केंद्र में तीसरी बार नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री की शपथ लेने की पूर्व संध्या पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक अप्रत्याशित बयान देकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की गरमजोशी पर ठंडे पानी के कुछ छींटे मार दिए। अगले दिन तक उनका यह बयान सोशल मीडिया पर ट्रेंड करता रहा, कि “भाजपा अलोकतांत्रिक और अवैध ढंग से सरकार बना रही है और इंडिया ब्लॉक ने भले अब तक सरकार बनाने का दावा नहीं किया है पर इसका मतलब यह नहीं है कि भविष्य में भी वह ऐसा नहीं करेगा।“
टीएमसी के संसदीय बोर्ड की बैठक के बाद शनिवार को दिए इस बयान में उन्होंने कहा कि वे शपथ ग्रहण समारोह में नहीं जाएंगी, और वे नहीं गईं। उसी दिन कोलकाता से तृणमूल के कार्यकर्ताओं की हिंसा की खबरें आईं। बंगाल में दुर्गापुर के भाजपा कार्यालय में आगजनी की भी खबर चली और रविवार को भाजपा नेता राहुल सिन्हा के भाई का भाजपा आइटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय के बारे में किया गया उद्घाटन सुर्खियों में रहा। इन तमाम घटनाओं पर अब तक भाजपा की प्रतिक्रिया नहीं आई है।
फॉलो-अप स्टोरीज ने पश्चिम बंगाल पर अपनी चुनावी रिपोर्ट में साफ लिखा था कि यहां लड़ाई ‘राम और अवाम’ के बीच बंटी हुई है और अवाम मोटे तौर से टीएमसी के पक्ष में खड़ी दिखती है। चार जून को आए नतीजे इसकी पुष्टि करते हैं, जिसमें भाजपा की पिछली बार से छह सीटें कम हुई हैं (12) जबकि तृणमूल की सात बढ़ गई हैं (29)। वाम दल शून्य पर हैं और कांग्रेस का पिछली बार दो के मुकाबले अबकी एक सीट से खाता बंद होते-होते बचा है।
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यानी यह चुनाव वाकई भाजपा और टीएमसी के बीच ध्रुवीकृत था, लेकिन नतीजों के बाद यह ध्रुवीकरण बयानों और हिंसा के रूप में जिस तरह सतह पर आ गया है वह केंद्र में सरकार बना लेने के बावजूद भाजपा के बारे में बंगाल के आम मतदाता के बीच कायम एक खास किस्म की समझदारी को दिखलाता है। शायद इसी समझदारी और चुनावी कामयाबी के सम्मिलित बल पर ममता बनर्जी ने भाजपा सरकार को अवैध और अलोकतांत्रिक कह दिया है।
भाजपा के बारे में ‘अफवाहें’
बंगाल के शहरी क्षेत्र के बंगालियों को लगता है कि भाजपा गैर-बंगालियों द्वारा पोषित पार्टी है। आसनसोल से भाजपा जब चुनाव जीती तभी से यह अफवाह फैला दी गई थी। झारखंड सीमाक्षेत्र के नजदीक होने के कारण आसनसोल बिहारियों का गढ़ है। बंगाल के कारोबार में मारवाड़ी, बिहारी मुस्लिम और गुजरातियों का दबदबा है।
कोलकाता की कैनिंग स्ट्रीट पर व्यापार करने वाले एक बहुत बड़े मारवाड़ी कारोबारी मानते हैं कि मोदी ने व्यापार को खत्म कर दिया। वह 2019 के चुनाव में अप्रत्यक्ष रूप से अपने सभी कर्मचारियों से मोदी को जिताने का अनुरोध कर रहे थे लेकिन अब कर्मचारियों को लगता है यदि मोदी सत्ता में आते हैं तो सबकी नौकरी चली जाएगी।
कोलकाता का बड़ा बाजार इलाका मारवाडि़यों का गढ़ रहा है। मारवाड़ी यहां पुश्तैनी कपड़ा व्यवसायी रहे हैं, लेकिन गुजरात में मुसलमानों का व्यापार बढ़ने से उन्हें तगड़ी प्रतिस्पर्धा मिली है। जो कपड़ा पहले लोग सत्यनारायण मार्केट में लोग खरीदते थे वही अब खिदिरपुर फैंसी मार्केट और मेटियाब्रूज में मिल रहा है।
कोलकाता के चांदनी चौक के एक बंगाली व्यापारी अलग ही राग अलापते दिखे। उन्होंने बताया कि टीएमसी के कार्यकर्त्ता चंदा बहुत वसूलते हैं, लेकिन अनहोनी होने पर समर्थन भी करते हैं। उनके मुताबिक यदि भाजपा सत्ता में आती है तो यह पूरा बाजार मुसलमानों का हो जाएगा क्योंकि भाजपा मुसलमानों की बेहतरी के लिए बहुत काम करती है। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने यूपीएससी परीक्षा का परिणाम भी गिनवा दिया।
वे कहते हैं कि गुजरात में मुसलमानो की स्थिति बेहतर होती जा रही है क्योंकि भाजपा सत्ता में आते ही दंगे रुकवा देती है। जो काम वामपंथ और कांग्रेस ब्राह्मणों के लिए करती थी, वही काम भाजपा चुपके से मुसलमानों के लिए करती है। वे कहते हैं, ‘’भाजपा आने से भारत का मुस्लिम देशों से रिश्ता प्रगाढ़ होता है।‘’
यह बात न तो उगलते बनती है न ही निगलते! उनका नजरिया सोचने पर मजबूर जरूर कर रहा है। वामपंथ के राज के बारे में उनका कहना है कि उसके समय में लिया जाने वाला चंदा मोटी रकम नहीं होता था बल्कि पार्टी चलाने के लिए पर्याप्त होता था, ‘’उससे ही काम चल जाता था, जिससे हमें मोटा मुनाफा कमाने का कोई मलाल नहीं रहता था और वस्तुओं की कीमत भी काफी कम हुआ करती थी।‘’
श्रीरामपुर लोकसभा के एक मतदाता स्वरूप मन्ना का कहना है, “हम बंगाली सहिष्णु हैं। हमारा किसी से वैर नहीं। रामकृष्ण परमहंस का शिष्य होने के नाते हमारा मानना है जितना मत उतना पथ। हिंदुस्तानी (बिहारी) हो या मारवाड़ी सभी काम करें, कमाएं और खाएं। हम बस इतना ही चाहते हैं।”
वे पेशे से चिकित्सा क्षेत्र के व्यवसायी हैं। वह कहते हैं, “सरकार चलाना कांग्रेस को आता है और दीदी को इंडिया ज्वाइन कर लेना चाहिए। अब अधीर रंजन चौधरी भी हार गया है।” उनकी ख्वाहिश है कि ममता बनर्जी एक बार प्रधानमंत्री बनें, और यह उनके अनुसार भाजपा के साथ संभव नहीं है। उनके अनुसार राहुल गांधी एक पढ़े-लिखे युवा तुर्क हैं जिनमे लोगों को ऊपर उठाने का माद्दा है।
वह कहते हैं, “गांधी परिवार ने देश के लिए बलिदान दिया उसे भूलना नहीं चाहिए।“ फिर वह बांग्ला में कहते हैं, “आमरा बंगलाय दीदी आर दिल्ली दीदी संगे कांग्रेस चाई” (हम चाहते हैं कि बंगाल में ममता बनर्जी और केंद्र में ममता बनर्जी के साथ कांग्रेस हो)।
बंगाली मतदाताओं को चुनाव सात चरणों में होना भी नागवार गुजरा है। लोगों में एक और धारणा बैठ गई थी कि मोदी या तो चुनाव में व्यस्त रहते हैं या फिर विदेश भ्रमण पर, जिस कारण से बेरोजगारी और महंगाई बढ़ती जा रही है। जो आरोप पहले भाजपा राज्य सरकार पर लगाती थी अब जनता स्वयं भाजपा पर लगा रही है। सीपीएम कार्यकर्त्ता प्रदीप मंडल कहते हैं कि उन्होंने कभी क्रॉस वोटिंग नहीं की क्योंकि भाजपा आइटी सेल हारने पर समूचे मतदाता से ही गाली-गलौज करने लगता है। यह किसी भी खुददार को चोट पहुंचाता है।
इन्हीं सब दलीलों और धारणाओं का असर यह है कि केंद्र में भाजपा जीती जरूर है लेकिन उसके कार्यकर्त्ता सकते में हैं। कोई भी डर से मीडिया में अपना नाम देना नहीं चाहता है। एक कार्यकर्त्ता ने बताया कि भाजपा अपने समर्थकों को सुरक्षा प्रदान नहीं करती है जिससे कोई सामने से इसे खुलकर समर्थन नहीं दे पाता।
टीएमसी की जीत
जाहिर है, लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल से टीएमसी की जीत अप्रत्याशित नहीं थी, हालांकि नतीजों के बाद मतदाताओं से बात कर के टीएमसी की कामयाबी की कुछ और परतें खुलती हैं। यदि हम बंगाल की लोकसभा सीटों का विश्लेषण करें, तो ज्यादातर सामान्य तथ्य ही सामने आते हैं। जैसे, श्रीरामपुर लोकसभा सीट से तृणमूल प्रत्याशी कल्याण बनर्जी की भारी मतों से जीत के पीछे तृणमूल का राज्य की सत्ता में होना और भाजपा की भेदभाव अर्थनीति है।
पहली बार मतदाता बने ऋतोरमी घोष का मानना है, “तृणमूल सत्ता में है और अपराध नाम की कोई बात नहीं है। लड़कियां रात को अकेले घर सुरक्षित आ सकती हैं। साफ़-सफ़ाई, सड़क और बिजली की सुविधा है तो दूसरे को वोट देकर रिस्क क्यों लें? आज हमें रोजगार बंगाल में ही मिल जाता है, फिर भी यदि बाहर ही जाना हो इसके लिए तो हम बंगलुरू, चेन्नै, दिल्ली-गुड़गाँव-फरीदाबाद, मुंबई का रुख करते हैं। गुजरात में रोजगार है भी या नहीं, मुझे नहीं मालूम।”
वामपंथ के एक वोटर नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, “वामपंथ का शासन ठीक है कि कठोर था लेकिन भ्रष्टाचार नहीं था। अभी तो पार्टी क्लब के जितने सदस्य हैं सभी अलग-अलग चंदा मांगते हैं। हां, इस सरकार में यूपीए के समय विकास ज़रूर हुआ है, लेकिन पहली स्मार्ट सिटी तो बुद्धदेव बाबू ने ही बनाई थी जिसे मोदी ने हैक कर लिया। दीप्सिता धर एक पढ़ी-लिखी युवा प्रत्याशी थी लेकिन राजनीति अनप्रेडिक्टेबल है।”
दीप्सिता धर श्रीरामपुर लोकसभा से सीपीएम यानी इंडिया गठबंधन की उम्मीदवार थीं। वह चार लाख से ज्यादा वोटों से हार गई हैं। टीएमसी के कल्याण बनर्जी अपनी बातों को जोर से रखने के लिए जाने जाते हैं और लोकप्रिय नेता हैं। वह जीत गए हैं। भाजपा के कबीर शंकर बोस दूसरे नंबर पर रहे।
इस बारे में उत्तरपारा शहर तृणमूल कांग्रेस हिंदी सेल अध्यक्ष संजय कुमार सिंह का कहना है, “कल्याण बनर्जी निचले पायदान के सामान्य कार्यकर्ता से भी खुलकर मिलते हैं। कन्याश्री योजना, लक्ष्मी भंडार, लड़कियों को साइकिल, स्वास्थ्यसाथी योजना, सड़क, 24×7 बिजली आदि लोगों को दिखता है। दीदी का दिखता हुआ विकास अपने आप में एक गारंटी है जिसके सामने मोदी की गारंटी फेल है। तृणमूल के सभी कार्यकर्ता पार्टी को अपना समझकर एक साथ काम करते हैं। समाज में लोगों की छोटी से छोटी जरूरतों का हम लोग खयाल रखते हैं। लोगो से हमारा रोजमर्रा का संवाद है।”
प्रणय सिंह आइटी क्षेत्र के बहुत बड़े कारोबारी हैं। बिहार से हैं। उनका परिवार हावड़ा में रहता आया है। हावड़ा से प्रसून बनर्जी के जीतने पर मैंने प्रणय सिंह से पूछा कि विकास की रफ्तार तो हावड़ा में धीमी है, फिर भी तृणमूल कांग्रेस कैसे जीत गई जबकि बनर्जी पहले भी सांसद थे और एंटी-इनकंबेंसी भी थी? उनका मानना है कि “इस बार उलटा हुआ। महिलाओं ने पुरुषों को पार्टी विशेष को मतदान करने के लिए बाध्य किया। कोई सरकार नौकरी के लिए अवसर तो नहीं खोज रही, फिर इस बार वोट अपने घर की लक्ष्मी के लिए। लक्ष्मी भंडार बहुत बड़ा फैक्टर है जिसने महिलाओं को पॉकेट मनी दी।”
उत्तरी कोलकाता सीट पर सुदीप बंदोपाध्याय और तापस राय में भाजपा को कांटे की टक्कर दिख रही था। मोदी ने उत्तर कोलकाता में रोड शो भी किया। शायद यही रोड शो तापस राय के लिए घातक साबित हुआ। मोदी ने कोलकाता के व्यस्ततम इलाके श्याम बाजार से एस्प्लानेड तक रोड शो किया। ऐसा बंगाल के किसी भी नेता ने कभी नहीं किया था। लोगों में रोष था क्योंकि पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बाधित किया गया जिससे तापस राय ही बाधित हो गए। लोगों को सड़क तक पार करने की इजाजत पांच-छह घंटे तक नहीं दी गई जिसका खमियाजा तापस राय जैसे दिग्गज को भुगतना पड़ा है। वह ईमानदार नेता में शुमार थे, लेकिन भाजपा ज्वाइन करने पर लोग उन्हें कलंक देने लगे।
बंगाल में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआइ) ने जो तांडव मचाया और इनके जाल में फंसे नेताओं के भाजपा ज्वाइन करते ही उनके विरुद्ध मामलों को जिस तरह रफा-दफा कर दिया गया, उसने भी भाजपा को नुकसान पहुंचाया है। नारदा कांड में फंसे बंगाल भाजपा के प्रमुख शुभेंदु अधिकारी इस बात का जीता-जागता प्रमाण हैं। शुरू में लोगों को लगा था कि भाजपा भ्रष्टाचार को लेकर गंभीर है लेकिन बाद में जब नेता भाजपा ज्वाइन करने लगे तब लोगों को इसमें सत्ता का दुरुपयोग दिखा। अरविंद केजरीवाल को जेल होने की गूंज बंगाल के गांव-गांव तक पहुंच गई। लोगों को डर सताने लगा कि भाजपा तानाशाही की तरफ जा रही है।
शायद यही कारण है कि डायमंड हार्बर सीट से ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी 700000 से अधिक मतों से जीत गए। यहां के लोग नदी की धारा के साथ चलते हैं। विपरीत चलना उन्हें बर्बादी लगती है। मतदान में आप त्रिकोणीय संघर्ष नहीं देखेंगे क्योंकि तीसरे को वोट देना लोग मतदान की बर्बादी समझते हैं। इतना ही नहीं, इस बार तृणमूल का वोट प्रतिशत भी बढ़ा है (2019 के 43.3 से बढ़कर 45.76 प्रतिशत) क्योंकि नया मतदाता तृणमूल के समर्थन में दिखा। वहीं भाजपा को नुकसान उठाना पड़ा (2019 के 40.3 से 38.7 प्रतिशत) क्योंकि पिछले दो चुनावों में तृणमूल को हराने के लिए वामपंथ के कोर मतदाताओं ने खुलेआम क्रॉस वोटिंग की थी। ऐसा इस बार भी हुआ है, किंतु कम।
इसी संदर्भ में एक अहम सवाल यह बनता है कि तथाकथित बंगाली भद्रलोक (जो वामपंथ का परंपरागत मतदाता रहा है) वह ममता बनर्जी के पक्ष में कैसे आया। इस सवाल के जवाब में वामपंथ से तृणमूल कांग्रेस ज्वाइन करने वाले दक्षिण कोलकाता निवासी (जहां तृणमूल से माला राय जीती हैं) मोहम्मद मुख्तार खान बताते हैं कि वह वार्ड 63 में 10 बूथों के प्रभारी थे। इस वार्ड में कुल 27 बूथ थे जिसमें से मात्र नौ पर मुसलमान मतदाता हैं। बाकी में मारवाड़ी और सिंधी समुदाय ज्यादा है। इसके बावजूद सिर्फ 1468 वोटों से उन बूथों पर तृणमूल पीछे रही। इसका कारण वे वामपंथी उम्मीदवार के पक्ष में गए वोटों को मानते हैं। फिर भी टीएमसी की माला राय की ही जीत हुई।
उनके अनुसार भद्रलोक मोदी से तंग आ चुका था इसलिए उसने तृणमूल कांग्रेस को अपना मत दिया। वे मानते हैं कि यह चुनाव ममता बनर्जी का चमत्कार नहीं, वास्तव में मोदी के विपरीत गया है। उनके अनुसार अभी यह कहना जल्दबाजी है कि वोट शिफ्ट ममता बनर्जी के पक्ष में स्थायी रूप से हो गया है, “सभी जात और धर्म के लोगों ने मोदी के विरुद्ध जाकर तृणमूल कांग्रेस को मतदान दिया। सिर्फ जो हिंदुस्तानी (बिहारी) और झुग्गियों में रहने वाले हैं, उन्होंने ही वोट नहीं किया।”
अपनी इस बात के समर्थन में वह वार्ड 70, 71, 72 और 74 का उनके व्हाट्सएप पर आया डेटा दिखाते हैं जहां तृणमूल कांग्रेस पिछड़ गई थी। इसका मतलब यह है कि भाजपा के लोकल एजेंट की पहुंच वहां रही है।
इस चुनाव में सबसे बड़ा चौंकाने वाला नतीजा कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी की यूसुफ पठान के हाथों बहरामपुर से हार रही है। लोग इसके पीछे मुसलमानों का यूसुफ पठान के पक्ष में वोट करना मानते हैं जबकि मेरी समझ से इसका दूसरा कारण है। इस चुनाव में अधीर रंजन चौधरी खुलकर ममता बनर्जी के विरोधी हो गए थे। यह बात बंगाली जनता को पसंद नहीं आई क्योंकि यह उनके क्षेत्र के विकास के साथ समझौता था। उनका मानना है कि यदि सांसद मुख्यमंत्री से दो-दो हाथ कर ले तो क्षेत्र का विकास रुक जाएगा। तीसरे नंबर पर रही भाजपा को पौने चार लाख के करीब वोट मिले हैं। इसमें से अधिकतर अधीर रंजन चौधरी का ही वोट था। यानी अधीर पर ममता भारी पड़ गईं। इसी तरह कांग्रेस-वाम की सुरक्षित सीट जंगीपुर और मुर्शिदाबाद भी टीएमसी के खाते में चली गई।
आश्चर्यजनक नतीजे
सबसे चौंकाने वाला नतीजा दार्जिलिंग सीट से भाजपा के राजू बिष्ट का रहा। वह यहां से 178525 वोट से जीत गए। सीपीएम कार्यकर्त्ता प्रदीप मंडल से बातचीत के दौरान मैंने सवाल किया कि कांग्रेस 40 साल से और भाजपा विगत 10 साल से अलग बोडोलैंड की मांग पर इन लोगों को ठगते आई हैं फिर भी भाजपा इतने अंतर से जीत गई, इसका कारण क्या हो सकता है।
बातचीत से नतीजा निकला कि गोरखा नेता विमल गुरुंग के ऊपर 70 से अधिक आपराधिक मामले दर्ज हैं, जिसमें हत्या भी शामिल है और ममता बनर्जी ने वादा किया था कि सारे आपराधिक मामलों को वापस ले लिया जाएगा। इसी कारण से विमल गुरुंग ने शायद ममता बनर्जी से रुष्ट होकर भाजपा को खुलेआम समर्थन दे दिया। यदि ऐसा है तो फिर विमल गुरुंग की लोकप्रियता में भी कमी आई है। तृणमूल वहां 500000 से अधिक वोट लेने में सफल रही है।
भाजपा के लिए या फिर कहिए शुभेंदु अधिकारी के लिए नाक का सवाल थी तमलुक लोकसभा की सीट। तृणमूल कांग्रेस के समर्थक युवा देबांगशु भट्टाचार्य जिसने विधानसभा चुनाव में ‘खेला होबे’ का नारा दिया था, वह खुद को जीता हुआ बता रहे थे वहीं भाजपा, खासकर शुभेंदु अधिकारी अभिजीत गांगुली को। गांगुली वही जज हैं जिन्होंने सबसे पहले राजकीय विद्यालयों में भर्ती घोटाले की जांच के आदेश दिए थे। चुनाव से ठीक पहले उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दिया और भाजपा में चले आए। मतदाता सब कुछ भूलकर न्यायाधीश को अपना सांसद चुनकर तमलुक से दिल्ली भेज दिए।
इसके उलट दिलीप घोष, जिन्होंने भाजपा को बंगाल में 2 से 18 तक की सम्मानित जगह दिलवाई थी, वे बिहार भाजपा से तृणमूल कांग्रेस में आए कीर्ति झा आजाद से बर्धमान-दुर्गापुर लोकसभा सीट हार जाते हैं। राहुल सिन्हा, जिन्होंने तृणमूल कांग्रेस के शुरुआती दिनों में भाजपा के लिए सड़क पर उतर कर आंदोलन किया और लोगों को भाजपा के लिए जागृत किया, इस युवा नेता का नामलेवा ही पार्टी में नहीं है।
भाजपा सोचती है कि हर परिस्थिति में वह एक ही है और लोग उसे ही वोट करेंगे। लोगों में भावना थी कि भाजपा हिंदुओं की पार्टी है लेकिन जब इसने दुर्गा पूजा और अमित मालवीय ने सरस्वती पूजा पर कमेंट करना शुरू किया तो राजा राममोहन राय के अनुयायियों ने इस पार्टी से बंगाल में दूरी बना ली। यही कारण हैं कि कूचबिहार से केंद्र सरकार के राज्यमंत्री भाजपा के नीशीथ प्रामाणिक तृणमूल कांग्रेस से हार जाते हैं। बैरकपुर से वर्तमान भाजपा सांसद अर्जुन सिंह हार जाते हैं जबकि उनके क्षेत्र में हिंदुस्तानी अच्छी संख्या में हैं और ममता बनर्जी का जय श्री राम वाला ट्रोल भी उधर ही हुआ था। दमदम लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र ने पहला भाजपा सांसद दिया था जहां से तपन सिकदर एक बार जीते, फिर भाजपा कभी नहीं आई। आरामबाग में तृणमूल कांग्रेस कमजोर रहती है, लेकिन इस बार वह बहुत कम मार्जिन से बाजी मार ले गई।
आचर्यजनक रूप से भाजपा रानाघाट और बनगांव लोकसभा क्षेत्र से जीत गई है जहां बांग्लादेशी विस्थापितों की संख्या अच्छी है। जहाजरानी राज्यमंत्री शांतनु ठाकुर बनगांव की अपनी सीट बचा ले गए, जहां मटुवा-नामशूद्र वाले प्रवासी हिंदू समुदाय की बहुलता है। मटुआ बहुल दूसरी रानाघाट सीट भी भाजपा ने बचा ली। भाजपा लंबे समय से मटुआ समुदाय के बीच काम कर रही है।
पैसा और ‘दलाली‘
एडम मिखाइल आउरबाख और तारीक थचिल ने मिलकर एक पुस्तक लिखी है ‘’माइग्रेंट एंड मशीन पॉलिटिक्स: हाउ इंडियाज अर्बन पूअर सीक रिप्रेजेंटेशन एंड रिस्पॉन्सिवनेस’’। इसमें उनका कहना है कि राजनीतिक दल दलालों को नियुक्त करके रखते हैं जिनका काम सिर्फ और सिर्फ अपने आका दल के लिए वोट बनाना भर है, चाहे वह जैसे हो। इसमें लेखक जयपुर के किसी पवन का संदर्भ लेते हैं जो भाजपा के लिए काम करता है। बंगाल में भाजपा पवन जैसों को तैनात करने से चूक गई।
इसका कारण यह भी हो सकता है कि वामपंथ प्रभावित राज्य में चुने हुए प्रतिनिधि तक पहुंचना आसान होता है। जिस दिन तृणमूल कांग्रेस का नेता मतदाताओं की आसान पहुंच से बाहर हो जाएगा, विपक्ष अपना पंजा कस लेगा। जैसा कि एडम मिखाइल आउरबाख अपनी पुस्तक ‘’डिमांडिंग डिवेलपमेंट’’ में कहते हैं, “राजनीतिक भागीदारी के बिना आवेदक आम तौर पर कार्यालयों में ‘भटकते’ रहते हैं और फिर उन्हें पुनर्मूल्यांकन के लिए निचले स्तर पर वापस भेज दिया जाता है।”
तारीक थाचिल अपनी पुस्तक ‘’एलीट पार्टी पूअर वोटर्स’’ में दिखाते हैं कि कैसे पार्टियां वंचित मतदाताओं को निजी तौर पर जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं के माध्यम से बुनियादी सामाजिक सेवाएं प्रदान करके उनका दिल जीत सकती हैं। इस तरह की आउटसोर्सिंग पार्टी को अपने नीतिगत हितों का प्रतिनिधित्व जारी रखने की अनुमति देती है। ममता बनर्जी यहीं बाजी मारती हुई दिखती हैं।
‘रेवड़ी’ या ‘लाभार्थी’ वैसे तो मोदी राज का अविष्कार है, लेकिन इस सरकार ने पूंजीपतियों के दबाव में मतदाताओं को सिर्फ प्रलोभन दिया और विपक्ष उसे भुना रहा है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से बेहतर भला इसका “पूर्ण इस्तेमाल” और किसने किया? भाजपा बंगाल में यहीं चूक गई।
आरएसएस ने राम मंदिर बनने के बाद लोगों को 1600 रुपये के पैकेज में अयोध्या ठीक उसी तर्ज पर टूर करवाना शुरू किया जैसे दक्षिण से वह लोगों को वाराणसी लाकर विकास दिखा रही है। बंगाल की जनता ने अब तक इसके नाम पर कोई ‘दलाली’ नहीं दी है। अयोध्या के राम मंदिर के लिए आस्था स्पेशल ट्रेन चुनाव से ठीक पहले चलाई गई थी जिसमें 1600 रुपया प्रतिव्यक्ति की दर पर कोलकाता से अयोध्या स्लीपर कोच में खाना-पानी के साथ घुमाया जाना था। जनता ने इसे नकार दिया।
इतना बड़ा खर्च किसका है, यह भी एक जांच का विषय है क्योंकि वोट के लिए खजाना खर्च नहीं किया जा सकता है। यदि खजाने से यह खर्च निकला तो इसे ‘वेस्टफुल एक्सपेंडीचर’ यानी बरबादी ही कहा जाएगा।
भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाइ कुरैशी अपनी पुस्तक ‘’इंडियाज एक्सपेरिमेंट विद डेमोक्रेसी’’ में एक दिलचस्प तथ्य सामने लाते हैं। वह लिखते हैं, “…2019 का [भारत का] आम चुनाव विश्व लोकतंत्र के इतिहास में अब तक का सबसे महंगा चुनाव था। एक अध्ययन के अनुसार, आश्चर्यजनक रूप से आठ अरब डॉलर (आज के विनिमय दर पर यह 667,500,489,467.8 रुपया हुआ) खर्च किए गए, जिनमें से आधे से थोड़ा अधिक भाजपा द्वारा खर्च किया गया। तुलनात्मक अध्ययन के लिए, 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की लागत 6.5 बिलियन डॉलर थी।” सवाल उठता है कि भाजपा इतना पैसा लाती कहां से है?
क्या राजीव गांधी का कन्फेशन आज भी सही है कि चुनाव के लिए पैसा किसी भी प्रकार से चाहिए? जनता को यह सवाल उठाना ही चाहिए क्योंकि राजनीतिक दल का खर्च अर्थव्यवस्था को खोखला कर देगा। रुपया जरूरतमंद परिवारों के पास न जाकर दारू और चरस में उड़ाया जाएगा। कुरैशी आगे लिखते हैं, “यहां तक कि 2019 के लोकसभा चुनाव को चुनाव अधिकारियों द्वारा जब्त की गई नकदी, ड्रग्स, शराब और मुफ्त वस्तुओं की अभूतपूर्व कीमत और मात्रा के लिए ऐतिहासिक माना जा सकता है। लगभग 3,500 करोड़ रुपये जब्त किए गए- एक चौंका देने वाला आंकड़ा, क्योंकि यह उस राशि का लगभग 90 प्रतिशत है जो सरकार ने 2014 के लोकसभा चुनाव के संचालन में आधिकारिक तौर पर खर्च किया था।”
यानी देखते-देखते हम याराना पूंजीवाद के समर्थक कब हो गए, पता ही नहीं चला। मनोवैज्ञानिक फिलिप ज़िंबार्डो इसे ही ‘लुसिफर प्रभाव’ कहते हैं कि कब हम अच्छे मनुष्य गलत कर बैठते हैं पता ही नहीं चलता। और, यह एक दिन में नहीं हुआ है। हर समाचारपत्र, टीवी, परचे इत्यादि में याराना पूंजीवाद की अप्रत्यक्ष प्रशंसा की जाती रही। प्रधानमंत्री का एक-दो पूंजीपतियों को प्रश्रय देना लोगों को विकास दिखा।
2021 में बिहार के दौरे पर एक विदेशी बैंक में भारत में शीर्ष पर काम करने वाले एक व्यक्ति से मेरी मुलाकात हुई। वे बंगाल में भाजपा की लहर पर खुश थे। उन्होंने कहा कि भाजपा के आते ही बंगाल का पोर्ट अदाणी को दे दिया जाएगा। मैंने पूछा कि इससे आपको क्या मिलेगा। उन्होंने कहा कि अदाणी को मोदीजी सपोर्ट करते हैं और उसके आगे बढ़ने से भाजपा मजबूत होगी। आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इस लोकसभा चुनाव के खत्म होते ही कोलकाता के श्यामा प्रसाद मुखर्जी पोर्ट के ऑपरेशन और प्रबंधन का पांच साल का ठेका अदाणी पोर्ट को मिल गया है जब भाजपा तीसरी बार केंद्र में आई है।
इस चुनाव के नतीजों का सारा लब्बोलुआब यह है कि न तो सांप्रदायिकता हारी है और न ही विकास का मुद्दा जीता है। बस, बंगाल के लोग गले के ऊपर सांप्रदायिकता को ले नहीं पाए। कुल मिलाकर भाजपा का भ्रष्टाचार के नाम पर अपनी पार्टी की ताकत को बढ़ाना, किसान आंदोलन में किसानों को बेरहमी से बरतना, राम मंदिर के नाम पर सीधे वोट मांगना, सांसदों-विधायकों की खरीद-फरोख्त का उसके ऊपर इल्जाम लगना और अत्यधिक मार्केटिंग कर के संदेशों की लगातार बमबारी से मतदताओं को उड़ती हुई खबरें देकर निर्णय लेने के लिए विचलित कर देना ही भाजपा की हार का मुख्य कारण है।