बीती जनवरी में अयोध्या में हुए राम मंदिर के राजकीय प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में देश की राष्ट्रपति की गैर-मौजूदगी सवालों में घिर गई थी। विवाद इस पर भी हुआ था कि उन्हें आयोजन का न्योता भेजा गया था या नहीं। इस घटना के तीन महीने बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू 1 मई की शाम जब वास्तव में दर्शन-पूजन करने अयोध्या पहुंचीं, तो नए सिरे से कुछ सवाल खड़े हुए हैं। अव्वल तो यही, कि लोकसभा चुनाव के बीचोबीच राष्ट्रपति को अयोध्या दौरा करने की जरूरत क्यों आन पड़ी?
सवाल इसलिए भी, कि अयोध्या और राम मंदिर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की पैदाइश से ही उसके मैनिफेस्टो का पहला मुद्दा रहे हैं। इसके लिए देश में बाकायदा आंदोलन हुआ। एक मस्जिद ढहायी गई। फिर मंदिर बना। मंदिर का राजकीय स्तर पर शिलान्यास हुआ। जनवरी में प्राण-प्रतिष्ठा हुई। सब कुछ बहुत भव्य और सुनियोजित ढंग से किया गया जिसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और उसके अनुषंगी संगठनों ने पूरे देश का माहौल राममय कर दिया। इतने सब के बाद भी भाजपा को क्या राम मंदिर के सहज-स्वाभाविक चुनावी फायदे पर भरोसा नहीं है?
जवाब के लिए दो हफ्ते पीछे चलते हैं। आम चुनावों के लिए पहला मतदान 19 अप्रैल को था। ठीक दो दिन पहले 17 अप्रैल को जब चुनाव प्रचार बंद होना था, उस दिन रामनवमी थी। पहले चरण के लिए देश भर की 102 सीटों पर मतदान होना था, लेकिन महीने भर पहले आ चुकी अधिसूचना के बावजूद इलाकों में माहौल एकदम शांत था। सत्ता पक्ष और विपक्ष के तमाम प्रयासों के बाद भी चुनावों में रंगत नहीं आ रही थी। ऐसे में सबका ध्यान रामनवमी के उत्सव पर था। माना जा रहा था कि रामनवमी के बाद तो चुनाव अपने रंग में आ ही जाएगा पर ऐसा नहीं हुआ।
पहले चरण के मतदान से ठीक पहले पड़ी रामनवमी भाजपा के लिए दरअसल किसी मौके से कम नहीं थी। यह उसके लिए पानी की गहराई नापने का एक मौका था, जिसके आधार पर आगे की चुनावी रणनीति तय की जानी थी। भाजपा की उम्मीदों के विपरीत मामला बिल्कुल उल्टा साबित हुआ। अबकी रामनवमी एकदम फीकी रही।
रामनवमी के आयोजनों से जुड़े रहने वाले संघ के एक कार्यकर्ता के मुताबिक बीते डेढ़ दशक में पहली बार ऐसा हुआ कि रामनवमी को लेकर कहीं कोई उत्साह नहीं था- न कार्यकर्ताओं में, न जनता में, और न आयोजकों में! जाहिर तौर से इसका असर मतदान पर दिखना था, दिखा भी।
फीकी रामनवमी के बाद
रामनवमी के तीसरे दिन यानी 19 अप्रैल को पहले चरण का मतदान हुआ। बिहार से लेकर उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान व मध्य प्रदेश तक समूची हिंदी पट्टी में घर से निकलने वाले मतदाताओं की संख्या आधे के करीब रही। बिहार में तो मतदान 50 प्रतिशत से भी नीचे रहा।
यह सभी दलों को बेचैन करने वाली बात थी, लेकिन भाजपा अपने बयानों में थोड़ा ज्यादा चिंतित दिखी। मसलन, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पश्चिम बंगाल के हवाले से रामनवमी पर चुनाव को खींच लाने की कोशिश की, जैसे उनके पास रामनवमी को लेकर हिंदी पट्टी का कोई संदर्भ ही न हो!
योगी आदित्यनाथ बोले, “पश्चिम बंगाल सहित गैर-भाजपा शासित राज्यों में रामनवमी और होली के दिन जो दंगे हुए वे तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति का परिणाम हैं, जिससे बहुसंख्य समाज की भावनाओं के साथ खिलवाड़ हुआ है।” इस बयान से ही स्पष्ट था कि भाजपा-शासित राज्यों में यानी मोटे तौर से हिंदी पट्टी में रामनवमी फीकी रही है।
इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक कदम आगे बढ़ते हुए राम मंदिर उद्घाटन के मौके पर अयोध्या न जाने वालों को सनातन धर्म का विरोधी घोषित कर दिया। चुनाव को राम के नाम पर चढ़ाने के लिए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने बहुत जोर लगाया, लेकिन नतीजा सिफर रहा। दूसरे चरण का मतदान भी हिंदी पट्टी में चुनाव को गरमा नहीं पाया। तब जाकर राष्ट्रपति के अयोध्या दौरे का बैक-अप प्लान सक्रिय किया गया।
ध्यान देने वाली बात है कि राष्ट्रपति का अयोध्या दौरा पहले से तय नहीं था, जैसा कि आखिरी मौके पर राष्ट्रपति सचिवालय से जारी सरकारी सूचना बताती है। अयोध्या, फैजाबाद लोकसभा में पड़ता है जहां मतदान 20 मई को है। इसी दिन समूचे बुंदेलखंड में मतदान है। उससे पहले 13 मई और 7 मई को मतदान होना है। 7 मई का चुनाव प्रचार 5 मई की शाम खत्म होगा, उस दिन नरेंद्र मोदी अयोध्या में एक रोड शो करने वाले हैं।
यानी राम के नाम पर चुनाव को गरमाने की यह समूची रणनीति 17 अप्रैल के विफल रामनवमी आयोजनों की देन है। ऐसा नहीं कि रामनवमी के जुलूस गरमाने की कोशिशें हुईं नहीं, लेकिन उन पर पानी फिर गया। कन्नौज में रामनवमी के जुलूस के दौरान इमाम चौक के पास एक धार्मिक स्थल के ऊपर एक शख्स भगवा झंडा लेकर चढ़ गया। बाद में पता चला कि उसे ऐसा करने के एवज में 100 रुपये देने का वादा किया गया था। इस मामले में पुलिस ने चार लोगों को गिरफ्तार किया था।
अगर रामनवमी के आयोजन ही चुनाव को गरम कर देते तो शीर्ष स्तर पर इतनी कोशिशों की जरूरत नहीं पड़ती। क्या फीकी रामनवमी किसी बदलाव की ओर इशारा है? क्या भाजपा की स्थानीय इकाइयों में कुछ घट रहा था, जिसका असर दो चरण के मतदान में दिखा और जिसे संभालने की कोशिशें हो रही हैं?
ठंडा संघ
देश भर में आम तौर पर इस तरह के धार्मिक कार्यक्रमों के आयोजन में संघ और उसके अनुषंगी संगठनों की प्रमुख भूमिका रहती है। इसके लिए झंडे-बैनर, झंडिया लगवाने का काम संघ से जुड़े संगठन ही करते रहे हैं। उत्तर प्रदेश में इस बार भी कुछ अलग नहीं था।
बुंदेलखंड स्थित हमीरपुर जिले के राठ कस्बे में आरएसएस के पूर्व नगर कार्यवाहक के पद पर चुके एक स्वयंसेवक नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि रामनवमी एक सार्वजनिक उत्सव है जिसके लिए जनसंपर्क करने और चंदा जुटाने का काम संघ के स्वयंसेवक ही करते हैं। वे स्वीकारते हैं कि इस बार रामनवमी कमजोर रही। कारण पूछने पर वे कहते हैं, ‘’तैयारियों के लिए किया जाने वाला जनसंपर्क अभियान ही नहीं किया गया। ऐसे में किसी को क्या पड़ी है कि कोई अपने से आकर कहे कि रामनवमी की शोभायात्रा निकालनी है।‘’
पिछले साल से तुलना करते हुए वे कहते हैं कि इस साल महज सवा सौ लोगों ने चंदा दिया। इस चंदे की रसीद कटती है। उनके मुताबिक पिछले साल चंदा देने वालों की संख्या पांच सौ से ज्यादा थी। वे कहते हैं, ‘’किसी भी प्रकार का आयोजन हो, उसमें सबसे बड़ी जरूरत पैसे की होती है। इस बार पैसा ही नहीं था तो आयोजन किससे करते?’’
चंदा न जुट पाने की वजह पूछने पर वे कहते हैं कि यह तो पद पर बैठे या फिर आयोजक समिति के लोग ही बता सकते हैं।
ऐसा किसी खास या फिर एकाध जगह पर नहीं, बल्कि पूरे उत्तर भारत में हुआ। बिहार में भाजपा की सहयोगी उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी के एक पदाधिकारी राहुल बताते हैं कि समूचे बिहार में रामनवमी की शोभायात्राएं ठंडी रहीं। पिछले साल बिहार में रामनवमी पर दंगा हुआ था जो कई दिनों तक सुर्खियों में रहा था।
पहले चरण के चुनाव के बाद हुई बातचीत में उन्होंने बताया, ‘’इस बार आरएसएस एकदम ठंडा पड़ा हुआ है। पता ही नहीं चला कब रामनवमी बीत गई।‘’
संघ की बैचेनी कम भीड़ को लेकर नहीं, बल्कि किसी भी शहर में इस तरह के आयोजन में शामिल रहने वाले मध्यवर्गीय हिंदुओं की दूरी के कारण है। ज्यादातर जगहों पर शहर के सभ्रांत कहे जाने वाले लोगों ने इस बार रामनवमी से दूरी बनाकर रखी। किसी भी तरह के सार्वजनिक आयोजन के लिए सबसे पहला सामुदायिक समर्थन यही नौकरीपेशा मध्यवर्गीय हिंदू जुटाता है। यही वे लोग हैं जो इस तरह के कार्यक्रमों को सामाजिक मान्यता भी दिलाते हैं।
संघ से जुड़े कुछ लोग जनता की कम भागीदारी और यात्राओं के फीके रहने का कारण चुनावी आचार संहिता को बता रहे हैं। एक तरफ वे प्रशासनिक अनुमति की बात करते हैं, तो दूसरी तरफ इस यात्रा में शामिल लड़के यात्रा मार्गों पर तलवार, फरसे लहराते हुए भी देखे गए, हालांकि पिछले एक दशक में शायद यह पहला मौका था जब रामनवमी के दिन सांप्रदायिक तनाव की खबरें नहीं आईं।
इसीलिए शायद योगी आदित्यनाथ को पश्चिम बंगाल के तनाव का हवाला देना पड़ा। जाहिर है, फीकी रामनवमी का नुकसान धार्मिक ध्रुवीकरण चाहने वाली ताकतों को ही हुआ होगा, लेकिन बात यहीं तक सीमित रहती तो ठीक था। रामनवमी के अगले ही दिन सरसंघचालक मोहन भागवत का एक अप्रत्याशित बयान भाजपा के मतदाताओं को और चौंका गया।
एक विकट बयान
इस साल मार्च के तीसरे सप्ताह में संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा संपन्न हुई। छह साल बाद हुई इस शीर्ष सभा में हजारों प्रतिनिधियों और दर्जनों अनुषंगी संगठनों के साथ बैठकर संघ के शताब्दी वर्ष समारोह की योजनाएं बनाई गई थीं। नए सिरे से संगठन में लोगों को जिम्मेदारियां सौंपी गई थीं, नई कार्यकारिणी बनाई गई थी और ‘पंच परिवर्तन’ के सूत्र पर समाज को जोड़ने की बात की गई थी।
इसके ठीक महीने भर बाद और लोकसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान से एक दिन पहले मोहन भागवत ने बयान दिया, ‘’राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वर्ष 2025 में अपना शताब्दी वर्ष नहीं मनाएगा। कुछ उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने का संघ का कोई इरादा नहीं है। यह बेहद चिंताजनक है कि आरएसएस को कुछ लक्ष्यों को हासिल करने में सौ वर्ष लग गए, हालांकि इस मंद गति के बदलाव का कारण दो हजार साल के सामाजिक पतन से जूझना रहा है।”
इस एक बयान से भागवत ने संघ की समूची कवायद पर जुबानी पानी फेर दिया क्योंकि महीने भर पहले हुई प्रतिनिधि सभा की समूची कवायद का कुल जमा हासिल यही था कि किस तरह शताब्दी वर्ष को बेहतर ढंग से समाज को समाहित करते हुए मनाया जा सके।
आरएसएस का सौ साल 2025 की विजयादशमी को पूरा हो रहा है। संघ देश के गिने-चुने ऐसे सबसे पुराने संगठनों में से एक है जो अब तक न सिर्फ सक्रिय है बल्कि उसका राजनीतिक शासन भारत पर है। उसके पहले या उसके साथ बने संगठन आज किस हाल में हैं यह किसी से छुपा नहीं है। इसमें देश का सबसे पुराना राजनीतिक संगठन कांग्रेस और संघ के साथ ही बनी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।
ऐसे में संघ प्रमुख का यह कहना कि वह अपना “शताब्दी वर्ष” नहीं मनाएगा आश्चर्यचकित करता है। बयान पर सवाल इसलिए भी उठता है कि पिछले पचास साल से संघ जिन मुद्दों पर राजनीति कर रहा है, वे लगभग सभी अपने अंजाम तक पहुंच चुके हैं। ऐसे में और क्या है जो संघ चाह रहा था लेकिन वो पूरा नहीं हुआ? क्या रामनवमी के ठंडे उत्सव और दो चरणों में हिंदी पट्टी में हुई कम वोटिंग से इस बयान का कोई रिश्ता बनता है?
भीतर की परतें
संघ के कुछ प्रचारकों से बात कर के इन सवालों की कुछ नई परतें खुलती हैं। हमीरपुर जिले में संघ के बौद्धिक प्रमुख और विद्या भारती द्वारी संचालित सरस्वती बाल मंदिर, राठ में कंप्यूटर के प्रवक्ता बृजकिशोर चौहान बताते हैं कि यहां रामनवमी पर शोभा यात्रा निकालने का चलन 2005 के बाद शुरू हुआ था!
‘’इसके शुरू किए जाने का प्रमुख कारण हिंदू समाज के लोगों में हीनता की भावना थी- हीनता इस बात की कि उसके आराध्य टेंट में रह रहे हैं, उनके लिए उनके जन्मस्थान पर एक मंदिर तो होना ही चाहिए। यह राम के प्रति प्रेम को लेकर उन्माद का दौर था जिसमें जनता का सहयोग मिला और रामनवमी एक त्योहार के तौर पर मनाई जाने लगी।‘’
पिछले दो दशक में रामनवमी को एक त्योहार के रूप में समाज में स्थापित करने में संघ औश्र उससे जुड़े संगठनों की बहुत भूमिका रही है। बीते दो दशक में देश भर का कोई भी तीज, त्योहार, मेला या फिर सार्वजनिक उत्सव से लेकर संसद के सदन तक कोई जगह ऐसी नहीं रही जहां ‘जय श्रीराम’ का नारा न लगाया गया हो। न जाने कितने ऐसे दिन हैं जिन पर शोभा यात्राएं निकालने की परंपरा को स्थापित कर दिया गया है। हालात ये हैं कि अब तो शादियों और निजी आयोजनों तक में ‘जय श्रीराम’ के नारे आम हैं।
चौहान कहते हैं, ‘‘रामनवमी का उत्सच प्रतिक्रिया के तौर पर शुरू हुआ था। प्रतिक्रिया इस बात की कि मुस्लिम समुदाय ईद मिलादुन्नबी पर इस तरह के जुलूस निकाला करता था। तो हिंदू समाज ने इसे एक चुनौती मानकर उसी स्तर का कुछ करने का सोचा। शुरुआत रामनवमी से हुई। जनता का खूब समर्थन भी मिला।‘’
फिर इस साल क्या हुआ? क्या माना जाए कि यह प्रतिक्रिया की प्रक्रिया पूरी हो चुकी है? चौहान खुलकर कहते हैं, ‘’अब संघ मान रहा है कि हिंदू समाज में इतनी हिम्मत आ गई है कि वह अपनी बात और भावनाएं खुलकर रख सके। इसलिए इस साल का आयोजन समाज और जनता के भरोसे छोड़ दिया गया था कि वह संभाल लेगी। हमारा काम तो मंदिर बनवाने तक का था जिसे हमने पूरा कर दिया।‘’
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तो क्या संघ के बगैर समाज इस बार उत्सव को नहीं संभाल सका? वे कहते हैं, ‘’इस मसले पर चिंतन बैठकें जारी हैं, कारणों की तलाश की जा रही है, संभव है अगले साल तक सब कुछ ठीक हो जाए।‘’
एक और स्वयंसेवक हालांकि अलहदा राय रखते हैं, जो हमीरपुर में नगर कार्यवाहक के तौर पर कार्य कर चुके हैं। वे कहते हैं कि रामनवमी के समय खेती का सीजन होता है और इस बार अप्रैल में मौसम कई बार खराब हो चुका था, कई जगहों पर बारिश भी हो चुकी थी। ऐसे में किसानों की प्राथमिकता खेती का काम समेटना था, रामनवमी नहीं।
फिर एक गूढ़ बात वे कहते हैं, ‘’और वैसे भी मंदिर बन गया है, तो अब जुलूस और यात्राओं की क्या जरूरत हैं, यह भी एक सोच थी जो लोगों में घर कर गई। लोगों को लगता है कि मंदिर तो बन ही गया है और राम की पूजा तो घर पर रहकर भी की जा सकती है। पहले यह आत्मसम्मान से जुड़ा मामला था कि भगवान टेंट में पड़े हुए हैं, अब ऐसा नहीं है।‘’
संघ के पुराने लोगों से बात कर के कुछ गुत्थियां और खुलती हैं। राम मंदिर आंदोलन के शुरुआती दौर से संघ और भाजपा से जुड़े भाजपा के एक पूर्व जिलाध्यक्ष नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘’बुंदेलखंड के इलाके में रामनवमी की शुरुआत हमने कुछ साथियों के साथ मिलकर करी थी। इसको बढ़ावा देने के लिए हम कई जिलों में कंपिटीशन कराया करते थे। जिसकी शोभायात्रा सबसे बेहतर होती थी उसे ईनाम देते थे। इस बार रामनवमी को जान-बूझ कर कमजोर किया गया है।‘’
कारण पूछने पर वे बताते हैं कि इसके पीछे कानपुर प्रांत में संघ के ज्यादातर पदाधिकारियों का एक जाति विशेष से होना है, ‘’संयोग से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी उसी जाति से आते हैं, जिन्हें संघ का समर्थन भी हासिल है।‘’ ऐसा करने के पीछे उद्देश्य क्या है? पूछने पर वे कहते हैं, ‘’मोदी को कमजोर करना!”
संघ बनाम मोदी?
द कारवां की एक रिपोर्ट कहती है कि 2014 के आम चुनाव से पहले संघ प्रमुख भागवत नागपुर में नरेंद्र मोदी के साथ बैठक करना चाहते थे। मोदी ने भागवत के दूत से संदेश भिजवाया कि वे नागपुर नहीं आएंगे, बल्कि संघ प्रमुख खुद मिलने के लिए उनके आवास पर आएं। बाद में भागवत को ऐसा करना भी पड़ा।
इसी रिपोर्ट में अरुण शौरी और राम माधव के हवाले से लिखा गया है कि इस बैठक के दौरान जब मोहन भागवत चुनाव की तैयारियों पर बात कर रहे थे उस समय मोदी ने भागवत से कहा, “मोहनजी, एक बात याद रखना। अगर मैंने भाजपा में जाने के आरएसएस के आदेश का पालन नहीं किया होता तो शायद मैं उस पद पर बैठा होता जहां आप आज हैं।”
ध्यान रहे कि मोहन भागवत ने सरसंघचालक का पद 2009 में संभाला था जबकि मोदी कहीं पहले गुजरात के मुख्यमंत्री बन चुके थे। मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने गुजरात में आरएसएस को लगभग शून्य की स्थिति में लाकर छोड़ दिया था। उसके बाद गुजरात में संघ की जड़ों का विस्तार करने में मोहन भागवत का बड़ा हाथ माना जाता है।
पिछले दस साल के दौरान संघ और मोदी के बीच अनबन की अटकलें लगाई जाती रही हैं। इसी आलोक में संघ द्वारा ‘मोदी को कमजोर’ करने की बात एक राष्ट्रीय दैनिक के ब्यूरो चीफ भी स्वीकारते हैं। वे बताते हैं कि दो कार्यकाल के बाद संघ अब मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में नहीं देखना चाहता है।
उनके मुताबिक, ‘’इसकी वह हरसंभव कोशिश कर रहा है। रामनवमी में संघ के इरादों की झलक भी यही दिखी। संघ जो चाह रहा है उसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन आपको मोदी को हटाने के लिए उससे बेहतर खोजना चाहिए। किसी जातिवादी व्यक्ति पर दांव लगाना संघ के लिए घातक हो सकता है।‘’
उनका इशारा यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तरफ है। वे बताते हैं कि उत्तर प्रदेश में इस बार कम से कम पैंतीस टिकट संघ के विरोध के बावजूद आलाकमान ने बांटे हैं और यह सीधे तौर पर संघ को नकारने की कोशिश है।
वह कहते हैं कि मोदी के दस साल के कार्यकाल में संघ प्रमुख की हैसियत लगातार घटी है। ‘’अगर यही करना है, तो फिर विपक्षी दलों का समर्थन करने में क्या बुराई है?’’
उनके मुताबिक संघ इस समय मोदी के साथ संघर्ष की स्थिति में है और चाहता है कि अब मोदी से छुटकारा पाया जाए। संघ इस स्थिति में इसलिए आ पाया है क्योंकि उसके लिए जरूरी ज्यादातर मुद्दे पूरे हो चुके हैं- राम मंदिर, अनुच्छेद 370, समान नागरिक संहिता आदि, जिनका व्यापक जनाधार रहा है। ऐसे में वह अपने विस्तार पर काम करने की सोच रहा है, बजाय इसके कि वह लगातार संघर्ष में उलझे।
भागवत का बयान कि संघ अपना स्थापना दिवस नहीं मनाएगा और रामनवमी के आयोजन से संघ की दूरी भी इसी तरफ इशारा कर रही है।
आरएसएस में एक वर्ग ऐसा है जो मानता है कि संगठन आज जितनी मजबूत स्थिति में है वह मोदी की वजह से आया है। यह वर्ग मोदी को पसंद करता है और संघ के आदेश मानने के बजाय भाजपा के लिए काम करना पसंद करता है।
दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं जिनका मानना है कि संघ को स्वतंत्र इकाई के तौर पर काम करना चाहिए। संघ के पुराने लोगों को लगता है कि मोहन भागवत ने भाजपा सरकार और नरेंद्र मोदी के सामने घुटने टेक दिए हैं। सत्तर के दशक से संघ के साथ जुड़े एक स्वयंसेवक, जिन्हें कई संस्थाओं के विस्तारक के तौर पर जाना जाता है, नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, “यहां तक पहुंचने के लिए हमने बहुत कुछ झेला है- प्रतिबंध से लेकर और न जाने क्या-क्या। ऐसे में सत्ता के साथ मिलकर संघ को हम खत्म नहीं होने देना चाहते।‘’
वे अफसोस से कहते हैं, ‘’सत्ता के लिए काम करने का नतीजा यह है कि अब हमारे स्वयंसेवक साइकिल से नहीं चलना चाहते। उन्हें भी गाड़ी चाहिए। इसका परिणाम आपने रामनवमी के आयोजन में देख ही लिया है।‘’
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चुनाव के हनुमान: जात्रा कलाकार और संघ प्रचारक निभास सरकार की खुदकशी
फिर रामभरोसे!
राम मंदिर बनवाकर अपनी जिम्मेदारी से फारिग हो चुके संघ की इस चुनाव में निष्क्रियता ने भाजपा को फिर से राम भरोसे लाकर छोड़ दिया है। यही वजह है कि जब 17 अप्रैल को जमीन पर तो राम नदारद थे, लेकिन अखबार, टीवी, सोशल मीडिया सहित प्रचार-प्रसार के हर माध्यम पर ‘सूर्यतिलक’ के बहाने छाए हुए थे। इसका जिम्मा खुद मोदी ने उठा रखा था।
चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करते हुए भाजपा ने अखबारों में विज्ञापन छपवाया था जिसमें लिखा हुआ था, ‘उसको (भाजपा) दिया गया वोट राम मंदिर का निर्माण करा सकता है।‘’ प्रधानमंत्री ने अपने एक्स (ट्विटर) पर हेलीकॉप्टर से एक तस्वीर पोस्ट की जिसमें में वह नंगे पैर राम की मूर्ति का ‘सूर्यतिलक उत्सव’ देख रहे थे। इसे उन्होंने अपने जीवन का भावुक क्षण बताया।
भाजपा चुनाव प्रचार में लगातार राम मंदिर को अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित कर रही है और इस मसले पर लगातार आचार संहिता उल्लंघन की शिकायतें भी चुनाव आयोग में हो रही हैं।
राम को एक आदर्श छवि के रूप में घर-घर तक पहुंचाने वाले टीवी अभिनेता अरुण गोविल को मेरठ लोकसभा से भाजपा ने अपने टिकट पर उतारा है। अपने चुनाव प्रचार में गोविल ने टीवी के राम और राजनीति के राम को एक साथ मिलाने की बहुत कोशिश की, लेकिन आयोग में शिकायत के बाद उन्हें नोटिस थमा दिया गया।
मतदान के अगले ही दिन टीवी वाले राम मुंबई लौट गए और वहां पहुंचकर उन्होंने एक दर्द भरा ट्वीट किया। बाद में जब यूजर्स ने उस पर मौज ले ली कि भाजपा ने असली ही नहीं, नकली राम को भी ठग लिया, तब गोविल ने अपना वह ट्वीट डिलीट कर दिया।
यह विडम्बना ही कही जा सकती है कि 2024 के लोकसभा चुनाव की दशा और दिशा का अंदाजा 2019 में दोबारा जीतकर सत्ता में आई भाजपा के शुरुआती छह महीने के कामकाज से बड़ी आसानी से लग चुका था, लेकिन पांच साल बाद उसके उठाए कदम इस चुनाव में उसी के काम नहीं आ रहे- चाहे कश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म करना रहा हो, या उसके बाद सुप्रीम कोर्ट का राम मंदिर निर्माण के पक्ष में फैसला सुनाना, फिर महीने भर बाद नागरिकता संशोधन विधेयक लाया जाना।
नई सरकार के गठन के महज छह महीने के भीतर हुई ये सभी घटनाएं आने वाले समय का स्पष्ट आभास दे रही थीं कि 2024 का चुनाव किन मुद्दों पर होगा, लेकिन दोहरी विडम्बना यह हो गई कि संघ के शताब्दी वर्ष के जश्न से औपचारिक रूप से मोहन भागवत ने खुद हाथ खींच लिया। अगर वाकई मोहन भागवत का बयान कोई राजनीतिक संकेत है, तो संघ को निन्यानबे के फेर की चिंता अब क्यों ही होगी?
भविष्य के संकेत नरेंद्र मोदी की संसदीय सीट बनारस में हिंदू जागरण मंच के एक पदाधिकारी गौरीश सिंह से बातचीत में उजागर होते हैं, जिनका कहना है कि अगर जरूरत पड़ी तो काशी और मथुरा के लिए भी राम मंदिर जैसा आंदोलन होगा। क्या वे अपनी ही सरकार के खिलाफ आंदोलन करेंगे, यह पूछने पर वे टका सा जवाब देते हैं, ‘’सरकार बने तो पहले!”