नए भारत में बलात्कारियों का संरक्षण : कैसे अच्छे दिन? किसके अच्छे दिन?

A demonstrator holds a placard during a protest against the release of the convicts in Bilkis Bano case
A demonstrator holds a placard during a protest against the release of the convicts in Bilkis Bano case (New Delhi, 2022) | SOPA/Alamy
बीते कुछ बरसों के दौरान भारत में यौन अपराधों और इनके केस में सजा होने के बीच बहुत गहरी खाई पनपी है। पीड़ितों की खुदकशी से लेकर उन्‍हीं पर पलट कर मुकदमा किया जाना, अपराधियों का माल्‍यार्पण, सरवाइवर के बयान पर संदेह खड़ा किया जाना, और आखिरकार सजा मिलने पर भी बलात्कारियों का जमानत पर बाहर निकल आना दंडमुक्ति की फैलती संस्कृति का पता देता है। 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार आने से पहले राज्यसत्ता और पितृसत्ता ने इसकी जमीन बना दी थी। नारीवादी लेखिका-कार्यकर्ता रंजना पाढ़ी की विस्तृत पड़ताल

इस साल के आम चुनावों के दौरान अलग-अलग पेन ड्राइव में जमा 2976 वीडियो सामने आने से पता चला कि जनता दल (एस) के मौजूदा सांसद प्रज्‍ज्‍वल रेवन्ना द्वारा बड़े पैमाने पर कथित तौर पर बलात्कार और यौन हमले किए गए थे। इन वीडियो से व्यापक आक्रोश फैला और महिला सुरक्षा को लेकर चिंताएं बढ़ गईं। रेवन्ना द्वारा न केवल इन हमलों को फिल्माया गया, बल्कि पीड़ितों की सुरक्षा और सम्मान की परवाह किए बगैर फुटेज का इस्तेमाल कथित रूप से ब्लैकमेल करने में भी किया गया। इन वीडियो की भयावह प्रकृति के बावजूद पुलिस चार दिनों तक हाथ पर हाथ धरे बैठी रही।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया गया कि अपराध से अवगत होने के बावजूद उन्होंने हासन लोकसभा से राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के उम्मीदवार के रूप में रेवन्ना के लिए प्रचार करना जारी रखा। अपराध और अपराधी को संरक्षण देने की यह बढ़ती प्रवृत्ति हमारे देश में औरतों और अल्पसंख्यक समुदायों के लिए बहुत महंगी पड़ रही है।

महीने भर से ज्‍यादा बीत जाने और चुनाव के अंतिम चरण के करीब पहुंच जाने पर इस देश की महिलाओं ने तय किया कि इस मामले पर चुप्‍पी बरतने से कुछ नहीं होगा। लिहाजा, आगामी 30 मई को यानी अंतिम चरण के मतदान से ठीक पहले महिला समूहों ने ‘हासन चलो’ का आह्वान किया है। महिलाओं के आत्‍मसम्‍मान और प्रतिष्‍ठा की रक्षा के हक में और यौन अपराधों में दंडमुक्ति की फैलती संस्‍कृति के खिलाफ हासन, कर्नाटक में इस दिन रैली निकाली जाएगी।    


Hasan Chalo Rally Poster by womens groups

बीते दस साल के दौरान एक के बाद एक आई यौन अपराधों की भयानक खबरों ने अंतहीन राष्ट्रीय सुर्खियों को जन्‍म दिया है। फेहरिस्‍त बहुत लंबी है- उत्तर प्रदेश (2014) के बदायूं जिले में दो दलित लड़कियों के यौन उत्पीड़न और फांसी से लेकर मणिपुर में (2023) हिंसक भीड़ द्वारा दो कुकी-ज़ो औरतों को निर्वस्त्र घुमाए जाने तक; जम्मू और कश्मीर (2018) में आसिफा बानो के हत्यारों की वाहवाही से लेकर बलात्कार के दोषी धर्मगुरुओं के समर्थन में सार्वजनिक जुलूसों और कर्नाटक से मौजूदा सांसद कथित सीरियल बलात्कारी को देश से फरार होने देने तक (2024); और उत्तर प्रदेश के हाथरस (2020) में उच्च जाति के मर्दों की दंडमुक्ति से लेकर गुजरात (2022) में दोषी बलात्कारियों की रिहाई तक (जिसे बाद में उलट दिया गया)। ऐसे अपराधों की शिकायत करने वाले खुद को और अपने परिजनों को बर्बर हमलों, ब्लैकमेल, और खतरे से बचाने में लगे हुए हैं। गवाहों की सुरक्षा दूर की कौड़ी है।

2014 के आम चुनाव से पहले सभी नागरिकों को दी गई ‘अच्छे दिन’ की गारंटी का मतलब क्‍या औरतों और समाज के हाशिये पर रहने समूहों को न्याय की जद से संभवत: बाहर रखना था? आज दस साल बाद क्या हम देख पा रहे हैं कि हिंदुत्व के सामाजिक-सांस्कृतिक लोकाचार ने महिलाओं की स्थिति और मूल्य को कैसे उलट डाला है? क्या हमें दिख रहा है कि दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समूहों की औरतें किस तरह यौन हिंसा और इंसाफ से इंकार का खमियाजा भुगत रही हैं? आखिर जनता का एक वर्ग (जिसमें औरतें भी शामिल हैं) अपराधियों के बचाव में सड़कों पर क्यों उतर रहा है? क्या हम राजनीतिक ताकत, जातिगत श्रेष्ठता और बाहुबल से मिलजुल कर बने इस दिल दहलाने वाले तंत्र को देख पा रहे हैं जो यौन अपराधियों को बचाता है?

 

2013 में जब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सत्तासीन होने की चर्चा उफान पर थी, तब उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी। साठ हजार से ज्‍यादा मुसलमान विस्थापित हो गए और कई औरतों के साथ यौन उत्पीड़न की खबरें सामने आईं। तत्कालीन सरकार ने ‘फास्ट-ट्रैक कोर्ट’ की स्थापना की घोषणा की। आज दस साल बाद भी एक औरत इंसाफ के इंतजार में है जबकि बाकी ने अपनी शिकायतें वापस ले ली हैं। यह दिखाता है कि अदालती न्‍याय प्रणाली के भरोसे इंसाफ की उम्‍मीद किस तरह भरे-पूरे परिवारों और समुदायों के जीवन को तितर-बितर कर सकती है।

जहां दलित समुदाय अपनी जमीन पर अधिकार का दावा करता हैं, वहां बदले में उसे वर्चस्व वाली जातियों की यौन हिंसा को झेलना पड़ता है। हरियाणा में ग्राम पंचायतों के स्वामित्व वाली शामलात की जमीन दलितों और जाटों के बीच विवाद का एक ऐसा ही मुद्दा है। यह संघर्ष दुनिया की नजर में तब आया जब मार्च 2014 में भगाना गांव में पांच युवकों ने चार दलित लड़कियों के साथ बलात्कार किया। इसके बाद धानुक समुदाय के 90 परिवारों ने लगभग दो महीने तक नई दिल्ली के धरनास्थल जंतर-मंतर पर विरोध प्रदर्शन किया। दिल्ली पुलिस ने उन्हें जबरन भगा दिया। दलितों के खिलाफ व्‍यवस्‍थागत हिंसा की घटनाओं को दबाने और उन्‍हें न्‍याय से वंचित करने की कोशिश अक्सर इसलिए की जाती है ताकि भारत को निवेश-अनुकूल जगह के रूप में दर्शाया जा सके।

अपनी सामाजिक उन्‍नति के लिए प्रयासरत दलितों को भी अक्सर यौन हिंसा और उत्‍पीड़न झेलना पड़ता है। अगस्त 2013 में हरियाणा के बनियाखेड़ा गांव की एक 20 वर्षीय छात्रा परीक्षा देने के लिए जींद जाने वाली बस में चढ़ने के बाद एक खेत में मृत पाई गई थी। जब समुदाय ने मामला दर्ज करने की मांग की, तो हिंसक लाठीचार्ज में लड़की के पिता सहित कई लोग घायल हो गए। छह दलित पुरुषों को गिरफ्तार कर लिया गया। दलित समुदाय को बुनियादी प्रक्रियाओं और न्याय प्रणाली का उपयोग भी खुलकर नहीं करने दिया जाता जिसके चलते पुरुष एक्टिविस्‍ट से लेकर उनके वकील तक खतरे में पड़ जाते हैं। इसके पीछे राज्य की न्याय प्रणाली में विशेषकर अल्पसंख्यक, आदिवासी और दलित समुदाय की महिलाओं (और पुरुषों) का कम प्रतिनिधित्व है। इंसाफ़ पाने में यह व्यवस्थागत अड़चनें पैदा करता है।

अपनी पुस्तक अनडूइंग इमप्‍यूनिटी: स्पीच आफ्टर सेक्शुअल वायलेंस में वी. गीता (2016) बताती हैं कि कैसे ऊंची जाति के मर्द अपनी ताकत दिखाने के लिए निचली जाति की औरतों की देह को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं और अपनी औरतों की रक्षा करने में नाकाम पुरुषों को अपमानित भी करते हैं। दक्षिणी छत्तीसगढ़ में कंपनियों द्वारा अपनी जमीन और संसाधन लूटे जाने का विरोध करने वाली आदिवासी औरतों को सुरक्षाबलों और अर्धसैन्‍य बलों की ओर से बड़े पैमाने पर यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है। ऐसे मामलों में एफआइआर लिखे जाने और मीडिया में रिपोर्ट किए जाने के बावजूद दोषियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई।


V. Geetha book

उत्तर प्रदेश स्थित उन्‍नाव की एक 17 वर्षीय लड़की के साथ जो हुआ, उसकी कहानी ऐसी ही है। जून 2017 में पहली बार कुछ अजनबियों ने उससे नौकरी का झूठा वादा किया। इस फरेब के चलते अंततः एक भाजपा विधायक द्वारा उसका यौन उत्पीड़न किया गया। असलहा रखने के आरोप में उसके पिता की गिरफ्तारी हो गई। गिरफ्तारी और पुलिस की निष्क्रियता के विरोध में लड़की ने 8 अप्रैल 2018 को मुख्यमंत्री आवास के बाहर आत्मदाह का प्रयास किया। इसके बाद पुलिस हिरासत में उसके पिता की मौत हो गई। साल भर बाद एक ट्रक ने उस ऑटोरिक्शा को टक्कर मार दी जिसमें लडकी सफर कर रही थी। साथ बैठी उसकी दो चाचियों की इस घटना में मौत हो गई। आखिरकार, भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को बलात्कार का दोषी ठहरा दिया गया। इसके बाद भी रायबरेली में एक बार फिर लड़की पर जानलेवा हमला हुआ। घायल लड़की को इलाज के लिए हवाई जहाज से दिल्ली के एक अस्पताल लाना पड़ा।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली में 2012 के निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड के बाद कहा था कि इस तरह के अपराध केवल ‘अर्बन इंडिया’ में होते हैं, ’भारत’ में नहीं क्‍योंकि शहरों के ऊपर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव है। हकीकत यह है कि अक्सर गांवों-कस्‍बों में होने वाली ऐसी घटनाएं तभी खबर बन पाती हैं जब पीड़ित को हवाई मार्ग से दिल्‍ली के किसी अस्पताल तक पहुंचाया जाता है।

जनवरी 2018 में जम्मू के कठुआ जिले के एक गांव से आठ वर्षीय आसिफा बानो को अगवा किया गया था। एक हफ्ते बाद उसकी लाश बरामद हुई। वह घुमंतू समुदाय बक्‍करवाल (एक मुस्लिम जनजाति) से थी। जांच में पता चला कि एक मंदिर के भीतर उसे बेहोश कर के उसके साथ गैंगरेप किया गया था। इसमें मंदिर का पुजारी और एक पुलिसकर्मी भी शामिल था। दक्षिणपंथी हिंदू समूहों ने आरोपियों के समर्थन में रैली निकाली और जम्मू बार काउंसिल ने पीड़िता के वकील को धमकाया। हिंदू एकता मंच के वकीलों ने क्राइम ब्रांच की टीम का अदालत में रास्ता रोक दिया। राज्य के वन और उद्योगों के प्रभारी भाजपा के मंत्रियों ने आरोपियों के समर्थन में निकाली गई रैली में हिस्सा लिया। यह सामूहिक बलात्कार कांड भूमिहीन बक्‍करवाल समुदाय के लिए एक चेतावनी था कि वे चराई के अधिकार पर दावा ठोंकना बंद करें।

जब-जब निडर महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए खड़े होने का साहस किया है, तब-तब स्वयंभू गुरुओं और बाबाओं की करतूतों का पर्दाफाश हुआ है। डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह को अगस्त 2017 में और आसाराम बापू को 2019 में बलात्कार का दोषी ठहराया गया। इसके बावजूद अगस्त 2019 में 23 साल की एक छात्रा लापता हो गई, जो शाहजहांपुर में भाजपा के पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानंद के ट्रस्ट द्वारा संचालित एक कॉलेज में कानून पढ़ रही थी। लड़की ने एक वीडियो पोस्ट कर के चिन्मयानंद के ऊपर साल भर तक यौन शोषण करने का आरोप लगाया था। स्वामी को गिरफ्तार तो कर लिया गया, लेकिन उसने उलटे पीड़िता और उसके दोस्तों पर ही पांच करोड़ रुपये की फिरौती का आरोप लगाकर एफआइआर दर्ज करवा दी। इसके चलते पीड़िता को दो महीने जेल में बिताने पड़े। चिन्मयानंद को मार्च 2021 में बरी कर दिया गया और यौन उत्पीड़न के तमाम आरोप हटा लिए गए। फिलहाल वह भाजपा का सदस्‍य नहीं है।

हाथरस में 19 वर्षीय एक महिला के साथ 2020 में ऐसा ही कांड हुआ। वह काम पर जा रही थी जब गांव के ठाकुरों ने रास्‍ते में रोक कर उसका बलात्‍कार किया। उसकी जबान काट दी गई थी और रीढ़ में चोट आई थी। इसके बावजूद उसने अपने चारों अपराधियों का नाम बताया। अपराधियों के समर्थन में भाजपा के पूर्व विधायक राजवीर सिंह पहलवान ने ऊंची जाति के मर्दों को एकजुट किया। आरएसएस और उससे सम्‍बद्ध संगठनों ने अपराधियों का समर्थन किया। इस सुनियोजित उन्माद के माहौल में तमाम तरीकों से जांच में हेर-फेर की गई।


Hathras victim was cremated by UP police at midnight
हाथरस कांड की पीड़िता का शव आधी रात पुलिस ने चुपके से फूँक दिया था (फाइल फोटो)

दो हफ्ते बाद जब पीड़िता की दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में मौत हो गई तो पुलिस ने उसके शव का जबरन अंतिम संस्का कर डाला। प्रारंभिक जांच रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा गया कि उसकी पोस्टमार्टम और मेडिकल रिपोर्ट में यौन उत्पीड़न का उल्लेख ही नहीं था। राज्य सरकार ने हाथरस के पुलिस अधीक्षक और चार अन्य पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया और आदेश दिया कि पीड़ित के परिवार के सदस्यों का ‘पॉलीग्राफ’ परीक्षण किया जाए। इस दावे को मजबूती देने के लिए, कि यौन उत्पीड़न नहीं हुआ था, एक जनसंपर्क फर्म को काम पर लगाया गया और उसके माध्‍यम से बताया गया कि यह सब कुछ एक अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा था। इसके समर्थन में पुलिस ने एक वेबसाइट का हवाला दिया। उस पर जो सामग्री थी, उसे अमरीका की ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ नामक वेबसाइट से अफरातफरी में काटकर चिपकाया गया था।

इसके बाद हाथरस की घेराबंदी कर दी गई। राजनेता या पत्रकार, किसी को गांव में दाखिल नहीं होने दिया गया। जाति-आधारित अत्याचारों पर दलित महिलाओं और समलैंगिक व्यक्तियों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका के बावजूद मार्च 2023 तक एससी/एसटी कोर्ट ने चार में से तीन आरोपियों को यौन उत्पीड़न के आरोपों से बरी कर दिया था। मुख्य आरोपी को गैर-इरादतन हत्या के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।

इस तरह के मामलों की जांच में खुलेआम हेराफेरी घर से बाहर काम के लिए कदम रखने वाली औरतों को हतोत्‍साहित करने का काम करती हैं। अक्सर ये लड़कियां अपने परिवारों में कमाने वाली पहली पीढ़ी की होती हैं। निजी क्षेत्र, जैसे शिक्षा, खेल और आतिथ्‍य में कुकरमुमत्तों की तरह उग आई दुकानें कई महिला कर्मचारियों के लिए नुकसानदेह साबित हुई हैं।

ऐसा ही केस 18 सितंबर 2022 को 19 वर्षीय अंकिता भंडारी की हत्या का था। उसने उत्तराखंड में ऋषिकेश के पास एक रिसॉर्ट में रिसेप्शनिस्ट का काम शुरू किया था। पुलिस ने हत्या का आरोप उसके नियोक्ता और उसके सहकर्मियों पर लगाया। हत्‍या का कारण यह सामने आया कि लड़की ने रिसॉर्ट के वीआइपी मेहमानों को यौन सेवाएं देने से इंकार कर दिया था, जिसके बदले में रिसॉर्ट की कमाई होती थी। इस घटना पर उत्तराखंड महिला मंच द्वारा निकाली गई रिपोर्ट में बताया गया पुलिस के कब्‍जे में लिया गया वह रिसॉर्ट पांच दिन बाद 23 सितंबर की रात आंशिक रूप से ढहा दिया गया था। इसके लिए बुलडोजर कथित तौर पर स्थानीय भाजपा विधायक रेनु बिष्ट लेकर आई थीं। इस तरह सबूतों को नष्ट किया जाना अपराधियों और सरकार के बीच मिलीभगत की ओर इशारा करता है।

भाजपा-शासित राज्य मणिपुर में भड़की हिंसा सीधे तौर से राज्यसत्ता और बहुसंख्यकवादी राजनीति के गठजोड़ का नतीजा थी, जिसमें अल्पसंख्यक समुदायों और महिलाओं को निशाना बनाया गया। जून 2023 में पूरे देश में एक वीडियो वायरल हुआ। वीडियो में दो कुकी-ज़ो महिलाओं की नग्‍न परेड करवाई गई थी। उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था। घटना मई के मध्य की थी। यह इकलौती नहीं थी। राज्य में औरतों और बच्चियों के यौन उत्पीड़न को लेकर कई एफआइआर दर्ज कराई गई हैं। इसके बावजूद इन घटनाओं के प्रति प्रशासनिक तंत्र उदासीन बना हुआ है।


आग लगाने की तैयारी तो पहले से थी, 3 मई की रैली होती या नहीं…

पचहत्तर दिन बाद लीक हुआ वीडियो घटना के वक्त दबा कैसे रह गया?

हथियारों की लूट, सुरक्षाबलों पर FIR, और अब 15 अगस्त का बहिष्कार!


इस तरह के जुर्म के दोषियों का किसी तरह की सजा से बच जाना अब चलन बन चुका है। दण्डमुक्ति की यह संस्कृति हिंदू युवाओं की मर्दानगी को जहरीला बना रही है। यह जहर मुस्लिम औरतों को जलील करने वाले ‘ऐप्स’ में साफ दिखता है। ‘सुल्ली डील्स’ नाम का एक ओपेन-सोर्स ऐप 2021 में सामने आया था जो  मुस्लिम औरतों की व्यक्तिगत जानकारी और तस्वीरें छापता था। ऐसी लगभग 100 तस्वीरों की नीलामी के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया गया था। आरोपी ने कुछ महीने जेल में बिताए, फिर उसे जमानत मिल गई।

2022 की शुरुआत में ‘बुल्ली बाई’ नाम का ऐप सामने आया। उस पर महिलाओं के सोशल मीडिया प्रोफाइल से फोटो डाउनलोड कर के उनके साथ छेड़छाड़ की जाती थी और इन महिलाओं को ‘उपलब्ध’ दर्शाया जाता था। नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध करने वाली कई पत्रकारों और एक्टिविस्‍टों को इसने अपना निशाना बनाया।

इस संदर्भ में देखें, तो कितना हास्यास्पद जान पड़ता है कि राजनीतिक सत्‍ताधारी कैसे एक साथ हिंदू और मुसलमान औरतों की रहनुमाई का लबादा ओढ़े रहते हैं। एक ओर तो वे तथाकथित ‘लव जिहाद’ का आह्वान कर के हिंदू लड़कियों को मुस्लिम दरिंदों से बचाने की दुहाई देते हैं। दूसरी तरफ वे मुस्लिम औरतों को तीन तलाक और हिजाब से ‘मुक्ति’ दिलवाने लग जाते हैं। सुरक्षा और नफरत की यह दुधारी तलवार आज हमारी राष्ट्रीय राजनीति का आधार बन चुकी है, जो अल्‍पसंख्‍यकों को डराकर स्‍त्री-द्वेष की आग में घी डाल रही है। यहां औरतों की सहमति, स्वायत्तता और इच्छा के लिए कोई जगह नहीं है।

अपराधियों के ऐसे बचाव में बहुसंख्यकवादी राजनीति, पितृसत्ता और राज्यसत्ता के बीच साठगांठ की कलई खुल जाती है। गुजरात में 2002 में बिलकिस बानो के साथ हुआ सामूहिक बलात्कार इसका ज्‍वलन्‍त उदाहरण है। बलात्‍कार और परिवार के सदस्यों की हत्या के जुर्म में उम्रकैद की सजा पाए 11 मुजरिमों को 15 अगस्त, 2022 को जेल से रिहा कर दिया गया। बाहर आने पर उनका मिठाइयों और मालाओं से स्वागत किया गया। भाजपा के विधायक सी.के. राउलजी ने उन्हें ‘ब्राह्मण’ और ‘संस्कारी’ बताया। राउलजी दो भाजपा नेताओं वाले गुजरात सरकार के उस पैनल का हिस्सा थे जिसने सर्वसम्मति से बलात्कारियों को रिहा करने का फैसला किया था। सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार के इस फैसले को हाल में रद्द कर के सभी मुजरिमों को आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया है।

हरियाणा के देहात से आने वाली महिला पहलवानों ने विश्व मंच पर अपनी उपलब्धियों से भारत को गौरवान्वित किया है। किसी भी भारतीय महिला के लिए खेल की पुरुष-प्रधान दुनिया में इतनी ऊंचाई हासिल करना अपने आप में संघर्ष की एक मिसाल है। यह संघर्ष हालांकि और कठिन तब हो जाता है जब इसमें पुरुषों के शिकार से बचना भी शामिल हो जाए। और ख़ासकर तब, जब शिकार करने वाला एक सांसद हो जो भारतीय कुश्ती महासंघ का मुखिया भी है।

28 मई, 2023 को जब नए संसद भवन का उद्घाटन हुआ, उसी दौरान जंतर-मंतर पर कुश्ती महासंघ के खिलाफ प्रदर्शन कर रही महिला पहलवानों पर पुलिस का कहर टूटा। उस दिन पता चला कि एक आरोपी को बचाने के लिए सत्ता किस हद तक जा सकती है। विडंबना तो यह है कि भाजपा सरकार के ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ अभियान की ब्रांड एंबेसडर रही साक्षी मलिक ने कुश्ती छोड़ने की घोषणा कर दी। इसके तुरंत बाद पहलवान बजरंग पुनिया और विनेश फोगाट ने भी प्रधानमंत्री को अपने राष्ट्रीय पुरस्कार लौटा दिए।


कैसरगंज का सांसद भाजपा की मजबूरी क्यों बना हुआ है?


अपराधियों का संस्थागत संरक्षण शिक्षित और साहसी महिलाओं के लिए इंसाफ की राह में गंभीर अड़चनें पैदा करता है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई और तहलका पत्रिका के प्रधान संपादक तरुण तेजपाल को ऐसे ही मामलों में बरी किया जाना संस्‍थागत संरक्षण की मिसाल है। दिसंबर 2023 में उत्तर प्रदेश में एक महिला सिविल जज ने भारत के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर आत्मदाह की इच्छा जाहिर की थी क्‍योंकि एक जिला जज के खिलाफ वह महज एफआइआर दर्ज करवाने के लिए महीनों से संघर्ष कर रही थी।

अपनी देह की स्वायत्तता और उसकी अखंडता के लिए औरतों की लड़ाई अदालत के कमरों से बहुत आगे की चीज है। यौन हिंसा को किसी भी रूप में बर्दाश्त करना हमें उसका सह-अपराधी बनाता है। समाज के कुछ तबके ऐसे मामलों में खुद जज बनकर फतवे सुनाते हैं कि किसे बचाया जाना है और किसे दंडित किया जाना है। इस मामले में नेता हो चाहे जनता, सबकी नैतिक जमीन दरक चुकी है। इसने चौतरफा भ्रम पैदा कर दिया है।

 

याद कीजिए कैसे निर्भया गैंगरेप कांड के छह दोषियों में से चार को 20 मार्च 2020 की सुबह फांसी दे दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को ‘दुर्लभतम’ की संज्ञा दी थी। इस घटना ने समाज की सामूहिक अंतरात्‍मा को झकझोर कर रख दिया था। प्रभावी न्याय तंत्र और त्वरित सुनवाई के अभाव में मृत्युदंड राज्य के हाथों में एक औजार बन जाता है। डरी हुई जनता को शांत करने के लिए यह भले उपयोगी हो, लेकिन ऐसा करते हुए राज्य संवैधानिक रूप से प्रदत्‍त अनिवार्य कर्तव्यपालन से चूक जाता है जिसमें उसे महिलाओं को बचाने के लिए एक तय प्रक्रिया अपनाने की बात कही गई है।  

नारी समूहों ने हमेशा से न्याय के लिए बदला लेने के तरीकों का विरोध किया है। लोकतांत्रिक अधिकारों का आंदोलन हमेशा से मृत्युदंड के खात्‍मे की बात करता रहा है। जब तक यह कानूनी प्रावधान बना रहेगा, तब तक यौन उत्पीड़न के मामलों में इसके उपयोग पर बहस होती रहेगी। सवाल यह है कि सामूहिक भावना के नाम पर यह फर्जीवाड़ा किसकी शह पर चल रहा है? जनता जहां मध्‍ययुगीन बर्बरता से खून मांगती हो, उस समाज में आखिर किस तरह के लोकाचार को स्वीकृति दिलवाई जा रही है?

जब आम लोग मुठभेड़ के नाम से की जानी वाली न्‍यायेतर हत्याओं में राजकीय मशीनरी का जश्‍न मनाते हैं, तब भी यही चिंताजनक प्रवृत्ति दिखती है। नवंबर 2019 में तेलंगाना सरकार ने हैदराबाद में 26 वर्षीय एक महिला पशु चिकित्सक के यौन उत्पीड़न के चार आरोपियों को गिरफ्तार किया। जनता के आक्रोश के जवाब में राज्य सरकार ने एक फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना का आदेश दिया। अगले ही दिन चारों आरोपियों को पुलिस ने मौका-ए-वारदात पर ढेर कर दिया। पुलिस के अनुसार, जब मौका-ए-वारदात पर अपराध का दृश्‍य गढ़ने की कोशिश की जा रही थी, तब आरोपियों ने उनकी बंदूकें छीन लीं और आत्मरक्षा में पुलिस को गोलियां चलानी पड़ीं। कुछ लोगों ने पुलिसकर्मियों पर गुलाब की पंखुड़ियां बरसाकर जोरदार जयकारे भी लगाए। चारों आरोपियों की मुठभेड़ की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित न्यायमूर्ति वी. एस. सिरपुरकर आयोग ने निष्कर्ष दिया कि पुलिस ने जान-बूझ कर आरोपियों पर गोली चलाई थी ‘’ताकि उनकी मौत हो जाए’’।


मैनपुरी का दलित नरसंहार: चार दशक बाद आया फैसला और मुखौटे बदलती जाति की राजनीति


महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में प्रतिक्रियास्वरूप की जाने वाली मुठभेड़ का महिमामंडन राज्य के अहंकारी होने की ओर से ध्‍यान भटका देता है। इस संदर्भ में विमेन अगेंस्‍ट सेक्‍सुअल वायलेंस एंड स्‍टेट रिप्रेशन (डब्‍ल्‍यूएसएस) का यह बयान अहम है कि एक‍ बस ड्राइवर की फांसी और हत्या की मांग करना तो आसान है, पर उन पिताओं, चाचाओं, भाइयों, धर्मगुरुओं, सुरक्षाबलों और सेना के जवानों का क्या जो बिना किसी सजा के डर के खुलेआम बलात्कार जारी रखे हुए हैं क्‍योंकि उन्‍हें कानूनी और सामाजिक संरक्षण प्राप्‍त है। सामूहिक विवेक यहीं पर तय कर देता है कि किसे दंडित किया जाना चाहिए और किसे नहीं: यानी झुग्गीवासियों और मजदूरों को, लेकिन धर्मगुरुओं, शिक्षाविदों, न्यायविदों या बाहुबलियों को नहीं। यानी, मामला केवल ताकतवर लोगों के हक में बैठे राज्य या न्याय प्रणाली का नहीं है, यहां और भी बहुत कुछ चल रहा है।

एक बलात्कारी को यही सामूहिक विवेक इस देश में संत बना देता है जिसके चलते वह बड़ी आसानी से अपने किए जुर्म से इनकार कर पाता है। आसाराम बापू पर 2013 में बलात्‍कार का आरोप लगा था और उसे दोषी 2018 में ठहराया गया, लेकिन इस बीच उसके अनुयायियों ने- जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं भी शामिल थीं- दिल्ली के जंतर-मंतर और अन्य स्थानों पर लगातार धरने आयोजित किए। ऐसे गुरु लंबे समय के लिए पैरोल पर रिहा कर दिए जाते हैं और तमाम नेता, मंत्री और नौकरशाह खुलेआम इनसे मिलने भी आते हैं। इस सामूहिक विवेक के पीछे कौन सी नैतिकता काम करती है, उसे भी समझ लेना चाहिए।

समाजशास्त्र के चश्‍मे से देखें तो हम पाते हैं कि नैतिक आलोचना के मामले में कमजोर रहे समाजों ने धीरे-धीरे जब कुछ बुनियादी विश्‍वासों और प्रवृत्तियों को अपने भीतर विकसित किया, तो उनमें एक सामूहिक विवेक विकसित हुआ। समाज ने इस सामूहिक विवेक को लोकमंगलकारी माना। मौजूदा सामाजिक और सांस्‍कृतिक वातावरण में इसी सामूहिक विवेक को नकली तौर से गढ़ा जा रहा है ताकि वह बहुसंख्‍यकों के एजेंडे को पुष्‍ट कर सके। ऐसा करने के लिए बहुसंख्‍यक की नजर में ‘गैर’ माने जाने वाले समुदायों को कलंकित, अपमानित और आहत किया जा रहा है।


हिन्दू मर्दों के सपने में कश्मीरी लड़कियां क्यों आती हैं?


बहुसंख्यक की मनमर्जी के हिसाब से यह नकली चेतना गढ़ी जा रही है। संविधान की प्रस्तावना ‘हम भारत के लोग’ कहती है, लेकिन बहुसंख्यकवाद ने इसे बांट दिया है और ‘गैरों’ के लिए संवैधानिक नियमों व कानूनों को नाकाम कर रहा है। आज सामूहिक विवेक को नकली तरीके से गढ़े जाने की समझ बनाने के लिए उस उन्माद के सिरों को पकड़ने की जरूरत है जिसे बड़ी चालाकी से हर बार उकसा दिया जाता है। अपराधी अगर मुसलमान या दलित या कोई ड्राइवर है और पीड़ित सवर्ण है, तो सामूहिक विवेक यकायक जागृत हो जाता है और कड़ी सजा की मांग करने लगता है, परंतु अपराधी यदि कोई सवर्ण, धर्मगुरु, बुलडोजर चलाने वाला राज, चर्च तोड़ने वाला हिंदू या भाजपा का विधायक-सांसद है और पीड़ित एक मुस्लिम, दलित या आदिवासी है तो वही सामूहिक विवेक अपराधी को बरी कर देता है।

यदि अपराधी और पीड़ित दोनों ही सवर्ण हैं, जैसा कि हमने शोधकर्ताओं या कानून के इंटर्न और पत्रकारों या अदालत के कर्मचारियों के मामले में देखा है, तो ताकत वर्ग और पितृसत्‍ता के हिसाब से काम करती है। दूसरों को दबाने के उद्देश्य से बनाई गई ये रणनीतियां हर जगह काम आती हैं- सरकारी संस्‍थानों और न्यायपालिका से लेकर मीडिया घरानों और शैक्षणिक संस्थानों तक। यानी हम पाते हैं कि सामूहिक विवेक का सीधा सा मतलब है स्‍वार्थ, झूठ और धोखा।

यौन अपराधों पर हल्की टिप्‍पणी कर के निकल जाना भी जवाबदेही या जिम्मेदारी से पल्‍ला झाड़ लेने के बराबर है। मसलन, बलात्‍कार के कारणों में फटी हुई जींस से लेकर चाउमीन खाने तक को सार्वजनिक बयानों में बताया गया है। उत्तर प्रदेश महिला आयोग की एक सदस्य ने टिप्पणी की थी कि बढ़ते यौन हमलों का मुख्य कारण मोबाइल फोन है। मुख्यधारा का मीडिया ऐसी अपमानजनक महिला-विरोधी टिप्पणियों को खूब चलाता है। ऐसे अधकचरे सच और झूठ को प्रचारित करने में भी मीडिया अपनी भूमिका निभाता है। इससे निष्पक्ष सुनवाई की संभावना बाधित होती है।

संसद के सत्रों में नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप से मची अफरा-तफरी भी अपराधियों की दंडमुक्ति में मदद करती है। याद करें जब जुलाई 2023 में मानसून सत्र शुरू हुआ और विपक्ष ने मणिपुर में जारी हिंसा पर चर्चा की मांग की जिससे भयंकर अराजकता पैदा हो गई थी। कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने जब प्रधानमंत्री की उपस्थिति पर जोर दिया तो उनका माइक बंद कर दिया गया। उलटे, राज्यसभा में भाजपा के नेता पीयूष गोयल ने कहा कि उन्हें विपक्ष-शासित राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर भी चर्चा करनी चाहिए। इस पर सत्ता-पक्ष के सांसद जोर-जोर से मेजें थपथपाकर ‘मोदी, मोदी’ के नारे लगाने लगे, जिसके बाद विपक्ष ‘मणिपुर, मणिपुर’ चिल्लाने लगा। ऐसे सियासी माहौल में जब एक जुर्म के बदले दूसरे जुर्म को गिनवाया जाता है, अपराधों की संजीदगी कम हो जाती है।


‘पॉप’ हिंदुत्‍व: तीन संस्‍कारी नायक और उनकी कुसांस्‍कृतिक छवियां

ऐतिहासिक ‘सभ्यताएं’ हिंसा, जोर-जबर, और औरतों के दमन पर टिकी थीं!


समाजवादी पार्टी के दिवंगत मुखिया मुलायम सिंह यादव ने अप्रैल 2014 में यौन उत्पीड़न के मामलों में मृत्युदंड का विरोध यह कहते हुए किया था कि ‘लड़के तो लड़के ही रहेंगे’ और लड़कों से गलतियां हो ही जाती हैं लेकिन उन्हें फांसी देने की जरूरत नहीं है। उन्होंने बलात्कार के मामले में मृत्युदंड को समाप्त करने के लिए कानून में संशोधन करने का आश्वासन दिया लेकिन ध्यान दें कि उक्त बयान केवल बलात्कार के दोषियों के मामले में था।

भारत में जो मौजूदा राज है, वह राज्यसत्ता और पितृसत्ता के संकटग्रस्‍त इतिहास की पैदाइश है। गुजरात की सांप्रदायिक हिंसा पर चर्चा के दौरान केंद्रीय मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस ने का मई 2002 में एक कुख्यात बयान आया था, ‘बलात्कार में नया क्या है?’ आपातकाल-विरोधी आंदोलन के एक प्रमुख नेता के रुख में यह बदलाव एनडीए की तत्‍कालीन सरकार में अपनी स्थिति सुरक्षित करने के लिए उठाया गया एक सोचा-समझा कदम था। फर्नांडीस के इस सवाल ने गुजरात में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ बड़े पैमाने पर हुई आम हिंसा और यौन उत्पीड़न में मुख्यमंत्री मोदी की कथित संलिप्तता से ध्यान भटका दिया। विडंबना देखिए कि दस साल बाद दिसंबर 2013 में नई दिल्ली के विधानसभा चुनाव में मोदी ने लोगों से निर्भया को याद रखने का आग्रह किया।

बिलकुल यही व्‍यवहार हाल में भाजपा के निवर्तमान सांसद बृजभूषण सिंह का दिखा, जो खुद तो यौन उत्‍पीड़न के केस में जमानत मांग रहे थे लेकिन मणिपुर की लड़कियों के वीडियो को उन्‍होंने ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ बता दिया। इसी तरह भाजपा के केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने महिला पहलवानों के साथ यौन हिंसा के आरोपों की जांच के लिए एक समिति बनाने का आश्वासन दिया था, जबकि फरवरी 2020 में उन्‍हीं के मुस्लिम-विरोधी भाषण से उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंसा भड़की थी जब उन्होंने ‘गोली मारो सालों को’ का आह्वान किया था। अपने कथित अपराधों को छुपाने के लिए मौजूदा शासन बड़ी सावधानी के साथ ऐसे दोहरे मानदंड अपनाता रहा है।

महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर रिपोर्टिंग करते समय मीडिया अक्सर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी की उपेक्षा करता है। चूंकि मीडिया सामूहिक चेतना को प्रभावित करता है, इसलिए उसकी सुस्‍ती सीधे न्यायहीनता में योगदान देती है। जब भीड़ आरोपियों का समर्थन करती है, कानूनी प्रक्रिया में दखल डालती है या जमानत पर बाहर अपराधियों के लिए जयकारे लगाती है, तो मीडिया इसे हेडलाइन बनाता है। सवाल उठाने या खोजी रिपोर्टिंग करने के बजाय मीडिया उसी अफसाने को वापस दिखाता है जो बाहर घट रहा है। इस तरह वह एक ऐसी जन अदालत लगा बैठता है जहां इंसान को इंसान नहीं समझा जाता और मर्दानगी का खुलकर महिमामंडन होता है।  


गुजरात हाइकोर्ट के जज ने बलात्कार पीड़िता के वकील को मनुस्मृति पढ़ने का सुझाव क्यों दिया?


कभी-कभार समाचार चैनल प्रथमदृष्टया साक्ष्य के हवाले से एफआइआर या ‘सरवाइवर’ के बयान पर ही संदेह पैदा कर देते हैं। पीडि़त की जाति पर सवाल उठाने की प्रवृत्ति भी आजकल पैदा हो गई है। महिला के चरित्र-जांच की सदियों पुरानी प्रथा आज समाचारों में बहस का विषय है। चरित्र-निर्णय में गहरी जड़ें जमा चुकी यह लैंगिकता आठ साल की आसिफा बानो तक को नहीं बख्‍शती। इस तरह की रिपोर्टिंग मीडिया को उन तथ्यों और परिस्थितियों को उजागर करने की सामाजिक जिम्मेदारी से मुक्त कर देती है जो जांच में मदद या इंसाफ़ को बढ़ावा दे सकते थे।

इस देश में चौबीसों घंटे दंडमुक्ति की सुई घूम रही है- चाहे वह सामूहिक विवेक का आह्वान करने वाली अदालतें हों या बलात्कारी बाबाओं की पूजा करने वाली महिलाएं, या फिर एक-दूसरे पर दोषारोपण करने वाला राजनीतिक वर्ग। यह न केवल यौन हिंसा के कृत्‍य को हमारी नजरों से ओझल कर देती है, बल्कि एक सामाजिक अपराध के रूप में इसके उपयोग का मजबूती से बचाव भी करती है। यह महिलाओं और अल्पसंख्यक समुदायों को दबाने के लिए यौन हिंसा को एक ‘वैध’ राजनीतिक हथियार के रूप में पुष्‍ट करती है। महज संयोग नहीं है आज भाजपा के शासन में दंडमुक्ति की यह संस्कृति और इसकी तमाम प्रवृत्तियां एक छतरी के तले संगठित हो गई हैं।

 

भारतीय समाज में राज्य-जाति-पितृसत्ता के गठजोड़ से उत्पन्न चुनौतियां हिंदू दक्षिणपंथी ताकतों के सत्‍ता में आने से गहरी हो गई हैं। दूसरी ओर नवउदारवादी अर्थव्यवस्था अपने कार्यक्रमों और नीतियों को लागू करने पर आमादा है ताकि भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन सके। ऐसे में पूंजीवाद ने राज्यसत्ता के साथ बड़ी चालाकी से साठगांठ कर ली है। उसे राज्‍यसत्‍ता की विचारधारा से कोई मतलब नहीं है। अपने एजेंडे को पूरा करने के चक्‍कर में पूंजीवाद बहुसंख्यक भावनाओं और आकांक्षाओं को वैध बनाने के हिंदुत्व के एजेंडे को प्रोत्साहित कर रहा है।

नतीजा सामने है- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 2022 की रिपोर्ट देश में हाशिये पर मौजूद कमजोर वर्गों के खिलाफ दर्ज किए गए अपराधों की संख्या में वृद्धि को दर्शाती है। ये वे समूह हैं जिन्हें सभी स्तरों पर संरचनात्मक अड़चनों और संस्थागत उदासीनता का सामना करना पड़ता है- थाने में एफआइआर दर्ज कराने से लेकर कानूनी सहायता और न्‍याय के अगले चरण पर पहुंचने तक (इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली, 2023)। यानी समाज में पहले से जो दरारें मौजूद थीं, उन्‍हें जान-बूझ कर और चौड़ा किया गया है।

महिलाओं के समूह जब सत्तर के दशक से लेकर अब तक की अपनी यात्रा पर नजर डालते हैं, तो पाते हैं कि समाज तथा कानून व नीति निर्माताओं द्वारा बलात्कार को एक अपराध के रूप में स्वीकार करवाने के लिए चलाया उनका संघर्ष बहुत चुनौतीपूर्ण रहा है। इस संघर्ष में न केवल कानूनी सुधारों की वकालत शामिल रही, बल्कि समाज में जागरूकता बढ़ाने का काम भी हुआ। मसलन, बलात्कार से जुड़े कुछ मिथकों को ध्‍वस्‍त किया गया- जैसे पीड़ित को दोषी ठहराया जाना या पुरुष-वासना के बहाने इसे जायज ठहराया जाना- और इस तरह अपराध से जुड़ी सामंती और पितृसत्तात्मक धारणाओं को गलत साबित किया गया। इसी तरह हिरासत में बलात्कार- चाहे वह थाने में हुआ हो या राजकीय संस्थानों में- को चुनौती दी गई जो कि सीधे-सीधे एक पितृसत्तात्मक राज्य में ताकत के नाजायज इस्‍तेमाल से लड़ने के जैसा था। कश्मीर और पूर्वोत्तर में सशस्त्र बलों और अर्धसैन्‍य बलों को दी गई दंडमुक्ति को भी महिला समूहों ने चुनौती दी और जवाबदेही की मांग उठाई है।


NWMI is organising a panel discussion on the case of mass sexual abuse in Karnataka
कर्नाटक के रेवन्ना कांड पर NWMI की आगामी परिचर्चा का पोस्टर

सामूहिक हिंसा की स्थितियों में राजनीतिक दलों और राज्यतंत्र द्वारा समर्थित राज्‍येतर तत्‍व समुदायों को दबाने के लिए अक्सर यौन हिंसा का इस्तेमाल करते हैं। चाहे जातिगत अत्याचार के मामले हों या सांप्रदायिक हिंसा के, महिलाओं के खिलाफ हिंसा का उद्देश्य इन समुदायों के पुरुषों को अपमानित करना होता है। महिला समूहों ने विकास के लिए भूमि और संसाधनों पर कब्‍जे के खिलाफ प्रतिरोध को दबाने के लिए राज्य द्वारा बलात्कार को आतंक के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करने पर भी सवाल उठाया है। यौन उत्पीड़न की जांच के लिए एक मानक प्रोटोकॉल स्थापित करना हो, या फिर गवाहों की सुरक्षा की मांग या पुनर्वास उपायों की वकालत, महिला समूहों का हर एक कदम एक संघर्ष रहा है।

जस्टिस वर्मा समिति की 2013 में आई रिपोर्ट ने वैवाहिक बलात्कार और सशस्‍त्र बलों द्वारा की जाने वाली यौन हिंसा को संबोधित करने की सिफारिश की थी। विभिन्न संगठनों की सिफारिशों के बावजूद ऐसा नहीं किया गया। यह आज भी सामूहिक निराशा का कारण बना हुआ है। इस निरंतर जारी संघर्ष के बीच बलात्कारियों को सम्मानित करने की एक प्रतिगामी प्रथा जन्‍म ले चुकी है और पीड़िता के परिजनों का पॉलीग्राफ परीक्षण कराए जाने का चलन भी उतना ही निंदनीय है।

भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार और उसके वैचारिक घटक मनुस्मृति में वर्णित जाति-वर्चस्व और स्त्री-द्वेष पर आधारित हिंदुत्‍व का प्रसार कर रहे हैं। यह हिंदुत्व मर्दों की एक आक्रामक और दमनकारी छवि को प्रचारित करता है। राज्‍य, बुलडोजर और मुठभेड़ में की जाने वाली हत्या जैसी कार्रवाइयों से इस छवि को पलट कर पुष्‍ट करता है। हिंदुत्व की परियोजना में शामिल ऐसे युवा जिन्‍हें राजनीतिक सरपरस्‍ती मिली हुई है, इस आक्रामक और विजयोन्‍मादी छवि की ओर आकर्षित होते हैं। उदाहरण के तौर पर, बनारस के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बीएचयू के परिसर में बीटेक की एक छात्रा के साथ जिन तीन युवकों ने सामूहिक बलात्कार किया था उनमें दो भाजपा के आइटी सेल से थे।


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हिंदुत्ववादी ताकतें ऊंची जाति के बलात्कारियों को बचाने के लिए औरतों को लामबंद करती हैं। इन औरतों को हमने बलात्‍कार के दोषी बाबाओं की रिहाई की मांग करते हुए जुलूसों और धरनों में अक्सर देखा है। पुरुषों के हित में नियंत्रित ढंग से काम कर रही ये औरतें अनजाने में अपने ही हितों के खिलाफ चली जाती हैं। पितृसत्‍ता को मानने वाले लोगों ने फैलती हुई बहुसंख्यकवादी विचारधारा को अब आत्मसात कर लिया है। दूसरी ओर, किसी विचारधारा को न मानने वाली सामुदायिक पहचानों के प्रतिक्रियावादी हो जाने का जोखिम भी है। लेकिन यौन हिंसा को न तो सामुदायिक सम्मान और न ही धार्मिक पहचान के सहारे जायज ठहराया जा सकता है।

यौन हिंसा के कलंक और जख्‍म को कायदे से भरने में बहुत लंबा समय लगता है। जो बच जाते हैं, उन्‍हें और उनके परिवारों को बरसों विस्‍थापन और आर्थिक अस्थिरता की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कीमत चुकानी पड़ती है (नो नेशन फ़ॉर विमेन: रिपोर्ताज ऑन रेप फ्रॉम इंडिया, प्रियंका दुबे, 2018)। क्या हम एक ऐसे सामूहिक विवेक को दोबारा गढ़ने की कल्पना कर सकते हैं जो समाचार रिपोर्टों, चिकित्सा परीक्षणों और पोस्टमॉर्टम के सामूहिक आघात को थोड़ा कम करने लायक करुणा जगा सकता हो? एक ऐसा विवेक, जो अदालत और मीडिया में चले मुकदमों से अनुभूत बलात्‍कृत के गुस्से और अपमान को थोड़ा सुकून दे सके?  इन सवालों पर सोचते हुए यह याद रखा जाना होगा कि जो औरतें तमाम अड़चनों के बावजूद इंसाफ़ मांग रही हैं, वे सिर्फ अपने लिए नहीं बोल रहीं। उनकी आवाज एक समूचे समाज के भविष्य की खातिर है।


यह लेख मूल अंग्रेजी में यहां पढ़ा जा सकता है। मामूली संशोधनों के साथ इसका अनुवाद दिल्‍ली स्थित लेखक, अनुवादक और सामाजिक कार्यकर्ता राजेंद्र सिंह नेगी ने किया है।


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