Culture

एक अदद सिंचाई बांध की राह देखते कनकपुरी के किसान चौधरी रघुवीर सिंह और उनके भाई

रूहेलखण्ड: पहले किसानों के सब्र का बांध टूटेगा या सरकार पक्का बांध बना कर देगी?

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यह उत्तर प्रदेश में बरेली के किसानों का जज्बा है कि वे अपने हाथों और जेब के बल पर सात साल से कच्चा बांध बनाकर खेती को बचाए हुए हैं वरना इस साल दस महीने में सात किसान यहां खुदकुशी कर चुके हैं जबकि सरकारी कागजात में बरेली मंडल कृषि निवेश और विकास की रैंकिंग में अव्वल है। सिंचाई के लिए सौ साल से एक बांध का इंतजार कर रहे यूपी के डेढ़ सौ गांवों की कहानी सुना रहे हैं शिवम भारद्वाज

बांदा: दलित औरत के बलात्कार को हादसा बताकर अपराधियों को बचा रही है पुलिस?

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औरतों से बलात्‍कार के बाद उनका अंग-भंग करने का चलन इधर बीच बहुत तेजी से बढ़ा है। शहरों से शुरू हुआ यह सिलसिला अब गांवों तक पहुंच चुका है। पिछले महीने बांदा में एक दलित औरत के साथ सामूहिक बलात्‍कार के बाद उसका सिर और हाथ काट दिया गया था। आरोपित भारतीय जनता पार्टी से संबद्ध तीन सवर्ण पुरुष थे। पुलिस की जांच में इसे हादसा बता दिया गया। आंदोलन के दबाव में महज एक गिरफ्तारी हुई, लेकिन धाराएं हलकी कर दी गईं। पतौरा गांव में 31 अक्‍टूबर को हुई जघन्‍य घटना की अविकल फैक्‍ट फाइंडिंग रिपोर्ट

उत्तराखंड की सुरंग से लीबिया की डूबी नाव तक मरते मजदूर सरकारों के लिए मायने क्यों नहीं रखते!

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देश भर में सीवर में घुट कर मरते सफाईकर्मी हों, मेडिटेरेनियन सागर में नाव डूबने से मरते प्रवासी श्रमिक हों या फिर उत्‍तराखंड की चारधाम परियोजना के चलते सुरंग में दो हफ्ते से फंसे 41 मजदूर, ये सभी घटनाएं एक ही बात की ओर इशारा करती हैं कि सरकारों और कारोबारियों के मुनाफे की राह में कामगारों की जान का कोई अर्थ नहीं है। मजदूर किसी की प्राथमिकता में कहीं नहीं हैं। मजदूरों की सुरक्षा की उपेक्षा पर अरुण सिंह

छत्तीसगढ़: एक कानून बना कर उसे जमीन पर उतारने में पांच साल क्यों कम पड़ गए?

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हिंदी पट्टी में सबसे पहले पत्रकारों की सुरक्षा को लेकर एक कानून बनाने की मांग छत्‍तीसगढ़ से ही उठी। यह मुद्दा पिछले विधानसभा चुनाव में इतना गरमाया हुआ था कि कांग्रेस पार्टी को अपने घोषणापत्र में पत्रकार सुरक्षा कानून लाने का वादा करना पड़ा। भूपेश बघेल की सरकार आने के बाद ऐसा कानून बनाने में राज्‍य सरकार को पूरे साढ़े चार साल लग गए। बीते मार्च में यह कानून बनकर पारित हुआ, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। रायपुर से विष्णु नारायण की रिपोर्ट

बदलाव के सुराग : केवल एक दंगा कैसे दस साल के भीतर भाईचारे का पलड़ा पलट देता है

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मुजफ्फरनगर में दस साल पहले दंगा हुआ था। सितंबर 2013 का महीना था। तब यूपी में सरकार भाजपा की नहीं थी। कमीशन बना, रिपोर्ट आई, समाजवादी सरकार बरी हो गई। समाज ने धीरे-धीरे खुद को संभाला। फिर हाइवे बने, किसान आंदोलित हुए, यूट्यूब चैनल पनपने लगे। दस साल में दुनिया इतनी बदल गई कि एक मामूली स्‍कूल की छोटी सी घटना तक सुप्रीम कोर्ट में पहुंचने लगी। मुजफ्फरनगर के गांव-कस्‍बों में लोग इस बदलाव को कैसे देख रहे हैं? क्‍या सोच रहे हैं? मुजफ्फरनगर से लौटकर अभिषेक श्रीवास्‍तव की मंजरकशी

तीन साल बाद भूलगढ़ी: हाथरस की वह घटना, जिसने लोकतंत्र को नाकाम कर दिया

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आज हाथरस गैंगरेप कांड को तीन साल हो गए। तकनीकी रूप से साबित किया जा चुका है कि यह रेप कांड नहीं था। हत्‍या की मंशा भी नहीं थी। केवल एक आदमी जेल में है, तीन बाहर। परिवार कहीं ज्‍यादा सघन कैद में, जिसका घर सीआरपीएफ की छावनी बन चुका है। गांव से बाहर निकलने की छटपटाहट अदालतों में नाकाम हो चुकी है, हाथरस से शुरू हुई बंटवारे की राजनीति कामयाब। एक जीता-जागता गांव कैसे तीन साल में मरघट बन गया, बता रही हैं गौरव गुलमोहर के साथ भूलगढ़ी से लौटकर नीतू सिंह इस फॉलो-अप स्‍टोरी में

निरंकुशता के विरुद्ध : तख्तापलट के पचास बरस और चिली का प्रतिरोधी सिनेमा

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चिली में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए की शह पर किए गए तख्‍तापलट को पचास साल पूरे हो गए। इतने ही बरस राष्‍ट्रपति सल्‍वादोर अलेन्‍दे की हत्‍या और उसके बारह दिन बाद महान कवि पाब्‍लो नेरूदा के निधन को भी हो रहे हैं। 11 सितंबर, 1973 से लेकर 1990 के बीच सत्रह साल की जिस तानाशाही और निरंकुशता ने देश में इनसानियत के सूरज को उगने से रोके रखा, उसकी भयावह स्‍मृतियों को दर्ज करने और संजोने का काम चिली के सिनेमाकारों ने किया। चिली के तख्‍तापलट पर केंद्रित सिनेमा की परंपरा पर सिने आलोचक विद्यार्थी चटर्जी की यह लंबी कहानी, अनुवाद अभिषेक श्रीवास्‍तव ने किया है

दिल्ली में मेरा घर जला दिया गया… रामायण और कुरान दोनों को आंच आई है!

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दिल्‍ली में 30 अगस्‍त की सुबह एक महिला पत्रकार खुशबू अख्‍तर का घर जला दिया गया। जलाने वालों का अब तक कोई सुराग नहीं, लेकिन इसके हादसा होने की गुंजाइश भी नगण्‍य है। इस आग में सिर्फ एक घर नहीं जला है, साझा संस्‍कृति के प्रतीक भी जलकर खाक हुए हैं। यह घटना इसलिए गंभीर है क्‍योंकि धर्मनिरपेक्षता के प्रति इस पत्रकार की विश्वसनीयता असंदिग्ध है। बीते कुछ वर्षों के दौरान वंचितों और अल्‍पसंख्‍यकों के सवालों को खुशबू ने जिस साहस और निरंतरता के साथ उठाया है, वह इस घटना की मंशाओं की ओर संकेत करता है। खुशबू अख्‍तर की कलम से ही पूरी आपबीती

रामलला के स्वागत से पहले उनकी अयोध्या उजड़ रही है, उनकी प्रजा उखड़ रही है…

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राम मंदिर के उद्घाटन की तारीख आ चुकी है। आधुनिक दौर में इस देश की राजनीति को परिभाषित करने वाली तीन दशक पुरानी इकलौती घटना जनवरी के तीसरे हफ्ते में अपनी परिणति पर पहुंच जाएगी। बस, उसके उत्‍सव में अयोध्‍यावासी नहीं होंगे। वे कहीं जा चुके होंगे, यदि बचे होंगे तब। अयोध्‍या में विकास और मंदिर के नाम पर लोगों को उजाड़ने का जो भयावह खेल चल रहा है, उसकी पड़ताल कर रहे हैं वहां से लौटे गौरव गुलमोहर

यूपीए या एनडीए? गदर ने कहा था- हिरन से पूछो, शेर अच्छा या चीता!

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गुम्‍माडि विट्ठल राव उर्फ ‘गदर’ जिंदगी भर घूम-घूम कर जनता को अपने गीतों से सत्‍ताओं के खिलाफ जगाते रहे। तेलंगाना राज्‍य बन जाने के बाद उन्‍होंने केसीआर द्वारा जमीनों की लूट के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। तीन महीने पहले तक वे सरकार के खिलाफ पदयात्रा कर रहे थे। अचानक 6 अगस्‍त को हुई मौत के बाद उन्‍हें राजकीय सम्‍मान दे दिया गया। जनता के एक और नायक को जीते जी नहीं, तो मरने के बाद सत्‍ता ने अपनी चादर में समेट लिया। 2006 में गदर के साथ हुई मुलाकात के बहाने उन्‍हें याद कर रहे हैं अभिषेक श्रीवास्‍तव