नीतीश कुमार, राहुल गांधी, लालू प्रसाद यादव, मल्लिकार्जुन खड़गे, शरद पवार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव, हेमन्त सोरेन, एम. के. स्टालिन, सीताराम येचुरी और दीपंकर भट्टाचार्य- 17 राजनीतिक दलों से आने वाले राष्ट्रीय स्तर के ऐसे नेताओं द्वारा संसद के मानसून सत्र से ठीक पहले 2024 के आम चुनाव के लिए संयुक्त प्रचार का बिगुल फूंका जाना उतना ही अहम है जितना 5 जून, 1974 को पटना के गांधी मैदान में जयप्रकाश नारायण द्वारा संबोधित की गई सभा थी। संसद के बजट सत्र के दौरान हिंडेनबर्ग रिसर्च के किए उद्घाटनों की एक संयुक्त संसदीय कमेटी (जेपीसी) से जांच करवाए जाने की एकजुट विपक्ष की मांग के बाद अब नीतीश कुमार और राहुल गांधी ने मिलकर यह पहल की है।
जाहिर है, आगामी आम चुनावों से पहले सारी नजरें नीतीश कुमार और राहुल गांधी पर होंगी। दोनों का ही कद भारत की समकालीन राजनीति में काफी बड़ा है। इनकी साझेदारी इस नाते ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि दोनों ही यात्री रहे हैं। इन्होंने अपने संघर्षों में राज्य और देश की पदयात्राएं की हैं। बीते 18 वर्षों के दौरान नीतीश कुमार ने कुल 17 यात्राएं की हैं- न्याय यात्रा (2005), विकास यात्रा (2009), विश्वास यात्रा (2010), सेवा यात्रा (2011), अधिकार यात्रा (2012), संकल्प यात्रा (2014), निश्चय यात्रा (2017-18), जल-जीपन-हरियाली यात्रा (2019), समाज सुधार यात्रा (2021) और समाधान यात्रा (2023)। ये सभी यात्राएं बिहार में की गई हैं। राहुल गांधी ने कन्याकुमारी से भारत जोड़ो यात्रा सितम्बर 2022 में शुरू की थी। इसका समापन कश्मीर में जनवरी 2023 में हुआ। इस बीच कुल 4080 किलोमीटर 12 राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में उन्होंने पैदल नापे। इस नाते इन दो यात्रियों की पटना में हो रही मुलाकात समान विचार वाले दो नेताओं के बीच गठबंधन की एक ऐतिहासिक झलक भी होगी।
नीतीश कुमार 1974 से राजनीति में हैं। वे 1985 में विधायक बने थे। उसके बाद 1989, 1991, 1996, 1998, 1999 और 2004 में लोकसभा में निर्वाचित हुए। सात बार वे केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। इस दौरान उन्होंने कृषि मंत्रालय, रेलवे और परिवहन की जिम्मेदारियां संभाली हैं। राहुल गांधी, कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष, 2004 से 2023 तक लगातार लोकसभा में चुनकर आते रहे हैं। वे गृह मामलों, मानव संसाधन विभाग, ग्रामीण विकास, विदेश मामलों, वित्त और कॉरपोरेट मामलों व रक्षा से जुड़ी संसदीय समितियों का हिस्सा रहे हैं। उनके चुनावी प्रचार की ताकत को श्रेय जाता है कि आज कांग्रेस पार्टी छत्तीसगढ़, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में सरकार चला रही है। झारखण्ड, तमिलनाडु और बिहार में उनकी पार्टी गठबंधन सरकार का हिस्सा है।
घरेलू और विदेशी इकाइयों द्वारा असीमित मात्रा में बेनामी चुनावी वित्तपोषण के खिलाफ भारतीय संविधान के प्रावधानों की रक्षा करने के लिए देश के तकरीबन सभी प्रमुख राष्ट्रीय नेताओं ने आज हाथ मिला लिया है। इस परिदृश्य में याद करना मौजूं होगा कि 14 अगस्त, 1997 को भ्रष्टाचार के उन्मूलन पर संकल्प के दौरान लोकसभा में नीतीश कुमार ने क्या कहा था। उन्होंने कहा था, ‘’हमारा देश लोकतंत्र पर आधारित है, इसलिए चुनाव पर लोकतांत्रिक संस्थानों के खर्च का वहन सरकार को उठाना चाहिए। सरकार का मतलब होता है सार्वजनिक व्यय। सरकार को ही सारा व्यय करना चाहिए। एक भी उम्मीदवार को अपनी जेब से एक पैसा भी खर्च नहीं करना चाहिए।‘’
उन्होंने आगे कहा था:
राजनीतिक दलों को इस बारे में सोचना होगा कि वे देश में कैसा तंत्र स्थापित करना चाहते हैं। उन्हें यह तय करना होगा कि इस देश की राजनीति जनता के चंदे से चलेगी या समाज विरोधी तत्वों के पैसे से… राजनीतिक दलों की राजकीय फंडिंग का एक प्रावधान होना चाहिए, कानून ऐसे बनाए जाने चाहिए ताकि जनता और सरकार के ऊपर इस खर्च का बोझ बराबर आए।
नीतीश कुमार की सलाह पर अमल करने के बजाय भाजपानीत केंद्र सरकार ने जनवरी 2018 में राजनीतिक चंदे के लिए चुनावी बॉन्ड की योजना की अधिसूचना जारी कर दी। इस सवालिया योजना को कानून सही ठहराने के लिए उसने कंपनी कानून, 2013 को बदल डाला। चुनावी बॉन्ड प्रॉमिसरी नोट के जैसा एक वादा होता है जो उसके धारक से किया जाता है और इस पर ब्याज नहीं लगता। भारत का कोई नागरिक या भारत में पंजीकृत कोई इकाई इस बॉन्ड को खरीद सकती है। चुनावी बॉन्ड को 1000, 10000, 100000, 1000000 और 10000000 के गुणांकों में भारतीय स्टेट बैंक की खास शाखाओं से जारी किया जाता है और इन्हें चाहे कितना भी इन्हीं गुणांकों में खरीदा जा सकता है। खरीदने वाले को केवाइसी के नियमों के तहत औपचारिकताएं पूरी करनी होती हैं और इसके लिए बैंक खाते से भुगतान करना होता है। इसमें पैसे देने वाले का नाम जाहिर नहीं होता। चुनावी बॉन्ड की उम्र केवल 15 दिन होती है जिस दौरान उसका इस्तेमाल जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 29ए के अंतर्गत पंजीकृत राजनीतिक दलों को चंदा देने में किया जा सकता है। यह चंदा उसी पार्टी को दिया जा सकता है जिसने पिछले लोकसभा या विधानसभा चुनाव में पड़े कुल मतों का कम से कम एक प्रतिशत वोट हासिल किया हो।
नौ गुना चुनावी बॉन्ड की बारिश यानि कर्नाटक का चुनाव फिर सबसे महंगा?
इन बॉन्डों की बिक्री जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर के महीनों में अथवा केंद्र सरकार द्वारा तय किए गए महीनों में केवल दस दिनों के लिए होती है। लोकसभा चुनाव के साल में केंद्र सरकार अतिरिक्त 30 दिन का समय इन्हें खरीदने के लिए देती है। योग्य राजनीतिक दल बॉन्ड को मान्यता प्राप्त बैंक के एक खास खाते से भुना सकता है।
केंद्र सरकार ने 2017 के बजट अभिभाषण में दानदाताओं को राहत पहुंचाने और उनकी पहचान को गुप्त रखने के लिए एक योजना का प्रस्ताव दिया था। उससे पहले सरकार यह कह चुकी थी कि ‘’दानदाताओं ने चेक या दूसरे पारदर्शी तरीकों से भुगतान करने में संकोच जताया है क्योंकि इससे उनकी पहचान उजागर हो जाएगी जिसके परिणाम प्रतिकूल हो सकते हैं।‘’ उक्त योजना के तहत किसी एक बेनामी स्रोत से राजनीतिक दल को मिलने वाले चंदे की सीमा 20,000 रुपये से घटाकर 2,000 रुपये कर दी गई थी। केंद्रीय मंत्री ने सरकारी योजना के हिसाब से चुनावी बॉन्ड जारी करने को सक्षम बनाने के लिए रिजर्व बैंक के कानून (आरबीआइ एक्ट) को ही संशोधित कर दिया। इसके तहत एक दानदाता निर्दिष्ट बैंक से चेक या डिजिटल भुगतान के बदले बॉन्ड खरीद कर राजनीतिक दल के निर्दिष्ट खाते में जमा करवा सकता है।
इस व्यवस्था में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इस बात की पुष्टि कर सके कि यह चंदा देने वाले और सत्ताधारी पार्टी के बीच का आपसी समझौता नहीं है। वित्त मंत्री इसके पीछे जनता को यह कारण समझाते हैं कि इससे ‘’भविष्य में काले धन के सृजन’’ पर लगाम लगाने में मदद मिलेगी। इन संशोधनों को तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक कंपनी कानून 2013, लोकसभा और विधानसभा चुनावों में राजकीय अनुदान संबंधी विधेयक 2004 और सरकारी व्यय पर चुनाव लड़ने संबंधी बिल 2012 को मिलाकर न पढ़ लिया जाय। सरकारी व्यय पर चुनाव लड़ने संबंधी बिल नीतीश कुमार के सुझावों की तर्ज पर ही बनाया गया था।
नीतीश कुमार ने अपने सुझाव कई स्रोतों से लिए थे: चुनावी कानून में संशोधन पर संसद की संयुक्त समिति (1972), 1975 और 1978 में जयप्रकाश नारायण द्वारा गठित दो कमेटियां, चुनाव सुधार पर दिनेश गोस्वामी कमेटी (1990), अंतरसंसदीय परिषद द्वारा 1994 में एकमत से अंगीकृत स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव पर घोषणापत्र, सर्वदलीय बैठक (1998), इंद्रजीत गुप्ता कमेटी (1999), मंत्रिसमूह (2001), मंत्रिसमूह (2011) और चुनावी प्रक्रिया में भ्रष्टाचार के खिलाफ उपाय के तौर पर चुनावों के राजकीय वित्तपोषण के लिए कांग्रेसनीत यूपीए (2011)। इन सभी सिफारिशों की उपेक्षा करते हुए 2002 में कंपनी कानून में संशोधन किए गए ताकि कंपनियां अपने सालाना मुनाफे का 5 प्रतिशत तक राजनीतिक दलों को चंदा दे सकें। कंपनी कानून 2013 में इस सीमा को बढ़ाकर 7.5 प्रतिशत कर दिया गया और अब यह सीमा भी हटा दी गई है। कंपनियां राजनीतिक दलों को असीमित चंदा दे सकती हैं। इसी क्रम में बेनामी चंदा देने के प्रावधान भी बनाए गए।
हवा-पानी पर कब्जे के बाद ‘व्यथित’ अदाणी की रेलवे में एन्ट्री
अदाणी समूह के बारे में हिंडेनबर्ग के किए उद्घाटनों पर लोकसभा में 7 फरवरी 2023 को राहुल गांधी ने पूछा था कि समूह के संस्थापक गौतम अदाणी 609वें पायदान से उछल कर आखिर दुनिया के दूसरे सबसे अमीर शख्स कैसे बन गए। ‘’यह जादू हुआ कैसे?’’ वे बोले, ‘’हिंडेनबर्ग की रिपोर्ट कहती है कि अदाणी की विदेश में शेल कंपनियां हैं। ये कंपनियां भारत में करोड़ों डॉलर भेज रही हैं। यह मामला गंभीर है क्योंकि अदाणी जी की मौजूदगी रणनीतिक क्षेत्रों में है। वे बंदरगाहों और हवाई अड्डों के मालिक हैं और रक्षा उपकरण बनाते हैं। भारत सरकार का यह कर्तव्य है कि वह एक ऐसी कंपनी पर नजर रखे जो इस तरह के क्षेत्रों में संलग्न है।‘’
राहुल गांधी ने जोर देकर कहा था कि ‘शेल कंपनियों’ से राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला जुड़ता है। शेल कंपनियां कंवल कागजों पर वजूद में होती हैं। इनका न दफ्तर होता है और न ही कोई कर्मचारी। ऐसी कंपनी एक कॉरपोरेट इकाई तो होती है लेकिन न इसके सक्रिय कारोबार होते हैं और न ही खास परिसंपत्तियां। इसलिए ऐसी कंपनी का इस्तेमाल केवल सेवा प्रदान करने के लिए एक वित्तीय औजार के रूप में हो सकता है जो किसी और का वाहन बन सकें। इसके लिए खुद की परिसंपत्ति या कारोबार होने की जरूरत नहीं है। शेल कंपनियों को इसीलिए कर चोरी या पैसे के हवाला लेनदेन के माध्यम के रूप में जाना जाता है यानी ऐसी कंपनियां जुर्म से उपजे पैसे या कमाई को धो-पोंछ कर औपचारिक अर्थव्यवस्था में चुपके से घुसा देती हैं।
नोटबंदी 2.0 : काला धन वापस आएगा, लेकिन सफेद हो कर!
विपक्ष के ज्यादातर नेताओं ने अदाणी समूह और उससे जुड़ी शेल कंपनियों की संयुक्त संसदीय समिति द्वारा जांच किए जाने की राहुल गांधी की मांग का समर्थन किया था। राहुल ने राजनीति और कारोबार की इस मिलीभगत को एक केस स्टडी करार दिया था। उन्होंने अदाणी समूह को एरपोर्ट के ठेके देने के लिए सरकार पर नियमों को तोड़ने-मरोड़ने और एजेंसियों का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया था। उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार ने अदाणी के हक में नियमों को बदल डाला और यह प्रावधान ही खत्म कर दिया कि बिना पूर्व अनुभव के कोई भी एयरपोर्ट के विकास में शामिल नहीं हो सकता।
राहुल ने कहा कि इस प्रावधान को हटाए जाने से अदाणी को छह हवाई अड्डों पर कब्जा करने में मदद मिली। निष्कर्ष के तौर पर राहुल गांधी ने इस बात को रेखांकित किया कि जब विपक्ष के सदस्य केंद्र सरकार की नाकामियों को गिनवाने की कोशिश कर रहे थे तब माइक बंद कर दिए गए थे।
उनका यह भाषण मुझे विश्व बैंक की एक रिपोर्ट की याद दिलाता है जिसका शीर्षक है ‘’द पपेट मास्टर्स’’। इस रिपोर्ट में भ्रष्टाचार के 150 बड़े मामलों की जांच शामिल है जिनमें कॉरपोरेट माध्यमों जैसे कंपनी या ट्रस्ट के दुरुपयोग किया गया था। इनकी कुल लागत 50 अरब डॉलर के आसपास है। ये ऐसी कंपनियां हैं जिन्हें बेनामी बने रहने का चरम अधिकार हासिल है ताकि यह पता ही न चले कि पैसा किसका है। केंद्र सरकार ने बेनामी चंदे की इजाजत देकर ऐसा ही अधिकार सौंप दिया है। पैसे का यह छुपा हुआ मालिकाना काले धन का एक बड़ा लक्षण है। इसके सहारे तमाम किस्म की आड़ में कॉरपोरेट भ्रष्टाचार जारी रहता है।
स्पष्ट है कि फरवरी 2023 में लोकसभा में दिया राहुल गांधी का भाषण अपने भीतर अगस्त 1997 में लोकसभा में नीतीश कुमार के दिए भाषण की अनुगूंज लिए हुए था। यह भाषण उन्हें कॉरपोरेट भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे मुखर स्वरों में एक बनाता है। यहीं पर राहुल गांधी के लिए, नीतीश कुमार के लिए और तमाम समान विचार वाले नेताओं के लिए तार्किक रूप से यह अनिवार्य हो जाता है कि वे चार दशक के उस सरकारी और संसदीय विवेक को अपनाएं, जो चुनावों की राजकीय फंडिंग के हक में बात करता है। राजनीतिक वर्ग को विस्थापित करने के लिए खुल कर सामने आ चुके कॉरपोरेट मालिकान से भारतीय संविधान को जो खतरा है, उसके खिलाफ लड़ाई यहीं से शुरू होनी है।
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