Culture

‘पॉप’ हिंदुत्‍व: तीन संस्‍कारी नायक और उनकी कुसांस्‍कृतिक छवियां

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भारतीय जनता पार्टी के जन्‍म से ही उसके चुनावी घोषणापत्रों का पहला वादा रहे अयोध्‍या के राम मंदिर में जब प्राण प्रतिष्‍ठा को कुछ दिन ही बच रहे हैं, तब धर्म और शास्‍त्रोक्‍त पद्धतियों पर बहस छिड़ी हुई है। सच्‍चाई यह है कि हिंदू धर्म के रूढ़ हो चुके संस्‍थागत स्‍वरूप को त्‍यागकर उसे लोकप्रिय व सर्वग्राह्य बनाने से भाजपा का यह प्रोजेक्‍ट पूरा हुआ है। नए मीडिया में विभिन्‍न लोकरंजक विधाओं के माध्‍यम से हिंदुत्‍व के प्रचार-प्रसार पर बहुत कम अध्‍ययन हुआ है। इसी विषय पर कुणाल पुरोहित की लिखी पुस्‍तक ‘एच-पॉप’ पर चर्चा कर रहे हैं अतुल उपाध्‍याय

जाएं तो जाएं कहां?

दिल्ली दर-ब-दर: G20 के नाम पर हुई तबाही के शिकार लोग इन सर्दियों में कैसे जिंदा हैं?

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पहली सर्दी के जख्‍म भरे भी नहीं थे कि दूसरी सर्दियां शबाब पर हैं। जिनसे बसाये जाने का वादा किया गया था, उनके सौ साल पुराने रिहाइश के कागज भी अदालतों में काम नहीं आए। दिल्‍ली के बाहरी इलाकों से सुंदरीकरण के नाम पर उजाड़े गए लाखों लोग पटरी, फुटपाथ और यमुना के खादर में तिरपाल लगाकर सो रहे हैं और चोरों के हाथों लुट रहे हैं, शीतलहर में जान गंवा रहे हैं। पिछले जाड़े में जी-20 की तैयारियों के नाम पर शुरू हुए बेदखली के तांडव के शिकार लोगों का हाल बता रही हैं सौम्‍या राज

यूपी में खबरनवीसी: सच लिखने का डर और प्रिय बोलने का दबाव 2023 में राजाज्ञा बन गया

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उत्‍तर प्रदेश में पत्रकारिता पहले से ही कठिन थी। अब लगभग असंभव सी हो गई है। बीते एक साल के दौरान ‘नकारात्‍मक’ खबरें न लिखने के सरकारी फरमान के बाद पत्रकारों के ऊपर जम कर मुकदमे हुए हैं। छोटे गांव-कस्‍बों में दबंगों और माफिया का आतंक अलग से है। विडम्‍बना यह है कि रामराज्‍य लाने की तैयारियों में व्‍यस्‍त मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍यनाथ ने रामनाथ गोयनका के चरणों में फूल अर्पित कर के सच को पाबंद करने का काम किया है। लखनऊ से असद रिज़वी की रिपोर्ट

पंजाब: बदलती सरकारें, चढ़ता नशा, मरती जवानी

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पांच साल पहले जब मुख्‍यमंत्री अमरिंदर सिंह ने ड्रग तस्‍करों को मृत्‍युदंड की सिफारिश की थी, तब लगा था कि उड़ते पंजाब पर लगाम लग जाएगी। फिर सरकार बदली। दस दिन के अंदर नए मुख्‍यमंत्री भगवंत मान ने सूबे को नशामुक्‍त करने की शपथ खाई, तो दिल्‍ली में उन्‍हीं की पार्टी के बड़े नेता शराब घोटाले में अंदर चले गए। अब चुनाव फिर सिर पर हैं तो भाजपा नशामुक्‍त पंजाब का नारा देकर रैलियां निकालने जा रही है। उधर लगातार जारी मौतों के धुंधलके में ड्रग्‍स जब्‍ती के सरकारी आंकड़े श्‍मशान की राख से भी हलके नजर आते हैं। पंजाब से मनदीप पुनिया की ग्राउंड रिपोर्ट

Manglesh Dabral (16 May 1948 – 9 December 2020)

मंगलेश डबराल के अभाव में बीते तीन साल और संस्कृति से जुड़े कुछ विलंबित लेकिन जरूरी सवाल

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वे ‘नुकीली चीजों’ की सांस्‍कृतिक काट जानते थे लेकिन उनका सारा संस्‍कृतिबोध धरा का धरा रह गया क्‍योंकि न तो उन्‍होंने पिता की टॉर्च जलायी न बाहर वालों ने आग मांगी। वे बस देखते रहे और रीत गए। शायद कभी कोई सुधी आलोचक मंगलेश जी के रचनाकर्म में छुपी उस चिड़िया को जिंदा तलाशने की कोशिश कर पाए, जिसका नाम संस्‍कृति है और जिसके बसने की जगह इस समाज की सामूहिक स्‍मृति है।

एक अदद सिंचाई बांध की राह देखते कनकपुरी के किसान चौधरी रघुवीर सिंह और उनके भाई

रूहेलखण्ड: पहले किसानों के सब्र का बांध टूटेगा या सरकार पक्का बांध बना कर देगी?

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यह उत्तर प्रदेश में बरेली के किसानों का जज्बा है कि वे अपने हाथों और जेब के बल पर सात साल से कच्चा बांध बनाकर खेती को बचाए हुए हैं वरना इस साल दस महीने में सात किसान यहां खुदकुशी कर चुके हैं जबकि सरकारी कागजात में बरेली मंडल कृषि निवेश और विकास की रैंकिंग में अव्वल है। सिंचाई के लिए सौ साल से एक बांध का इंतजार कर रहे यूपी के डेढ़ सौ गांवों की कहानी सुना रहे हैं शिवम भारद्वाज

बांदा: दलित औरत के बलात्कार को हादसा बताकर अपराधियों को बचा रही है पुलिस?

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औरतों से बलात्‍कार के बाद उनका अंग-भंग करने का चलन इधर बीच बहुत तेजी से बढ़ा है। शहरों से शुरू हुआ यह सिलसिला अब गांवों तक पहुंच चुका है। पिछले महीने बांदा में एक दलित औरत के साथ सामूहिक बलात्‍कार के बाद उसका सिर और हाथ काट दिया गया था। आरोपित भारतीय जनता पार्टी से संबद्ध तीन सवर्ण पुरुष थे। पुलिस की जांच में इसे हादसा बता दिया गया। आंदोलन के दबाव में महज एक गिरफ्तारी हुई, लेकिन धाराएं हलकी कर दी गईं। पतौरा गांव में 31 अक्‍टूबर को हुई जघन्‍य घटना की अविकल फैक्‍ट फाइंडिंग रिपोर्ट

उत्तराखंड की सुरंग से लीबिया की डूबी नाव तक मरते मजदूर सरकारों के लिए मायने क्यों नहीं रखते!

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देश भर में सीवर में घुट कर मरते सफाईकर्मी हों, मेडिटेरेनियन सागर में नाव डूबने से मरते प्रवासी श्रमिक हों या फिर उत्‍तराखंड की चारधाम परियोजना के चलते सुरंग में दो हफ्ते से फंसे 41 मजदूर, ये सभी घटनाएं एक ही बात की ओर इशारा करती हैं कि सरकारों और कारोबारियों के मुनाफे की राह में कामगारों की जान का कोई अर्थ नहीं है। मजदूर किसी की प्राथमिकता में कहीं नहीं हैं। मजदूरों की सुरक्षा की उपेक्षा पर अरुण सिंह

छत्तीसगढ़: एक कानून बना कर उसे जमीन पर उतारने में पांच साल क्यों कम पड़ गए?

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हिंदी पट्टी में सबसे पहले पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर एक कानून बनाने की मांग छत्‍तीसगढ़ से ही उठी। यह मुद्दा पिछले विधानसभा चुनाव में इतना गरमाया हुआ था कि कांग्रेस पार्टी को अपने घोषणापत्र में पत्रकार सुरक्षा कानून लाने का वादा करना पड़ा। भूपेश बघेल की सरकार आने के बाद ऐसा कानून बनाने में राज्‍य सरकार को पूरे साढ़े चार साल लग गए। बीते मार्च में यह कानून बनकर पारित हुआ, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। रायपुर से विष्णु नारायण की रिपोर्ट

बदलाव के सुराग : केवल एक दंगा कैसे दस साल के भीतर भाईचारे का पलड़ा पलट देता है

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मुजफ्फरनगर में दस साल पहले दंगा हुआ था। सितंबर 2013 का महीना था। तब यूपी में सरकार भाजपा की नहीं थी। कमीशन बना, रिपोर्ट आई, समाजवादी सरकार बरी हो गई। समाज ने धीरे-धीरे खुद को संभाला। फिर हाइवे बने, किसान आंदोलित हुए, यूट्यूब चैनल पनपने लगे। दस साल में दुनिया इतनी बदल गई कि एक मामूली स्‍कूल की छोटी सी घटना तक सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने लगी। मुजफ्फरनगर के गांव-कस्‍बों में लोग इस बदलाव को कैसे देख रहे हैं? क्‍या सोच रहे हैं? मुजफ्फरनगर से लौटकर अभिषेक श्रीवास्‍तव की मंजरकशी