पश्चिमी यूपी, पहला चरण : आठ सीटों पर मुस्लिम वोटों का बिखराव ही तय करेगा भाजपा की किस्मत

Loksabha Elections 2024 Phase 1 Western UP
Loksabha Elections 2024 Phase 1 Western UP
पहले चरण के मतदान में अब केवल तीन दिन बचे हैं लेकिन पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में चुनाव खड़ा नहीं हो पाया है। हालात ये हैं कि यहां समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की पहली साझा प्रेस कॉन्‍फ्रेंस और प्रियंका गांधी की जनसभा प्रचार के आखिरी दिन प्रस्‍तावित है। यहां की आठ सीटों में अधिकतर पर किसी न किसी तीसरी ताकत ने विपक्षी गठबंधन और भाजपा दोनों को असमंजस में डाल रखा है। लिहाजा, वोटर बिलकुल खामोश है और प्रेक्षक भ्रमित। यूपी में पहले चरण का सीट दर सीट तथ्‍यात्‍मक आकलन वरिष्‍ठ पत्रकार माजिद अली खान की नजर से

लोकसभा चुनाव 2024 के पहले चरण का मतदान 19 अप्रैल को होगा। जैसे-जैसे मतदान की तारीख नजदीक आ रही है वैसे-वैसे पहले चरण वाले मतदान क्षेत्रों में चुनावी युद्ध जोर पकड़ता जा रहा है। सभी पार्टियों के नेता और प्रत्याशी आगे बढ़-बढ़ कर एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जारी रखे हुए हैं और रैलियां, नुक्कड़ सभाएं व रोड शो किए जा रहे हैं। इन सबसे अलग, जनता में चुनाव को लेकर छाई हुई खामोशी सभी दलों की धड़कनें बढ़ाने के लिए काफी है। मतदाताओं की तरफ से बहुत ज्‍यादा जोश या सक्रियता इस बार नज़र नहीं आ रही है जिसकी वजह से चुनाव परिणामों का विश्लेषण करने वाले भी परेशान हैं कि आखिर यह खामोशी किसके लिए लाभदायक है और किसके लिए नुकसानदेह।

प्रथम चरण में उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाके की आठ सीटों पर भी चुनाव होना है जिनमें सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, कैराना, बिजनौर, नगीना, मुरादाबाद, रामपुर और पीलीभीत की संसदीय सीटें शामिल हैं। इन आठ सीटों में से पिछली लोकसभा में तीन बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के पास थीं, तीन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और दो सीटें समाजवादी पार्टी (सपा) ने जीती थीं। पिछली बार सपा-बसपा गठबंधन था लेकिन इस बार सपा-कांग्रेस गठबंधन है और तीनों दलों के लिए चुनौती बरकरार है कि वे अपनी-अपनी सीटों को बचा पाते हैं या नहीं। यदि इन आठों सीटों का अलग-अलग विश्लेषण करें, तो तस्वीर कुछ अलग नजर आती है जो तीनों दलों के लिए परेशानी खड़ी कर रही है।


BSP chief Mayawati rally in Saharanpur, UP
मायावती की रैली: बसपा के सहारनपुर उम्मीदवार ने यहां की लड़ाई को तितरफा और रोमांचक बना दिया है

सबसे पहले सहारनपुर लोकसभा क्षेत्र का जायजा लिया जाए जो उत्तर प्रदेश की सबसे पश्चिमी लोकसभा है। सहारनपुर जिले में वैसे तो सात विधानसभाएं हैं लेकिन लोकसभा में पांच विधानसभाएं ही शामिल हैं। जिले की दो विधानसभाएं नकुड़ और गंगोह कैराना लोकसभा क्षेत्र में पड़ती हैं। केवल सहारनपुर नगर,  सहारनपुर देहात,  बेहट,  रामपुर और देवबंद की विधानसभाएं सहारनपुर लोकसभा के अंतर्गत आती हैं। सहारनपुर का देवबंद कस्बा विश्वविख्यात है, खासतौर से मुस्लिम जगत में यह अलग महत्व रखता है क्योंकि यहां देश ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा ऐतिहसिक इस्लामी मदरसा है जिसका महत्व पूरे इस्लामी संसार में माना जाता है। 

समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन के तहत यह सीट कांग्रेस को दी गई है और कांग्रेस ने मशहूर नेता व पूर्व केन्द्रीय मंत्री काजी रशीद मसूद के भतीजे इमरान मसूद को अपना उम्मीदवार बनाकर सीट पर कब्जा करने का प्रयास किया है। पिछली लोकसभा में यह सीट बसपा के पास थी जहां बसपा उम्मीदवार हाजी फजलुर्रहमान विजयी हुए थे लेकिन इस बार उनका टिकट काटकर बसपा ने पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष माजिद अली पर भरोसा जताया है। भाजपा ने अपने पूर्व प्रत्याशी राघव लखनपाल शर्मा को ही मैदान में उतार दिया है। पिछले लोकसभा चुनाव के कांग्रेस और भाजपा प्रत्याशी इस बार भी प्रत्याशी हैं, बस बसपा ने अपना प्रत्‍याशी बदला है। 

सहारनपुर जिला बसपा के प्रभुत्व वाला जिला माना जाता है और अब भी वहां दलित वोट बसपा से चिपका हुआ है,  हालांकि युवा दलित आंदोलन के आइकन बन चुके आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद सहारनपुर के रहने वाले हैं परंतु बसपा के मुकाबले यहां दलित राजनीति पर उनका खास प्रभाव नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव वाली तस्वीर ही लगभग यहां इस चुनाव में नजर आ रही है- भाजपा के वही राघव लखनपाल और कांग्रेस के वही इमरान मसूद और बसपा का एक मुस्लिम चेहरा जो दलित मुस्लिम समीकरण साधने के लिए काफी है। तो अनुमान ये है कि परिणाम भी लगभग ऐसा ही रहने की उम्मीद है, मगर थोड़ा बहुत उठापटक इस चुनाव में हो सकती है।



जैसे, इस बार कांग्रेस को लेकर मुस्लिम समुदाय में इतनी नाराजगी नहीं है बल्कि राहुल गांधी के भाजपा पर किए लगातार जुबानी हमलों को बहुत सराहना मिली है जिस वजह से मुस्लिम समुदाय की हमदर्दी पिछली बार के मुकाबले इस बार कुछ ज्‍यादा देखने को मिल सकती है,  लेकिन इस बार इमरान मसूद के सामने समस्या यह है कि पहली बार कोई मुस्लिम गाड़ा बिरादरी का आदमी मुकाबला कर रहा है।  सहारनपुर में पिछड़े वर्ग में शामिल गाड़ा बिरादरी बड़ी संख्या में रहती है जो परंपरागत रूप से काजी परिवार को समर्थन करती रही है और जिसके आधार पर काजी परिवार हर चुनाव में बढ़िया मुकाबला करता रहा है लेकिन इस बार खुद गाड़ा बिरादरी के माजिद अली बसपा से चुनाव लड़ रहे हैं जिन्हें बिरादरी का खूब समर्थन मिल रहा है। यही समर्थन इमरान मसूद की स्थिति को कमजोर कर रहा है।

सहारनपुर में मुसलमानों की तेली बिरादरी भी बड़ी संख्या में है। सहारनपुर देहात के सपा विधायक आशु मलिक तेली हैं और गठबंधन की वजह से उन्हें कांग्रेस का समर्थन करना पड़ेगा, जिस वजह से तेलियों का एक बड़ा हिस्सा इमरान मसूद के साथ जा सकता है। सहारनपुर देहात विधानसभा के गांव मक्काबांस के प्रधान तारिक अब्दुल्लाह की बात मानें तो गाड़े 95 प्रतिशत माजिद अली के साथ हैं और तेली आधे-आधे बसपा और कांग्रेस में बंट जाएंगे। इसके अलावा अन्य मुसलमान भी आधे-आधे बंटेंगे।

सहारनपुर लोकसभा में लगभग सात लाख मुसलमान वोटर हैं और चार लाख दलित वोटर हैं। दलितों का बड़ा हिस्सा बसपा के खाते में जा रहा है। बसपा बेहट विधानसभा प्रभारी वेदपाल गौतम का दावा है कि दलित बसपा को पूरा वोट करेगा और इस बार भी बसपा इस सीट पर कब्जा बरकार रखेगी।  दलित-मुस्लिम समीकरण के आधार पर बसपा पहले भी तीन बार भाजपा को हरा चुकी है। 

अब भाजपा की स्थिति पर गौर करें तो भाजपा को यहां मुसलमानों के बंटवारे और दलितों के कम वोटिंग प्रतिशत पर निर्भर रहना पड़ेगा क्योंकि यहां भाजपा प्रत्याशी के सामने राजपूतों की नाराजगी और सैनी वोटरों की उदासीनता चुनौती बनकर खड़ी हुई है। यदि भाजपा को इन दो जातियों का शत प्रतिशत समर्थन नहीं मिला तो उनके लिए बड़ी दिक्कतें खड़ी हो सकती हैं। लिहाजा बेचैनी भाजपा खेमे में खूब पाई जा रही है। ‘’अबकी बार चार सौ पार’’ के भाजपा के नारे के बीच सहारनपुर सीट पर भाजपा का मजबूत दावा दिखाई नहीं दे रहा। उसकी जीत का आधार दूसरे वोटों का बिखराव ही बन सकता है।

इमरान मसूद पिछली बार तीसरे नंबर पर थे। इस बार भी उम्मीद ऐसी ही है क्योंकि उन्हें बसपा और भाजपा के नाराज वोटरों के गठजोड़ का सहारा है। हालांकि मुख्य मुकाबले में रहने के लिए वे बहुत कोशिश कर रहे हैं,  लेकिन कहीं से कोई चमत्कार ही हो जाए तो अलग बात है नहीं तो उनकी स्थिति पिछली बार वाली ही रहेगी।


Opposition alliance candidate Ikra Hasan contesting from Kairana on Samajwadi Party ticket has got much popularity among women voters
पूर्व सांसद और पिछले चुनाव में सपा प्रत्याशी रहीं तबस्सुम हसन की बेटी इकरा हसन (बीच में) सपा से मैदान में हैं

सहारनपुर के बाद उससे सटी लोकसभा सीट कैराना की बात करें तो यह गुर्जर बहुल सीट है जिसमें हिंदू मुस्लिम गुर्जर दोनों शामिल हैं। इस सीट में दो सीटें सहारनपुर जिले की और तीन सीटें शामली जिले से हैं। पिछली बार भाजपा ने यहां से विजय प्राप्त की थी। उसके उम्मीदवार चौधरी प्रदीप ने सपा उम्मीदवार तबस्सुम हसन को हराया था। इस बार इस सीट के मिजाज काफी बदले हुए हैं। 

भाजपा ने इस बार भी अपने सांसद चौधरी प्रदीप को ही मौका दिया है लेकिन गठबंधन के तहत सपा के हिस्से में आई सीट पर पूर्व सांसद और पिछले चुनाव में सपा प्रत्याशी रहीं तबस्सुम हसन की बेटी इकरा हसन मैदान में हैं। इस मुकाबले को रोमांचक बना दिया है बसपा के प्रत्याशी श्रीपाल राणा ने, जो राजपूत हैं और खूब मेहनत कर रहे हैं।

पिछले चुनाव के विपरीत इस बार भाजपा की स्थिति इतनी मजबूत नहीं है। भाजपा प्रत्याशी चौधरी प्रदीप सहारनपुर जिले के रहने वाले हैं और पिछली बार कैराना में भाजपा के वरिष्ठ गुर्जर नेता दिवंगत चौधरी हुकुम सिंह के परिवार का समर्थन पाने में कामयाब रहे थे। इस बार हुकुम सिंह का परिवार चुप्पी साधे हुए है जबकि सपा प्रत्याशी भी मुस्लिम गुर्जर हैं और उनके पिता चौधरी मुनव्वर हसन कैराना के एक लोकप्रिय नेता रहे हैं और गुर्जर बिरादरी में उनकी पकड़ भी खूब रही है।  हुकुम सिंह और मुनव्वर हसन अकसर एक दूसरे से मुकाबला करते रहे और दोनों की मृत्यु के बाद उनके बच्चे भी आपस में मुकाबला करते रहे हैं।

कैराना विधानसभा चुनाव में चौधरी मुनव्वर हसन के पुत्र नाहिद हसन ने हुकुम सिंह की पुत्री को पराजित किया था। चुनावी टकराव के बावजूद दोनों परिवारों में संबंध अच्छे रहे हैं और धर्मभेद से अलग बिरादरी के तौर पर एक-दूसरे को वे सम्मान देते रहे हैं। अबकी बार चौधरी हुकुम सिंह के परिवार की तरफ से भाजपा प्रत्याशी के लिए ज्यादा जोश नहीं दिखाई दे रहा है जिसकी वजह से जो रिपोर्ट मिल रही है उसमें शामली जिले में गुर्जर बिरादरी इकरा हसन को समर्थन दे रही है।  खासतौर से महिलाओं में इकरा को लेकर अलग प्यार उमड़ रहा है। कैराना लोकसभा में भी मुसलमानों की बड़ी संख्या मौजूद है जो इकरा हसन के पीछे लामबंद हो चुकी है।

इसके अलावा जाट वोट की भूमिका भी इस सीट पर अपना महत्व रखती है और भाजपा ने जयंत चौधरी को अपने साथ लगाकर जाटों की नाराजगी से बचने की कोशिश की है लेकिन अभी जाट भाजपा से बहुत नाराज हैं और शामली-मुजफ्फरनगर में यह नाराजगी चुनाव को प्रभावित जरूर करेगी।

इस स्थिति में कैराना लोकसभा में भाजपा के लिए कब्जा बरकरार रखना आसान नहीं है। बसपा के राजपूत कैंडिडेट की मौजूदगी और राजपूतों की भाजपा से नाराजगी भाजपा प्रत्याशी के लिए बहुत मुश्किलें खड़ी कर रही है। चुनाव परिणाम कुछ भी हो, लेकिन यह सीट भाजपा के लिए इस बार मुश्किल नजर आ रही है।

सहारनपुर मंडल की तीसरी लोकसभा सीट मुजफ्फरनगर है जो मुस्लिम और जाटो के प्रभाव वाली सीट मानी जाती रही है। इस सीट पर एक-तिहाई मुस्लिम वोट है और बहुत बार मुस्लिम चेहरे यहां सांसद रह चुके हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में चौधरी अजीत सिंह को भाजपा उम्मीदवार संजीव बालियान ने हराया था। संजीव बालियान दो बार के सांसद हैं और तीसरी बार फिर मैदान में हैं। इस बार फिर उनका मुकाबला समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन के उम्मीदवार सीनियर जाट नेता हरेंद्र मलिक से हो रहा है। बसपा ने दारा सिंह प्रजापति को मैदान में उतार कर मुकाबला त्रिकोणीय बनाने की कोशिश की है।

यहां के लोगों की मानें तो यहां मुख्य मुकाबला भाजपा और गठबंधन के उम्मीदवारों के बीच होगा लेकिन भाजपा को इस बार अलग चुनौतियों का सामना करना पड रहा है। भाजपा के लिए अंदरूनी चुनौतियां उसके लिए मुश्किल खड़ी कर सकती हैं। मसलन, सरधना के भाजपा विधायक संगीत सोम ने ही पार्टी कैंडिडेट संजीव बालियान के खिलाफ विरोध का बिगुल बजा रखा है। इसके अलावा भाजपा के खिलाफ अन्य अंदरूनी विरोध भी उन्हें परेशान कर रहे हैं। गठबंधन उम्मीदवार के लिए यही राहत की बात है कि पिछली बार की तरह भाजपा समर्थकों में उत्साह दिखाई नहीं दे रहा।



मुजफ्फरनगर के रहने वाले राशिद अली बताते हैं कि मुजफ्फरनगर के मुसलमान और जाट एकजुट होकर भाजपा के खिलाफ वोट करेंगे। उनका मानना है कि अबकी बार किसान, मजदूर सब सरकार से परेशान हैं इसलिए उनका समर्थन गठबंधन को मिलेगा और भाजपा की अंतर्कलह भी उसे नुकसान पहुंचा सकती है। मुजफ्फरनगर की रहने वाली युवा एमबीए सुनीता पांडेय कहती हैं कि इस बार भाजपा के हिंदुत्व में धार दिखाई नहीं दे रही इसलिए ध्रुवीकरण होने की बहुत ज्यादा संभावनाएं नहीं हैं, जो भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन सकता है।

मुजफ्फरनगर के वृद्ध समाजसेवी शफात राणा का मानना है कि इस बार परिणाम पिछली बार से अलग हो सकते हैं। उनका मानना है कि बसपा के अलग कैंडिडेट होने से काफी वोट भाजपा से अलग रहेगा जो पिछली बार भाजपा के पाले में चला गया था। उनका कहना है कि भाजपा अंदरूनी तौर पर एकजुट नज़र नहीं आ रही,  अगर ऐसा ही रहा तो भाजपा यह सीट गंवा सकती है।

कुल मिलाकर कहा जाए तो सहारनपुर मंडल में भाजपा की स्थिति कमजोर है। हरेंद्र मलिक के समर्थक एक जाट नेता का कहना है कि जाट-मुस्लिम दंगे के बाद जाटों और मुसलमानों में पिछले चुनाव तक सही तालमेल नहीं बैठ सका था लेकिन इस बार वह खटास बिलकुल खत्म हो चुकी है।  मुसलमानों को जाट उम्मीदवार को वोट देने में बिलकुल गुरेज नहीं रहा। अबकी बार जाट-मुस्लिम कांबिनेशन और भाजपा की अंतर्कलह उसे जीतने नहीं दे रही,  गठबंधन इस सीट पर कब्जा करेगा।


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मुजफ्फरनगर से अगला लोकसभा क्षेत्र बिजनौर पड़ता है जो तीन जिलों बिजनौर, मुजफ्फरनगर, मेरठ की पांच विधानसभाओं से मिल कर बना है। वैसे तो पुरानी बिजनौर सीट ऐतिहसिक सीट रही है जिस पर देश के तीन बड़े दलित नेता रामविलास पासवान, मीरा कुमार और मायावती संसदीय चुनाव लड़ चुके हैं लेकिन परिसीमन के बाद बने इस लोकसभा क्षेत्र में मुजफ्फरनगर की दो विधानसभाएं मीरापुर और पुरकाजी, मेरठ की हस्तिनापुर और बिजनौर जिले की दो विधानसभाएं बिजनौर और चांदपुर शामिल हो चुकी हैं।

इस सीट पर जाट और मुसलमान अहम भूमिका निभाते रहे हैं। पिछली बार बसपा के मलूक नागर ने भाजपा को हराया था। इस बार यह सीट भाजपा-रालोद गठबंधन के चलते रालोद के हिस्से में आई है और रालोद ने पूर्व सांसद संजय चौहान के पुत्र चंदन चौहान को मुकाबले में उतारा है। बसपा ने सांसद मलूक नागर का टिकट काटकर रालोद से बसपा में आए जाट नेता चौधरी विजेंद्र सिंह को मैदान में उतार कर अपनी जीत बरकरार रखने की कोशिश की है। सपा-कांग्रेस गठबंधन की ओर से दीपक सैनी चुनाव मैदान में हैं। तीनों मुख्य प्रतिद्वंदियों में कौन किस पर भारी रहेगा कहना बहुत मुश्किल है।

भाजपा के परंपरागत हिंदुत्ववादी एजेंडे का शोर नहीं है इसलिए हिंदू ध्रुवीकरण होगा यह भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। बसपा जीत बरकरार रख सकती है क्योंकि उसके पास जाट उम्मीदवार और दलित वोट और थोड़े बहुत मुसलमानों का सहारा है। इन दोनों को परेशान कर रही सपा की दावेदारी है जो उसने एक पिछड़े वर्ग सैनी के व्यक्ति को टिकट देकर बढ़ा दी है। गठबंधन प्रत्याशी को मुसलमानों के बड़े हिस्से का समर्थन मिलने की उम्मीद के साथ-साथ पिछड़े वर्ग के हिंदुओं का वोट भी मिल सकता है।

बिजनौर में 44 प्रतिशत के लगभग मुस्लिम वोट हैं जो किसी भी समीकरण को बिगाड़ने के लिए काफी हैं। बिजनौर में कोई मुस्लिम उम्मीदवार मुख्य पार्टी से नहीं है और वोटरों की खामोशी विश्लेषकों के लिए बहुत असमंजस की स्थिति पैदा कर रही है। मुजफ्फरनगर से भाजपा कैंडिडेट का मेरठ की सरधना विधानसभा के ठाकुर विधायक संगीत सोम द्वारा किए जा रहे विरोध का असर बिजनौर पर भी पड़ सकता है, हालांकि बिजनौर में भाजपा के बजाय रालोद के उम्मीदवार मैदान में हैं लेकिन भाजपा विरोध रालोद को भी झेलना पड़ सकता है। बिजनौर सीट तीनों दलों के लिए पहेली बनी हुई है।  किसी की जीत का दारोमदार सिर्फ मतदान के प्रतिशत पर है। जिस वर्ग का मतदान ज्यादा हुआ उसी के अनुसार वही दल विजय पताका लहराएगा।

बिजनौर जिले की दूसरी सुरक्षित संसदीय सीट नगीना में भी मुकाबला रोमांचक है। तीन मुख्य दलों के त्रिकोणीय मुकाबले को आजाद समाज पार्टी (कांसीराम) के नेता चंद्रशेखर ने वहां मैदान में उतर कर चतुष्‍कोणीय बना दिया है। साथ ही किसी की भी जीत के दावे को भी खत्म कर दिया है। नगीना इलाके में चंद्रशेखर अब तक सब पर भारी पड़ते नजर आ रहे हैं।

नगीना में मुस्लिम वोट 37 प्रतिशत के आसपास है और मुस्लिम समाज से जो खबरें मिल रही हैं उनमें ज्यादातर का रुझान चंद्रशेखर की ओर ही दिखता है। साथ ही 21 प्रतिशत वोट वाले दलित समाज पर भी चंद्रशेखर का जादू चल रहा है। चंद्रशेखर दलित संघर्ष के युवा आइकन माने जाते हैं, हालांकि बाकी दलों के उम्मीदवार भी किसी भी हैसियत में कम नहीं हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में यह सीट बसपा के पास थी। बसपा के सांसद गिरीशचंद्र ने भाजपा के यशवंत सिंह को हराया था। इस बार बसपा और भाजपा दोनों ने प्रत्याशी बदल दिए हैं।

बसपा ने वकालत पेशे से राजनीति में आए सुरेंद्र पाल सिंह पर भरोसा जताया है। सुरेंद्र पाल सिंह मूलतः शामली जिले के रहने वाले हैं और 2022 में पुरकाजी विधानसभा से बसपा के टिकट पर किस्मत आजमा चुके हैं। भाजपा ने नहटौर से तीसरी बार विधायक बने ओम कुमार पर विश्वास जताकर नगीना सीट को कब्जे में लेने का प्रयास किया है। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन ने एक पूर्व जज से समाजसेवा में आए मनोज कुमार को टिकट देकर मुकाबले को मुश्किल बना दिया है।


Chandrashekhar Azad seems to be disrupting the established electoral equation in Nagina
कुछ लोगों का मानना है कि मतदाता अब सभी दलों से थक गए हैं इसलिए वे चंद्रशेखर को मौका देना चाहते हैं

नगीना सीट पर दलित-मुस्लिम समीकरण सबसे ज्यादा मजबूत समीकरण है जिसकी बदौलत बसपा यहां कामयाब हो चुकी है, लेकिन चंद्रशेखर के चुनाव लड़ने और बसपा कैंडिडेट के बाहरी होने का नुकसान अबकी बसपा को उठाना पड़ सकता है। सपा प्रत्याशी मनोज कुमार को मुसलमानों के वोटों से उम्मीद है और भाजपा को इन सब के बिखराव का आसरा। कुल मिलाकर यह कहना कि किसी दल के लिए चुनाव आसान है, ठीक नहीं होगा। भाजपा के लिए आसान हो सकता था लेकिन उसे भी अंदरूनी विरोधों का सामना करना पड़ रहा है। यदि इलाके के लोगों की मानें तो चुनाव में कोई लहर नहीं है और न किसी दल का शोर है।

क्षेत्र में नजीबाबाद शहर के निवासी शाकिर सिद्दीकी का मानना है कि चंद्रशेखर को समर्थन तो मिल रहा है लेकिन उनकी टीम इलाके को कवर नहीं कर पा रही है। नगीना निवासी एक युवा समीर का मानना है कि इलाके के लोग सभी दलों से थक गए हैं इसलिए वे चंद्रशेखर को मौका देना चाहते हैं।  बिजनौर के मंडावर कस्बे के पूर्व चेयरमैन आजम खां कहते हैं कि जिले की दोनों सीटों में घमासान होगा, न किसी को मुकाबले से बाहर कह सकते और न ही जीत के प्रति आश्वस्त। वे इसकी वजह बताते हैं कि इतना खामोश चुनाव उन्होंने जिंदगी में कभी नहीं देखा। मतदान प्रतिशत कितना रहेगा इसे लेकर भी कन्फ्यूजन है, मतदान के बाद ही कुछ अंदाजा हो पाएगा कि ऊंट किस करवट बैठेगा।

प्रथम चरण में ही रुहेलखंड इलाके की तीन लोकसभा सीटों का चुनाव होना है- मुरादाबाद, रामपुर और पीलीभीत। मुरादाबाद उत्तर प्रदेश का एक मुख्य कारोबारी मुस्लिम-बहुल जिला है और मुस्लिम वोटर यहां चुनाव परिणाम तय करते हैं। अक्सर मुस्लिम सांसद देने वाला मुरादाबाद अबकी बार कुछ अजब पसोपेश में फंसा हुआ है।

सपा-कांग्रेस गठबंधन में यह सीट सपा को दी गई है। पिछली बार यहां सपा प्रत्याशी एसटी हसन ने जीत हासिल की थी, लेकिन इस बार नाटकीय ढंग से सपा ने एसटी हसन का टिकट काटकर बिजनौर की सपा नेता रुचीविरा को टिकट दे दिया जिससे एकदम से चुनावी समीकरण बदल गए। एक मुस्लिम प्रभुत्‍व वाले लोकसभा क्षेत्र में मुस्लिम कैंडिडेट का सपा द्वारा टिकट काटना लोगों को अखर गया है और सांसद एसटी हसन भी खुलकर रुचीविरा का विरोध कर रहे हैं। सपा की इस नाटकीय राजनीति में बसपा का फायदा होता नजर आ रहा है।

बसपा ने यहां एक मुस्लिम इरफान सैफी को टिकट दिया है जिस पर कयास लगाए जा रहे हैं और दबे अल्फाज में मुस्लिम बोलते सुनाई दे रहे हैं कि हम तो बसपा के मुस्लिम कैंडिडेट को वोट देंगे। सपा-कांग्रेस गठबंधन के प्रति मुसलमानों की हमदर्दी से नहीं लगता कि मुसलमानों एकतरफा वोट बसपा को जाएगा बल्कि मुस्लिम वोट के बिखराव की ही ज्‍यादा आशंका है, जो भाजपा के लिए उम्मीद की किरण है।



भाजपा ने सर्वेश सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया है। मुरादाबाद में भाजपा के लिए करने को बहुत ज्यादा कुछ नहीं है लेकिन मुसलमान मतों का विभाजन उसकी जीत का आधार है। मुरादाबाद के पत्रकार विशाल शर्मा कहते हैं कि यदि मुसलमानों के मतों का विभाजन होता है तो भाजपा जीत जाएगी और एकतरफा यदि बसपा या सपा को गया तो फिर वे जीतेंगे। अभी मुसलमानों का रुझान फाइनल नहीं है। मुस्लिम समाज जोड़-तोड़ में लगा हुआ है।

मुरादाबाद नगर के निवासी कमर अनीस बताते हैं कि यहां अक्सर फैसला आखिरी वक्त में लिया जाता है। यदि एसटी हसन का टिकट न कटता तो एकतरफा वे जीत जाते लेकिन सपा की यह रणनीति किसी की समझ में नहीं आई। उनके मुताबिक सि‍टिंग एमपी का टिकट काट कर बाहरी व्यक्ति को चुनाव मैदान में उतार देने का मतलब है कि खुद अखिलेश यादव भी नहीं चाहते कि यहां उनकी पार्टी या कोई मुस्लिम चुनाव में जीते। अब बसपा के कैंडिडेट पर निर्भर करता है कि वह कितना समर्थन जुटा पाते हैं।

मुरादाबाद के एक समाजसेवी मुमताज आलम बताते हैं कि चुनाव से ठीक पहले ही फैसला लिया जाएगा कि किसे वोट दिया जाए।  उनका मानना है कि सपा का फैसला बहुत बचकाना था,  अपनी मजबूत सीट पर कब्जा बरकरार रखना था लेकिन अब ऐसा भविष्य के गर्भ में है। कुल मिलाकर मुरादाबाद का चुनाव भी असमंजस में उलझा हुआ है,  मतदान के बाद ही कुछ कहा जा सकता है कि मतदाताओं का रुझान क्या रहा।

ऐतिहासिक जिला रामपुर भी फिलहाल मुरादाबाद की भांति राजनीतिक खींचतान और असमंजस में फंसा हुआ है, जिसका प्रतिनिधित्व एक दौर में देश के महान स्वतंत्रता सेनानी और देश के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद कर चुके हैं। रामपुर पर लंबे समय से राज्य के फायरब्रांड सपा नेता मोहम्मद आजम खां और रामपुर रियासत के नवाब खानदान का टकराव होता रहा है। इस बार दोनों परिवार चुनाव से दूर हैं। आजम खां तो पत्नी और बेटे सहित जेल में हैं और नवाब खानदान भी चुनाव से दूर है।

आजम खां की वजह से रामपुर सीट समाजवादी पार्टी का गढ़ मानी जाती रही है,  लेकिन आजम खां के जेल जाने के बाद भाजपा ने इस सीट पर कब्जा कर लिया। इस लोकसभा चुनाव में भी उसके सांसद घनश्याम लोधी मैदान में उतरे हैं जबकि समाजवादी पार्टी ने एक मौलवी मुहिबुल्लाह नदवी को दिल्ली से बुलाकर अपना कैंडिडेट घोषित कर दिया है। मुहिबुल्लाह नदवी दिल्ली में संसद के सामने वाली नई दिल्ली की जामा मस्जिद कहलाने वाली मस्जिद में इमाम हैं और अच्छे वक्ता भी हैं।  बताया जाता है कि पार्टी के इस फैसले से खुद आजम खां भी खुश नहीं हैं। इसलिए रामपुर में आजम खां समर्थक भी इन्हें पचा नहीं पा रहे हैं।

सपा के आजम खां समर्थक पदाधिकारियों ने बाकायदा सपा के फैसले का विरोध किया है। सपा के इस कैंडिडेट के विरोध के बाद मुरादाबाद की तरह यहां भी बसपा की बल्ले-बल्ले होने की उम्मीद है। सपा समर्थक लगातार बसपा के मुस्लिम पठान उम्मीदवार जीशान खां को समर्थन देने की घोषणा कर रहे हैं। बसपा उम्मीदवार जीशान खां ज्यादा माहिर राजनीतिज्ञ नहीं हैं, लेकिन सपा की इस अंदरूनी खींचतान में उन्हें काफी फायदा होने की उम्मीद है और हो सकता है कि भाजपा और बसपा का सीधा मुकाबला न हो जाए और सपा चुनाव में अपनी भूमिका भी दर्ज न करा पाए।


SP has imported a Muslim Cleric from Delhi Muhibullah Nadvi to contest from Rampur
सपा ने एक मौलवी मुहिबुल्लाह नदवी को दिल्ली से बुलाकर रामपुर में उतारा है

रामपुर निवासी दिल्ली के एक व्यवसायी अलमास खां मानते हैं कि सपा ने जान-बूझ कर ये रायता फैलाया है और मुरादाबाद की तरह अपनी मजबूत दावेदारी को कमजोर किया जो समझ में आने वाली बात नहीं है। उनका मानना है कि यह नाराजगी लोगों को बसपा कैंडिडेट की तरफ मोड़ रही है।  यदि भाजपा की बात करें तो उसकी जीत का आधार यहां भी मुस्लिम मतों का विभाजन है। उसे पता है कि मुस्लिम वोट एकतरफा किसी को नहीं मिलेगा और जीत उसकी होनी है। पिछले चुनावों में यहां प्रशासन द्वारा सपा समर्थकों को वोट न डालने देने के आरोप लगे थे और इस वजह से ही भाजपा की जीत होने की बात सामने आई थी।

यदि इस चुनाव में मुसलमानों का रुख एकतरफा बसपा की ओर रहा तो भाजपा से यह सीट छिन सकती है। अभी चुनाव में कुछ समय बाकी है और आखिरी समय में ही यह फैसला होगा कि किसे वोट दिया जाए। रामपुर सीट के बारे में भी यही कहा जा सकता है कि सपा ने मुरादाबाद की तरह पता नहीं क्यों नादानी दिखाई और दोनों सीटों पर खुद को सख्त मुकाबले में घसीट लिया। 

पहले चरण में रुहेलखंड की तीसरी सीट पीलीभीत की बात करें तो यहां बहुत ज्यादा चुनाव परिणाम बदलने वाले नहीं हैं,  हालांकि सपा और बसपा ने मुकाबले में आने की कोशिश जरूर की है। बसपा ने अपने पुराने सिपाही अनीस खां को टिकट देकर मुस्लिम मतों को कब्जाने की कोशिश की है और सपा ने भगवत सरन को खड़ा किया है, लेकिन भाजपा के वरिष्ठ नेता और मंत्री जितिन प्रसाद के सामने उनका ज्यादा प्रभाव होगा ऐसा कहा नहीं जा सकता। 

पीलीभीत मेनका गांधी और वरुण गांधी की परंपरागत सीट रही है जो लंबे समय से वे भारी मतों से जीत कर भाजपा की झोली में डालते रहे हैं।  इस बार वरुण गांधी का टिकट काट कर भाजपा ने जितिन प्रसाद को यहां उतार कर कब्जा बरकरार रखने की कोशिश की है। कहा जा सकता है कि भाजपा इसमें कामयाब रहेगी क्‍योंकि वरुण गांधी या पार्टी में उनके समर्थक धड़े की ओर से किसी किस्‍म के असंतोष जैसी कोई सूचना नहीं है। वरुण गांधी अब भी पार्टी के लिए पहले की तरह ही काम कर रहे हैं और जितिन प्रसाद के लिए वोट मांग रहे हैं।   


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उत्तर प्रदेश में प्रथम चरण में होने वाले आठ लोकसभा क्षेत्रों के चुनाव विश्लेषण के बाद नतीजा यही निकलता है कि तीनों मुख्य दलों को अपनी-अपनी जीत को कायम रखना चुनौतीपूर्ण होगा।  सहारनपुर के वरिष्ठ पत्रकार रियाज हाशमी की मानें, तो यहां हर सीट पर चुनाव फंसा हुआ है,  लहर किसी की नहीं है और शोर भी नहीं है।  बस वोटर्स के मूड की बात है कि आखिरी समय में वे क्या फैसला कर बैठें क्योंकि फिलहाल न किसी दल के प्रति लगाव नजर आ रहा है और न ही किसी दल के खिलाफ माहौल है। बस मतदान किसके पक्ष में कितना हो जाए, यही जीत का आधार साबित होगा।



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