें भूमिहीन परिवारों को नहीं गिना जाता।

गांववालों को अपनी जमीन छोड़ने के लिए करीब 3.60 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर का मुआवजा दिया जा रहा है। गांव के ज्यादातर लोगों के पास एक हेक्टेयर जमीन भी नहीं है। ऐसे में समझना मुश्किल नहीं कि उनके हिस्से कितने पैसे आएंगे। दूसरे, ज्‍यादातर लोग जो पचास साल पहले यहां बसाए गए थे उन्‍होंने और उनके बच्‍चों ने अपना जीवन यहां गुजार दिया है, तो वे कहीं और जाना भी नहीं चाहते। ये लोग कई बार परियोजना का विरोध कर चुके हैं। उनकी बात सुना जाना तो दूर, उनके खातों में चुपचाप मुआवजे के पैसे उनकी जानकारी के बगैर डाल दिए गए।


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बारह लोगों का परिवार चलाने वाले गांव के सुमरत राव बरकड़े (58) बताते हैं कि उन्हें पता ही नहीं चला कि कब उनके खाते में मुआवजा आ गया, ‘’जब बैंक से इसकी जानकारी मिली तो लगा कि पंद्रह लाख रुपये सरकार ने डाल दिए हैं, बल्कि उनके सात कमरों के मकान की सरकार ने तीन लाख रुपये कीमत लगाई और बाकी कीमत उनकी जमीन की है।‘’ इसी तरह, वीर सिंह को भी मुआवजा मिल चुका है, लेकिन वह केवल उनके मकान का है क्‍योंकि उनके पास जमीन ही नहीं है। मकान के एवज में करीब साढ़े चार लाख मिला है जबकि उनके परिवार में नौ लोग हैं।

यहां की ग्राम सभा ने 2012 में 26 सूत्री प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें ग्रामीणों ने मांग की थी कि परियोजना को रद्द करने पर विचार किया जाए वरना उन्हें साठ लाख रुपये प्रति हेक्टेयर के हिसाब से मुआवजा दिया जाए और प्रत्येक परिवार में से एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी भी दी जाए। मुआवजे का हाल यह है कि शहर में दो कमरे का मकान खरीदने के लायक भी पैसा नहीं मिला, उस पर से कई लोगों के पास पक्के घर नहीं हैं या वे जो नर्मदा की कछारों में साल में एकाध फसल की खेती कर लेते हैं, उन्हें मुआवजा मिलेगा ही नहीं। चुटका परमाणु विरोधी संघर्ष समिति के अध्यक्ष दादू लाल कुड़पे कहते हैं, ‘’उनके गांव के साथ उनकी आय भी उनसे छिन जाएगी। शहर जाकर वे एक तरह से भिखारी बन जाएंगे।‘’

लोग मुआवजा मिलने के बावजूद शहर की कॉलोनी में जाने को तैयार नहीं हैं। उनके अपने कारण हैं। प्रेम सिंह कुड़पे बताते हैं कि चुटका में रहने के लिए यहां के लोगों के पास कई कारण हैं। इनमें सांस्कृतिक और आर्थिक कारण अहम हैं। लोग अपने गांव, जमीनें, नदियां और मवेशी नहीं छोड़ना चाहते क्योंकि वे और उनके पूर्वज सदियों से इसी तरह से रहते आ रहे हैं। वे पूछते हैं, ‘’अब सरकार मंडला में पुनर्वास कॉलोनी में भेजने की तैयारी कर रही है। वहां इनका जीवन कैसे सामान्य होगा? इसके अलावा आर्थिक कारण भी है, जो बताता है कि गांव के लोग भले ही मुफ्त राशन न भी लें, वे अपनी जमीन पर थोड़ी बहुत खेती करके और थोड़ी मजदूरी करके अपना काम चला लेते हैं। लेकिन यह काम शहर में कैसे होगा?’’

चुटका के रोशनलाल वरकड़े कहते हैं, “हमारे लिए जो आवास बनाए गए हैं, वे बहुत छोटे हैं। हमने जाने से मना कर दिया है और हम तब तक नहीं जाएंगे जब तक हमारी 26 मांगें पूरी नहीं की जाती हैं।” यहीं के लामू कोकड़िया बताते हैं, “हमें जो मुआवजा मिला है वह बहुत कम है। सरकार की ओर से कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिला है। महंगाई को देखते हुए हमें अधिक मुआवजा चाहिए।”

बहुत से ऐसे लोग भी हैं जो सरकार के आगे हार मान चुके हैं। गांव के हल्कूराम कुंजाम कहते हैं कि वे अब इस परियोजना का समर्थन करते हैं क्योंकि उनके पास कोई और रास्ता नहीं बचा है, लेकिन उनका सवाल है कि समर्थन के बावजूद सरकार यदि पर्याप्त मुआवजा और अच्छा घर नहीं देगी तो उनके परिवार का क्या होगा?

जिले के पत्रकार शशांक चौबे का कहना है कि चुटका परियोजना को लेकर जिला मुख्यालय में हलचल बढ़ गई है और उम्मीद है कि जल्दी ही ग्रामीणों की मांगों पर कोई हल निकलेगा। हो सकता है लोगों को मुआवजा बढ़ाकर भी दे दिया जाए, हालांकि वे खुद मानते हैं कि सरकार ने शहर के एक कोने में जो घर बनाकर दिए हैं उनमें लोगों का गुजारा नहीं हो सकता।



जिले के कलेक्टर सोमेश मिश्रा के मुताबिक, ‘’इस मामले में कई लोगों को मुआवजा मिल चुका है, लेकिन कुछ इसके बाद भी नहीं गए हैं। ऐसे में उनसे बात की जा रही है।‘’ मिश्रा कहते हैं कि कुछ लोग मुआवजा लेना नहीं चाहते हैं, प्रशासन उनसे भी बात कर रहा है। अधिकारी के मुताबिक, यह प्रक्रिया जल्दी ही पूरी होगी।

बरगी बांध विस्थापित संघर्ष समिति के सामाजिक कार्यकर्ता राजकुमार सिन्हा बताते हैं कि मुआवजे में कई तरह की परेशानियां हैं। वे आरोप लगाते हैं कि भूमिहीन किसानों को मुआवजे में जोड़ा ही नहीं गया है। चुटका गांव की वन भूमि पर 48 काश्तकार वर्षों से खेती कर रहे हैं, उन्हें वन अधिकार पट्टा दिए जाने की अपेक्षा है पर अभी तक सरकार द्वारा ऐसा न करने के कारण उन्हें भी मुआवजा नहीं मिला है। इसी तरह कुंडा गांव के 35 काश्तकार हैं जिन्होंने वन भूमि पर खेती की है, वन अधिकारपत्र न मिलने की वजह से मुआवजे से वंचित रह गए हैं। वे कहते हैं कि चुटका, कुंडा और टाटीघाट के परिवारों का भौतिक सर्वेक्षण करके उसे सार्वजनिक करने की जरूरत है।

चुटका में कुछ सवाल मुआवजे से भी बड़े हैं। पर्यावरण को खतरे और पुनर्वास में सरकार की नीयत पर सवाल उठाते हुए कई सामाजिक संस्थाएं और कार्यकर्ता यहां बरसों से सक्रिय हैं। इन्होंने गांव के लोगों को परियोजना के संभावित दुष्प्रभावों के प्रति जागरूक भी किया है। ऐसे में कई गांववाले अब समझने लगे हैं कि परमाणु संयंत्र बिजली बनाने का एक खतरनाक तरीका साबित हो सकता है, इसलिए भी वे इसके पक्ष में नहीं हैं।

इस संदर्भ में राजकुमार सिन्‍हा एक जरूरी सवाल उठाते हैं, “मध्य प्रदेश के जिस हिस्से में यह पावर प्लांट बनाया जा रहा है वहां भूकंप की आशंका काफी अधिक है। नर्मदा घाटी के इलाके में भूगर्भीय हलचलों के कारण पिछले तीन साल में 37 बार भूकंप आ चुका है। भोपाल के आपदा प्रबंधन संस्थान की रिपोर्ट में भी चुटका के पास बसे कस्बे नारायणगंज और इसके नजदीकी इलाकों को भूकंप संवेदी क्षेत्र के रूप में दिखाया गया है। ऐसे में यह खतरा क्यों उठाया जा रहा है?”



एक अन्य जानकार और सामाजिक कार्यकर्ता सौम्य दत्ता के अनुसार इस परियोजना के विरोध के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन कुछ बेहद अहम हैं। भूकंप एक बड़ा मुद्दा है क्योंकि चुटका परमाणु परियोजना की स्थापना सोन नर्मदा अलाइनमेंट पर की जा रही है, जो एक प्रमुख भूकंपीय फॉल्ट लाइन है। यह क्षेत्र भूकंपीय गतिविधियों के लिए जाना जाता है, खासकर जबलपुर के आसपास, जो मंडला से नजदीक है। उनके मुताबिक हमारी वर्तमान वैज्ञानिक क्षमताएं भूकंपों के पूर्वानुमान के मामले में सीमित हैं।

दत्‍ता कहते हैं, ‘’नर्मदा-सोन लिनियामेंट का उत्तरी हिस्सा विशेष रूप से सक्रिय बताया गया है, जिससे यह क्षेत्र भूकंप के लिहाज से और भी संवेदनशील हो जाता है। यह स्थिति चुटका परमाणु परियोजना के लिए विशेष रूप से जोखिम भरी हो सकती है।‘’

उनके अनुसार तीसरा मुद्दा विस्थापन और सुरक्षा का है। चुटका परमाणु परियोजना स्थापित होने वाले क्षेत्र में सुरक्षा और विस्थापन की चुनौतियां गंभीर हैं। नियमानुसार, परमाणु संयंत्रों के आसपास 16 किलोमीटर का एक कंट्रोल जोन होता है जहां से आपात स्थिति में तेजी से निकासी सुनिश्चित की जा सके। चुटका के आसपास इस तरह की व्यवस्था की गई है, लेकिन स्थानीय जनसंख्या और भौगोलिक स्थितियों को देखते हुए यह क्षेत्र जटिल हो जाता है।



चुटका के निकटवर्ती क्षेत्र में लगभग सवा लाख लोग रहते हैं, जो 52 गांवों में फैले हुए हैं। इन समुदायों को अपनी जमीन, घर, और आसपास के जंगलों पर निर्भरता के कारण विस्थापन की स्थिति में गंभीर सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का सामना करना पड़ सकता है। विस्थापन की प्रक्रिया न केवल उनके जीवनयापन को प्रभावित करेगी, बल्कि इससे उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक रचना में भी बदलाव आएगा।

मप्र की पुनर्वास नीति के मुताबिक सरकार किसी नागरिक को एक ही बार विस्थापित कर सकती है, लेकिन चुटका परियोजना में लोग दूसरी बार विस्थापित हो रहे हैं। एक बार वे बरगी बांध के लिए विस्थापित हो चुके हैं। कुड़पे बताते हैं कि मंडला जिला पांचवीं अनुसूची में आता है, लेकिन सरकार इसका भी खयाल नहीं रख रही है।

दत्‍ता कहते हैं, ‘’ऐसे में एक पूरा नगर बसाने की आवश्यकता होगी जहां विस्थापित लोगों को समुचित आवास, सामाजिक इंफ्रास्ट्रक्चर, और जीवनयापन के साधन मुहैया कराए जा सकें। इस प्रक्रिया में व्यापक योजना और संसाधनों की जरूरत होगी, साथ ही स्थानीय समुदायों के साथ सतत संवाद और उनकी भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी ताकि उनके हितों का संरक्षण हो सके।‘’

वे कहते हैं कि लोगों की बसाहट कैसी होगी यह कहना मुश्किल है क्योंकि फिलहाल करीब साढ़े तीन सौ परिवारों के लिए ही छोटे-छोटे घर तैयार हुए हैं, ऐसे में सवा लाख की आबादी के लिए यह सोचना भी ठीक नहीं लगता। राजकुमार सिन्हा कहते हैं कि लोग योजना के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन वे सरकार से कुछ सवालों के जवाब जानना चाहते हैं। वे बताते हैं कि सरकार इन सवालों से कतराती है या सीधे इनकार कर देती है। ऐसे में लोगों का संदेह होना लाजमी है।

चुटका परियोजना का विरोध इसकी संकल्‍पना के समय से ही चल रहा है, लेकिन सरकार लगातार लोगों के सवालों का जवाब देने से बचती रही है। पिछले दिनों यहां के सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते लोगों के बीच पहुंचे थे। लोगों ने उनसे अपनी मांगों पर विचार करने की अपील की। लोगों के मुताबिक, कुलस्ते ने उनकी समस्याओं को सुना और समाधान खोजने का आश्वासन दिया है।

कुलस्ते से जब हमने भूकंप प्रभावित जोन में इस संयंत्र की स्थापना को लेकर सवाल पूछा, तो इस पर उन्‍होंने ज्यादा बात नहीं की। उन्होंने कहा कि सरकार ने सुरक्षा पक्की करने के बाद ही यह तय किया है। परमाणु ऊर्जा के खतरों पर केंद्रित वेबसाइट dianuke.org के संचालक कुमार सुंदरम बताते हैं कि पश्चिमी देशों में भी इस तरह के सवाल जनता की ओर से सरकारों के सामने आते हैं लेकिन पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी के चलते उनके सामने इनका जवाब देने में कई मुश्किलें आती हैं। ऐसे में वहां की सरकारें अब और जोखिम न लेने पर विचार कर रही हैं।



वे कहते हैं, ‘’भारत में यह सब आसान हो जाता है क्योंकि यहां नागरिक अधिकारों और विरोध की आवाजों से सरकारों पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ता।‘’ उनके अनुसार भारत में बनाए जा रहे परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में पारदर्शिता का अभाव है, इसलिए ‘’सरकार को चाहिए कि अगर नागरिक समूह किसी बात से परेशान हैं तो वे उसका ठोस हल पेश करें, लेकिन फिलहाल ऐसा होता नहीं दिख रहा।‘’

सुंदरम भारत में ऐसे प्रोजेक्ट की प्रौद्योगिकीय क्षमताओं पर भी सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं कि भारत का अनुभव इस क्षेत्र में बहुत सीमित है, ऐसे में यहां किसी भी तरह की गलती की गुंजाइश बन सकती है। इन गलतियों की ओर सौम्‍य दत्‍ता इशारा करते हैं, ‘’परमाणु रिएक्टर के कोर में ऊर्जा सामग्री बहुत घनी होती है। यदि नियंत्रण प्रणाली में किसी तरह की विफलता हुई, तो रेडियोएक्टिव पदार्थों का रिसाव हो सकता है, जिसे नियंत्रित कर पाना मुश्किल हो जाता है। वर्तमान प्रौद्योगिकियां इन रेडियोएक्टिव पदार्थों को पूरी तरह से निष्क्रिय करने में समर्थ नहीं हैं। उचित निपटान न किया जाए तो यह पर्यावरणीय संकट को जन्म दे सकता है।‘’

एक नाभिकीय रिएक्टर जितनी ऊर्जा पैदा करता है, उसका कोर उससे तीन गुना अधिक गर्मी छोड़ता है। ऐसे में इसे ठंडा रखने के लिए बड़ी मात्रा में पानी की जरूरत होती है। एक अनुमान के मुताबिक हर साल 72.576 मिलियन क्यूबिक मीटर पानी चुटका के रिएक्‍टर को ठंडा करने में काम आएगा। जाहिर है, इसकी आपूर्ति नर्मदा नदी से ही होगी। इस तरह चुटका का संयंत्र नदी के पानी का एक बड़ा हिस्‍सा भी ले जाएगा। अनदेखे हादसों, पर्यावरण को खतरे के साथ-साथ नदी, जंगल, और इंसानी रिहाइश को नुकान पहुंचाने वाली परियोजना पर इतनी तेजी क्‍यों है, लोगों को यही बात समझ नहीं आ रही।   

इस संदर्भ में राजकुमार सिन्‍हा एक जरूरी सवाल उठाते हैं, “इटली ने चेर्नोबिल हादसे के बाद अपने परमाणु कार्यक्रम बंद कर दिए, कजाकिस्तान और लिथुआनिया ने भी अपने परमाणु संयंत्र बंद कर दिए हैं। अमेरिका ने करीब तीन दशकों से कोई नया परमाणु संयंत्र शुरू नहीं किया है। जापान भी फुकुशिमा हादसे के बाद डरा हुआ है। ऐसे में परमाणु ऊर्जा में भारत इतनी रुचि क्यों दिखा रहा है?”



दत्‍ता परमाणु ऊर्जा का आर्थिक पहलू भी गिनवाते हैं, ‘’इतने जोखिमों के विपरीत अक्षय ऊर्जा स्रोत, जैसे सौर ऊर्जा, एक स्वच्छ और अधिक सस्ता विकल्प है। सौर प्लांटों से उत्पन्न बिजली की लागत काफी कम है, जिसे करीब तीन रुपये प्रति यूनिट बताया जाता है, जबकि परमाणु ऊर्जा की लागत अधिक हो सकती है, आठ रुपये प्रति यूनिट के आसपास।‘’ हकीकत यह है कि भारत में इस समय जो 22 परमाणु ऊर्जा प्लांट काम कर रहे हैं वे देश की केवल तीन प्रतिशत ऊर्जा की पूर्ति करते हैं। जानकार मानते हैं कि भारत जैसा देश जो अपनी ऊर्जा जरूरतों का केवल दो या अधिकतम तीन प्रतिशत ही न्यूक्लियर संयंत्र से ले रहा है वह चाहे तो इससे बच सकता है।

राजकुमार सिन्हा का मानना है कि परमाणु ऊर्जा पर जोर भारत सरकार के बदलते रवैये और बदलते हुए राजनीतिक परिदृश्य को दर्शाता है। वे कहते हैं, ‘’एक समय था जब यूपीए सरकार पर परमाणु समझौते को लेकर खासा दबाव था, और आज के समय में परमाणु ऊर्जा पर खुलकर करार हो रहे हैं। विदेशी कंपनियां भारत आ रही हैं।‘’

सिन्‍हा की बात सही है। अभी तक भारत में परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को लगाने का काम केवल सरकारी कंपनी एनपीसीएल करती रही है। कुछ साल पहले एनपीसीएल को सार्वजनिक कंपनियों के साथ संयुक्‍त उपक्रम बनाकर परियोजना लगाने की कानूनी मंजूरी मिली थी। अब मामला सरकारी से निजी पर आ गया है और इसके केंद्र में छोटे मॉड्यूलर प्‍लांट हैं, जिन्‍हें भविष्‍य की ऊर्जा आवश्‍यकताओं के मद्देनजर विकसित विकसित किया जाना है। ये एसएमआर ऊर्जा बाजार की शक्‍ल बदलने वाले हैं।

जो निजी खिलाड़ी फिलहाल एसएमआर में निवेश कर रहे हैं, उनमें गूगल और अमेजन प्रमुख हैं। यह जानना दिलचस्‍प होगा कि विशाल टेक कंपनियां परमाणु ऊर्जा में निवेश क्‍यों कर रही हैं। इसका जवाब है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, जो अपने डेटा केंद्रों के माध्‍यम से भारी मात्रा में बिजली खाता है। अमेजन अमेरिका के वर्जीनिया में अपने डेटा सेंटर को ऊर्जा देने के लिए परमाणु परियोजना लगा रहा है। यानी, अमेरिका में एक बार फिर से परमाणु ऊर्जा बाजार गरमा गया है, जिसकी समूची ऊर्जा आवश्‍यकता का 20 फीसदी परमाणु ऊर्जा से फिलहाल पूरा हो रहा है। दिलचस्प है कि कंपनियों के डेटा सेंटर अमेरिकी ऊर्जा का चार फीसदी खींच रहे हैं जो आने वाले वर्षों में दस फीसदी तक पहुँचने का अनुमान है।

नतीजा यह है कि अमेरिका में परमाणु ऊर्जा के शेयर बाजार में जबरदस्‍त उछाल दर्ज किया गया है। मसलन, एसएमआर में विशेषज्ञ कंपनी न्‍यूस्‍केल पावर के शेयर इस साल पांच बार आकाश छू चुके हैं और यूरेनियम के दाम पंद्रह साल में अधिकतम स्‍तर पर हैं, जिसके चलते यूरेनियम खनन करने वाली कंपनियों के शेयर उछाल मार रहे हैं। निजी कंपनियों, खासकर डेटा और टेक कंपनियों की परमाणु ऊर्जा जरूरत का बाजार भांपते हुए भारत ने भी 2032 तक अपनी परमाणु ऊर्जा क्षमता को तीन गुना करने का लक्ष्‍य बना लिया है और 2050 तक 25 फीसदी बिजली परमाणु ऊर्जा से लेने का लक्ष्‍य रखा है।


Nuclear Generation data extrapolation
US Uranium and Nuclear stocks have surged

इस महत्‍वाकांक्षी लक्ष्‍य के लिए फिलहाल एनपीसीएल और एनटीपीसी को मिलाकर अणुशक्ति विद्युत निगम बनाया जाना है। इसके अलावा ग्रामीण विद्युतीकरण निगम ने 2030 तक अक्षय और परमाणु ऊर्जा को मिलाकर छह ट्रिलियन रुपये के निवेश का लक्ष्‍य रखा है। निजी खिलाडि़यों को इस काम में लगाने के संकेत बजट में मिल ही चुके हैं।

मसला परमाणु ऊर्जा और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के मेल तक ही सीमित नहीं है। इसके खतरों को जानने और झेलने के बावजूद दुनिया भर के देश परमाणु हथियारों के जखीरे में भी इजाफा करते जा रहे हैं। अलाइड मार्केट रिसर्च की एक रिपोर्ट बताती है कि परमाणु मिसाइलों और बमों का बाजार अगले आठ साल में 126 अरब डॉलर के बाजार को पार कर जाएगा। यह 2020 के स्‍तर से 73 फीसदी ज्‍यादा होगा।

यानी, एक ओर हिरोशिमा और नागासाकी के अमानवीय अनुभव से प्रेरित होकर दुनिया को परमाणु हथि‍यारों से मुक्‍त करने का लक्ष्‍य रखने वाले जापानी संगठन को शांति का नोबेल पुरस्‍कार दिया जा रहा है, तो दूसरी ओर ऐसे हथियारों और परमाणु ऊर्जा के बाजार को भी गरमाया जा रहा है। दोनों एक ही सिक्‍के के दो पहलू जान पड़ते हैं। तीसरा पहलू हालांकि चुटका जैसी छोटी आदिवासी रिहाइशों का है जहां ऊर्जा के नाम पर हो रहे अमानवीय सरकारी खिलवाड़ पर हर तरफ चुप्‍पी है।



इज्जत, प्रतिष्ठा और असहमति के अधिकार के साथ जीने के अपने संवैधानिक हक के लिए लोगों की बरसों चली लड़ाई अंततः वा‍जिब मुआवजे के सवाल पर आकर टिक गई है जबकि मुआवजा जिंदगी और रिहाइश का विकल्प नहीं है, यह भी वे अच्छे से समझ रहे हैं। इसीलिए वे मान चुके हैं कि सरकार उन्हें उनकी जमीनों से अब हटाकर ही दम लेगी। अमेजन को परमाणु बिजली की चिंता है, सरकार को निजी कंपनियों की चिंता है लेकिन चुटका के एक बुजुर्ग फिलहाल अपने मवेशियों की चिंता में उलझे हुए हैं। वे कहते हैं कि उनके पास संपत्ति के नाम पर बस यही मवेशी हैं, इन्हें कहां छोड़कर जाएंगे। छोड़कर जाना भी ठीक नहीं है क्योंकि सरकार जानवरों का मुआवजा तो दे नहीं रही है!


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